Seeker of Truth

श्रीमद्भगवद्गीताका तात्त्विक विवेचन

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

गीता-महिमा

श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात् भगवान् की दिव्य वाणी है। इसकी महिमा अपार है, अपरिमित है। उसका यथार्थमें वर्णन कोई नहीं कर सकता। शेष, महेश, गणेश भी इसकी महिमाको पूरी तरहसे नहीं कह सकते; फिर मनुष्यकी तो बात ही क्या है। इतिहास-पुराणोंमें जगह-जगह इसकी महिमा गायी गयी है; परन्तु जितनी महिमा इसकी अबतक गायी गयी है, उसे एकत्र कर लिया जाय तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि इसकी महिमा इतनी ही है। सच्ची बात तो यह है कि इसकी महिमाका पूर्णतया वर्णन हो ही नहीं सकता। जिस वस्तुका वर्णन हो सकता है वह अपरिमित कहाँ रही, वह तो परिमित हो गयी।

गीता एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है। इसमें सम्पूर्ण वेद और शास्त्रोंका सार संग्रह किया गया है। इसकी रचना इतनी सरल और सुन्दर है कि थोड़ा अभ्यास करनेसे भी मनुष्य इसको सहज ही समझ सकता है, परन्तु इसका आशय इतना गूढ़ और गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहनेपर भी उसका अन्त नहीं आता। प्रतिदिन नये-नये भाव उत्पन्न होते ही रहते हैं, इससे वह सदा नवीन ही बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा-भक्तिसहित विचार करनेसे इसके पद-पदमें परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। भगवान् के गुण, प्रभाव, स्वरूप, मर्म और उपासनाका तथा कर्म एवं ज्ञानका वर्णन जिस प्रकार इस गीता-शास्त्रमें किया गया है वैसा अन्य ग्रन्थोंमें एक साथ मिलना कठिन है; भगवद्गीता एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र है जिसका एक भी शब्द सदुपदेशसे खाली नहीं है। गीतामें एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो रोचक कहा जा सके। उसमें जितनी बातें कही गयी हैं, वे सभी अक्षरश: यथार्थ हैं; सत्यस्वरूप भगवान् की वाणीमें रोचकताकी कल्पना करना उसका निरादर करना है।

गीता सर्वशास्त्रमयी है। गीतामें सारे शास्त्रोंका सार भरा हुआ है। उसे सारे शास्त्रोंका खजाना कहें तो भी अत्युक्ति न होगी। गीताका भलीभाँति ज्ञान हो जानेपर सब शास्त्रोंका तात्त्विक ज्ञान अपने-आप हो सकता है, उसके लिये अलग परिश्रम करनेकी आवश्यकता नहीं रहती।

गीता गंगासे भी बढ़कर है। शास्त्रोंमें गंगास्नानका फल मुक्ति बतलाया गया है। परन्तु गंगामें स्नान करनेवाला स्वयं मुक्त हो सकता है, वह दूसरोंको तारनेकी सामर्थ्य नहीं रखता। किन्तु गीतारूपी गंगामें गोते लगानेवाला स्वयं तो मुक्त होता ही है, वह दूसरोंको भी तारनेमें समर्थ हो जाता है। गंगा तो भगवान् के चरणोंसे उत्पन्न हुई है और गीता साक्षात् भगवान् नारायणके मुखारविन्दसे निकली है। फिर गंगा तो जो उसमें आकर स्नान करता है उसीको मुक्त करती है, परन्तु गीता तो घर-घरमें जाकर उन्हें मुक्तिका मार्ग दिखलाती है। इन सब कारणोंसे गीताको गंगासे बढ़कर कहते हैं।

ऊपर यह बतलाया गया है कि गीता सर्वशास्त्रमयी है। महाभारतमें भी कहा है—‘सर्वशास्त्रमयी गीता’ (भीष्म० ४४। ४)। परन्तु इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है; क्योंकि सारे शास्त्रोंकी उत्पत्ति वेदोंसे हुई, वेदोंका प्राकट्य भगवान् ब्रह्माजीके मुखसे हुआ और ब्रह्माजी भगवान् के नाभि-कमलसे उत्पन्न हुए। इस प्रकार शास्त्रों और भगवान् के बीचमें बहुत अधिक व्यवधान पड़ गया है। किन्तु गीता तो स्वयं भगवान् के मुखारविन्दसे निकली है, इसलिये उसे सभी शास्त्रोंसे बढ़कर कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। स्वयं भगवान् वेदव्यासने कहा है—

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रसंग्रहै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥
(महा०, भीष्म० ४३। १)

‘गीताका ही भली प्रकारसे गान करना चाहिये, अन्य शास्त्रोंके विस्तारकी क्या आवश्यकता है? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान् के साक्षात् मुख-कमलसे निकली हुई है।’

इस श्लोकमें ‘पद्मनाभ’ शब्दका प्रयोग करके महाभारतकारने यही बात व्यक्त की है। तात्पर्य यह है कि यह गीता उन्हीं भगवान् के मुखकमलसे निकली है, जिनके नाभिकमलसे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और ब्रह्माजीके मुखसे वेद प्रकट हुए, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके मूल हैं।

गीता गायत्रीसे बढ़कर है। गायत्री-जपसे मनुष्यकी मुक्ति होती है, यह बात ठीक है; किन्तु गायत्री-जप करनेवाला भी स्वयं ही मुक्त होता है, पर गीताका अभ्यास करनेवाला तो तरन-तारन बन जाता है। जब मुक्तिके दाता स्वयं भगवान् ही उसके हो जाते हैं, तब मुक्तिकी तो बात ही क्या है। मुक्ति उसकी चरणधूलिमें निवास करती है। मुक्तिका तो वह सत्र खोल देता है।

गीताको हम स्वयं भगवान् से भी बढ़कर कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। भगवान् ने स्वयं कहा है—

गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चोत्तमं गृहम्।
गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रींल्लोकान् पालयाम्यहम्॥
(वाराहपुराण)

‘मैं गीताके आश्रयमें रहता हूँ, गीता मेरा श्रेष्ठ गृह है। गीताके ज्ञानका सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकोंका पालन करता हूँ।’

इसके सिवा, गीतामें ही भगवान् मुक्तकण्ठसे यह घोषणा करते हैं कि जो कोई मेरी इस गीतारूप आज्ञाका पालन करेगा वह नि:सन्देह मुक्त हो जायगा; यही नहीं, भगवान् कहते हैं कि जो कोई इसका अध्ययन भी करेगा उसके द्वारा ज्ञानयज्ञसे मैं पूजित होऊँगा। जब गीताके अध्ययनमात्रका इतना माहात्म्य है, तब जो मनुष्य इसके उपदेशोंके अनुसार अपना जीवन बना लेता है और इसका रहस्य भक्तोंको धारण कराता है और उनमें इसका विस्तार एवं प्रचार करता है उसकी तो बात ही क्या है। उसके लिये तो भगवान् कहते हैं कि वह मुझको अतिशय प्रिय है। वह भगवान् को प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारा होता है, यह भी कहा जाय तो कुछ अनुचित न होगा। भगवान् अपने ऐसे भक्तोंके अधीन बन जाते हैं। अच्छे पुरुषोंमें भी यह देखा जाता है कि उनके सिद्धान्तोंका पालन करनेवाला जितना उन्हें प्रिय होता है, उतने प्यारे उन्हें अपने प्राण भी नहीं होते। गीता भगवान् का प्रधान रहस्यमय आदेश है। ऐसी दशामें उसका पालन करनेवाला उन्हें प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है।

गीता भगवान् का श्वास है, हृदय है और भगवान् की वाङ्मयी मूर्ति है। जिसके हृदयमें, वाणीमें, शरीरमें तथा समस्त इन्द्रियों एवं उनकी क्रियाओंमें गीता रम गयी है वह पुरुष साक्षात् गीताकी मूर्ति है। उसके दर्शन, स्पर्श, भाषण एवं चिन्तनसे भी दूसरे मनुष्य परम पवित्र बन जाते हैं। फिर उसके आज्ञापालन एवं अनुकरण करनेवालोंकी तो बात ही क्या है। वास्तवमें गीताके समान संसारमें यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, संयम और उपवास आदि कुछ भी नहीं हैं।

गीता साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकली हुई वाणी है। इसके संकलनकर्ता श्रीव्यासजी हैं। भगवान् श्रीकृष्णने अपने उपदेशका कितना ही अंश तो पद्योंमें ही कहा था, जिसे व्यासजीने ज्यों-का-त्यों रख दिया। कुछ अंश जो उन्होंने गद्यमें कहा था, उसे व्यासजीने स्वयं श्लोकबद्ध कर लिया, साथ ही अर्जुन, संजय एवं धृतराष्ट्रके वचनोंको अपनी भाषामें ग्रथित कर लिया और इस पूरे ग्रन्थको अठारह अध्यायोंमें विभक्त करके महाभारतके अंदर मिला लिया, जो आज हमें इस रूपमें उपलब्ध है।

