Seeker of Truth

स्त्री-सम्बन्धी बातें

प्रश्न - क्या कन्या स्वयंवर कर सकती है?

उत्तर - शास्त्रोंमें स्वयंवरकी बात आती है, परन्तु जिन्होंने स्वयंवर किया है, उन्होंने कष्ट ही उठाया है। सीता, द्रौपदी, दमयन्ती आदिने स्वयंवर किया तो उन्होंने प्रायः दुःख ही पाया। आजकल जो कन्याएँ स्वयंवर करती हैं, खुद ही पतिको चुनती हैं, अपने मनसे विवाह करती हैं, वे कौन-सा सुख पाती हैं? वे दुःख-ही-दुःख पाती हैं, भटकती ही रहती हैं।

जो कन्या स्वयंवर करती है, उसकी जिम्मेवारी खुद उसीपर रहती है। पिता कन्याका हितैषी होता है और हितैषी होकर ही वह कन्याके लिये वर ढूँढ़ता है, उसका सम्बन्ध करता है; अतः उस सम्बन्धकी जिम्मेवारी पितापर ही रहती है, कन्यापर नहीं। पिताके द्वारा सम्बन्ध करानेपर कन्यासे कहीं थोड़ी गलती भी हो जाय तो वह माफ हो जायगी; परन्तु स्वयंवर करनेवाली कन्याकी गलती माफ नहीं होगी। जैसे, पुत्र माता-पिताकी सेवा कम भी करे तो उतना दोष नहीं है; क्योंकि वह माता-पितासे उत्पन्न हुआ है, उसने जानकर सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। परन्तु गोद जानेवाला पुत्र माता- पिताकी सेवा नहीं करता तो उसको विशेष दण्ड भोगना पड़ता है; क्योंकि उसने जानकर सम्बन्ध जोड़ा है। कोई किसीके यहाँ नौकरी करता है और नौकरीमें गलती करता है तो उसको माफी नहीं होती; क्योंकि उसने नौकरी स्वयं स्वीकार की है। हाँ, दयालु मालिक उसको माफ कर सकता है, पर वह माफीका अधिकारी नहीं होता। कोई किसीको अपना गुरु बनाता है तो गुरुकी आज्ञाका पालन करना उसकी विशेष जिम्मेवारी होती है। यदि वह गुरु-आज्ञाका पालन नहीं करता, गुरुका तिरस्कार करता है, निन्दा करता है तो उसको भयंकर दण्ड भोगना पड़ता है। उसको भगवान् भी माफ नहीं कर सकते । भगवान् कुपित हो जायँ तो गुरु माफ करा सकता है, पर गुरु कुपित हो जायँ तो भगवान् भी माफ नहीं करा सकते। अतः स्वयंवर करनेवाली कन्यापर विशेष जिम्मेवारी रहती है।

प्रश्न - कन्या विवाह न करके साधन-भजनमें ही जीवन बिताना चाहे तो क्या यह ठीक है?

उत्तर - कन्याके लिये विवाह न करना उचित नहीं है; क्योंकि वह स्वतन्त्र रहकर अपना जीवन-निर्वाह कर ले - ऐसा बहुत कठिन है अर्थात् विवाह न करनेसे उसके जीवन-निर्वाहमें बहुत कठिनता आयेगी। जबतक माँ-बाप हैं, तबतक तो ठीक है, पर जब माँ- बाप नहीं रहते, तो फिर प्रायः भाईलोग (अपनी स्त्रियोंके वशीभूत होनेसे) बहनका आदर नहीं करते, प्रत्युत बहनका तिरस्कार करते हैं, उसको हीन दृष्टिसे देखते हैं। भौजाइयाँ भी उसको तिरस्कारकी दृष्टिसे देखती हैं। इससे कन्याके मनमें पराधीनताका अनुभव होता है। अतः विवाह कर लेना अच्छा है।

हमने ऐसे स्त्री-पुरुषोंको भी देखा है, जिन्होंने विवाहसे पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली कि हम स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध न रखकर केवल साधन-भजन ही करेंगे; और वे अपनी प्रतिज्ञा निभाते आये हैं। यद्यपि आजके जमानेमें ऐसे लड़के मिलने कठिन हैं, जो केवल साधन- भजनके लिये ही विवाह करें, तथापि उनका मिलना असम्भव नहीं है। 

मीराबाईकी तरह जो बचपनसे ही भजन-स्मरणमें लग जाय, उसकी तो बात ही अलग है; परन्तु यह विधान नहीं है, भाव है। इस भावमें भी कठिनता आती है। मीराबाईके जीवनमें बहुत कठिनता आयी थी, पर भगवान्के दृढ़ विश्वासके बलपर वह सब कठिनताओंको पार कर गयी। ऐसा दृढ़ विश्वास बहुत कम होता है। जिसमें ऐसा दृढ़ विश्वास हो, उसके लिये यह विधान नहीं है कि वह विवाह न करे अथवा वह विवाह करे। तात्पर्य है कि भगवान्पर दृढ़ श्रद्धा-विश्वास हो तो मनुष्य कहीं भी रहे, वह श्रेष्ठ हो ही जायगा।

प्रश्न - क्या स्त्रीको साधु-संन्यासी बनना उचित है?

उत्तर - पुरुषको तो यह अधिकार है कि उसको संसारसे वैराग्य हो जाय तो वह घर आदिका त्याग करके, विरक्त होकर भजन-स्मरण करे, पर स्त्रियोंके लिये ऐसी आज्ञा हमने कहीं देखी नहीं है। अतः स्त्रीको साधु-संन्यासी बनना उचित नहीं है। उसको तो घरमें ही रहकर अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। वह घरमें ही त्यागपूर्वक, संयमपूर्वक रहे-इसीमें उसकी महिमा है। वास्तवमें त्याग-वैराग्यमें जो तत्त्व है, वह साधु-संन्यासी बननेमें नहीं है। जिसके भीतर पदार्थोंकी गुलामी नहीं है, वह घरमें रहते हुए ही साध्वी है, संन्यासिनी है।

प्रश्न - पतिव्रता, साध्वी और सती किसे कहते हैं?

