तत्त्व-विचार
एक सज्जन निम्नलिखित चार प्रश्न करते हैं—
प्रश्न १—केवल एक ईश्वरकी शरणसे ही मनुष्य परमपदको प्राप्त हो सकता है और ईश्वरकी शरणके समान दूसरा कोई सरल तथा सुगम मार्ग नहीं है तो फिर हठयोग, राजयोग, कर्मयोग और सांख्ययोग आदि नाना प्रकारके कठिन मार्ग क्यों बतलाये जाते हैं?
उत्तर १—ईश्वरकी शरणके समान दूसरा कोई सरल मार्ग नहीं है, यह सर्वथा सत्य है। इसीलिये भगवान् ने गीतामें मुक्तिके नाना मार्ग दिखलाकर अन्तमें सबका सार यही बतलाया है कि ‘तू सम्पूर्ण धर्मों (के आश्रय)-को छोड़कर केवल एक मेरी शरण हो जा, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे छुड़ा दूँगा, शोक मत कर।’
महर्षि पतंजलिने भी योगदर्शनमें ईश्वर-शरणागतिको ही सबसे सहज उपाय बतलाया है।
‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’
(१।२३)
‘तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च।’
(१। २९)
‘समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्’
(२।४५)
इत्यादि सूत्रोंद्वारा केवल ईश्वरप्रणिधानसे ही सम्पूर्ण विघ्नोंका नाश और परमपदकी प्राप्ति बतलायी गयी है।
जिस समय विभीषण भगवान् की शरण आये हैं, उस समय स्वयं भगवान् सुग्रीवको कहते हैं।
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥
(वा० रा० ६। १८। ३३)
‘जो पुरुष एक बार भी मेरी शरण होकर प्रार्थना करता है कि मैं तेरा हूँ उसको मैं सम्पूर्ण भूतोंसे अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है’—
‘मम पन सरनागत भयहारी’
महाभारतके अनुशासनपर्वमें युधिष्ठिरके प्रति पितामह भीष्मजीने कहा है—
वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायण:।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्॥
(१४९। १३०)
‘भगवान् वासुदेवके आश्रित और वासुदेवके परायण हुआ मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे पवित्र होकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।’
इसी प्रकार कठोपनिषद् में नचिकेताके प्रति भगवान् यमने भी कहा है—
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥
(१। २। १७)
‘इसका आश्रय यानी शरण श्रेष्ठ है, यह आश्रय सर्वोत्कृष्ट है, इस आश्रयको जानकर ब्रह्मलोकमें पूजित होता है।’
इस तरह श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण और शास्त्रोंमें जगह-जगह ‘ईश्वर-शरण’ की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है। अतएव केवल एक परमेश्वरकी शरणसे ही मनुष्य परमपदको प्राप्त हो सकता है इसमें कोई संशय नहीं और यही सबकी अपेक्षा सुगम और सरल मार्ग भी है। परन्तु जैसे कोई उदरके अनेक रोगोंसे पीड़ित मूर्ख रोगी हरीतकीके गुण और प्रभावको न जाननेके कारण उसमें विश्वास नहीं करता, केवल हरीतकी मात्रके सेवनसे उदरके सब रोगोंकी निवृत्तिको असम्भव समझता है, अत: उसके लिये चतुर वैद्य हरीतकीको छोड़कर या अन्य प्रकारकी हरीतकी-मिश्रित अन्यान्य नाना प्रकारकी कठिन ओषधियोंके सेवनका प्रबन्ध करता है, वैसे ही ईश्वरके दया आदि गुण और प्रभावके रहस्यको न जाननेके कारण, जिनकी ईश्वरमें श्रद्धा और प्रेम कम है या बिलकुल ही प्रेम नहीं है अथवा जो केवल ईश्वरशरणमात्रसे मुक्ति नहीं मानते हैं, उनके लिये हठयोग, राजयोग, कर्मयोग और सांख्ययोग आदि नाना प्रकारके कठिन मार्ग बतलाये गये हैं?