गीताका तात्पर्य

गीता ज्ञानका अथाह समुद्र है, इसके अंदर ज्ञानका अनन्त भण्डार भरा पड़ा है। इसका तत्त्व समझानेमें बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् और तत्त्वालोचक महात्माओंकी वाणी भी कुण्ठित हो जाती है; क्योंकि इसका पूर्ण रहस्य भगवान् श्रीकृष्ण ही जानते हैं। उनके बाद कहीं इसके संकलनकर्ता व्यासजी और श्रोता अर्जुनका नम्बर आता है। ऐसी अगाध रहस्यमयी गीताका आशय और महत्त्व समझना मेरे-जैसे मनुष्यके लिये ठीक वैसा ही है, जैसा एक साधारण पक्षीका अनन्त आकाशका पता लगानेके लिये प्रयत्न करना। गीता अनन्त भावोंका अथाह समुद्र है। रत्नाकरमें गहरा गोता लगानेपर जैसे रत्नोंकी प्राप्ति होती है, वैसे ही इस गीता-सागरमें गहरी डुबकी लगानेसे जिज्ञासुओंको नित्य नूतन विलक्षण भाव-रत्न-राशिकी उपलब्धि होती है। परन्तु आकाशमें गरुड़ भी उड़ते हैं तथा साधारण मच्छर भी! इसीके अनुसार सभी अपने-अपने भावके अनुसार कुछ अनुभव करते ही हैं। अतएव विचार करनेपर प्रतीत होता है कि गीताका मुख्य तात्पर्य अनादिकालसे अज्ञानवश संसार-समुद्रमें पड़े हुए जीवको परमात्माकी प्राप्ति करवा देनेमें है और उसके लिये गीतामें ऐसे उपाय बतलाये गये हैं, जिनसे मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्यकर्मोंका भलीभाँति आचरण करता हुआ ही परमात्माको प्राप्त कर सकता है। व्यवहारमें परमार्थके प्रयोगकी यह अद्भुत कला गीतामें बतलायी गयी है और अधिकारी-भेदसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये इस प्रकारकी दो निष्ठाओंका प्रतिपादन किया गया है। वे दो निष्ठाएँ हैं—ज्ञाननिष्ठा यानी सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा (३।३)। यहाँ यह प्रश्न होता है कि ‘प्राय: सभी शास्त्रोंमें भगवान् को प्राप्त करनेके तीन प्रधान मार्ग बतलाये गये हैं—कर्म, उपासना और ज्ञान। ऐसी दशामें गीताने दो ही निष्ठाएँ कैसे मानी हैं? क्या गीताको भक्तिका सिद्धान्त मान्य नहीं है? बहुत-से लोग तो गीताका उपदेश भक्तिप्रधान ही मानते हैं और यत्र-तत्र भगवान् ने भक्तिका विशेष महत्त्व भी स्पष्ट शब्दोंमें कहा है (६। ४७) और भक्तिके द्वारा अपनी प्राप्ति सुलभ बतलायी है (८। १४; ११। ५४)।’ इसका उत्तर यह है कि गीताने भक्तिको भगवत्-प्राप्तिका प्रधान साधन माना है—लोगोंकी यह मान्यता ठीक ही है। गीताने भक्तिको बहुत ऊँचा स्थान दिया है और स्थान-स्थानपर अर्जुनको भक्त बननेकी आज्ञा भी दी है (९। ३४; १२।८; १८। ५७, ६५, ६६)। परन्तु गीताने निष्ठाएँ दो ही मानी हैं। इनमें भक्ति योगनिष्ठामें शामिल है और भक्तिके क्रियात्मिका होनेसे गीताका ऐसा मानना युक्तिविरुद्ध भी नहीं कहा जा सकता। भक्ति किस प्रकार योगनिष्ठाके साथ मिली हुई है इसपर आगे चलकर विचार किया जायगा। अस्तु,

इसके अतिरिक्त ‘ज्ञान’ और ‘कर्म’ शब्दोंका जिस अर्थमें गीतामें प्रयोग हुआ है, वह भी विशेष रहस्यमय है। गीताके कर्म और कर्मयोग तथा ज्ञान और ज्ञानयोग एक ही चीज नहीं हैं। गीताके अनुसार शास्त्रविहित कर्म ज्ञाननिष्ठा और योगनिष्ठा दोनों ही दृष्टियोंसे हो सकते हैं। ज्ञाननिष्ठामें भी कर्मका विरोध नहीं है और योगनिष्ठामें तो कर्मोंका सम्पादन ही साधन माना गया है (६। ३) और उनका स्वरूपसे त्याग उलटा बाधक माना गया है (३। ४)। दूसरे अध्यायके ४७ वेंसे लेकर ५१ वें श्लोकतक तथा तीसरे अध्यायके १९ वें और चौथे अध्यायके ४२ वें श्लोकोंमें अर्जुनको योगनिष्ठाकी दृष्टिसे कर्म करनेकी आज्ञा दी गयी है, और अध्याय ३। २८ तथा ५। ८, ९, १३ में सांख्य यानी ज्ञाननिष्ठाकी दृष्टिसे कर्म करनेकी बात कही गयी है। सकाम कर्मके लिये किसी भी निष्ठामें स्थान ही नहीं है, सकाम कर्मियोंको तो भगवान् ने तुच्छ बतलाया है (२। ४२ से ४४; ७। २० से २३; ९। २०, २१)।

ज्ञानका अर्थ भी गीतामें केवल ज्ञानयोग ही नहीं है; फलरूप ज्ञानको भी, जो सब प्रकारके साधनोंका फल है—जो ज्ञाननिष्ठा और योगनिष्ठा दोनोंका फल है और जिसे यथार्थ ज्ञान अथवा तत्त्वज्ञान भी कहते हैं, ‘ज्ञान’ शब्दसे ही कहा है। अध्याय ४। २४ तथा २५के उत्तरार्द्धमें ज्ञानयोगका वर्णन है और अध्याय ४। ३६—३९में फलरूप ज्ञानका वर्णन है। इसी प्रकार अन्यत्र भी प्रसंगानुसार समझ लेना चाहिये।

शास्त्रोंमें कर्म और ज्ञानके अतिरिक्त जो ‘उपासना’ प्रकरण आया है, वह उपासना इन्हीं दो निष्ठाओंके अन्तर्गत है। जब अपनेको परमात्मासे अभिन्न मानकर उपासना की जाती है तब वह सांख्यनिष्ठाके अन्तर्गत आ जाती है और जब भेददृष्टिसे की जाती है तब योगनिष्ठाके अन्तर्गत मानी जाती है। सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठामें यही मुख्य अन्तर है। इसी प्रकार अध्याय १३। २४ में केवल ध्यानके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति बतलायी गयी है; परन्तु वहाँ भी यही बात समझनी चाहिये कि जो ध्यान अभेददृष्टिसे किया जाता है वह सांख्यनिष्ठाके अन्तर्गत है और जो भेददृष्टिसे किया जाता है वह योगनिष्ठाके अन्तर्गत है।

गीतामें केवल भजन-पूजन अथवा केवल ध्यानसे अपनी प्राप्ति बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि योगनिष्ठाके पूरे साधनसे तो उनकी प्राप्ति होती ही है, उसके एक-एक अंगके साधनसे भी उनकी प्राप्ति हो सकती है। यह उनकी कृपा है कि उन्होंने अपनेको जीवोंके लिये इतना सुलभ बना दिया है। अब सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठाके क्या स्वरूप हैं, उन दोनोंमें क्या अन्तर है, उनके कितने और कौन-कौनसे अवान्तर भेद हैं तथा दोनों निष्ठाएँ स्वतन्त्र हैं अथवा परस्पर-सापेक्ष हैं, इन निष्ठाओंके कौन-कौन अधिकारी हैं, इत्यादि विषयोंपर संक्षेपसे विचार किया जा रहा है—

सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठाका स्वरूप

(१) सम्पूर्ण पदार्थ मृगतृष्णाके जलकी भाँति अथवा स्वप्नकी सृष्टिके सदृश मायामय होनेसे मायाके कार्यरूप सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरतते हैं—इस प्रकार समझकर मन-इन्द्रिय और शरीरके द्वारा होनेवाले समस्त कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होना (५। ८-९) तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें एकीभावसे नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन वासुदेवके सिवा अन्य किसीके भी अस्तित्वका भाव न रहना (१३। ३०)—यह तो ‘सांख्यनिष्ठा’ है। ‘ज्ञानयोग’ अथवा ‘कर्मसंन्यास’ भी इसीके नाम हैं। और—

(२) सब कुछ भगवान् का समझकर, सिद्धि-असिद्धिमें समभाव रखते हुए, आसक्ति और फलकी इच्छाका त्याग करके भगवत्-आज्ञानुसार सब कर्मोंका आचरण करना (२। ४७ से ५१) अथवा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीरसे सब प्रकार भगवान् के शरण होकर नाम, गुण और प्रभावसहित उनके स्वरूपका निरन्तर चिन्तन करना (६। ४७)—यह ‘योगनिष्ठा’ है। इसीका भगवान् ने समत्वयोग, बुद्धियोग, तदर्थकर्म, मदर्थकर्म एवं सात्त्विक त्याग आदि नामोंसे उल्लेख किया है।

योगनिष्ठामें सामान्यरूपसे अथवा प्रधानरूपसे भक्ति रहती ही है। गीतोक्त योगनिष्ठा भक्तिसे शून्य नहीं है। जहाँ भक्ति अथवा भगवान् का स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख नहीं है (२। ४७ से ५१) वहाँ भी भगवान् की आज्ञाका पालन तो है ही और उसका फल भी भगवान् की ही प्राप्ति है—इस दृष्टिसे भक्तिका सम्बन्ध वहाँ भी है ही।

ज्ञाननिष्ठाके साधनके लिये भगवान् ने अनेक युक्तियाँ बतलायी हैं, उन सबका फल एक सच्चिदानन्दघन परमात्माकी प्राप्ति ही है। ज्ञानयोगके अवान्तर भेद कई होते हुए भी उन्हें मुख्य चार विभागोंमें बाँटा जा सकता है—

(१) जो कुछ है, वह ब्रह्म ही है।

(२) जो कुछ दृश्यवर्ग प्रतीत होता है वह मायामय है; वास्तवमें एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

(३) जो कुछ प्रतीत होता है, वह सब मेरा ही स्वरूप है—मैं ही हूँ।

(४) जो कुछ प्रतीत होता है, वह मायामय है, अनित्य है, वास्तवमें है ही नहीं; केवल एक चेतन आत्मा मैं ही हूँ।

इनमेंसे पहले दो साधन ‘तत्त्वमसि’ महावाक्यके ‘तत्’ पदकी दृष्टिसे हैं और पिछले दो साधन ‘त्वम्’ पदकी दृष्टिसे हैं। इन्हींका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है—

(१) इस चराचर जगत् में जो कुछ प्रतीत होता है, सब ब्रह्म ही है; एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। जो कुछ कर्म हम करते हैं वह कर्म, उस कर्मके साधन एवं उपकरण तथा स्वयं कर्ता—सब कुछ ब्रह्म है (४। २४)। जिस प्रकार समुद्रमें पड़े हुए बरफके ढेलोंके बाहर और भीतर सब जगह जल-ही-जल व्याप्त है तथा वे ढेले स्वयं भी जलरूप ही हैं, उसी प्रकार समस्त चराचर भूतोंके बाहर-भीतर एकमात्र परमात्मा ही परिपूर्ण हैं तथा उन समस्त भूतोंके रूपमें भी वे ही हैं (१३। १५)।

(२) जो कुछ यह दृश्यवर्ग है, उसे मायामय, क्षणिक एवं नाशवान् समझकर—उसका अभाव करके केवल एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही है, और कुछ भी नहीं है—ऐसा समझते हुए मन-बुद्धिको भी ब्रह्ममें तद्रूप कर देना एवं परमात्मामें एकीभावसे स्थित होकर उनके अपरोक्षज्ञानद्वारा उनमें एकता प्राप्त कर लेना (४। २५ का उत्तरार्द्ध; ५। १७)।