उत्तर - यद्यपि शब्दकोशके अनुसार पतिव्रता, साध्वी और सती-तीनों नाम एक ही अर्थमें हैं, तथापि तीनोंमें भेद किया जाय तो पतिके रहते हुए जो अपने नियममें दृढ़ रहती है, वह 'पतिव्रता' है; पतिके न रहनेपर जो अपने नियममें, त्यागमें दृढ़ रहती है, वह 'साध्वी' है; और जो सत्यका पालन करती है, जिसका पतिके साथ दृढ़ सम्बन्ध रहता है, जो पतिके मरनेपर उसके साथ सती हो जाती है, वह 'सती' है।

प्रश्न - सतीप्रथा उचित है या अनुचित ?

उत्तर - सती होना 'प्रथा' है ही नहीं। पतिके साथ जल जाना सती होना नहीं है। जिसके मनमें सत् आ जाता है, उत्साह आ जाता है, वह आगके बिना भी जल जाती है और उसको जलनेका कोई कष्ट भी नहीं होता। यह कोई प्रथा नहीं है कि वह ऐसा ही करे, प्रत्युत यह तो उसका सत्य है, धर्म है, शास्त्र-मर्यादापर विश्वास है।

हरदोई जिलेमें इकनोरा नामका गाँव है। वहाँ एक लड़की अपनी ननिहालमें थी। पति बीमार था, वह मर गया। उसको पतिके मरनेका समाचार मिला। उसने मामासे पूछा कि सती सुलोचनाको पतिका सिर नहीं मिलता तो वह क्या करती ? मामाने कहा कि मुझे क्या पता ? उसने कहा कि मामाजी ! मैं सती होऊँगी। मामाने कहा कि ऐसा नहीं करना बेटी! उसने कहा कि मैं करती नहीं हूँ, होता है। उसने दीपक जलाया और उसपर अपनी अँगुली रखी तो उसकी अँगुली मोमबत्तीकी तरह जलने लगी। उसने मामासे कहा कि आप मुझे सती होनेकी आज्ञा देते हैं या नहीं। नहीं तो आपका यह सारा घर भस्म हो जायगा। मामाने कहा कि अच्छा तेरी जैसी मरजी हो, वैसा कर। उसने जलती हुई अँगुलीको एक दीवारपर बुझाया और घरसे बाहर जाकर पीपलवृक्षके नीचे खड़ी हो गयी तथा मामासे कहा कि मुझे लकड़ी दो। मामाने कहा कि हम न लकड़ी देंगे, न आग। गाँवके लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे। उसने हाथ जोड़कर सूर्यभगवान्से प्रार्थना की कि हे नाथ! आप आग दो। ऐसा कहते ही वह वहाँ खड़ी खड़ी अपने-आप जल गयी! उस आगसे पीपलके पत्ते जल गये। यह सब गाँवके लोगोंने अपनी आँखोंसे देखा। वहाँके मुसलमानोंसे पूछा गया तो उन्होंने भी कहा कि यह सब घटना हमारे सामने घटी है। करपात्रीजी महाराज भी वहाँ गये थे और उन्होंने दीवारपर काली लकीर देखी, जहाँ उसने अपनी जलती हुई अँगुली बुझायी थी और पीपलके जले हुए पत्ते भी देखे ।

तात्पर्य है कि यह सतीप्रथा नहीं है। यह तो उसका खुदका धार्मिक उत्साह है। इस विषयमें प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजीने 'सतीधर्म हिन्दूधर्मकी रीढ़ है' नामक पुस्तक लिखी है*, उसको पढ़ना चाहिये।

* इस पुस्तकके मिलनेका पता है-संकीर्तन-भवन, धार्मिक ट्रस्ट, प्रतिष्ठानपुर (झूसी), इलाहाबाद।

प्रश्न - पतिव्रताके भाव और आचरण कैसे होते हैं?

उत्तर - उसमें धार्मिक भावोंकी प्रबलता होती है, जिससे वह तन-मनसे पतिकी सेवा करती है। पतिके मनमें ही अपना मन मिला देती है, अपना कुछ नहीं रखती। उसका मन पतिमें ही खिंचा रहता है। उसका यह पातिव्रत ही उसकी रक्षा करता है।

प्रायः पतिव्रताका सम्बन्ध पूर्वजन्मके पतिके साथ ही होता है। कहीं-कहीं ऐसा भी होता है कि बचपनमें कन्याको अच्छी शिक्षा, अच्छा संग मिलनेसे उसके भाव अच्छे बन जाते हैं तो वह विवाह होनेपर पतिव्रता बन जाती है।

प्रश्न - पतिव्रताकी पहचान क्या है?

उत्तर - पतिव्रताके घरमें शान्ति रहती है और सभी अपने- अपने धर्मका पालन करनेवाले होते हैं। उसकी सन्तान भी श्रेष्ठ, माता-पिताकी भक्त होती है। पड़ोसियोंपर, मोहल्लेवालोंपर भी उसके भावोंका असर पड़ता है।

पतिव्रताको देखनेवालेका दुर्भाव मिट जाता है। परन्तु सब जगह यह नियम लागू नहीं होता; क्योंकि पतिव्रताको देखकर अपने भीतरके अच्छे भाव ही जाग्रत् होते हैं। जिसके भीतर अच्छे भाव, संस्कार नहीं हैं, उसपर पतिव्रताका उतना असर नहीं पड़ता। जैसे, एक व्याधने दमयन्तीको अजगरके मुखसे छुड़ाया, पर उसके रूपको देखकर वह मोहित हो गया और उसके भीतर दुर्भाव पैदा हो गया। दमयन्तीके शापसे वह वहीं भस्म हो गया। युधिष्ठिर बड़े धर्मात्मा, सात्त्विक पुरुष थे, परन्तु दुर्योधनपर उनका असर नहीं पड़ा।

प्रश्न - क्या वर्तमान समयमें पातिव्रतधर्मका पालन हो सकता है?

