Seeker of Truth

श्रीमद्भगवद्गीताका प्रभाव

गीता ज्ञानका अथाह समुद्र है—इसके अन्दर ज्ञानका अनन्त भण्डार भरा पड़ा है। इसका तत्त्व समझानेमें बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् और तत्त्वालोचक महात्माओंकी वाणी भी कुण्ठित हो जाती है। क्योंकि इसका पूर्ण रहस्य भगवान् श्रीकृष्ण ही जानते हैं। उनके बाद कहीं इसके संकलनकर्ता व्यासजी और श्रोता अर्जुनका नम्बर आता है। ऐसी अगाध रहस्यमयी गीताका आशय और महत्त्व समझना मेरे लिये ठीक वैसा ही है जैसा एक साधारण पक्षीका अनन्त आकाशका पता लगानेके लिये प्रयत्न करना। गीता अनन्त भावोंका अथाह समुद्र है। रत्नाकरमें गहरा गोता लगानेपर जैसे रत्नोंकी प्राप्ति होती है वैसे ही इस गीता-सागरमें गहरी डुबकी लगानेसे जिज्ञासुओंको नित्य नूतन विलक्षण भाव-रत्नराशिकी उपलब्धि होती है।

गीता सर्वशास्त्रमयी है—यह सब उपनिषदोंका सार है। सूत्रोंमें जैसे विशेष भावोंका समावेश रहता है उससे भी कहीं बढ़कर भावोंका भण्डार इसके श्लोकोंमें भरा पड़ा है। इसके श्लोकोंको श्लोक नहीं, मन्त्र कहना चाहिये। भगवान् के मुखसे कहे जानेके कारण वस्तुत: मन्त्रोंसे भी बढ़कर ये परम मन्त्र हैं। इतनेपर भी ये श्लोक क्यों कहे जाते हैं? इसलिये कि वेद-मन्त्रोंसे जैसे स्त्री और शूद्रादि वंचित रह जाते हैं, कहीं वैसे ही वे बेचारे इस अनुपम गीता-शास्त्रसे भी वंचित न रह जायँ। योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने सब जीवोंके कल्याणार्थ अर्जुनके बहाने इस तात्त्विक ग्रन्थ-रत्नको संसारमें प्रकट किया है। इसके प्रचारककी प्रशंसा करते हुए भगवान् ने, चाहे वे कोई हों, भक्तोंमें इसके प्रचारकी स्पष्ट आज्ञा दी है—

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(गीता १८।६८-६९)

‘जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्यमय गीताशास्त्रको मेरे भक्तोंमें कहेगा, वह नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा। न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्रिय पृथिवीमें दूसरा कोई होवेगा।’

गीताका प्रचार-क्षेत्र संकीर्ण और शिथिल नहीं है। भगवान् यह नहीं कहते कि अमुक जाति, वर्णाश्रम अथवा देश-विदेशमें ही इसका प्रचार किया जाना चाहिये। भक्त होनेपर चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई, ब्राह्मण हो या शूद्र सभी इसके अधिकारी हैं, परन्तु भगवान् यह अवश्य कहते हैं—

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥
(गीता १८।६७)