(३) चर, अचर सब ब्रह्म है और वह ब्रह्म मैं हूँ; इसलिये सब मेरा ही स्वरूप है—इस प्रकार विचारकर सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंको अपना आत्मा ही समझना यानी समस्त भूतोंमें अपने आत्माको देखना और आत्माके अन्तर्गत समस्त भूतोंको देखना (६। २९)।

इस प्रकारका साधन करनेवालेकी दृष्टिमें एक ब्रह्मके सिवा अन्य कुछ भी नहीं रहता, वह फिर अपने उस विज्ञानानन्दघन स्वरूपमें ही आनन्दका अनुभव करता है (१८। ५४)।

(४) जो कुछ भी यह मायामय, तीनों गुणोंका कार्यरूप दृश्यवर्ग है इसको और इसके द्वारा होनेवाली सारी क्रियाओंको अपनेसे पृथक्, नाशवान् एवं अनित्य समझना तथा इन सबका अत्यन्त अभाव करके केवल भावरूप आत्माका ही अनुभव करना (१३। ३४)।

इस प्रकारकी स्थिति प्राप्त करनेके लिये भगवान् ने गीतामें अनेक युक्तियोंसे साधकको जगह-जगह यह बात समझायी है कि आत्मा, द्रष्टा, साक्षी, चेतन और नित्य है तथा यह देहादि जड दृश्यवर्ग—जो कुछ प्रतीत होता है—अनित्य होनेसे असत् है; केवल आत्मा ही सत् है। इसी बातको पुष्ट करनेके लिये भगवान् ने दूसरे अध्यायके ११ वेंसे ३० वें श्लोकतक नित्य, शुद्ध, बुद्ध, निराकार, निर्विकार, अक्रिय, गुणातीत आत्माके स्वरूपका वर्णन किया है। अभेदरूपसे साधन करनेवाले पुरुषोंको आत्माका स्वरूप ऐसा ही मानकर साधन करनेसे आत्माका साक्षात्कार होता है। जो कुछ चेष्टा हो रही है, गुणोंकी ही गुणोंमें हो रही है, आत्माका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है (५। ८, ९; १४। १९)—न वह कुछ करता है और न करवाता है—ऐसा समझकर वह नित्य-निरन्तर अपने-आपमें ही अत्यन्त आनन्दका अनुभव करता है (५। १३)।

उपर्युक्त ज्ञानयोगके चारों साधनोंमें पहले दो साधन तो ब्रह्मकी उपासनासे युक्त हैं एवं तीसरा और चौथा साधन अहंग्रह-उपासनासे युक्त है।

यहाँ प्रश्न यह होता है कि ‘उपर्युक्त चारों साधन व्युत्थान-अवस्थामें करनेके हैं या ध्यानावस्थामें या कि वे दोनों ही अवस्थाओंमें किये जा सकते हैं।’ इसका उत्तर यह है कि पहले साधनका पहला अंश, जो अध्याय ४। २४ के अनुसार करनेका है तथा चौथे साधनके अन्तमें जो प्रक्रिया अध्याय ५। ८, ९ के अनुसार बतलायी गयी है—ये दोनों तो केवल व्यवहारकालमें करनेके हैं और दूसरा साधन केवल ध्यानकालमें ही करनेका है। शेष सब दोनों ही अवस्थाओंमें किये जा सकते हैं।

यहाँ कोई यह पूछ सकता है कि ‘पहले साधनमें ‘वासुदेव: सर्वमिति’—जो कुछ दीखता है सब वासुदेवका ही स्वरूप है (७।१९) तथा ‘सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।’—जो पुरुष एकीभावमें स्थित हुआ मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको ही भजता है (६। ३१)—इनका उल्लेख क्यों नहीं किया गया।’ इसका उत्तर यह है कि ये दोनों श्लोक भक्तिके प्रसंगके हैं और दोनोंमें ही परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषका वर्णन है; अत: इनका उल्लेख उस प्रसंगमें नहीं किया गया। परन्तु यदि कोई इनको ज्ञानके प्रसंगमें लेकर इनके अनुसार साधन करना चाहे तो कर सकता है; ऐसा करनेमें भी कोई आपत्ति नहीं है।

जिस प्रकार ऊपर सांख्यनिष्ठाके चार विभाग किये गये हैं, उसी प्रकार योगनिष्ठाके भी तीन मुख्य भेद हैं—

१-केवल कर्मयोग।

२-भक्तिमिश्रित कर्मयोग।

३-भक्तिप्रधान कर्मयोग।

(१) केवल कर्मयोगके उपदेशमें कहीं-कहीं भगवान् ने केवल फलके त्यागकी बात कही है (५। १२; ६। १; १२। ११; १८। ११), कहीं केवल आसक्तिके त्यागकी बात कही है (३। १९; ६। ४) और कहीं फल और आसक्ति दोनोंके छोड़नेकी बात कही गयी है (२। ४७, ४८; १८। ६, ९)। जहाँ केवल फलके त्यागकी बात कही गयी है, वहाँ आसक्तिके त्यागकी बात ऊपरसे ले लेनी चाहिये और जहाँ केवल आसक्तिके त्यागकी बात कही है, वहाँ फलके त्यागकी बात ऊपरसे ले लेनी चाहिये। कर्मयोगका साधन वास्तवमें तभी पूर्ण होता है जब फल और आसक्ति दोनोंका ही त्याग होता है।

(२) भक्तिमिश्रित कर्मयोग—इसमें सारे संसारमें परमेश्वरको व्याप्त समझते हुए अपने-अपने वर्णोचित कर्मके द्वारा भगवान् की पूजा करनेकी बात कही है (१८। ४६); इसीलिये इसको भक्तिमिश्रित कर्मयोग कह सकते हैं।

(३) भक्तिप्रधान कर्मयोग—

इसके दो अवान्तर भेद हैं—

(क) ‘भगवदर्पण’ कर्म और

(ख) ‘भगवदर्थ’ कर्म।

भगवदर्पण कर्म भी दो तरहसे किया जाता है। पूर्ण ‘भगवदर्पण’ तो वह है जिसमें समस्त कर्मोंमें ममता, आसक्ति और फलेच्छाको त्यागकर तथा यह सब कुछ भगवान् का है, मैं भी भगवान् का हूँ और मेरे द्वारा जो कर्म होते हैं वे भी भगवान् के ही हैं, भगवान् ही मुझसे कठपुतलीकी भाँति सब कुछ करवा रहे हैं—ऐसा समझते हुए भगवान् के आज्ञानुसार भगवान् की ही प्रसन्नताके लिये शास्त्रविहित कर्म किये जाते हैं (३। ३०; १२। ६; १८। ५७, ६६)।

इसके अतिरिक्त पहले किसी दूसरे उद्देश्यसे किये हुए कर्मोंको पीछेसे भगवान् के अर्पण कर देना, कर्म करते-करते बीचमें ही भगवान् के अर्पण कर देना, कर्म समाप्त होनेके साथ-साथ भगवान् के अर्पण कर देना अथवा कर्मोंका फलमात्र भगवान् के अर्पण कर देना—यह भी ‘भगवदर्पण’ का ही प्रकार है, यद्यपि यह भगवदर्पणकी प्रारम्भिक सीढ़ी है। ऐसा करते-करते ही उपर्युक्त पूर्ण भगवदर्पण होता है।

‘भगवदर्थ’ कर्म भी दो प्रकारके होते हैं—

भगवान् के विग्रह आदिका अर्चन तथा भजन-ध्यान आदि उपासनारूप कर्म जो भगवान् के ही निमित्त किये जाते हैं और जो स्वरूपसे भी भगवत्सम्बन्धी होते हैं, उनको ‘भगवदर्थ’ कह सकते हैं।

इनके अतिरिक्त जो शास्त्रविहित कर्म भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम अथवा भगवान् की प्रसन्नताके लिये भगवदाज्ञानुसार किये जाते हैं वे भी ‘भगवदर्थ’ कर्मके ही अन्तर्गत हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मोंका ‘मत्कर्म’ और ‘मदर्थ कर्म’ नामसे भी गीतामें उल्लेख हुआ है (११। ५५; १२। १०)।

जिसे अनन्य भक्ति अथवा भक्तियोग कहा गया है (८। १४, २२; ९। १३, १४, २२, ३०, ३४; १०। ९; १३। १०; १४। २६), वह भी ‘भगवदर्पण’ और ‘भगवदर्थ’ इन दोनों कर्मोंमें ही सम्मिलित है। इन सबका फल एक—भगवत्प्राप्ति ही है।

अब प्रश्न यह होता है कि योगनिष्ठा स्वतन्त्ररूपसे भगवत्-प्राप्ति करा देती है या ज्ञाननिष्ठाका अंग बनकर। इसका उत्तर यह है कि गीताको दोनों ही सिद्धान्त मान्य हैं। अर्थात् भगवद्गीता योगनिष्ठाको भगवत्प्राप्ति यानी मोक्षका स्वतन्त्र साधन भी मानती है और ज्ञाननिष्ठामें सहायक भी। साधक चाहे तो बिना ज्ञाननिष्ठाकी सहायताके सीधे ही कर्मयोगसे परम सिद्धि प्राप्त कर सकता है अथवा कर्मयोगके द्वारा ज्ञाननिष्ठाको प्राप्तकर फिर ज्ञाननिष्ठाके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है। दोनोंमेंसे वह कौन-सा मार्ग ग्रहण करे, यह उसकी रुचिपर निर्भर है। योगनिष्ठा स्वतन्त्र है, इस बातको भगवान् ने स्पष्ट शब्दोंमें अध्याय ५। ४, ५ तथा १३। २४ में कहा है। भगवान् में चित्त लगाकर भगवान् के लिये ही कर्म करनेवालेको भगवान् की कृपासे भगवान् शीघ्र मिल जाते हैं, यह बात जगह-जगह भगवान् ने कही है (८। ७; ११। ५५; १२। ६ से ८; १८। ५६ से ५८, ६२)। इसी प्रकार निष्काम कर्म और उपासना दोनों ही ज्ञाननिष्ठाके अंग भी बन सकते हैं। किन्तु अभेद-उपासना होनेसे ज्ञाननिष्ठा भेद-उपासनारूप भक्तियोग यानी योगनिष्ठाका अंग नहीं बन सकती। यह दूसरी बात है कि किसी ज्ञाननिष्ठाके साधककी आगे चलकर रुचि अथवा मत बदल जाय और वह ज्ञाननिष्ठाको छोड़कर योगनिष्ठाको पकड़ ले और उसे फिर योगनिष्ठाके द्वारा ही भगवत्प्राप्ति हो।