प्रश्न २—स्त्री, पुत्र, धन, मकान एवं अन्य सब पदार्थ सांसारिक सुख देनेवाले हैं और पूर्वकृत सुकृतके फलरूपसे मिलते हैं, उनके क्षय और नाशमें ईश्वरकी दयाका दर्शन कैसे किया जाय?
उत्तर २—स्त्री, पुत्र, धन एवं मकान आदि सांसारिक वस्तु भोगकालमें सुखरूप दीखते हैं; किन्तु यदि विवेक-बुद्धिद्वारा देखा जाय तो सांसारिक सम्पूर्ण सुखदायक पदार्थ भी दु:खरूप ही हैं, परन्तु मोहके कारण अज्ञानी मनुष्य दु:खको ही सुख मानकर फँस जाते हैं।
जैसे मोहके कारण अज्ञानवश पतंग साक्षात् मृत्युरूप दीपशिखा, लालटैन, बिजलीकी रोशनी इत्यादिको सुख मानकर उसके संगसे जल मरते हैं, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य मोहवश साक्षात् मृत्युरूप स्त्री-धनादि सांसारिक विषय-भोगोंको सुख मानकर उनके संगसे बारंबार मृत्युके मुखमें पड़ते हैं। श्रुति कहती है—
न साम्पराय: प्रतिभाति बालं
प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी
पुन: पुनर्वशमापद्यते मे॥
(कठ० १। २। ६)
‘जो मूढ धनके मोहसे मोहित होकर प्रमत्त हो रहा है, उसको परलोक नहीं भासता। यह लोक है, परलोक नहीं है इस प्रकार माननेवाला बारंबार मेरे वशमें होता है यानी मृत्युको प्राप्त होता है।’
कोई दयालु पुरुष पतंगोंको मोहवश मृत्युकी ओर जाते देख उनके दु:खसे द्रवितचित्त हो उनके हितके लिये दीपक, बिजली या लालटैन इत्यादिकी रोशनीको कम कर देता है या बुझा देता है, किन्तु इस रहस्यको न जाननेके कारण पतंग उलटे दु:खी होते हैं और समझते हैं कि हमारी मनोकामना अपूर्ण रह गयी तो भी रोशनीको बुझानेवाले पुरुषकी तो उनपर बड़ी भारी दया समझी जाती है। ऐसे ही कंचन, कामिनी आदि विषयभोगोंके क्षय और नाशमें भी परम दयालु परमात्माकी दयाका ही दर्शन करना चाहिये।
प्रश्न ३—सिंह, सर्प, चोर, डाकू, रोग एवं विष आदि सब वस्तुएँ दु:खदायक हैं और पूर्वकृत पापकर्मके फलरूपमें प्राप्त होती हैं, इन मानसिक और शारीरिक दु:खोंकी प्राप्ति और वृद्धिमें ईश्वरकी दयाका दर्शन कैसे करें?