उत्तर - पातिव्रतधर्मका पालन करनेमें वर्तमान समय कोई बाधक नहीं है। अपने धर्मका पालन करनेमें सबको सदासे स्वतन्त्रता है। धर्मसे विरुद्ध काम करनेमें ही शास्त्र, धर्म, मर्यादा आदि बाधक हैं।

प्रश्न - क्या पति पत्नीका त्याग कर सकता है?

उत्तर - पत्नी अच्छी है, सुशील है, पर रंगकी काली है, माँके साथ उसकी नहीं बनती, कभी माँका कहना नहीं मानती और माँ कहती है कि इसको छोड़ दो - ऐसी स्थितिमें जो पत्नीको छोड़ देता है, वह महापाप करता है, घोर अन्याय करता है; अतः वह घोर नरकोंमें जायगा। आजकलके लड़के पत्नीको दोषी समझकर उसका त्याग कर देते हैं तो क्या वे खुद सर्वथा दूधके धोये हुए हैं! अतः पत्नीका कभी त्याग नहीं करना चाहिये।

प्रश्न - अगर पत्नी दुश्चरित्रा, व्यभिचारिणी हो तो उसका त्याग करना चाहिये या नहीं?

उत्तर - आजकलके जमानेमें जहाँतक बने, उस पत्नीका त्याग नहीं करना चाहिये। अपनी सामर्थ्यके अनुसार उसपर शासन करना चाहिये, उसको सुधारनेकी चेष्टा करनी चाहिये। यदि उसको दण्ड ही देना हो तो उससे बातचीत न करे और उसके हाथसे बना भोजन भी न करे।

प्रश्न - पतिका आधा पुण्य पत्नीको और पत्नीका आधा पाप पतिको मिलता है - ऐसा क्यों?

उत्तर - पत्नीने अपने माता-पिता, भाई-भौजाई आदि सबका, घरभरका त्याग किया है और पुण्य त्यागसे होता है। उसने अपने गोत्रतकका त्याग करके पतिके मनमें अपना मन मिला दिया है! अतः वह पुण्यकी भागी होती है। पति सन्ध्या-गायत्री आदि करता है तो उसका भी आधा फल (पुण्य) पत्नीको मिलता है। इसीलिये पतिके दो जनेऊ होते हैं- एक अपना और एक पत्नीका।

स्त्रीको बचपनमें शिक्षा देना माता-पिता, भाई आदिके अधीन होता है और विवाह होनेपर शिक्षा देना पतिके अधीन होता है। अगर पतिसे अच्छी शिक्षा न मिलनेके कारण पत्नी पाप करती है तो उसका आधा पाप पतिको लगता है।

अगर पति अच्छी शिक्षा देता है, पर पत्नी पतिका कहना नहीं मानती, पाप करती है तो उसका आधा पाप पतिको नहीं लगता; क्योंकि उसने अपनी जिम्मेवारी खुदपर ही ली है। ऐसे ही जो स्त्री पतिके कहनेमें चलती है, पतिके अधीन रहती है, वही पतिके आधे पुण्यकी भागीदार होती है। जो पतिके कहनेमें नहीं चलती, वह पतिके आधे पुण्यकी भागीदार नहीं होती।

प्रश्न - विधर्मी लोग किसी स्त्रीका अपहरण करके ले जायँ तो उस स्त्रीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर - उसको जहाँतक बने, वहाँसे छूटनेका प्रयास करना चाहिये और मौका लगनेपर वहाँसे भाग जाना चाहिये। कोई भी उपाय न चले तो भगवान्को पुकारना चाहिये। भगवान् किसी-न-किसी प्रकारसे छुड़ा देंगे।

एक स्त्रीको मुखमें कपड़ा दूँसकर, दोनों हाथ पीठके पीछे बाँधकर और ऊपरसे बुरका पहनाकर विधर्मीलोग रेलमें ले जा रहे थे। लखनऊ स्टेशनपर जब टीटी टिकट देखनेके लिये उस स्त्रीके पास आकर खड़ा हुआ, तब उस स्त्रीने अपने पैरसे टीटीका पैर दबाया। टीटीने विचार किया कि इसने मेरा पैर क्यों दबाया ! इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य है! उसने रेलवे पुलिसको बुलाया। पुलिसने जाँच करके उस स्त्रीको छुड़ा लिया और उसका अपहरण करनेवालोंको पकड़ लिया। ऐसे ही नोआखालीमें विधर्मीने एक स्त्रीको पकड़ लिया। उस स्त्रीने भगवान्को पुकारा। इतनेमें दूसरा विधर्मी आया और कहने लगा कि इसको मैं अपनी स्त्री बनाऊँगा। इसी बातको लेकर दोनों आदमियोंमें लड़ाई हो गयी। वे दोनों आपसमें लड़कर मर गये और उस स्त्रीकी रक्षा हो गयी।

प्रश्न - जिसकी स्त्रीको विधर्मी ले गये, उस पुरुषका क्या कर्तव्य है?

उत्तर - पुरुषमें उसको छुड़ाकर लानेकी सामर्थ्य हो और वह प्रसन्नतासे आना चाहे तो उसको अपने घरमें ले आना चाहिये। कारण कि उसके साथ जबर्दस्ती हुई है, अतः उसका एक पतिव्रत नहीं रहा, पर उसका धर्म नहीं बिगड़ा। धर्म तो स्वयं (अपनी इच्छासे) छोड़नेपर ही बिगड़ता है। जबर्दस्ती करके कोई भी किसीका धर्म नहीं छुड़ा सकता, उसको धर्मभ्रष्ट नहीं कर सकता। कोई जबर्दस्ती किसीके मुखमें गोमांस भी दे दे, तो भी वह उसका धर्म नहीं छुड़ा सकता। अतः यदि उस स्त्रीका मन नहीं बिगड़ा है, उसने संगका सुख नहीं लिया है तो उसका पातिव्रतधर्म नष्ट नहीं हुआ है। इसलिये यदि वह वापिस आ जाय तो उसको गीता, रामायण, भागवत आदिके पाठद्वारा तथा गंगाजलसे स्नान कराकर शुद्ध कर लेना चाहिये। यह सब करनेके बाद जब वह रजस्वला हो जायगी, तब वह सर्वथा शुद्ध हो जायगी - 'रजसा शुद्धयते नारी'।