यदि कोई पूछे कि कर्मयोगका साधन करके फिर सांख्ययोगके साधनद्वारा जो सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्राप्त होते हैं, उनकी प्रणाली कैसी होती है तो इसे जाननेके लिये ‘त्याग’ के नामसे सात श्रेणियोंमें विभाग करके उसे यों समझना चाहिये—

(१) निषिद्ध कर्मोंका सर्वथा त्याग।

चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट, छल, जबरदस्ती, हिंसा, अभक्ष्यभोजन और प्रमाद आदि शास्त्रविरुद्ध नीच कर्मोंको मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी न करना। यह पहली श्रेणीका त्याग है।

(२) काम्य कर्मोंका त्याग।

स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओंकी प्राप्तिके एवं रोग-संकटादिकी निवृत्तिके उद्देश्यसे किये जानेवाले यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि सकाम कर्मोंको अपने स्वार्थके लिये न करना। यह दूसरी श्रेणीका त्याग है।

यदि कोई लौकिक अथवा शास्त्रीय ऐसा कर्म संयोगवश प्राप्त हो जाय, जो स्वरूपसे तो सकाम हो परन्तु उसके न करनेसे किसीको कष्ट पहुँचता हो या कर्म-उपासनाकी परम्परामें किसी प्रकारकी बाधा आती हो तो स्वार्थका त्याग करके केवल लोकसंग्रहके लिये उसे कर लेना सकाम कर्म नहीं है।

(३) तृष्णाका सर्वथा त्याग।

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा एवं स्त्री, पुत्र और धनादि जो कुछ भी अनित्य पदार्थ प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए हों, उनके बढ़नेकी इच्छाको भगवत्प्राप्तिमें बाधक समझकर उसका त्याग करना। यह तीसरी श्रेणीका त्याग है।

(४) स्वार्थके लिये दूसरोंसे सेवा करानेका त्याग।

अपने सुखके लिये किसीसे भी धनादि पदार्थोंकी अथवा सेवा करानेकी याचना करना एवं बिना याचनाके दिये हुए पदार्थोंको या की हुई सेवाको स्वीकार करना तथा किसी प्रकार भी किसीसे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेकी मनमें इच्छा रखना—इत्यादि जो स्वार्थके लिये दूसरोंसे सेवा करानेके भाव हैं, उन सबका त्याग करना। यह चौथी श्रेणीका त्याग है।

यदि कोई ऐसा अवसर योग्यतासे प्राप्त हो जाय कि शरीरसम्बन्धी सेवा अथवा भोजनादि पदार्थोंके स्वीकार न करनेसे किसीको कष्ट पहुँचता हो या लोकशिक्षामें किसी प्रकारकी बाधा आती हो तो उस अवसरपर स्वार्थका त्याग करके केवल उनकी प्रीतिके लिये सेवादिका स्वीकार करना दोषयुक्त नहीं है; क्योंकि स्त्री, पुत्र और नौकर आदिसे की हुई सेवा एवं बन्धु-बान्धव और मित्र आदि द्वारा दिये हुए भोजनादि पदार्थोंके स्वीकार न करनेसे उनको कष्ट होना एवं लोकमर्यादामें बाधा पड़ना सम्भव है।

(५) सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंमें आलस्य और फलकी इच्छाका सर्वथा त्याग।

ईश्वरकी भक्ति, देवताओंका पूजन, माता-पितादि गुरुजनोंकी सेवा, यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रमके अनुसार आजीविकाद्वारा गृहस्थका निर्वाह एवं शरीरसम्बन्धी खान-पान आदि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें आलस्यका और सब प्रकारकी कामनाका त्याग करना।

(६) संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें और कर्मोंमें ममता और आसक्तिका सर्वथा त्याग।

धन, मकान और वस्त्रादि सम्पूर्ण वस्तुएँ तथा स्त्री, पुत्र और मित्रादि सम्पूर्ण बान्धवजन एवं मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा इत्यादि इस लोकके और परलोकके जितने विषय-भोगरूप पदार्थ हैं, उन सबको क्षणभंगुर और नाशवान् होनेके कारण अनित्य समझकर उनमें ममता और आसक्तिका न रहना तथा केवल एक परमात्मामें ही अनन्यभावसे विशुद्ध प्रेम होनेके कारण मन, वाणी और शरीरके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें और शरीरमें भी ममता और आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जाना। यह छठी श्रेणीका त्याग है।

उक्त छठी श्रेणीके त्यागको प्राप्त हुए पुरुषोंका संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें वैराग्य होकर केवल एक परम प्रेममय भगवान् में ही अनन्य प्रेम हो जाता है। इसलिये उनको भगवान् के गुण, प्रभाव और रहस्यसे भरी हुई विशुद्ध प्रेमके विषयकी कथाओंका सुनना-सुनाना और मनन करना तथा एकान्त देशमें रहकर निरन्तर भगवान् का भजन, ध्यान और शास्त्रोंके मर्मका विचार करना ही प्रिय लगता है। विषयासक्त मनुष्योंमें रहकर हास्य, विलास, प्रमाद, निन्दा, विषय-भोग और व्यर्थ वार्तादिमें अपने अमूल्य समयका एक क्षण भी बिताना अच्छा नहीं लगता एवं उनके द्वारा सम्पूर्ण कर्तव्यकर्म भगवान् के स्वरूप और नामका मनन रहते हुए ही बिना आसक्तिके केवल भगवदर्थ होते हैं।

यह कर्मयोगका साधन है; इस साधनके करते-करते ही साधक परमात्माकी कृपासे परमात्माके स्वरूपको तत्त्वत: जानकर अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है (१८। ५६)।

किन्तु यदि कोई सांख्ययोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो उसे उपर्युक्त साधन करनेके अनन्तर निम्नलिखित सातवीं श्रेणीकी प्रणालीके अनुसार सांख्ययोगका साधन करना चाहिये।

(७) संसार, शरीर और सम्पूर्ण कर्मोंमें सूक्ष्म वासना और अहंभावका सर्वथा त्याग।

संसारके सम्पूर्ण पदार्थ मायाके कार्य होनेसे सर्वथा अनित्य हैं और एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सर्वत्र समभावसे परिपूर्ण हैं—ऐसा दृढ़ निश्चय होकर शरीरसहित संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें और सम्पूर्ण कर्मोंमें सूक्ष्म वासनाका सर्वथा अभाव हो जाना अर्थात् अन्त:करणमें उनके चित्रोंका संस्काररूपसे भी न रहना एवं शरीरमें अहंभावका सर्वथा अभाव होकर मन, वाणी और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका लेशमात्र भी न रहना तथा इस प्रकार शरीरसहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मोंमें वासना और अहंभावका अत्यन्त अभाव होकर एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें ही एकीभावसे नित्य-निरन्तर दृढ़ स्थिति रहना। यह सातवीं श्रेणीका त्याग है।

इस प्रकार साधन करनेसे वह पुरुष तत्काल ही सच्चिदानन्दघन परमात्माको सुखपूर्वक प्राप्त हो जाता है (६। २८)। किन्तु जो पुरुष उक्त प्रकारसे कर्मयोगका साधन न करके आरम्भसे ही सांख्ययोगका साधन करता है, वह परमात्माको कठिनतासे प्राप्त होता है।

संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
(५। ६)

यहाँ यह प्रश्न होता है कि कोई साधक एक ही समयमें दोनों निष्ठाओंके अनुसार साधन कर सकता है या नहीं—यदि नहीं तो क्यों? इसका उत्तर यह है कि—सांख्ययोग और कर्मयोग—इन दोनों साधनोंका सम्पादन एक कालमें एक ही पुरुषके द्वारा नहीं किया जा सकता; क्योंकि कर्मयोगी साधनकालमें कर्मको, कर्मफलको, परमात्माको और अपनेको भिन्न-भिन्न मानकर कर्मफल और आसक्तिका त्याग करके ईश्वरार्थ या ईश्वरार्पणबुद्धिसे समस्त कर्म करता है (३। ३०; ५। १०; ११। ५५; १२। १०; १८। ५६-५७) और सांख्ययोगी मायासे उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अथवा इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके अर्थोंमें बरत रही हैं—ऐसा समझकर, मन, इन्द्रिय और शरीरके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर केवल सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अभिन्नभावसे स्थित रहता है (३। २८; ५। १३; १३। २९; १४। १९-२०; १८। ४९ से ५५)। कर्मयोगी अपनेको कर्मोंका कर्ता मानता है (५। ११), सांख्ययोगी कर्ता नहीं मानता (५। ८, ९)। कर्मयोगी अपने कर्मोंको भगवान् के अर्पण करता है (९। २७, २८), सांख्ययोगी मन और इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली अहंतारहित क्रियाओंको कर्म ही नहीं मानता (१८। १७)। कर्मयोगी परमात्माको अपनेसे पृथक् मानता है (१२।१०), सांख्ययोगी सदा अभेद मानता है (१८। २०)। कर्मयोगी प्रकृति और ईश्वरकी भिन्न सत्ता स्वीकार करता है (१८। ६१), सांख्ययोगी एक ब्रह्मके सिवा किसीकी भी सत्ता नहीं मानता (१३। ३०)। कर्मयोगी कर्मफल और कर्मकी सत्ता मानता है, सांख्ययोगी न तो ब्रह्मसे भिन्न कर्म और उनके फलकी सत्ता ही मानता है और न उनसे अपना कोई सम्बन्ध ही समझता है। इस प्रकार दोनोंकी साधनप्रणाली और मान्यतामें पूर्व और पश्चिमकी भाँति महान् अन्तर है। ऐसी अवस्थामें दोनों निष्ठाओंका साधन एक पुरुष एक कालमें नहीं कर सकता। किन्तु जैसे किसी मनुष्यको भारतवर्षसे अमेरिका, न्यूयार्क शहरको जाना है तो वह यदि ठीक रास्तेसे होकर यहाँसे पूर्व-ही-पूर्व दिशामें जाता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा और पश्चिम-ही-पश्चिमकी ओर चलता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा; वैसे ही सांख्ययोग और कर्मयोगकी साधन-प्रणालीमें परस्पर भेद होनेपर भी जो मनुष्य किसी एक साधनमें दृढ़तापूर्वक लगा रहता है, वह दोनोंके ही एकमात्र परमलक्ष्य परमात्मातक पहुँच ही जाता है (गीता ५। ४)।