उत्तर ३—सिंह, सर्प, चोर, डाकू, रोग एवं विष आदिद्वारा शारीरिक और मानसिक सम्पूर्ण व्याधियोंकी प्राप्तिमें यानी शारीरिक और मानसिक सम्पूर्ण दु:खोंकी उत्पत्ति और वृद्धिमें भी विवेक-बुद्धिद्वारा विचार करनेपर ईश्वरकी दया पद-पदपर दिखलायी देती है।
(क) जैसे न्यायकारी दयालु राजा अपराध करनेवाली प्रजाको दण्ड भुगताकर पवित्र कर देता है वैसे ही परमदयालु परमात्मा पापी मनुष्यको शरीर और मनके द्वारा सांसारिक दु:ख भुगताकर पवित्र कर देता है।
(ख) जैसे दयालु वैद्य कुपथ्य करनेवाले रोगीको कुपथ्यके परिणाममें प्रत्यक्ष दोष दिखाकर कुपथ्यसे बचा देता है, वैसे ही परमदयालु परमात्मा पापोंके परिणामरूप दु:खके समय भक्तके हृदयमें इस प्रकार प्रेरणा कर देता है कि यह दु:ख तेरे पूर्वमें किये हुए पापोंका फल है। इससे उसकी पाप करनेकी वृत्ति क्षय होती जाती है।
(ग) विवेक-बुद्धिद्वारा दु:खोंको सहन करनेसे आत्मबलकी वृद्धि होती है, उसमें वीरता, धीरता, गम्भीरता और तितिक्षा आदि गुण बढ़ते हैं। सुन्दरदासजीने कहा है—
सुन्दर सोई सूरमा लोट-पोट हो जाय।
ओट कछू राखे नहीं चोट हृदयपर खाय॥
—इस प्रकार सहन करते-करते वे वीर पुरुष भगवत्की दयासे भगवत्-प्राप्तिके पात्र बन जाते हैं। भगवान् ने कहा है—
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥
(गीता २। १५)
‘हे पुरुषश्रेष्ठ! दु:ख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर पुरुषको यह इन्द्रियोंके विषय व्याकुल नहीं कर सकते, वह मोक्षके योग्य होता है।’
(घ) शारीरिक क्लेशकी प्राप्ति होनेपर उसको परम तप मानकर सहन करनेसे परम तपके फलकी प्राप्ति है, बृहदारण्यक उपनिषद् के ११वें ब्राह्मणमें इसका वर्णन है।
(ङ) भगवान् श्रीकृष्ण जब कुन्तीदेवीको वर देने लगे तब कुन्तीदेवीने कहा कि विपत्तिकालमें आप विशेष याद आते हैं, अतएव मैं आपसे सदा विपत्ति ही माँगती हूँ। किसी कविने भी कहा है—
सुखके माथे सिल पड़ो, जो नाम हृदयसे जाय।
बलिहारी वा दु:खकी जो पल पल राम जपाय॥
(च) शर-शय्यापर शयन करते हुए पितामह भीष्म कहते हैं कि ‘मैंने जो कुछ भी पाप किये हैं वे सब रोगरूपसे प्राप्त हो जायँ और मुझे सदाके लिये उऋण बना दें, मेरा पुनर्जन्म न हो।’
अतएव मनुष्यको उचित है कि वह पद-पदपर ईश्वरकी दयाका दर्शन करते हुए दु:खोंको ईश्वरका प्रदान किया पुरस्कार समझकर आनन्दके साथ उन्हें स्वीकार करे।
प्रश्न ४—श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायके १९वें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि ‘जो इस आत्माको मारनेवाला समझता है तथा जो इस आत्माको मरनेवाला समझता है वे दोनों ही ठीक नहीं समझते, क्योंकि यह आत्मा न किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जा सकता है।’ और २०वें श्लोकमें कहते हैं कि ‘शरीरके नाश होनेपर आत्माका नाश नहीं होता।’ इस कथनका असली आशय क्या है? क्योंकि इसके तात्पर्यको न समझनेवाले मूर्ख लोग इसका विपरीत अर्थ मान लेते हैं और कहते हैं कि श्रीभगवान् अर्जुनको इस प्रकारका उपदेश देकर जब मनुष्योंको ही मारनेके लिये उत्साहित करते हैं तो फिर पशु, पक्षियोंको मारनेमें हिंसा और पाप क्यों मानना चाहिये?
उत्तर ४—श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायके श्लोक १९ एवं २० में भगवान् का तात्पर्य शोक, स्नेह और मोहके कारण क्षात्र-धर्मसे विचलित हुए अर्जुनके कल्याणके लिये विकार और क्रियारहित अविनाशी आत्माकी नित्यता और नाशवान् शरीरकी अनित्यता दिखलाकर तत्त्व-ज्ञानका उपदेश देना एवं दुष्टोंका संहार करनेके उद्देश्यसे अर्जुनको उत्साह दिलाकर धर्मयुक्त युद्धमें लगाना प्रतीत होता है।
यहाँ पशु, पक्षी आदि जीवोंके प्राण-वियोगके विषयमें भगवान् का कुछ भी कहना नहीं है। इन श्लोकोंसे मोहवश पशु-पक्षी आदि जीवोंके प्राण-वियोगका आशय निकालना सर्वथा अनुचित एवं प्रसंगविरुद्ध है। निरपराधी पशु-पक्षी आदि जीवोंके प्राण-वियोगको हिंसा न समझकर मोहसे या स्वार्थ-सिद्धिके लिये किसी जीवको मारना केवल मूर्खता ही नहीं, पाप है।
(क) विकार और क्रियारहित नित्य, अचल, चेतन, अव्यक्त,अव्यय, अज, अविनाशी आत्माका किंचिन्मात्र भी किसी प्रकार क्षय या नाश नहीं हो सकता और यह शरीर अन्तवन्त यानी क्षणभंगुर, अनित्य होनेके कारण अवश्यमेव ही नाशवान् है। इस प्रकार आत्मा और शरीरका तत्त्व भगवान् ने अर्जुनको इसलिये बतलाया कि वह युद्धमें अपने या प्रियजनोंके शरीर-नाशसे आत्माका नाश एवं आत्मामें विकार न मान ले। क्योंकि आत्मा न तो हनन-क्रियाका कर्म है और न कर्ता ही है।
(ख) नीति और धर्मसे सम्मत होनेके कारण क्षात्र-धर्मके अनुसार युद्धमें मनुष्योंका मारना भी पाप नहीं है। बारह वर्षका वनवास एवं एक वर्षका अज्ञातवास भोगकर भी धरोहररूपसे रखा हुआ राज्य न मिलनेके कारण अर्जुनको दुर्योधनादिके साथ युद्ध करनेके लिये तैयार होना पड़ा था। इसी हेतु अर्जुनके लिये यह युद्ध धर्ममय बतलाया गया। नहीं तो क्रोध, लोभ या मोहके वशमें होकर मन, वाणी या शरीरसे किसी भी जीवको किंचिन्मात्र भी दु:ख पहुँचाना पाप है, फिर प्राण-वियोगकी तो बात ही क्या है।
(ग) नीति और धर्मके विरुद्ध होनेके कारण दुर्योधनादिके लिये यह युद्ध पापमय था। क्योंकि वनवाससे आये हुए पाण्डवोंको धरोहररूपसे रखा हुआ उनका राज्य माँगनेसे समयपर न लौटाना महापाप था।
इतना ही नहीं, दुर्योधन आदि स्वार्थ और मोहके वशमें होकर पाण्डवोंके साथ बहुत अत्याचार किया करते थे। भीमको विष देना, पाण्डवोंको लाक्षाभवनमें जलाकर नाश करनेकी व्यवस्था करना, युधिष्ठिरको छलसे जुएमें हरा देना, निरपराधिनी सती द्रौपदीका भरी सभामें वस्त्र हरण करना एवं उसके केश पकड़कर खींचना, वनमें पाण्डवोंको क्लेश देनेके लिये जाना, बिना ही अपराध विराटकी गौओंको हरण करना, न्याययुक्त सन्धि न कर पापमय युद्धके लिये हठ करना, भगवान्श्रीकृष्णके समझानेपर भी न मानना एवं उनको कैद करनेके लिये कोशिश करना इत्यादि बहुत-से पापोंके कारण वे कुटुम्बसहित मारनेके योग्य समझे गये।
(घ) पाण्डव धर्मात्मा थे और दुर्योधनादि पापी थे। इसीलिये दलदलमें फँसी हुई गौकी तरह राज्य और प्रजाको दुष्टोंके हाथसे छुड़ाकर धर्मात्मा पाण्डवोंको सौंपने एवं उनका यश बढ़ानेके उद्देश्यसे भगवान् ने अर्जुनको निमित्त बनाकर संसारके हितके लिये कर्ण, दुर्योधनादिकोंका नाश करना उचित समझा। शास्त्रमें ऐसे आततायियोंको बिना ही विचारे मारनेका विधान है।
अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापह:।
क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिन:॥
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन॥
(वसिष्ठस्मृति, अ० ३। १९-२०)
‘आग लगानेवाला, विष देनेवाला, बिना शस्त्रवालेपर शस्त्रसे प्रहार करनेवाला, धन हरनेवाला, खेत-मकान आदि छीननेवाला एवं स्त्रीको हरनेवाला—ये छ: प्रकारके आततायी होते हैं। अनिष्ट करनेके लिये आते हुए आततायीको बिना ही विचारे मार देना चाहिये। आततायीको मारनेसे मारनेवालेको कोई भी दोष नहीं होता।’ तो भी धर्म और दयाकी दृष्टिसे मारनेकी अपेक्षा समझाकर काम निकालना उत्तम है। इसलिये भगवान् श्रीकृष्णजीने दुर्योधनादि दुष्टोंको सन्धि करनेके लिये नाना प्रकारसे स्वयं समझानेकी चेष्टा की, किन्तु दुर्योधनने किसी प्रकार भी सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। उसका मरण अवश्यम्भावी था इसीलिये भगवान् ने अर्जुन, भीम आदिके द्वारा उन सबको मरवाया। भगवान् के अवतार ग्रहण करनेमें भी यही कारण था। गीतामें भगवान् ने कहा भी है—
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
(४। ८)
‘साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये और दूषित कर्म करनेवालोंका नाश करनेके लिये एवं धर्मके स्थापन करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट होता हूँ।’ इसीलिये दुष्टोंका संहार करके प्रजाके हितके लिये धर्मात्मा युधिष्ठिरके हाथमें राज्य सौंपकर भगवान् ने धर्मकी स्थापना की एवं वेदव्यासादि ऋषियोंद्वारा और पितामह भीष्मद्वारा उपदेश दिलाकर तथा स्वयं उपदेश देकर प्रिय भक्त युधिष्ठिर और अर्जुन आदिका उद्धार किया।
(ङ) क्षत्रियोंके लिये नीति और धर्मयुक्त युद्ध करना परम धर्म एवं स्वार्थ-बुद्धिसे भी लाभप्रद कहा है—
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥
(गीता २। ३१)
‘अपने धर्मको देखकर भी तू भय करनेको योग्य नहीं है; क्योंकि धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्तव्य क्षत्रियके लिये नहीं है।’
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
(गीता २। ३७)
‘तू या तो मरकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा जीतकर पृथ्वीको भोगेगा। इससे हे अर्जुन! युद्धके लिये निश्चयवाला होकर खड़ा हो।’
स्वार्थबुद्धिको एवं अहंकारको सर्वथा त्यागकर न्यायसे किसीका मारना तो वास्तवमें मारना ही नहीं है।
भगवान् कहते हैं—
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
(गीता १८। १७)
‘जिस पुरुषके अन्त:करणमें ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थोंमें और कर्मोंमें लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकोंको मारकर भी वास्तवमें न तो मारता है और न पापसे बँधता है।’ जैसे अग्नि, वायु और जलके द्वारा अनायास किसीके मर जानेपर उन्हें कोई पाप नहीं होता, इसी प्रकार कर्तृत्वाभिमानसे रहित नि:स्वार्थी पुरुष पापका भागी नहीं होता। देहाभिमान और स्वार्थसे रहित केवल संसारके हितके लिये प्रारब्धवश जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुषके शरीर और इन्द्रियोंद्वारा यदि किसी प्राणीकी हिंसा होती हुई लोकदृष्टिमें देखी जाय तो भी वह वास्तवमें हिंसा नहीं है। क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकारके न होनेसे किसी प्राणीकी हिंसा हो नहीं सकती और बिना कर्तृत्वाभिमानके किया हुआ कर्म वास्तवमें अकर्म ही है। इसलिये वह पुरुष पापसे नहीं बँधता।