‘तेरे हितार्थ कहे हुए इस गीतारूप परम रहस्यको किसी कालमें भी न तो तपरहित मनुष्यके प्रति कहना चाहिये और न भक्तिरहितके प्रति तथा न बिना सुननेकी इच्छावालेके ही प्रति और जो मेरी निन्दा करता है उसके प्रति भी नहीं कहना चाहिये।’ यह निषेध भी ठीक है, ब्राह्मण होनेपर भी यदि वह अभक्त है तो इसका अधिकारी नहीं है। शूद्र भी भक्त हो तो इसका अधिकारी है। जाति-पाँति और नीच-ऊँचका इसमें कोई बन्धन नहीं। अनधिकारियोंके लिये और भी तो विशेषण कहे गये हैं? यह ठीक है। जब भक्तोंके लिये खुली आज्ञा है तो जो भक्त होता है वह निन्दा नहीं कर सकता, भक्तको अपने भगवान् के अमृतवचन सुननेकी उत्कण्ठा रहती ही है। अपने प्रियतमकी बातको न सुननेका तो प्रेमी भक्तके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है। ईश्वरकी भक्ति होनेपर तप तो उसमें आ ही गया, अत: इससे यह सिद्ध हुआ कि चाहे कोई भी मनुष्य हो भगवान् श्रीकृष्णका भक्त होनेपर वह गीताका अधिकारी है। इसके प्रत्येक श्लोकको मन्त्र या सूत्र कुछ भी मानकर जितना भी इसे महत्त्व दिया जाय उतना ही थोड़ा है। मक्खन जैसे दूधका सार है वैसे ही गीता सब उपनिषदोंका निचोड़ है। इसीलिये व्यासजीने कहा है कि—

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥

सब उपनिषदें गौ हैं, भगवान् गोपालनन्दन श्रीकृष्ण दुहनेवाले हैं, पार्थ बछड़ा है, गीतारूप महान् अमृत ही दूध है, अच्छी बुद्धिवाले अधिकारी उसके भोक्ता हैं।

इस प्रकारका गीताका ज्ञान हो जानेपर मनुष्यको किसी दूसरे ज्ञानकी आवश्यकता नहीं रहती। इसमें सब शास्त्रोंका पर्यवसान है। गहरा गोता लगानेपर इसमें अनेक अनोखे रत्नोंकी प्राप्ति होती है। अधिक मननसे ज्ञानका भण्डार खुल जाता है। इसीसे कहा गया है—

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥
(महा० भीष्म० ४३।१)

गीता भगवान् का स्वरूप है, श्वास है—भाव है। इस श्लोकके ‘पद्मनाभ’ और ‘मुखपद्म’ शब्दोंमें बड़ा विलक्षण भाव भरा पड़ा है। इनके पारस्परिक अन्तर और रहस्यपर भी ध्यान देना चाहिये। भगवान् ‘पद्मनाभ’ कहलाते हैं, क्योंकि उनकी नाभिसे कमल निकला और उस कमलसे ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई। इन्हीं ब्रह्माजीके मुखसे चारों वेद कहे गये हैं और उन वेदोंका ही विस्तार सब शास्त्रोंमें किया गया है। अब गीताकी उत्पत्तिपर विचार कीजिये। वह स्वयं परमात्माके मुख-कमलसे निकली है, अत: गीता भगवान् का हृदय है। इसीलिये यह मानना पड़ता है कि सर्वशास्त्र गीताके पेटमें समाये हुए हैं। जिसने केवल गीताका ही सम्यक् अभ्यास कर लिया, उसे अन्य शास्त्रोंके विस्तारकी आवश्यकता ही क्या है? उसके कल्याणके लिये तो गीताका एक ही श्लोक पर्याप्त है।

अब ‘सुगीता’ के अर्थपर विचार करना चाहिये। यह ठीक है कि गीताका केवल पाठ करनेवालेका भी कल्याण हो सकता है, क्योंकि भगवान् ने प्रतिज्ञा की है कि—

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:॥
(गीता १८।७०)