अधिकारी

अब प्रश्न यह रह जाता है कि गीतोक्त सांख्ययोग और कर्मयोगके अधिकारी कौन हैं—क्या सभी वर्णों और सभी आश्रमोंके तथा सभी जातियोंके लोग इनका आचरण कर सकते हैं अथवा किसी खास वर्ण, किसी खास आश्रम तथा किसी खास जातिके लोग ही इनका साधन कर सकते हैं? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि गीतामें जिस पद्धतिका निरूपण किया गया है वह सर्वथा भारतीय और ऋषिसेवित है, तथापि गीताकी शिक्षापर विचार करनेपर यह कहा जा सकता है कि गीतामें बतलाये हुए साधनोंके अनुसार आचरण करनेका अधिकार मनुष्यमात्रको है। जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णका यह उपदेश समस्त मानवजातिके लिये है—किसी खास वर्ण अथवा किसी खास आश्रमके लिये नहीं। यही गीताकी विशेषता है। भगवान् ने अपने उपदेशमें जगह-जगह ‘मानव:’, ‘नर:’, ‘देहभृत्’, ‘देही’ इत्यादि शब्दोंका प्रयोग करके इस बातको स्पष्ट कर दिया है। अध्याय ५। १३ में जहाँ सांख्ययोगका मुख्य साधन बतलाया गया है, भगवान् ने देही शब्दका प्रयोग करके मनुष्यमात्रको उसका अधिकारी बतलाया है। इसी प्रकार अध्याय १८।४६ में भगवान् ने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि मनुष्यमात्र अपने-अपने शास्त्रविहित कर्मोंद्वारा सर्वव्यापी परमेश्वरकी पूजा करके सिद्धि प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार भक्तिके लिये भगवान् ने स्त्री, शूद्र तथा पापयोनितकको अधिकारी बतलाया है (९। ३२)। और भी जहाँ-जहाँ भगवान् ने किसी भी साधनका उपदेश दिया है, वहाँ ऐसा नहीं कहा है कि इस साधनको करनेका किसी खास वर्ण, आश्रम या जातिको ही अधिकार है, दूसरोंको नहीं।

ऐसा होनेपर भी यह स्मरण रखना चाहिये कि सभी कर्म सभी मनुष्योंके लिये उपयोगी नहीं होते। इसीलिये भगवान् ने वर्णधर्मपर बहुत जोर दिया है। जिस वर्णके लिये जो कर्म विहित हैं, उसके लिये वे ही कर्म कर्तव्य हैं, दूसरे वर्णके नहीं। इस बातको ध्यानमें रखकर ही कर्म करने चाहिये। ऐसे वर्णधर्मके द्वारा नियत कर्तव्यकर्मोंको अपने-अपने अधिकार और रुचिके अनुकूल योगनिष्ठाके अनुसार मनुष्यमात्र ही कर सकते हैं। वर्णधर्मके अतिरिक्त मानवमात्रके लिये पालनीय सदाचार, भक्ति आदिका साधन तो सभी कर सकते हैं।

कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि सांख्ययोगके साधनका अधिकार संन्यासियोंको ही है, दूसरे आश्रमवालोंको नहीं। यह बात भी युक्तिसंगत नहीं मालूम होती। अध्याय २। १८ में भगवान् ने सांख्यकी दृष्टिसे भी युद्ध ही करनेकी आज्ञा दी है। भगवान् यदि केवल संन्यासियोंको ही सांख्ययोगका अधिकारी मानते तो वे अर्जुनको उस दृष्टिसे युद्ध करनेकी आज्ञा कभी न देते; क्योंकि संन्यास-आश्रममें स्वरूपसे ही कर्ममात्रका त्याग कहा गया है, युद्धरूपी घोर कर्मकी तो बात ही क्या है। फिर अर्जुन तो संन्यासी थे भी नहीं। उन्हें भगवान् ने ज्ञानियोंके पास जाकर ज्ञान सीखनेतककी बात कही है (४। ३४)।

इसके अतिरिक्त तीसरे अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान् ने सांख्ययोगकी सिद्धि केवल कर्मोंके स्वरूपत: त्यागसे नहीं बतलायी। यदि भगवान् सांख्ययोगका अधिकारी केवल संन्यासियोंको ही मानते तो सांख्ययोगके लिये कर्मोंका स्वरूपसे त्याग आवश्यक बतलाते और यह नहीं कहते कि कर्मोंको स्वरूपत: त्याग देनेमात्रसे ही सांख्ययोगकी सिद्धि नहीं होती। यही नहीं; अध्याय १३। ७ से ११ में जहाँ ज्ञानके साधन बतलाये गये हैं, वहाँ एक साधन स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदिमें आसक्ति एवं ममताका त्याग भी बतलाया है—

असक्तिरनभिष्वंग: पुत्रदारगृहादिषु।

स्त्री, पुत्र, मकान आदिके साथ स्वरूपत: सम्बन्ध होनेपर ही उनके प्रति आसक्ति एवं ममताके त्यागकी बात कही जा सकती है। संन्यास-आश्रममें इनका स्वरूपसे ही त्याग है; ऐसी दशामें यदि संन्यासियोंको ही ज्ञानयोगके साधनका अधिकार होता तो उनके लिये इन सबके प्रति आसक्ति और ममताके त्यागका कथन अनावश्यक था।

तीसरी बात यह है कि अठारहवें अध्यायमें जहाँ अर्जुनने खास संन्यास और त्यागके सम्बन्धमें प्रश्न किया है, वहाँ भगवान् ने १३ वेंसे लेकर ४० वें श्लोकतक संन्यासके स्थानपर सांख्ययोगका ही वर्णन किया है, संन्यास-आश्रमका कहीं भी उल्लेख नहीं किया। यदि भगवान् को ‘संन्यास’ शब्दसे संन्यास-आश्रम अभिप्रेत होता अथवा सांख्ययोगका अधिकारी वे केवल संन्यासियोंको ही मानते तो इस प्रसंगपर अवश्य उसका स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख करते। इन सब बातोंसे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि सांख्ययोगके साधनका अधिकार संन्यासी, गृहस्थ सभीको समानरूपसे है। हाँ, इतनी बात अवश्य है कि सांख्ययोगका साधन करनेके लिये संन्यास-आश्रममें सुविधाएँ अधिक हैं, इस दृष्टिसे उस आश्रमको गृहस्थाश्रमकी अपेक्षा सांख्ययोगके साधनके लिये अवश्य ही अधिक उपयुक्त कह सकते हैं।

कर्मयोगके साधनमें कर्मकी प्रधानता है और स्ववर्णोचित विहित कर्म करनेकी विशेषरूपसे आज्ञा है (३। ८); बल्कि कर्मोंका स्वरूपसे त्याग इसमें बाधक बतलाया गया है (३। ४)। इसलिये संन्यास-आश्रममें द्रव्यसाध्य कर्मयोगका आचरण नहीं बन सकता; क्योंकि वहाँ द्रव्य और कर्मोंका स्वरूपसे त्याग है; किन्तु भगवान् की भक्ति सभी आश्रमोंमें की जा सकती है। कुछ लोगोंमें यह भ्रम फैला हुआ है कि गीता तो साधु-संन्यासियोंके कामकी चीज है, गृहस्थीके कामकी नहीं; इसीलिये वे प्राय: बालकोंको इस भयसे गीता नहीं पढ़ाते कि इसे पढ़कर ये लोग गृहस्थका त्याग कर देंगे। परन्तु उनका ऐसा समझना सर्वथा भूल है, यह बात ऊपरकी बातोंसे स्पष्ट हो जाती है। वे लोग यह नहीं सोचते कि मोहके कारण अपने क्षात्रधर्मसे विमुख होकर भिक्षाके अन्नसे निर्वाह करनेके लिये उद्यत अर्जुनने जिस परम रहस्यमय गीताके उपदेशसे आजीवन गृहस्थमें रहकर कर्तव्यका पालन किया, उस गीताशास्त्रका यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है। यही नहीं, गीताके उपदेष्टा स्वयं भगवान् जबतक इस धराधामपर अवताररूपमें रहे, तबतक बराबर कर्म ही करते रहे—साधुओंकी रक्षा की, दुष्टोंका संहार करके उद्धार किया और धर्मकी स्थापना की। यही नहीं, उन्होंने तो यहाँतक कहा है कि यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो लोग मेरी देखा-देखी कर्मोंका परित्याग कर आलसी बन जायँ और इस प्रकार लोककी मर्यादा छिन्न-भिन्न करनेका दायित्व मुझीपर रहे (३। २३-२४)। इसका यह अर्थ भी नहीं कि गीता संन्यासियोंके लिये नहीं है। गीता सभी वर्णाश्रमवालोंके लिये है। सभी अपने-अपने वर्णाश्रमके कर्मोंको करते हुए सांख्य या योग—दोनोंमेंसे किसी एक निष्ठाके द्वारा अधिकारानुसार साधन कर सकते हैं।

गीतामें भक्ति

गीतामें कर्म, भक्ति, ज्ञान—सभी विषयोंका विशदरूपसे विवेचन किया गया है; सभी मार्गोंसे चलनेवालोंको इसमें यथेष्ट सामग्री मिल सकती है। किन्तु अर्जुन भगवान् के भक्त थे; अत: सभी विषयोंका प्रतिपादन करते हुए जहाँ अर्जुनको स्वयं आचरण करनेके लिये आज्ञा दी है, वहाँ भगवान् ने उसे भक्तिप्रधान कर्मयोगका ही उपदेश दिया है (३। ३०; ८। ७; १२। ८; १८। ५७, ६२, ६५, ६६)। कहीं-कहीं केवल कर्म करनेकी भी आज्ञा दी है (देखिये २। ४८, ५०; ३। ८, ९, १९; ४। ४२; ६। ४६; ११। ३३-३४) परन्तु उसके साथ भी भक्तिका अन्य स्थलोंसे अध्याहार कर लेना चाहिये। केवल ४। ३४ में भगवान् ने अर्जुनको ज्ञानियोंके पास जाकर ज्ञान सीखनेकी आज्ञा दी है, वह भी ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रणाली बतलाने तथा अर्जुनको चेतावनी देनेके लिये। वास्तवमें भगवान् का आशय अर्जुनको ज्ञान सीखनेके लिये किसी ज्ञानीके पास भेजनेका नहीं था और न अर्जुनने जाकर उस प्रक्रियासे कहीं ज्ञान सीखा ही। उपक्रम-उपसंहारको देखते हुए भी गीताका पर्यवसान शरणागतिमें ही प्रतीत होता है। वैसे तो गीताका उपदेश ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्’ (२। ११) इस श्लोकसे प्रारम्भ हुआ है; किन्तु इस उपक्रमका बीज ‘कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:’ (२। ७) अर्जुनकी इस उक्तिमें है, जिसमें ‘प्रपन्नम्’ पदसे शरणागतिका भाव व्यंजित होता है। इसीलिये ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ (१८। ६६) इस श्लोकसे भगवान् ने शरणागतिमें ही अपने उपदेशका उपसंहार भी किया है।