जमदग्नि ऋषिकी पत्नी रेणुका प्रतिदिन अपने पातिव्रतधर्मके प्रभावसे कपड़ेमें जल भरकर लाया करती थी। एक दिन उसको नदीके किनारेपर सोनेकी तरह चमकीले एवं सुन्दर बाल दीखे। उसके मनमें आया कि ये बाल इतने सुन्दर हैं तो वह पुरुष कितना सुन्दर होगा ! इस तरह मनमें विकार आते ही उसका धर्म नष्ट हो गया और वह पहलेकी तरह कपड़ेमें जल भरकर नहीं ला सकी।

इन्द्रने गौतम ऋषिका रूप धारण करके अहल्याको भ्रष्ट किया तो उसका धर्म भ्रष्ट नहीं हुआ, प्रत्युत एक पतिव्रत नष्ट हुआ। यद्यपि पतिने क्रोधमें आकर उसको पत्थरका बना दिया, तथापि भगवान् रामने उसका उद्धार कर दिया; क्योंकि वह अपने धर्ममें दृढ़ थी।

गीताप्रेसके संस्थापक श्रीजयदयालजी गोयन्दका शुद्धि एवं पवित्रताका बहुत खयाल रखा करते थे। उन्होंने भी कहा था कि विधर्मियोंने जबर्दस्ती करके जिन स्त्रियोंको भ्रष्ट किया है, उनका धर्म भ्रष्ट नहीं हुआ है। अतः यदि वे हिन्दूधर्ममें आना चाहें तो उनको ले लेना चाहिये और गंगास्नान, गीता-रामायणपाठ आदिसे शुद्ध करा लेना चाहिये। उन्होंने यह भी कहा था कि यदि दूसरे धर्मको माननेवाला व्यक्ति हिन्दूधर्ममें आना चाहे तो उसको ले लेना चाहिये अर्थात् वह भी हिन्दू हो सकता है और हिन्दूधर्मकी पद्धतिके अनुसार जप-ध्यान, पूजा-पाठ आदि कर सकता है।

प्रश्न - पत्नी अपनी इच्छासे कहीं चली जाय और फिर लौट आये तो क्या करना चाहिये ?

उत्तर - उसको अपनी पत्नी नहीं मानना चाहिये, उसके साथ पत्नी-जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिये। जैसे, सन्त कूबाजी महाराजकी पत्नी उनको छोड़कर दूसरेके पास चली गयी। वहाँ उसकी सन्तान भी हो गयी। परन्तु उसका वह पति मर गया। अब उसके लिये जीवन-निर्वाह करना भी बड़ा मुश्किल हो गया। अतः वह पुनः कूबाजीके पास आ गयी। कूबाजीने उसके निर्वाहके लिये अन्न, जल, वस्त्र आदिका प्रबन्ध कर दिया, पर उसको अपनी पत्नी नहीं माना।

प्रश्न - पति दुश्चरित्र हो तो पत्नीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर - पत्नीको दुश्चरित्र पतिका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत अपने पातिव्रतधर्मका पालन करते हुए उसको समझाना चाहिये। जैसे, मन्दोदरीने रावणको समझाया, पर उसका त्याग नहीं किया।

विवाहके समय स्त्री-पुरुष दोनों ही परस्पर वचनबद्ध होते हैं। उसके अनुसार पतिको सलाह देनेका, पतिसे अपने मनकी बात कहनेका पत्नीको अधिकार है। गान्धारी कितने ऊँचे दर्जेकी पतिव्रता थी कि जब उसने सुना कि जिससे मेरा विवाह होनेवाला है, उसके नेत्र नहीं हैं, तो उसने भी अपने नेत्रोंपर पट्टी बाँध ली; क्योंकि नेत्रोंका जो सुख पतिको नहीं है, वह सुख मुझे भी नहीं लेना है! परन्तु समय आनेपर उसने भी पति (धृतराष्ट्र) को समझाया कि आपको दुर्योधनकी बात नहीं माननी चाहिये, नहीं तो कुलका नाश हो जायगा। ऐसी सलाह उसने कई बार दी, पर धृतराष्ट्रने उसकी सलाह नहीं मानी, जिससे कुलका नाश हो गया। तात्पर्य है कि पतिको अच्छी सलाह देनेका पत्नीको पूरा अधिकार है।

शास्त्रोंमें आया है कि जो पतिव्रता स्त्री तन-मनसे पतिकी सेवा करती है, अपने धर्मका पालन करती है, वह मृत्युके बाद पतिलोकमें (पतिके पास) जाती है। अगर पति दुश्चरित्र है तो पतिका लोक नरक होगा; अतः पतिव्रता स्त्रीका लोक भी नरक ही होना चाहिये! परन्तु पतिव्रता स्त्री नरकोंमें नहीं जा सकती; क्योंकि उसने शास्त्रकी, भगवान्‌की, सन्त-महात्माओंकी आज्ञाका पालन किया है, पातिव्रतधर्मका पालन किया है। अतः वह अपने पातिव्रतधर्मके प्रभावसे पतिका उद्धार कर देगी अर्थात् जो लोक पत्नीका होगा, बही लोक पतिका हो जायगा। तात्पर्य है कि अपने कर्तव्यका पालन करनेवाला मनुष्य दूसरोंका उद्धार करनेवाला बन जाता है।