पर त्रुटि इतनी ही है कि वह उसके तत्त्वको नहीं जानता। इससे उत्तम वह है जो इसका पाठ अर्थ और भावोंको समझकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक करता है। इस प्रकार एक श्लोकका भी पाठ करनेवाला उससे बढ़कर माना जायगा। इस हिसाबसे गीताका पाठ यद्यपि प्राय: दो वर्षोंमें समाप्त होगा, पर उसके ७०० श्लोकोंके केवल नित्यपाठके फलसे भी इसका फल विशेष ही रहेगा। इस प्रकार अर्थ और भावको समझकर गीताका अभ्यास करनेवालेसे भी वह उत्तम माना जायगा जो उसके अनुसार अपने जीवनको बना रहा है। चाहे यह व्यक्ति दो वर्षोंमें केवल एक ही श्लोकको काममें लाता है, पर इस प्रकार परमात्म-प्राप्तिके साधनवाले श्लोकोंमेंसे किसी एकको धारण करनेवाला सर्वोत्तम है। एक पुरुष तो लाखों श्लोकोंका पाठ कर गया, दूसरा सात सौका और केवल तीसरा एकहीका। पर हमें यह मानना पड़ेगा कि केवल एक ही श्लोकको आचरणमें लानेवाला मनुष्य लाखोंका पाठमात्र करनेवालेकी अपेक्षा श्रेष्ठ है, इस प्रकार गीताके सम्पूर्ण श्लोकोंका अध्ययन करके जो उन्हें पूर्णतया जीवनमें कार्यान्वित कर लेता है उसीका ‘गीता सुगीता’ कर लेना है। गीताके अनुसार इस प्रकार चलनेवाला ज्ञानी तो गीताकी चैतन्यमय मूर्ति है।

अब यदि यह पूछा जाय कि गीतामें ऐसे कौन-से श्लोक हैं जिनमेंसे केवल एकको ही काममें लानेपर मनुष्यका कल्याण हो जाय, इसका ठीक-ठीक निश्चय करना बहुत ही कठिन है; क्योंकि गीताके प्राय: सभी श्लोक ज्ञानपूर्ण और कल्याणकारक हैं। फिर भी सम्पूर्ण गीतामें एक तिहाई श्लोक तो ऐसे दीखते हैं कि जिनमेंसे एकको भी भलीभाँति समझकर काममें लानेसे अर्थात् उसके अनुसार आचरण बनानेसे मनुष्य परमपदको प्राप्त कर सकता है। उन श्लोकोंकी पूर्ण संख्या विस्तारभयसे न देकर पाठकोंकी जानकारीके लिये कतिपय श्लोकोंकी संख्या नीचे लिखी जाती है—

अ० २ श्लो० २०, ७१; अ० ३ श्लो० १७—३०; अ० ४ श्लो० २०—२७; अ० ५ श्लो० १०, १७, १८, २९; अ० ६ श्लो० १४, ३०, ३१, ४७; अ० ७ श्लो० ७, १४, १९; अ० ८ श्लो० ७, १४, २२; अ० ९ श्लो० २६, २९, ३२, ३४; अ० १० श्लो० ९, ४२; अ० ११ श्लो० ५४, ५५; अ० १२ श्लो० २, ८, १३, १४; अ० १३ श्लो० १५, २४, २५, ३०; अ० १४ श्लो० १९, २६; अ० १५ श्लो० ५, १५; अ० १६ श्लो० १; अ० १७ श्लो० १६ और अ० १८ श्लो० ४६, ५६, ५७, ६२, ६५, ६६।

इस प्रकार उपर्युक्त श्लोकोंमेंसे एक श्लोकको भी अच्छी तरह काममें लानेवाला पुरुष मुक्त हो सकता है। जो सम्पूर्ण गीताको अर्थ और भावसहित समझकर श्रद्धा-प्रेमसे अध्ययन करता हुआ उसके अनुसार चलता है उसके तो रोम-रोममें गीता ठीक उसी प्रकार रम जाती है जैसे परम भागवत श्रीहनुमान् जी के रोम-रोममें ‘राम’ रम गये थे। जिस समय वह पुरुष श्रद्धा और प्रेमसे गीताका पाठ करता है उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उसके रोम-रोमसे गीताका सुमधुर संगीत-स्वर प्रतिध्वनित हो रहा है।