गीताका ऐसा कोई भी अध्याय नहीं है, जिसमें कहीं-न-कहीं भक्तिका प्रसंग न आया हो। उदाहरणके लिये दूसरे अध्यायका ६१ वाँ, तीसरेका ३० वाँ, चौथेका ११ वाँ, पाँचवेंका २९ वाँ, छठेका ४७ वाँ, सातवेंका १४ वाँ, आठवेंका १४ वाँ, नवेंका ३४ वाँ, दसवेंका ९ वाँ, ग्यारहवेंका ५४ वाँ, बारहवेंका २ रा, तेरहवेंका१०वाँ, चौदहवेंका २६वाँ, पंद्रहवेंका १९वाँ, सोलहवेंका १ला (जिसमें ‘ज्ञानयोगव्यवस्थिति:’ पदके द्वारा भगवान् के ध्यानकी बात कही गयी है), सतरहवेंका २७वाँ, अठारहवेंका ६६वाँ श्लोक देखना चाहिये। इस प्रकार प्रत्येक अध्यायमें भक्तिका प्रसंग आया है। सातवेंसे लेकर बारहवें अध्यायतकमें तो भक्तियोगका प्रकरण भरा पड़ा है; इसीलिये इन छहों अध्यायोंको भक्तिप्रधान माना गया है। यहाँ उदाहरणके लिये प्रत्येक अध्यायके एक-एक श्लोककी ही संख्या दी गयी है। इसी प्रकार ज्ञानपरक श्लोक भी प्राय: सभी अध्यायोंमें मिलते हैं। उदाहरणके लिये—दूसरे अध्यायका २९ वाँ, तीसरेका २८ वाँ, चौथेके २५ वेंका उत्तरार्द्ध, पाँचवेंका १३वाँ, छठेका २९ वाँ, आठवेंका १३ वाँ, नवेंका १५ वाँ, बारहवेंका ३ रा, तेरहवेंका ३४ वाँ, चौदहवेंका १९ वाँ और अठारहवेंका ४९ वाँ श्लोक देखना चाहिये। इनमें भी दूसरे, पाँचवें, तेरहवें, चौदहवें तथा अठारहवें अध्यायोंमें ज्ञानपरक श्लोक बहुत अधिक मिलते हैं।

गीतामें जिस प्रकार भक्ति और ज्ञानका रहस्य अच्छी तरहसे खोला गया है, उसी प्रकार कर्मोंका रहस्य भी भलीभाँति खोला गया है। दूसरे अध्यायके ३९ वेंसे ५३ वें श्लोकतक, तीसरे अध्यायके ४ थे श्लोकसे ३५ वें श्लोकतक, चौथे अध्यायके १३ वेंसे ३२ वें श्लोकतक, पाँचवें अध्यायके २ रे श्लोकसे ७ वें श्लोकतक तथा छठे अध्यायके १ ले श्लोकसे ४ थे श्लोकतक तो कर्मोंका रहस्य पूर्णरूपसे भरा हुआ है। इनमें भी अध्याय २। ४७ में कर्मका तथा ४। १६ से १८ में कर्म, अकर्म एवं विकर्मके नामसे कर्मोंके रहस्यका विशेषरूपसे विवेचन हुआ है। गीतातत्त्वांकमें उपर्युक्त श्लोकोंकी व्याख्यामें इस विषयका विस्तारसे विवरण दिया गया है। इसी प्रकार अन्यान्य अध्यायोंमें भी कर्मोंका वर्णन है। इससे यह विदित होता है कि गीतामें केवल भक्तिका ही वर्णन नहीं है, ज्ञान, कर्म और भक्ति—तीनोंका ही सम्यक्‍तया प्रतिपादन हुआ है।

सगुण-निर्गुण-तत्त्व

ऊपर यह बात कही गयी कि परमात्माकी उपासना भेद-दृष्टिसे की जाय अथवा अभेद-दृष्टिसे, दोनोंका फल एक ही है—‘यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।’ (५। ५) यह बात कैसे कही गयी? भेदोपासकको भगवान् साकाररूपमें दर्शन देते हैं और इस शरीरको छोड़नेके बाद वह उन्हींके परम धामको जाता है; और अभेदोपासक स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। वह कहीं जाता-आता नहीं। फिर यह कैसे कहा जाता है कि दोनों प्रकारकी उपासनाका—सांख्यनिष्ठाका और योगनिष्ठाका फल एक ही है। इसका उत्तर यह है कि ऊपर जो बात कही गयी वह ठीक है और प्रश्नकर्ताने जो बात कही वह भी ठीक है। दोनोंका समन्वय कैसे है, अब इसीपर विचार किया जाता है।

साधनकालमें साधक जिस प्रकारके भाव और श्रद्धासे भावित होकर परमात्माकी उपासना करता है, उसको उसी भावके अनुसार परमात्माकी प्राप्ति होती है। भगवान् स्वयं भी कहते हैं कि ‘जो मुझे जिस भावसे भजते हैं, मैं उन्हें उसी भावसे भजता हूँ (४। ११)।’ जो अभेदरूपसे अर्थात् अपनेको परमात्मासे अभिन्न मानकर परमात्माकी उपासना करते हैं, उन्हें अभेदरूपसे परमात्माकी प्राप्ति होती है; और जो भेदरूपसे उन्हें भजते हैं, उन्हें भेदरूपसे ही वे दर्शन देते हैं। साधकके निश्चयानुसार भगवान् भिन्न-भिन्न रूपसे सब लोगोंको मिलते हैं।

भेदोपासना तथा अभेदोपासना—दोनों ही उपासनाएँ भगवान् की उपासना हैं; क्योंकि भगवान् सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त सभी कुछ हैं। जो पुरुष भगवान् को निर्गुण-निराकार समझते हैं, उनके लिये वे निर्गुण-निराकार हैं (१२। ३; १३। १२)। जो उन्हें सगुण-निराकार मानते हैं, उनके लिये वे सगुण-निराकार हैं (८। ९)। जो उन्हें सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार, सर्वव्यापी, सर्वोत्तम आदि उत्तम गुणोंसे युक्त मानते हैं, उनके लिये वे सर्वसद्गुणसम्पन्न हैं (१५। १५, १७, १९*)।

* उक्त श्लोकोंमें भगवान् के श्रेष्ठ गुणोंका ही वर्णन है, अतएव १५। १५ में हमने ‘अपोहन’ शब्दका अर्थ ज्ञान और स्मृतिका नाश न लेकर संशय-विपर्ययका नाश ही लिया है।

जो पुरुष उन्हें सर्वरूप मानते हैं, उनके लिये वे सर्वरूप हैं (७। ७ से १२; ९। १६ से १९)। जो उन्हें सगुण-साकार मानते हैं, उन्हें वे सगुण-साकाररूपमें दर्शन देते हैं (४। ८; ९। २६)।

ऊपर जो बात कही गयी, वह तो ठीक है; परन्तु इससे प्रश्नकर्ताकी मूल शंकाका समाधान नहीं हुआ, वह ज्यों-की-त्यों बनी है। शंका तो यही थी कि जब भगवान् सबको अलग-अलग रूपमें मिलते हैं, तब फलमें एकता कहाँ हुई? इसका उत्तर यह है कि प्रथम भगवान् साधकको उसके भावके अनुसार ही मिलते हैं। उसके बाद जो भगवान् के यथार्थ तत्त्वकी उपलब्धि होती है, वह वाणीके द्वारा अकथनीय है, वह शब्दोंद्वारा बतलायी नहीं जा सकती। भेद अथवा अभेदरूपसे जितने प्रकारसे भी भगवान् की उपासना होती है, उन सबका अन्तिम फल एक ही होता है। इसी बातको स्पष्ट करनेके लिये भगवान् ने कहीं-कहीं अभेदोपासकोंको अपनी प्राप्ति बतलायी है (१२।४; १४। १९; १८। ५५) और भेदोपासकके लिये यह कहा है कि वह ब्रह्मको प्राप्त होता है (१४। २६), अनामय पदको प्राप्त होता है (२। ५१), शश्वत् शान्तिको प्राप्त होता है (९। ३१), ब्रह्मको जान जाता है (७। २९), अविनाशी शाश्वत पदको प्राप्त होता है (१८।५६) इत्यादि, इत्यादि। भेदोपासना तथा अभेदोपासना—दोनों प्रकारकी उपासनाका फल एक ही होता है, इसी बातको लक्ष्य करानेके लिये भगवान् ने एक ही बातको उलट-फेरकर कई प्रकारसे कहा है। भेदोपासक तथा अभेदोपासक दोनोंके द्वारा प्रापणीय वस्तु, यथार्थ तत्त्व अथवा ‘स्थान’ एक ही है (५। ५); उसीको कहीं परम शान्ति और शाश्वत स्थानके नामसे कहा है (१८। ६२), कहीं परमधामके नामसे (१५। ६), कहीं अमृतके नामसे (१३। १२), कहीं ‘माम्’ पदसे (९। ३४), कहीं परम गतिके नामसे (८। १३), कहीं परम संसिद्धिके नामसे (८। १५), कहीं अव्यय पदके नामसे (१५। ५), कहीं ब्रह्मनिर्वाणके नामसे (५। २४), कहीं निर्वाणपरमा शान्तिके नामसे (६। १५) और कहीं नैष्ठिक शान्तिके नामसे (५। १२) व्यक्त किया है। इनके अतिरिक्त और भी कई शब्द गीतामें उस अन्तिम फलको व्यक्त करनेके लिये प्रयुक्त हुए हैं। परन्तु वह वस्तु सभी साधनोंका फल है—इसके अतिरिक्त उसके विषयमें कुछ भी कहा नहीं जा सकता। वह वाणीका अविषय है। जिसे वह वस्तु प्राप्त हो गयी है, वही उसे जानता है; परन्तु वह भी उसका वर्णन नहीं कर सकता, उपर्युक्त शब्दों तथा इसी प्रकारके अन्य शब्दोंद्वारा वह शाखाचन्द्रन्यायसे उसका लक्ष्यमात्र करा सकता है। अत: सब साधनोंका फलरूप जो परम वस्तु-तत्त्व है वह एक है, यही बात युक्तिसंगत है।