प्रश्न - अगर पति पत्नीको व्यभिचारके लिये प्रेरित करे तो पत्नीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर - पतिको यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी स्त्री दूसरों- को दे; क्योंकि पत्नीके पिताने पतिको ही दान दिया है। अन्न, वस्त्र आदिका दान लेनेवाला तो अन्न आदि दूसरोंको दे सकता है, पर कन्यादान लेनेवाला पति दूसरोंको अपनी पत्नी नहीं दे सकता। अगर वह ऐसा करता है तो वह महापापका भागी होता है। ऐसी स्थितिमें पत्नीको पतिकी बात बिलकुल नहीं माननी चाहिये। उसको अपने पतिसे साफ कह देना चाहिये कि मेरे पिताने आपको ही कन्यादान किया है; अतः दूसरोंको देनेका आपका अधिकार नहीं है। इस विषयमें वह पतिकी आज्ञा भंग करती है तो उसको कोई दोष नहीं लगता; क्योंकि पतिकी यह आज्ञा अन्याय है और अन्यायको स्वीकार करना अन्यायको प्रोत्साहित करना है, जो कि सबके लिये अनुचित है। दूसरी बात, अगर पत्नी पतिकी धर्मविरुद्ध आज्ञाका पालन करेगी तो इस पापके कारण पतिको नरकोंकी प्राप्ति होगी। अतः पत्नीको ऐसी आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये, जिससे पतिको नरकोंमें जाना पड़े।

अगर पति स्वयं भी शास्त्रनियमके विरुद्ध स्त्रीसंग करता है तो वह अन्याय, पाप करता है। धर्मयुक्त काम भगवान्का स्वरूप है-'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।' (गीता ७। ११); अतः इसमें दोष, पाप नहीं है। परन्तु धर्मसे विरुद्ध स्त्रीको मनमाना काममें लेना अन्याय है। मनुष्यको सदा शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार ही प्रत्येक कार्य करना चाहिये (गीता १६ । २४) ।

प्रश्न - अगर पति मांस-मदिरा आदिका सेवन करता हो तो पत्नीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर - पतिको समझाना चाहिये, निषिद्ध आचरणसे छुड़ाना चाहिये। अगर पति न माने तो लाचारी है, पर पतिको समझाना स्त्रीका धर्म है, अधिकार है। पत्नीको तो अपना खान-पान शुद्ध ही रखना चाहिये।

प्रश्न - पति मार-पीट करे, दुःख दे तो पत्नीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर - पत्नीको तो यही समझना चाहिये कि मेरे पूर्वजन्मका कोई बदला है, ऋण है, जो इस रूपमें चुकाया जा रहा है; अतः मेरे पाप ही कट रहे हैं और मैं शुद्ध हो रही हूँ। पीहरवालोंको पता लगनेपर वे उसको अपने घर ले जा सकते हैं; क्योंकि उन्होंने मार-पीटके लिये अपनी कन्या थोड़े ही दी थी!

प्रश्न - अगर पीहरवाले भी उसको अपने घर न ले जायँ तो वह क्या करे ?

उत्तर - फिर तो उसको अपने पुराने कर्मोंका फल भोग लेना चाहिये, इसके सिवाय बेचारी क्या कर सकती है! उसको पतिकी मार-पीट धैर्यपूर्वक सह लेनी चाहिये। सहनेसे पाप कट जायँगे और आगे सम्भव है कि पति स्नेह भी करने लग जाय। यदि वह पतिकी मार-पीट न सह सके तो पतिसे कहकर उसको अलग हो जाना चाहिये और अलग रहकर अपनी जीविका-सम्बन्धी काम करते हुए एवं भगवान्का भजन-स्मरण करते हुए निधड़क रहना चाहिये ।

पुरुषको कभी भी स्त्रीपर हाथ नहीं चलाना चाहिये। शिखण्डी भीष्मजीको मारनेके लिये ही पैदा हुआ था; परन्तु वह जब युद्धमें भीष्मजीके सामने आता है, तब भीष्मजी बाण चलाना बन्द कर देते हैं। कारण कि शिखण्डी पूर्वजन्ममें स्त्री था और इस जन्ममें भी स्त्रीरूपसे ही जन्मा था, पीछे उसको पुरुषत्व प्राप्त हुआ था। अतः भीष्मजी उसको स्त्री ही मानते हैं और उसपर बाण नहीं चलाते ।

विपत्तिके दिन किसी पापके कारण ही आते हैं। उसमें उत्साहपूर्वक भगवान्का भजन-स्मरण करनेसे दुगुना लाभ होता है। एक तो पापोंका नाश होता है और दूसरा भगवान्को पुकारनेसे भगवद्विश्वास बढ़ता है। अतः विपत्ति आनेपर स्त्रियोंको हिम्मत नहीं हारनी चाहिये।

विपत्ति आनेपर आत्महत्या करनेका विचार भी मनमें नहीं लाना चाहिये; क्योंकि आत्महत्या करनेका बड़ा भारी पाप लगता है। किसी मनुष्यकी हत्याका जो पाप लगता है, वही पाप आत्महत्याका लगता है। मनुष्य सोचता है कि आत्महत्या करनेसे मेरा दुःख मिट जायगा, मैं सुखी हो जाऊँगा। यह बिलकुल मूर्खताकी बात है; क्योंकि पहलेके पाप तो कटे नहीं, नया पाप और कर लिया! जिन्होंने आत्महत्याका प्रयास किया और बच गये, उनसे यह बात सुनी है कि आत्महत्या करनेमें बड़ा भारी कष्ट होता है और पश्चात्ताप होता है कि मैं ऐसा नहीं करता तो अच्छा रहता, अब क्या करूँ ? आत्महत्या करनेवाले प्रायः भूत- प्रेत बनते हैं और वहाँ भूखे-प्यासे रहते हैं, दुःख पाते हैं। तात्पर्य है कि आत्महत्या करनेवालोंकी बड़ी भारी दुर्गति होती है।

प्रश्न - अगर पति त्याग कर दे तो स्त्रीको क्या करना चाहिये ?

उत्तर - वह अपने पिताके घरपर रहे। पिताके घरपर रहना न हो सके तो ससुराल अथवा पीहरवालोंके नजदीक किरायेका कमरा लेकर उसमें रहे और मर्यादा, संयम, ब्रह्मचर्यपूर्वक अपने धर्मका पालन करे, भगवान्का भजन-स्मरण करे। पितासे या ससुरालसे जो कुछ मिला है, उससे अपना जीवन-निर्वाह करे। अगर धन पासमें न हो तो घरमें ही रहकर अपने हाथोंसे कातना-गूँथना, सीना-पिरोना आदि काम करके अपना जीवन-निर्वाह करे। यद्यपि इसमें कठिनता होती है, पर तपमें कठिनता ही होती है, आराम नहीं होता। इस तपसे उसमें आध्यात्मिक तेज बढ़ेगा , उसका अन्तःकरण शुद्ध होगा।

माता-पिता, भाई-भौजाई आदिको विशेष ध्यान देना चाहिये कि बहन-बेटी धर्मकी मूर्ति होती है; अतः उसका पालन-पोषण करनेका बहुत पुण्य होता है। उनको यह उक्ति अक्षरशः चरितार्थ कर लेनी चाहिये- 'बिपति काल कर सतगुन नेहा' (मानस, किष्किन्धा० ७। ३) अर्थात् विपत्तिके समय बहन-बेटी आदिसे सौगुना स्नेह करे। यदि वे ऐसा न कर सकें तो लड़कीको विचार करना चाहिये कि जंगलमें रहनेवाले प्राणियोंका भी भगवान् पालन-पोषण करते हैं, तो क्या वे मेरा पालन-पोषण नहीं करेंगे ! सबके मालिक भगवान्के रहते हुए मैं अनाथ कैसे हो सकती हूँ! इस बातको दृढ़तासे धारण करके भगवान्के भरोसे निधड़क रहना चाहिये, निर्भय, निःशोक, निश्चिन्त और निःशंक रहना चाहिये। एक विधवा बहन थी। उसके पास कुछ नहीं था। ससुरालवालोंने उसके गहने भी दबा लिये। वह कहती थी कि मुझे चिन्ता है ही नहीं! दो हाथोंके पीछे एक पेट है, फिर चिन्ता किस बातकी !

लड़कियोंको बचपनसे ही कातना-गूँथना, सीना-पिरोना, पढ़ना- पढ़ाना आदि सीख लेना चाहिये। विवाह होनेपर पतिकी सेवामें कमी नहीं रखनी चाहिये, पर भीतरमें भरोसा भगवान्का ही रखना चाहिये। असली सहारा भगवान्का ही है। ऐसा सहारा न पतिका है, न पुत्रका है और न शरीरका ही है-यह बिलकुल सच्ची बात है। अतः यदि पति त्याग कर दे तो घबराना नहीं चाहिये। इस विषयमें अपनी कोई त्रुटि हो तो तत्काल सुधार कर लेना चाहिये और अपनी कोई त्रुटि न हो तो बिलकुल निधड़क रहना चाहिये। हृदयमें कमजोरी तो अपने भाव और आचरण ठीक न रहनेसे ही आती है। अपने भाव और आचरण ठीक रहनेसे हृदयमें कमजोरी कभी आती ही नहीं। अतः अपने भावों और आचरणोंको सदा शुद्ध, पवित्र रखते हुए भगवान्का भजन-स्मरण करते रहना चाहिये। भगवान्‌के भरोसे किसी बातकी परवाह नहीं करनी चाहिये।

आजके युवकोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको छोड़ें नहीं। स्त्रीका त्याग करना महापाप है, बड़ा भारी अन्याय है। ऐसा करनेवाले भयंकर नरकोंमें जाते हैं।

प्रश्न - पुरुष दूसरा विवाह कर सकता है या नहीं?

उत्तर - अगर पहली स्त्रीसे सन्तान न हुई हो तो पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये, केवल सन्तान-उत्पत्तिके लिये पुरुष शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार दूसरा विवाह कर सकता है। अपने सुखभोगके लिये वह दूसरा विवाह नहीं कर सकता; क्योंकि यह मनुष्य-शरीर अपने सुख-भोगके लिये है ही नहीं।

पुनर्विवाह अपनी पूर्वपत्नीकी आज्ञासे, सम्मतिसे ही करना चाहिये और पत्नीको भी चाहिये कि वह पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये पुनर्विवाहकी आज्ञा दे दे। पुनर्विवाह करनेपर भी पतिको अपनी पूर्वपत्नीका अधिकार सुरक्षित रखना चाहिये; उसका तिरस्कार, निरादर कभी नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उसको बड़ी मानकर दोनोंको उसका सम्मान करना चाहिये।

जिसकी सन्तान तो हो गयी, पर स्त्री मर गयी, उसको पुनर्विवाह करनेकी जरूरत ही नहीं है; क्योंकि वह पितृऋणसे मुक्त हो गया। परन्तु जिसकी भोगासक्ति नहीं मिटी है, वह पुनर्विवाह कर सकता है; क्योंकि अगर वह पुनर्विवाह नहीं करेगा तो वह व्यभिचारमें प्रवृत्त हो जायगा, वेश्यागामी हो जायगा, जिससे उसको भयंकर पाप लगेगा। अतः इस पापसे बचनेके लिये और मर्यादामें रहनेके लिये उसको शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार पुनर्विवाह कर लेना चाहिये।

प्रश्न - पहले राजालोग अनेक विवाह करते थे तो क्या ऐसा करना उचित था?

उत्तर - जो राजालोग अपने सुखभोगके लिये अधिक विवाह करते थे, वे आदर्श नहीं माने गये हैं। केवल राजा होनेमात्रसे कोई आदर्श नहीं हो जाता। जो शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार चलते थे, धर्मका पालन करते थे, वे ही राजालोग आदर्श माने गये हैं।

वास्तवमें विवाह करना कोई ऊँचे दर्जेकी चीज नहीं है और आवश्यक भी नहीं है। आवश्यक तो परमात्मप्राप्ति करना है। इसीके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, विवाह करनेके लिये नहीं। स्त्री-पुरुषका संग तो देवतासे लेकर भूत-प्रेत आदितक स्थावर- जंगम हरेक योनिमें होता है; अतः यह कोई महत्ताकी बात नहीं है। परन्तु परमात्मप्राप्तिका अवसर, अधिकार, योग्यता आदि तो मनुष्यजन्ममें ही है। मनुष्य परमात्मप्राप्तिका जन्मजात अधिकारी है। जो विचारके द्वारा अपनी विषयासक्तिको, भोगासक्तिको नहीं छोड़ पाते, ऐसे कमजोर मनुष्योंके लिये ही विवाहका विधान किया गया है। भोगोंको भोगकर उनसे विरक्त होनेके लिये, उनमें अरुचि करनेके लिये ही गृहस्थाश्रममें प्रवेश करना चाहिये। जो विषयासक्तिको नहीं छोड़ पाते, उनपर ही पितृऋण रहता है अर्थात् उपकुर्वाण ब्रह्मचारीपर ही वंश-परम्परा चलानेका दायित्व रहता है, नैष्ठिक ब्रह्मचारी और भगवान्के भक्तपर नहीं। तात्पर्य है कि पितृऋण उसी पुरुषपर रहता है, जो भोगासक्ति नहीं मिटा सका। जिसमें भोगासक्ति नहीं है, उसपर कोई ऋण रहता ही नहीं, चाहे वह कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी आदि कोई भी क्यों न हो! कारण कि इन्कमपर ही टैक्स लगता है, मालपर ही जगात लगती है। जिसके पास इन्कम है ही नहीं, उसपर टैक्स किस बातका? माल है ही नहीं तो जगात किस बातकी ?

प्रश्न - स्त्री पुनर्विवाह क्यों नहीं कर सकती ?

उत्तर - माता-पिताने कन्यादान कर दिया तो अब उसकी कन्या संज्ञा ही नहीं रही; अतः उसका पुनः दान कैसे हो सकता है? अब उसका पुनर्विवाह करना तो पशुधर्म ही है।

सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते।

सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत् ॥

(मनुस्मृति ९। ४७; महाभारत वन० २९४। २६)

'कुटुम्बमें धन आदिका बँटवारा एक ही बार होता है, कन्या एक ही बार दी जाती है और 'मैं दूँगा' - यह वचन भी एक ही बार दिया जाता है। सत्पुरुषोंके ये तीनों कार्य एक ही बार होते हैं।'

शास्त्रीय, धार्मिक, शारीरिक और व्यावहारिक - चारों ही दृष्टियोंसे स्त्रीके लिये पुनर्विवाह करना अनुचित है। शास्त्रीय दृष्टिसे देखा जाय तो शास्त्रमें स्त्रीको पुनर्विवाहकी आज्ञा नहीं दी गयी है। धार्मिक दृष्टिसे देखा जाय तो पितृऋण पुरुषपर ही रहता है। स्त्रीपर पितृऋण आदि कोई ऋण नहीं है। शारीरिक दृष्टिसे देखा जाय तो स्त्रीमें कामशक्तिको रोकनेकी ताकत है, एक मनोबल है। व्यावहारिक दृष्टिसे देखा जाय तो पुनर्विवाह करनेपर उस स्त्रीकी पूर्वसन्तान कहाँ जायगी ? उसका पालन-पोषण कौन करेगा ? क्योंकि वह स्त्री जिससे विवाह करेगी, वह उस सन्तानको स्वीकार नहीं करेगा। अतः स्त्रीजातिको चाहिये कि वह पुनर्विवाह न करके ब्रह्मचर्यका पालन करे, संयमपूर्वक रहे।

शास्त्रमें तो यहाँतक कहा गया है कि जिस स्त्रीकी पाँच-सात सन्तानें हैं, वह भी यदि पतिकी मृत्युके बाद ब्रह्मचर्यका पालन करती है तो वह नैष्ठिक ब्रह्मचारीकी गतिमें जाती है। फिर जिसकी सन्तान नहीं है, वह यदि पतिके मरनेपर ब्रह्मचर्यका पालन करती है तो उसकी नैष्ठिक ब्रह्मचारीकी गति होनेमें कहना ही क्या है?

प्रश्न - यदि युवा स्त्री विधवा हो जाय तो उसको क्या करना चाहिये ?

उत्तर - जीवित अवस्थामें पति जिन बातोंको अच्छा मानते थे और जो बातें उनके अनुकूल थीं, उनकी मृत्युके बाद भी विधवा स्त्रीको उन्हींके अनुसार आचरण करते रहना चाहिये। उसको ऐसा विचार करना चाहिये कि भगवान्ने जो प्रतिकूलता भेजी है, यह मेरी तपस्याके लिये है। जान-बूझकर की गयी तपस्यासे यह तपस्या बहुत ऊँची है। भगवान्के विधानके अनुसार किये गये तप, संयमकी बहुत अधिक महिमा है। ऐसा विचार करके उसको मनमें हर समय उत्साह रखना चाहिये कि मैं कैसी भाग्यशालिनी हूँ कि भगवान्ने मेरेको ऐसा तप करनेका सुन्दर अवसर दिया है ! भागवतमें आया है-

तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।

हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ।।

(श्रीमद्भा० १०। १४। ८)

'जो मनुष्य क्षण-क्षणपर बड़ी उत्सुकतासे आपकी कृपाका ही भलीभाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्धानुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है, उसे निर्विकार मनसे भोग लेता है एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद्गद वाणी और पुलकित शरीरसे अपनेको आपके चरणोंमें समर्पित करता रहता है-इस प्रकार जीवन व्यतीत करनेवाला मनुष्य ठीक वैसे ही आपके परमपदका अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिताकी सम्पत्तिका पुत्र !'

विधवा स्त्रीको अपने चरित्रकी विशेष रक्षा करनी चाहिये। अगर वह व्यभिचार करती है तो वह अपने दोनों कुलोंको कलंकित करती है, मर्यादाका नाश करती है और मरनेके बाद घोर नरकोंमें जाती है। अतः उसको मर्यादामें रहना चाहिये, धर्म- विरुद्ध काम नहीं करना चाहिये। माता कुन्तीकी तरह उसको अपने वैधव्य-धर्मका पालन करना चाहिये। माता कुन्तीको याद करनेसे अपने धर्मके पालनका बल मिलता है।

प्रश्न - आजकल स्त्रीको पुरुषके समान अधिकार देनेकी बात कही जाती है, क्या यह ठीक है?

उत्तर - यह ठीक नहीं है। वास्तवमें स्त्रीका समान अधिकार नहीं है, प्रत्युत विशेष अधिकार है! कारण कि वह अपने पिता आदिका त्याग करके पतिके घरपर आयी है; अतः घरमें उसका विशेष अधिकार होता है। वह घरकी मालकिन, बहूरानी कहलाती है। बाहर पतिका विशेष अधिकार होता है। जैसे रथ दो पहियोंसे चलता है, पर दोनों पहिये अलग-अलग होते हैं। अगर दोनों पहियोंको एक साथ लगा दिया जाय तो रथ कैसे चलेगा? जैसे दोनों पहिये अलग-अलग होनेसे ही रथ चलता है, ऐसे ही पति और पत्नीका अपना अलग-अलग अधिकार होनेसे ही गृहस्थ चलता है। अगर समान अधिकार दिया जाय तो स्त्रीकी तरह पुरुष गर्भ धारण कैसे करेगा ? अतः अपना-अपना अधिकार ही समान अधिकार है। इसीमें दोनोंकी स्वतन्त्रता है।

अपना-अपना अधिकार ही श्रेष्ठ है, उत्तम है। हमारेको थोड़ा अधिकार दिया गया है और पुरुषको ज्यादा अधिकार दिया गया है-इस बातको लेकर ही भीतरमें यह वासना होती है कि हमारेको समान अधिकार मिले, पूरा अधिकार मिले। इस वासनामें हेतु है-बेसमझी, मूर्खता। समझदारी हो तो थोड़ा ही अधिकार बढ़िया है। कर्तव्य अधिक होना चाहिये। कर्तव्यका दास अधिकार है, पर अधिकारका दास कर्तव्य नहीं है। यदि अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन किया जाय तो संसार, सन्त- महात्मा, शास्त्र और भगवान् - ये सब अधिकार दे देते हैं।

अधिकार प्राप्त करनेकी इच्छा जन्म-मरणका हेतु है और नरकोंमें ले जानेवाली है। हमने देखा है कि एक मोहल्लेका कुत्ता दूसरे मोहल्लेमें जाता है तो उस मोहल्लेका कुत्ता उसको काटनेके लिये दौड़ता है। दोनों कुत्ते आपसमें लड़ते हैं। आगन्तुक कुत्ता नीचे गिर जाय, पैर ऊपर कर दे, नम्रता स्वीकार कर ले तो उस मोहल्लेका कुत्ता उसके ऊपर खड़ा होकर राजी हो जाता है। कारण कि वह उस मोहल्लेपर अपना अधिकार मानता है, पर आगन्तुक कुत्ता उस मोहल्लेपर अपना अधिकार नहीं मानता, उसके सामने नम्रता स्वीकार कर लेता है तो लड़ाई मिट जाती है। इससे सिद्ध होता है कि अधिक अधिकार पानेकी लालसा तो कुत्तोंके भीतर भी रहती है। ऐसी ही लालसा यदि मनुष्योंके भीतर भी रहे तो मनुष्यता कैसी ? अधिक अधिकार पानेकी लालसा नीच मनुष्योंमें होती है। जो श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं, वे अपने कर्तव्यका ही उत्साहपूर्वक तत्परतासे पालन करते हैं। कर्तव्यका पालन करनेसे उनका अधिकार स्वतः ऊँचा हो जाता है।

वास्तवमें देखा जाय तो स्त्रियोंका अधिकार कम नहीं है। वे घरकी मालकिन, गृहलक्ष्मी कहलाती हैं। घरके जितने भी लोग बाहर काम-धंधा करते हैं, वे आकर स्त्रियोंका ही आश्रय लेते हैं। स्त्रियाँ घरभरके प्राणियोंको आश्रय देनेवाली होती हैं। वे सबकी सेवा करती हैं, सबका पालन करती हैं। अतः उनका अधिकार ज्यादा है। परन्तु जब वे अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाती हैं, तभी उनके मनमें अधिक अधिकार पानेकी लालसा पैदा होती है।

प्रश्न - आजकल मँहगाईके जमानेमें स्त्री भी नौकरी करे तो क्या हर्ज है?

उत्तर - स्त्रीका हृदय कोमल होता है, अत: वह नौकरीका कष्ट, ताड़ना, तिरस्कार आदि नहीं सह सकती। थोड़ी भी विपरीत बात आते ही उसके आँसू आ जाते हैं। नौकरीको चाहे गुलामी कहो, चाहे दासता कहो, चाहे तुच्छता कहो, एक ही बात है। गुलामीको पुरुष तो सह सकता है, पर स्त्री नहीं सह सकती। अतः नौकरी, खेती, व्यापार आदिका काम पुरुषोंके जिम्मे है और घरका काम स्त्रियोंके जिम्मे है। अतः स्त्रियोंकी प्रतिष्ठा, आदर घरका काम करनेमें ही है। बाहरका काम करनेमें स्त्रियोंका तिरस्कार है। यदि स्त्री प्रतिष्ठासहित उपार्जन करे तो कोई हर्ज नहीं है अर्थात् वह अपने घरमें ही रहकर जीविका- उपार्जन कर सकती है; जैसे- स्वेटर आदि बनाना, कपड़े सीना, पिरोना, बेलपत्ती आदि निकालना, भगवान्के चित्र सजाना आदि। ऐसा काम करनेसे वह किसीकी गुलाम, पराधीन नहीं रहेगी।

- स्रोत : गृहस्थमें कैसे रहें? (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)