गीताका विषय-विभाग

गीताका विषय बड़ा ही गहन और रहस्यपूर्ण है। साधारण पुरुषोंकी तो बात ही क्या, इसमें बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। कोई-कोई तो अपने आशयके अनुसार ही इसका अर्थ कर लेते हैं। उन्हें अपने मतके अनुसार इसमें मसाला भी मिल जाता है। क्योंकि इसमें कर्म, उपासना, ज्ञान सभी विषयोंका समावेश है और जहाँ जिस विषयका वर्णन आया है वहाँ उसकी भगवान् ने वास्तविक प्रशंसा की है। अत: अपने-अपने मतको पुष्ट करनेके लिये इसमें सभी विद्वानोंको अपने अनुकूल सामग्री मिल ही जाती है। इसलिये ये अपने सिद्धान्तके अनुसार मोमके नाककी तरह खींचातानी करके इसे अपने मतकी ओर ले जाते हैं। जो अद्वैतवादी (एक ब्रह्मको माननेवाले) हैं वे गीताके प्राय: सभी श्लोकोंको अभेदकी तरफ, द्वैतवादी द्वैतकी तरफ और कर्मयोगी कर्मकी तरफ ही ले जानेकी चेष्टा करते हैं अर्थात् ज्ञानियोंको यह गीताशास्त्र ज्ञानका, भक्तोंको भक्तियोगका और कर्मयोगियोंको कर्मका प्रतिपादक प्रतीत होता है। भगवान् ने बड़ी गम्भीरताके साथ अर्जुनके प्रति इस रहस्यमय ग्रन्थका उपदेश किया, जिसे देखकर प्राय: सभी संसारके मनुष्य इसे अपनाते और अपनी ओर खींचते हुए कहते हैं कि हमारे विषयका प्रतिपादन इसमें किया गया है। परन्तु भगवान् ने द्वैत, अद्वैत या विशिष्टाद्वैत आदि किसी वादको या किसी धर्म-सम्प्रदाय, जाति अथवा देशविशेषको लक्ष्यमें रखकर इसकी रचना नहीं की। इसमें न तो किसी धर्मकी निन्दा और न किसीकी पुष्टि ही की गयी है। यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और भगवान्द्वारा कथित होनेसे इसे स्वत: प्रामाणिक मानना चाहिये। इसे दूसरे शास्त्रके प्रमाणोंकी आवश्यकता नहीं है—यह तो स्वयं दूसरोंके लिये प्रमाण-स्वरूप है। अस्तु!

कोई-कोई आचार्य कहते हैं कि इसके प्रथम छ: अध्यायोंमें कर्मका, द्वितीय षट्कमें उपासनाका और तृतीयमें ज्ञानका विषय वर्णित है। उनका यह कथन किसी अंशमें माना जा सकता है, पर वास्तवमें ध्यानपूर्वक देखनेसे यह पता लग सकेगा कि द्वितीय अध्यायसे अठारहवें अध्यायतक सभी अध्यायोंमें न्यूनाधिक रूपमें कर्म, उपासना और ज्ञान-विषयका प्रतिपादन किया गया है। अत: गम्भीर विचारके बाद इसका विभाग इस प्रकार किया जाना उचित है—

प्रथम अध्यायमें तो मोह और स्नेहके कारण अर्जुनके शोक और विषादका वर्णन होनेसे उसका नाम अर्जुन-विषादयोग पड़ा। इसमें कर्म, उपासना और ज्ञानके उपदेशका विषय नहीं है। इस अध्यायका उद्देश्य अर्जुनको उपदेशका अधिकारी सिद्ध करना ही है। द्वितीय अध्यायमें सांख्य और निष्काम कर्मयोग-विषयका वर्णन है। प्रधानतया अ० २ श्लोक ३९से अ० ६ श्लोक ४ तक भगवान् ने विस्तारपूर्वक निष्काम-कर्मयोगके विषयका अनेक प्रकारकी युक्तियोंसे वर्णन किया है। भक्ति और ज्ञानका विषय भी प्रसंगवश आ गया है, जैसे अ० ५ श्लोक १३ से २६ तक ज्ञान और अ० ४ श्लोक ६ से ११ तक भक्ति। शेष छठे अध्यायमें ध्यानयोगका प्रतिपादन किया गया है। दूसरे शब्दोंमें हम इसे मनके संयमका विषय कह सकते हैं। इसीलिये इसका नाम आत्मसंयमयोग रखा गया। अध्याय ७ से १२ तक तत्त्व और प्रभावके सहित भगवान् की भक्तिका रहस्य अनेक प्रकारकी युक्तियोंद्वारा समझाया गया है। इसीसे भक्तिके साथ भगवान् ने ज्ञान-विज्ञान आदि शब्दोंका प्रयोग किया है। इन छ: अध्यायोंके षट्कको भक्तियोग या उपासना-काण्ड पद दिया जा सकता है। अध्याय १३ और १४ में तो मुख्यतया ज्ञानयोगका ही प्रतिपादन किया गया है। १५ वें अध्यायमें भगवान् के रहस्य और प्रभावसहित भक्तियोगका वर्णन है। १६ वें अध्यायमें दैवी और आसुरी सम्पदावाले पुरुषोंके लक्षण अर्थात् श्रेष्ठ और नीच पुरुषोंके आचरणका उल्लेख किया गया है। इसके द्वारा मनुष्यको विधि-निषेधका बोध होता है, अत: इसे ज्ञानयोगप्रतिपादक किसी अंशमें मान लेनेमें कोई आपत्ति नहीं है। १७ वें अध्यायमें श्रद्धाका तत्त्व समझानेके लिये प्राय: निष्काम कर्मयोग-बुद्धिसे यज्ञ, दान और तपादि कर्मोंका विभाग किया गया है, अत: इसे निष्काम-कर्मयोग-विषयका ही अध्याय समझना चाहिये। १८ वें में उपसंहार-रूपसे भगवान् ने सभी विषयोंका वर्णन किया है। जैसे श्लोक १ से १२ और ४१ से ४८ तक कर्मयोग, १३ से ४० और ४९ से ५५ तक ज्ञानयोग तथा ५६से ६६ तक कर्मसहित भक्तियोग।

गीतोपदेशका आरम्भ और पर्यवसान

गीताके मुख्य उपदेशका आरम्भ ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्’ आदि श्लोकसे हुआ है। इसीसे लोग इसे गीताका बीज कहते हैं, परन्तु ‘कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:’ (२।७) आदि श्लोक भी बीज कहा गया है; क्योंकि अर्जुनके भगवत्-शरण होनेके कारण ही भगवान्द्वारा यह गीतोपनिषद् कहा गया। गीताका पर्यवसान—समाप्ति शरणागतिमें है। यथा—

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(१८।६६)

‘सर्व धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्यशरणको प्राप्त हो, मैं तुझको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’

प्र०—भगवान् अर्जुनको क्या सिखलाना चाहते थे?

उ०—तत्त्व और प्रभावसहित भक्तिप्रधान कर्मयोग।

प्र०—गीतामें प्रधानत: धारण करनेयोग्य विषय कितने हैं?

उ०—भक्ति, कर्म, ध्यान और ज्ञानयोग। ये चारों विषय दोनों निष्ठाओं (सांख्य और कर्म) के अन्तर्गत हैं।

प्र०—गीताके अनुसार परमात्माको प्राप्त हुए सिद्ध पुरुषके प्राय: सम्पूर्ण लक्षणोंका, मालाकी मणियोंके सूत्रकी तरह, आधाररूप लक्षण क्या है?

उ०—‘समता।’

इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्‍ब्रह्मणि ते स्थिता:॥
(गीता ५।१९)

जिनका मन समत्वभावमें स्थित है; उनके द्वारा इस जीवित अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया अर्थात् वे जीते हुए ही संसारसे मुक्त हैं, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम हैं, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही स्थित हैं।

मान-अपमान, सुख-दु:ख, मित्र-शत्रु और ब्राह्मण-चाण्डाल आदिमें जिनकी समबुद्धि है, गीताकी दृष्टिसे वे ही ज्ञानी हैं।

प्र०—गीता क्या सिखलाती है?

उ०—आत्मतत्त्वका ज्ञान और ईश्वरकी भक्ति, स्वार्थका त्याग और धर्म-पालनके लिये प्राणोत्सर्ग! इन चारोंमेंसे जो एक गुणको भी जीवनमें क्रियात्मकरूप दे देता है—एकका भी सम्यक् पालन कर लेता है, वह स्वयं मुक्त और पवित्र होकर दूसरोंका कल्याण करनेमें समर्थ हो सकता है। जिनको परमात्म-दर्शनकी अतीव तीव्र उत्कण्ठा हो—जो यह चाहते हों कि हमें शीघ्र-से-शीघ्र परमात्माकी प्राप्ति हो, उन्हें धर्मके लिये अपने प्राणोंको हथेलीमें लिये रहना चाहिये। जो ईश्वरकी आज्ञा समझकर धर्मकी वेदीपर प्राणोंको विसर्जन करता है वस्तुत: उसका प्राण-विसर्जन परमात्माके लिये ही है, अत: ईश्वरको भी तत्काल उसका कल्याण करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है। जैसे गुरु गोविन्दसिंहके पुत्रोंने धर्मार्थ अपने प्राणोंकी आहुति देकर मुक्ति प्राप्त की, वैसे ही जो धर्म अर्थात् ईश्वरके लिये सर्वस्व होम देनेको सदा-सर्वदा प्रस्तुत रहता है उसके कल्याणमें सन्देह ही क्या है?

‘स्वधर्मे निधनं श्रेय:।’
(गीता३।३५)

आत्मतत्त्वका यथार्थ ज्ञान हो जानेपर मनुष्य निर्भय हो जाता है, क्योंकि वह इस बातको अच्छी तरह समझ जाता है कि आत्माका कभी नाश होता ही नहीं।

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो 
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
(गीता २।२०)

जबतक मनुष्यके अन्त:करणमें किसीका किंचित् भी भय है, तबतक समझ लेना चाहिये कि वह आत्मतत्त्वसे बहुत दूर है। जिनको ईश्वरकी शरणागतिके रहस्यका ज्ञान है, वही पुरुष धर्मके लिये—ईश्वरके लिये—हँसते-हँसते प्राणोंको होम सकता है। यही उसकी कसौटी है। वास्तवमें स्वार्थका त्याग भी यही है। भगवद्-वचनोंके महत्त्व और रहस्यको समझनेवाला व्यक्ति आवश्यकता पड़नेपर स्त्री, पुत्र और धनादिकी तो बात ही क्या, प्राणोत्सर्गतक कर देनेमें तिलभर भी पीछे नहीं रहता—सदा तैयार रहता है। जो व्यक्ति धर्म अर्थात् कर्तव्य-पालनका तत्त्व जान जाता है उसकी प्रत्येक क्रियामें मान-बड़ाई आदि बड़े-से-बड़े स्वार्थका आत्यन्तिक अभाव झलकता रहता है। ऐसे पुरुषोंका जीवन-धारण केवल भगवत्प्रीत्यर्थ अथवा लोकहितार्थ ही समझा जाता है।

प्र०—गीतामें सबसे बढ़कर श्लोक कौन-सा है?

उ०—

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(१८।६६)

इस श्लोकमें कथित शरणके प्रकारकी व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीताके अध्याय ९ श्लोक ३४ एवं अध्याय १८ श्लोक ६५ में भलीभाँति की गयी है।

प्र०—भगवान् ने अपने दिये हुए उपदेशोंमें गुह्यतम उपदेश किसको बतलाया है?

उ०—‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।’ ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ आदिको (१८।६५-६६)।

प्र०—गीता सुनानेमें भगवान् का लक्ष्य क्या था?

उ०—अर्जुनको पूर्णतया अपनी शरणमें लाना।

प्र०—इसकी पूर्ति `कहाँ होती है?

उ०—अध्याय १८ श्लोक ७३ में—

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव॥

‘हे अच्युत! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है, मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिये मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।’

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)