ईश्वरका यह तात्त्विक स्वरूप अलौकिक है, परम रहस्यमय है, गुह्यतम है। जिन्हें वह प्राप्त है, वे ही उसे जानते हैं। परन्तु यह बात भी उसका लक्ष्य करानेके उद्देश्यसे ही कही जाती है। युक्तिसे विचारकर देखा जाय तो यह कहना भी नहीं बनता।

गीतामें समता

गीतामें समताकी बात प्रधानरूपसे आयी है। भगवत्प्राप्तिकी तो समता ही कसौटी है। ज्ञान, कर्म एवं भक्ति—तीनों ही मार्गोंमें साधनरूपमें भी समताकी आवश्यकता बतलायी गयी है और तीनों ही मार्गोंसे परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषोंका भी समता एक असाधारण लक्षण बतलाया गया है। साधन भी उसके बिना अधूरा है, सिद्धि तो अधूरी है ही। जिसमें समता नहीं, वह सिद्ध ही कैसा? अध्याय २। १५ में ‘समदु:खसुखम्’ पदसे ज्ञानमार्गके साधकोंमें समतावालेको ही अमृतत्व अर्थात् मुक्तिका अधिकारी बतलाया गया है। अध्याय २। ४८ में ‘सिद्धॺसिद्धॺो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥’ इस श्लोकार्धके द्वारा कर्मयोगके साधकको समतायुक्त होकर कर्म करनेकी आज्ञा दी गयी है। अध्याय १२। १८, १९ इन दो श्लोकोंमें सिद्ध भक्तके लक्षणोंमें समताका उल्लेख किया गया है और उसी अध्यायके २० वें श्लोकमें भक्तिमार्गके साधकके लिये भी इन्हीं गुणोंके सेवनकी बात कही गयी है। इसी प्रकार ६। ७ से ९ में सिद्ध कर्मयोगीको सम बतलाया गया है और अध्याय १४। २४-२५ में गुणातीत (सिद्ध ज्ञानयोगी)-के लक्षणोंमें भी समताका प्रधानरूपसे समावेश पाया जाता है।

इस समताका तत्त्व सुगमताके साथ भलीभाँति समझानेके लिये श्रीभगवान् ने गीतामें अनेकों प्रकारसे सम्पूर्ण क्रिया, भाव, पदार्थ और भूतप्राणियोंमें समताकी व्याख्या की है। जैसे—

मनुष्योंमें समता

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥
(६। ९)

‘सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणोंमें, धर्मात्माओं और पापियोंमें भी समान भाव रखनेवाला श्रेष्ठ है।’

मनुष्यों और पशुओंमें समता

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
(५। १८)

‘ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं।’

सम्पूर्ण जीवोंमें समता

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥
(६। ३२)

‘हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतोंमें सम देखता है और सुख अथवा दु:खको भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’

कहीं-कहींपर भगवान् ने व्यक्ति, क्रिया, पदार्थ और भावकी समताका एक ही साथ वर्णन किया है। जैसे—

सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संगविवर्जित:॥
(१२। १८)

‘जो शत्रु-मित्रमें और मान-अपमानमें सम है तथा सर्दी-गरमी और सुख-दु:खादि द्वन्द्वोंमें सम है और आसक्तिसे रहित है (वह भक्त है)।’

यहाँ शत्रु-मित्र ‘व्यक्ति’ के वाचक हैं, मान-अपमान ‘परकृत क्रिया’ हैं, शीत-उष्ण ‘पदार्थ’ हैं और सुख-दु:ख ‘भाव’ हैं।

समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकांचन:।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:॥
(१४। २४)

‘जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित, दु:ख-सुखको समान समझनेवाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्णमें समान भाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रियको एक-सा माननेवाला और अपनी निन्दा-स्तुतिमें भी समान भाववाला है (वही गुणातीत है)।’

इसमें भी दु:ख-सुख ‘भाव’ हैं; लोष्ट, अश्म और कांचन ‘पदार्थ’ हैं; निन्दा-स्तुति ‘परकृत क्रिया’ हैं और प्रिय-अप्रिय ‘प्राणी’, ‘भाव’, ‘पदार्थ’ तथा ‘क्रिया’ सभीके वाचक हैं।

इस प्रकार जो सर्वत्र समदृष्टि है, व्यवहारमें कथनमात्रकी अहंता-ममता रहते हुए भी जो सबमें समबुद्धि रखता है, जिसका समष्टिरूप समस्त संसारमें आत्मभाव है वह समतायुक्त पुरुष है और वही सच्चा साम्यवादी है।

गीताके साम्यवाद और आजकलके कहे जानेवाले साम्यवादमें बड़ा अन्तर है। आजकलका साम्यवाद ईश्वरविरोधी है और यह गीतोक्त साम्यवाद सर्वत्र ईश्वरको देखता है; वह धर्मका नाशक है, यह पद-पदपर धर्मकी पुष्टि करता है; वह हिंसामय है, यह अहिंसाका प्रतिपादक है; वह स्वार्थमूलक है, यह स्वार्थको समीप भी नहीं आने देता; वह खान-पान-स्पर्शादिमें एकता रखकर आन्तरिक भेदभाव रखता है, यह खान-पान-स्पर्शादिमें शास्त्रमर्यादानुसार यथायोग्य भेद रखकर भी आन्तरिक भेद नहीं रखता और सबमें आत्माको अभिन्न देखनेकी शिक्षा देता है; उसका लक्ष्य केवल धनोपासना है, इसका लक्ष्य ईश्वरप्राप्ति है; उसमें अपने दलका अभिमान है और दूसरोंका अनादर है, इसमें सर्वथा अभिमानशून्यता है और सारे जगत् में परमात्माको देखकर सबका सम्मान करना है; उसमें बाहरी व्यवहारकी प्रधानता है, इसमें अन्त:करणके भावकी प्रधानता है; उसमें भौतिक सुख मुख्य है, इसमें आध्यात्मिक सुख मुख्य है; उसमें परधन और परमतसे असहिष्णुता है, इसमें सबका समान आदर है; उसमें राग-द्वेष है, इसमें राग-द्वेषरहित व्यवहार है।

जीवोंकी गति

गीतामें जीवोंके गुण एवं कर्मानुसार उनकी उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ—तीन गतियाँ बतलायी गयी हैं।

योग तथा सांख्यकी दृष्टिसे शास्त्रोक्त कर्म एवं उपासना करनेवाले साधकोंकी गति अध्याय ८। २४ में बतलायी गयी है। उनमें जो योगभ्रष्ट हो जाते हैं अर्थात् साधन करते-करते उसके सिद्ध होनेके पूर्व ही जिनका देहान्त हो जाता है, उनकी गतिका अध्याय ६। ४० से ४५ में वर्णन किया गया है। वहाँ यह बतलाया गया है कि मरनेके बाद वे स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त होते हैं और सुदीर्घकालतक उन दिव्यलोकोंके सुख भोगकर पवित्र आचरणवाले श्रीमान् लोगोंके घरोंमें जन्म लेते हैं अथवा योगियोंके ही कुलमें जन्मते हैं और वहाँ पूर्व अभ्यासके कारण पुन: योगके साधनमें प्रवृत्त होकर परम गतिको प्राप्त हो जाते हैं।

सकामभावसे विहित कर्म एवं उपासना करनेवालोंकी गतिका अध्याय ९। २०, २१ में वर्णन किया गया है—जहाँ स्वर्गकी कामनासे यज्ञ-यागादि वेद-विहित कर्म करनेवालोंको स्वर्गके भोगोंकी प्राप्ति तथा पुण्योंके क्षय हो जानेपर उनके पुन: मर्त्यलोकमें ढकेले जानेकी बात कही गयी है। वे लोग किस मार्गसे तथा किस तरह स्वर्गको जाते हैं, इसकी प्रक्रिया अध्याय ८। २५ में बतलायी गयी है। गीतातत्त्वांकमें उक्त श्लोककी व्याख्यामें उसका विस्तारसे वर्णन किया गया है।

चौदहवें अध्यायके १४ वें और १५ वें और १८ वें श्लोकोंमें सामान्य भावसे सभी पुरुषोंकी गति संक्षेपमें बतलायी गयी है। सत्त्वगुणकी वृद्धिमें मरनेवाले उत्तम लोकोंमें जाते हैं, रजोगुणकी वृद्धिमें मरनेवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं तथा तमोगुणकी वृद्धिमें मरनेवाले पशु-पक्षी, कीट-पतंग तथा वृक्षादि योनियोंमें जन्मते हैं। इस प्रकार सत्त्वगुणमें स्थित पुरुष मरकर ऊपरके लोकोंमें जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मनुष्यलोकमें ही रहते हैं और तमोगुणमें स्थित तामस पुरुष अधोगतिको अर्थात् नरकोंको और तिर्यक् योनियोंको प्राप्त होते हैं। सोलहवें अध्यायके १९ वेंसे २१ वें श्लोकतक आसुरी प्रकृतिके तामसी मनुष्योंके सम्बन्धमें भगवान् ने कहा है कि उन्हें मैं बार-बार आसुरी योनियोंमें अर्थात् कूकर-शूकर आदि योनियोंमें डालता हूँ और इसके बाद वे घोर नरकोंमें गिरते हैं। इसी प्रकार और-और स्थलोंमें भी गुणकर्मके अनुसार गीतामें जीवोंकी गति बतलायी गयी है। मुक्त पुरुषोंकी गतिका वर्णन विस्तारसे सांख्य और योगके फलरूपमें कहा गया है।

गीताकी कुछ खास बातें

(१) गुणोंकी पहचान

गीतामें सात्त्विक-राजस-तामस पदार्थों, भावों एवं क्रियाओंकी कुछ खास पहचान बतलायी गयी है। वह इस प्रकार है—

(१) जिस पदार्थ, भाव या क्रियाका स्वार्थसे सम्बन्ध न हो और जिसमें आसक्ति एवं ममता न हो तथा जिसका फल भगवत्प्राप्ति हो, उसे सात्त्विक जानना चाहिये।

(२) जिस पदार्थ, भाव या क्रियामें लोभ, स्वार्थ एवं आसक्तिका सम्बन्ध हो तथा जिसका फल क्षणिक सुखकी प्राप्ति एवं अन्तिम परिणाम दु:ख हो, उसे राजस समझना चाहिये।

(३) जिस पदार्थ, भाव या क्रियामें हिंसा, मोह एवं प्रमाद हो तथा जिसका फल दु:ख एवं अज्ञान हो, उसे तामस समझना चाहिये।

इस प्रकार तीनों तरहके पदार्थों, भावों एवं क्रियाओंका भेद बतलाकर भगवान् ने सात्त्विक पदार्थों, भावों एवं क्रियाओंको ग्रहण करने तथा राजस और तामस पदार्थों, भावों एवं क्रियाओंका त्याग करनेका उपदेश दिया है।

(२) गीतामें आचरणकी अपेक्षा भावकी प्रधानता

यद्यपि उत्तम आचरण एवं अन्त:करणका उत्तम भाव, दोनोंहीको गीताने कल्याणका साधन माना है, किन्तु प्रधानता भावको ही दी है। दूसरे, बारहवें तथा चौदहवें अध्यायोंके अन्तमें क्रमश: स्थितप्रज्ञ, भक्त एवं गुणातीत पुरुषोंके लक्षणोंमें भावकी ही प्रधानता बतलायी गयी है (देखिये २। ५५ से ७१; १२। १३ से १९; १४। २२ से २५)। दूसरे तथा चौदहवें अध्यायोंमें तो अर्जुनने प्रश्न किया है आचरणको लक्ष्य करके, परन्तु भगवान् ने उत्तर दिया है भावको ही दृष्टिमें रखकर। गीताके अनुसार सकामभावसे की हुई यज्ञ, दान, तप आदि ऊँची-से-ऊँची क्रिया एवं उपासनासे भी निष्कामभावसे की हुई शिल्प, व्यापार एवं सेवा आदि छोटी-से-छोटी क्रिया भी मुक्तिदायक होनेके कारण श्रेष्ठ है (अ० २। ४०, ४९; १२। १२; १८। ४६)। चौथे अध्यायमें जहाँ कई प्रकारके यज्ञरूप साधन बतलाये गये हैं, उनमें भी भावकी प्रधानतासे ही मुक्ति बतलायी है।

गीता और वेद

गीता वेदोंको बहुत आदर देती है। अध्याय १५। १५ में भगवान् अपनेको समस्त वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य, वेदान्तका रचनेवाला और वेदोंका जाननेवाला कहकर उनका महत्त्व बहुत बढ़ा देते हैं। अध्याय १५। १ में संसाररूपी अश्वत्थवृक्षका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि ‘मूलसहित उस वृक्षको तत्त्वसे जाननेवाला ही वास्तवमें वेदके तत्त्वको जाननेवाला है।’ इससे भगवान् ने यह बतलाया कि जगत् के कारणरूप परमात्माके तत्त्वसहित जगत् के वास्तविक स्वरूपको जनाना ही वेदोंका तात्पर्य है। अध्याय १३। ४ में भगवान् ने कहा है कि ‘जो बात वेदोंके द्वारा विभागपूर्वक कही गयी है, उसीको मैं कहता हूँ।’ इस प्रकार अपनी उक्तियोंके समर्थनमें वेदोंको प्रमाण बतलाकर भगवान् ने वेदोंकी महिमाको बहुत अधिक बढ़ा दिया है। अध्याय ९। १७ में तो भगवान् ने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद—वेदत्रयीको अपना ही स्वरूप बतलाकर उसको और भी अधिक आदर दिया है। अध्याय ३। १५ और १७। २३ में भगवान् वेदोंको अपनेसे ही उत्पन्न हुए बतलाते हैं और अध्याय ४। ३२ में भगवान् ने यह कहा है कि परमात्माको प्राप्त करनेके अनेकों साधन वेदोंमें बतलाये हैं। इससे मानो भगवान् स्पष्टरूपसे यह कहते हैं कि वेदोंमें केवल भोगप्राप्तिके साधन ही नहीं हैं—जैसा कि कुछ अविवेकीजन समझते हैं—किन्तु भगवत्प्राप्तिके भी एक-दो नहीं, अनेकों साधन भरे पड़े हैं। अध्याय ८। ११ में भगवान् परमपदके नामसे अपने स्वरूपका वर्णन करते हुए कहते हैं कि वेदवेत्तालोग उसे अक्षर (ओंकार)-के नामसे निर्देश करते हैं। इससे भी भगवान् यही सूचित करते हैं कि वेदोंमें केवल सकाम पुरुषोंद्वारा प्रापणीय इस लोकके एवं स्वर्गके अनित्य भोगोंका ही वर्णन नहीं है, उनमें परमात्माके अविनाशी स्वरूपका भी विशद वर्णन है।

उपर्युक्त वर्णनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वेदोंको भगवान् ने बहुत अधिक आदर दिया है। इसपर यह शंका होती है कि ‘फिर भगवान् ने कई स्थलोंपर वेदोंकी निन्दा क्यों की है। उदाहरणत: अध्याय २।४२ में उन्होंने सकाम पुरुषोंको वेदवादमें रत एवं अविवेकी बतलाया है। अध्याय २। ४५ में उन्होंने वेदोंको तीनों गुणोंके कार्यरूप सांसारिक भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले कहकर अर्जुनको उन भोगोंमें आसक्तिरहित होनेके लिये कहा है और अध्याय ९। २१ में वेदत्रयीधर्मका आश्रय लेनेवाले सकाम पुरुषोंके सम्बन्धमें भगवान् ने यह कहा है कि वे बारम्बार जन्मते-मरते रहते हैं, आवागमनके चक्करसे छूटते नहीं। ऐसी स्थितिमें क्या माना जाय?’

इस शंकाका उत्तर यह है कि उपर्युक्त वचनोंमें यद्यपि वेदोंकी निन्दा प्रतीत होती है, परन्तु वास्तवमें उनमें वेदोंकी निन्दा नहीं है। गीतामें सकामभावकी अपेक्षा निष्कामभावको बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है और भगवान् की प्राप्तिके लिये उसे आवश्यक बतलाया है। इसीसे उसकी अपेक्षा सकामभावको नीचा और नाशवान् विषय-सुखके देनेवाला बतलानेके लिये ही उसको जगह-जगह तुच्छ सिद्ध किया है, निषिद्ध कर्मोंकी भाँति उनकी निन्दा नहीं की है। अध्याय ८। २८ में जहाँ वेदोंके फलको लाँघ जानेकी बात कही है, वहाँ भी सकाम कर्मको लक्ष्य करके ही वैसा कहा गया है। उपर्युक्त विवेचनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भगवान् ने गीतामें वेदोंकी निन्दा कहीं भी नहीं की है, बल्कि जगह-जगह वेदोंकी प्रशंसा ही की है।

गीता और सांख्यदर्शन तथा योगदर्शन

कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि गीतामें जहाँ-जहाँ ‘सांख्य’ शब्दका प्रयोग हुआ है, वहाँ वह महर्षि कपिलके द्वारा प्रवर्तित सांख्यदर्शनका वाचक है, परन्तु यह बात युक्तिसंगत नहीं मालूम होती। गीताके तेरहवें अध्यायमें लगातार तीन श्लोकों (१९, २० और २१)-में तथा अन्यत्र भी ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’ दोनों शब्दोंका साथ-साथ प्रयोग हुआ है और प्रकृति-पुरुष सांख्यदर्शनके खास शब्द हैं; इससे लोगोंने अनुमान कर लिया कि गीताको कापिलसांख्यका सिद्धान्त मान्य है। इसी प्रकार ‘योग’ शब्दको भी कुछ लोग पातंजलयोगका वाचक मानते हैं। पाँचवें अध्यायके प्रारम्भमें तथा अन्यत्र भी कई जगह ‘सांख्य’ और ‘योग’ शब्दोंका एक ही जगह प्रयोग हुआ है; इससे भी लोगोंने यह मान लिया कि ‘सांख्य’ और ‘योग’ शब्द क्रमश: कापिलसांख्य तथा पातंजलयोगके वाचक हैं; परन्तु यह बात युक्तिसंगत नहीं मालूम होती। न तो गीताका ‘सांख्य’ कापिलसांख्य ही है और न गीताका ‘योग’ पातंजलयोग ही। नीचे लिखी बातोंसे यह स्पष्ट हो जाता है—

(१) गीतामें ईश्वरको जिस रूपमें माना है, उस रूपमें सांख्यदर्शन नहीं मानता।

(२) यद्यपि ‘प्रकृति’ शब्दका गीतामें कई जगह प्रयोग आया है, परन्तु गीताकी ‘प्रकृति’ और सांख्यकी ‘प्रकृति’ में महान् अन्तर है। सांख्यने प्रकृतिको अनादि एवं नित्य माना है; गीताने भी प्रकृतिको अनादि तो माना है (१३। १९), परन्तु गीताके अनुसार ज्ञानीकी दृष्टिमें ब्रह्मके सिवा प्रकृतिकी अलग सत्ता नहीं रहती।

(३) गीताके ‘पुरुष’ और सांख्यके ‘पुरुष’ में भी महान् अन्तर है। सांख्यके मतमें पुरुष नाना हैं; किन्तु गीता एक ही पुरुषको मानती है (१३। ३०; १८। २०)।

(४) गीताकी ‘मुक्ति’ और सांख्यकी ‘मुक्ति’ में भी महान् अन्तर है। सांख्यके मतमें दु:खोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति ही मुक्तिका स्वरूप है; गीताकी ‘मुक्ति’ में दु:खोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति तो है ही, किन्तु साथ-ही-साथ परमानन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति भी है।

(५) पातंजलयोगमें योगका अर्थ है—‘चित्तवृत्तिका निरोध।’ परन्तु गीतामें प्रकरणानुसार ‘योग’ शब्दका विभिन्न अर्थोंमें प्रयोग हुआ है (देखिये गीतातत्त्वांक अध्याय २। ५३ की टीका)।

इस प्रकार गीता और सांख्यदर्शन तथा योगदर्शनके सिद्धान्तोंमें बड़ा अन्तर है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur