Seeker of Truth

श्रीमद्भागवतमें विशुद्ध भक्ति

श्रीमद्भागवत अलौकिक ग्रन्थ है। इसमें वर्णाश्रमधर्म, मानवधर्म, कर्मयोग, अष्टांगयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग आदि भगवत्प्राप्तिके सभी साधनोंका बड़ा विशद वर्णन है; परन्तु ध्यानसे देखा जाय तो इसमें भगवान् की भक्तिका ही विशेषरूपसे निरूपण किया गया है। साधन और साध्य दोनों प्रकारकी भक्तिका वर्णन है। ग्रन्थका आदि, मध्य और अन्त भक्तिसे ही ओतप्रोत है। पहले ही स्कन्धमें कहा गया है—

स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा सम्प्रसीदति॥
(१। २। ६)

‘मनुष्योंका सबसे उत्तम धर्म—परमधर्म वही है, जिससे श्रीहरिमें निष्काम और अव्यभिचारिणी भक्ति हो। भक्तिसे आनन्दस्वरूप भगवान् को प्राप्त करके ही हृदय प्रफुल्लित होता है।’

इसी प्रकार १२ वें स्कन्धके अन्तमें कहा गया है—

भवे भवे यथा भक्ति: पादयोस्तव जायते।
तथा कुरुष्व देवेश नाथस्त्वं नो यत: प्रभो॥
नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम्।
प्रणामो दु:खशमनस्तं नमामि हरिं परम्॥
(१३। २२-२३)

‘हे देवदेव! हे प्रभो! आप ही हमारे स्वामी हैं। ऐसी कृपा कीजिये, जिससे जन्म-जन्ममें आपके चरणकमलोंमें हमारी भक्ति होवे। जिनका नाम-संकीर्तन सारे पापोंका नाश करनेवाला है और जिन्हें किया हुआ प्रणाम समस्त दु:खोंको शान्त कर देता है, उन परमेश्वर श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ।’

भक्तिकी महिमा कहते हुए स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने उद्धवजीसे यहाँतक कह दिया है—

न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥
भक्त्याहमेकया ग्राह्य: श्रद्धयाऽऽत्मा प्रिय: सताम्।
भक्ति: पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥
धर्म: सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता।
मद्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि॥
कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना।
विनाऽऽनन्दाश्रुकलया शुद्‍ध्येद् भक्त्या विनाऽऽशय:॥
वाग् गद्‍गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥
यथाग्निना हेममलं जहाति
ध्मातं पुन: स्वं भजते च रूपम्।
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय
मद्भक्तियोगेन भजत्यथो माम्॥
(११। १४। २०ऌ—२५)

‘उद्धव! मेरी बढ़ी हुई भक्ति जिस प्रकार मुझको सहज ही प्राप्त करा सकती है, उस प्रकार न तो योग, न ज्ञान, न धर्म, न वेदोंका स्वाध्याय, न तप और न दान ही करा सकता है। मैं संतोंका प्रिय आत्मा हूँ। एकमात्र श्रद्धासम्पन्न भक्तिसे ही मेरी प्राप्ति सुलभ है। दूसरोंकी तो बात ही क्या, जातिसे चाण्डालादिको भी मेरी भक्ति पवित्र कर देती है। मनुष्योंमें सत्य और दयासे युक्त धर्म हो तथा तपस्यासे युक्त विद्या भी हो, परन्तु मेरी भक्ति न हो तो वे धर्म और विद्या उनके अन्त:करणको पूर्णरूपसे पवित्र नहीं कर सकते। मेरे प्रेमसे जबतक शरीर पुलकित नहीं हो जाता, हृदय द्रवित नहीं हो उठता, आनन्दके आँसुओंकी झड़ी नहीं लग जाती, तबतक मेरी ऐसी भक्तिके बिना अन्त:करण कैसे शुद्ध हो सकता है। भक्तिके आवेशमें जिसकी वाणी गद्‍गद हो गयी है, चित्त द्रवित हो गया है, जो कभी रोता है, कभी हँसता है, कभी संकोच छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है और कभी नाच उठता है—ऐसा मेरा भक्त स्वयं पवित्र हो इसमें तो कहना ही क्या; वह समस्त लोकोंको पवित्र कर देता है। जिस प्रकार अग्निसे तपाये जानेपर सोना मैलको त्याग देता है और पुन: तपाये जानेपर अपने स्वच्छ स्वरूपको प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी मेरे भक्तियोगके द्वारा कर्मवासनासे मुक्त होकर फिर मुझ भगवान् को प्राप्त हो जाता है।’

भक्तिसे भगवान् वशमें हो जाते हैं। वे कहते हैं—

अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।
साधुभिर्ग्रस्त स्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:॥
नाहमात्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना।
श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिरहं परा॥
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम्।
हित्वा मां शरणं याता: कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे॥
मयि निर्बद्धहृदया: साधव: समदर्शना:।
वशीकुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रिय: सत्पतिं यथा॥
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि॥
(९। ४। ६३—६६, ६८)

‘मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ और अस्वतन्त्रकी तरह हूँ। मेरे साधुहृदय भक्तोंने मेरे हृदयको अपने हाथमें कर रखा है। मैं उन भक्तोंका सदा ही प्यारा हूँ। ब्रह्मन्! अपने भक्तोंका एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। उनको और किसीका आश्रय है ही नहीं। इसलिये अपने उन साधुस्वभाव भक्तोंको छोड़कर न तो मैं अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्द्धांगिनी विनाशरहिता लक्ष्मीको ही। जो मेरे भक्त अपने स्त्री, पुत्र, घर, कुटुम्बी, प्राण, धन, इहलोक और परलोक—सबको छोड़कर केवल मेरी शरणमें आ गये हैं, भला उन भक्तोंको मैं छोड़नेका विचार भी कैसे कर सकता हूँ। जिस प्रकार सती स्त्री अपने पातिव्रत्यसे सदाचारी पतिको वशमें कर लेती है, वैसे ही अपने हृदयको मुझमें प्रेम-बन्धनसे बाँध रखनेवाले वे समदर्शी साधु पुरुष भक्तिके द्वारा मुझे अपने वशमें कर लेते हैं। अधिक क्या कहूँ—वे मेरे प्रेमी साधु पुरुष मेरे हृदय हैं और मैं उन प्रेमी साधुओंका हृदय हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता।’

एक जगह तो भगवान् ने यहाँतक कह दिया है—

अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभि:॥
(११। १४। १६)

‘मैं उन भक्तोंके पीछे-पीछे सदा इसलिये फिरा करता हूँ कि उनकी चरणरजसे पवित्र हो जाऊँ।’

सचमुच भक्तिकी ऐसी ही महिमा है। भक्ति ऐसी अनुपम वस्तु है कि यह जिसके पास होती है, वह जो कुछ चाहता है, वही उसे मिल जाता है। भगवान् ने श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा है—

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥
(११। ५४)

‘परन्तु हे परंतप अर्जुन! अनन्य भक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।’

भगवान् की प्रेमलक्षणा भक्ति ऐसी ही है। श्रीमद्भागवतमें इसी प्रेमलक्षणा भक्तिका तथा इसे प्राप्त करानेवाली वैधी भक्तिका बड़ा ही सुन्दर वर्णन है।

श्रीमद्भागवतका दशम स्कन्ध तो भक्तिसे भरपूर है। भगवान् की विविध लीलाओंका अत्यन्त सुमधुर वर्णन होनेसे उसके पढ़ने-सुननेमें बड़ा ही रस आता है। इस दशम स्कन्धमें भगवान् की कुछ ऐसी लीलाओंका वर्णन है, जिन्हें पढ़कर अज्ञलोग भगवान् पर लांछन लगानेसे नहीं चूकते। वे कहते हैं, भगवान् का तो प्रत्येक कार्य आदर्शरूप है; फिर उनके लिये चोरी, कपट, काम, रमण आदिके प्रसंग कैसे आते हैं। वास्तवमें बात ऐसी नहीं है। झूठ-कपट और चोरी-जारी आदि दोष तो उन मनुष्योंमें भी नहीं रह सकते, जो अनन्य मनसे भगवान् का स्मरण करने लगते हैं। फिर साक्षात् भगवान् में तो ऐसे दोषोंकी कल्पना ही क्योंकर की जा सकती है। भगवान् का तो अवतार ही हुआ था—साधुओंका उद्धार, दुष्टोंके लिये दण्ड-विधान और धर्मकी संस्थापना करनेके लिये। वे ऐसा कोई काम करते ही कैसे जिससे साधुओंके बदले दुष्टोंके दुराचारको प्रोत्साहन मिलता तथा धर्मकी जड़ उखड़ती? भगवान् ने स्वयं अपने श्रीमुखसे घोषणा की है—

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद् विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥
(गीता ३। २१—२५)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है। हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है तथा न कोई भी प्राप्त करने-योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ; क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मोंमें न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताका करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ। हे भारत ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान् भी लोक-संग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे।’

इस प्रकार कहनेवाले स्वयं भगवान् कोई भी ऐसा काम करें, जिससे लोकशिक्षामें बाधा आती हो—यह सम्भव नहीं है। अतएव श्रीमद्भागवतमें जहाँ काम, रमण, रति आदि शब्द आते हैं, वहाँ उनका कुत्सित अर्थ न करके दूसरा ही अर्थ करना चाहिये और वही है भी। श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् ने कहा है—

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(१०। ९-१०)

‘निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जानते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर ‘रमण’ करते हैं। उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मुझे भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

यह साधनावस्थाका वर्णन है, यहाँ अभी साधकको भगवान् की प्राप्ति नहीं हुई है। इन श्लोकोंमें भक्तकी उस मानसिक स्थितिका वर्णन है, जिसके फलस्वरूप उसे भगवान् की प्राप्ति होगी। यहाँ मानसिक इन्द्रियोंसे ही वह भगवान् को देखता, सुनता और रमण करता है। भक्तका यह भगवान् में रमण करना कदापि कुत्सित इन्द्रियोंका कार्य नहीं है। यह परम पवित्र मानसिक भाव है। इसी मानसिक भावसे वह भगवान् का चिन्तन करता है, उनका संस्पर्श पाता है और उनके साथ भाषण करता है। भागवतमें वर्णित रमण, काम आदि शब्दोंका भी कुछ ऐसा ही तात्पर्य समझना चाहिये। भगवान् पर किसी भी कुत्सित क्रियाका आरोप करना तो अपनी कुत्सित वृत्तिका ही परिचय देना है।

यह जो कहा जाता है कि भक्तिके शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य—इन पाँच भावोंमें माधुर्य ही सबसे श्रेष्ठ है, सो भावविकासकी दृष्टिसे ऐसा कहना भी एक प्रकारसे ठीक ही है; परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी भक्तोंमें इन सारे भावोंका क्रमश: उत्तरोत्तर प्रादुर्भाव हो या भक्तका कोई-सा भाव किसी दूसरेसे ऊँचा-नीचा हो। अपने-अपने क्षेत्रमें सभी भाव उत्तम हैं और जिस भक्तको जो भाव प्रिय है, उसके लिये ही वही भाव सर्वोत्तम है। श्रीहनुमान् जीके लिये दास्यभाव ही सर्वोत्तम है। वे किसी भी दूसरे भावके लिये क्या इस दास्यभावका कभी परित्याग कर सकते हैं? श्रीवसुदेव-देवकी या श्रीनन्द-यशोदाके लिये वात्सल्यभाव ही सर्वप्रधान है। इसी प्रकार अन्य भावोंके लिये भी समझना चाहिये। फिर यह बात तो किसी भी हालतमें न समझनी चाहिये कि ‘मधुर’ भावका अर्थ लौकिक स्त्री-पुरुषोंकी तरह कामजनित अंग-संग या कोई कुत्सित क्रिया हो। वह तो परम पवित्र भाव है, जिसमें भक्त अपने भगवान् को सर्वथा आत्मनिवेदन करके उन्हींके मधुर चिन्तन, मधुर भाषण और मधुर मिलनमें डूबा रहता है।

श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं। वे सारे दोषोंसे सर्वथा रहित समस्त कल्याणमय गुण-गणोंसे सर्वथा सम्पन्न हैं। उनके नाम-गुण-लीला आदिके श्रवण, कथन, मनन और चिन्तनमात्रसे ही मनुष्य परम पवित्र होकर दुर्लभ परम पदको प्राप्त हो जाते हैं; फिर साक्षात् उनमें किसी दोषकी कल्पना ही कैसे हो सकती है? अतएव भगवान् की लीलाओंमें जहाँ कहीं ऐसे प्रसंग या वाक्य आये हैं, वहाँ परम शुद्ध भावमें ही उनका अर्थ लेना चाहिये, कुत्सितभावमें कदापि नहीं। पूर्वापरका प्रसंग न समझमें आये, तो उसे अपनी अल्पबुद्धिके बाहरकी बात समझकर उसकी आलोचनासे हट जाना चाहिये। न तो यही मानना चाहिये कि ये प्रसंग क्षेपक हैं, न उन्हें कोरे आध्यात्मिक रूपक ही समझना चाहिये और न भूलकर भी ऐसी छूट ही देनी चाहिये कि भगवान् में ऐसी बातें हों, तो भी क्या हर्ज है। उन्हें श्रद्धाकी दृष्टिसे सर्वथा परम पवित्र समझना चाहिये, परन्तु अपनी बुद्धि काम नहीं देती, उनके स्वरूपको नहीं खोल पाती, इसलिये उनकी आलोचना न करनी चाहिये।

गोपियोंके प्रेमकी भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं अपने श्रीमुखसे प्रशंसा की है। उद्धव आदि मनीषियोंने उसको मुक्तकण्ठसे सराहा है। यदि गोपियाँ वास्तवमें व्यभिचारदुष्टा होतीं तो भगवान् उनकी प्रशंसा कैसे करते और क्यों उद्धवादि ही उनकी चरणरज चाहते? गोपियोंकी भक्ति सर्वथा अव्यभिचारिणी और अहैतुकी थी। उनका भाव पवित्र था और उसीके अनुसार उनकी रासलीला भी पवित्र थी। उनका चलना, बोलना, मिलना, नाचना और गाना—सभी कुछ पवित्र था, आनन्द और प्रेमसे परिपूर्ण था। उसमें किसी कुत्सितभावकी कल्पनाकी भी गुंजाइश नहीं है। भक्तिके साधनसे काम-क्रोधादि दोषोंकी जड़ उखड़ जाती है। फिर गोपियों-जैसी भक्तिमती स्त्रियोंमें कामादि दोष कैसे रह सकते हैं। उनका ‘रास’ भगवान् के प्रेमका मूर्तिमान् स्वरूप था। वह ऐसा नहीं था, जैसा आजकल लोग धनके लोभसे स्वाँग बना-बनाकर करते हैं।

श्रीमद्भागवतमें कई जगह प्रसंगवश मदिरा, मांस, हिंसा, व्यभिचार, चोरी, असत्यभाषण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष, अहंकार, असत्य, कपट आदिके प्रकरण आये हैं। उन्हें न तो सिद्धान्त समझना चाहिये और न अनुकरणीय ही। उन्हें सर्वथा हेय समझकर उनका त्याग ही करना चाहिये। असलमें श्रीमद्भागवतमें स्थान-स्थानपर जो इन दोषों-दुर्गुणों और दुराचारके त्यागका आदेश दिया गया है, उसीका पालन करना चाहिये। अच्छे पुरुषोंमें कहीं किसी दोषकी बात आयी है—जैसे ब्रह्माजीके काम, मोह आदि। तो वहाँ यही समझना चाहिये कि काम, मोहकी प्रबलता दिखलाकर बड़ी सावधानीसे उनका सर्वथा त्याग कर देनेके अभिप्रायसे ही वे बातें लिखी गयी हैं। उन्हें न तो विधि मानना चाहिये और न यही मानना चाहिये कि ब्रह्मादि देवताओं, महात्माओंमें ये दोष रहते हैं। कहीं अपवाद या छूटके रूपमें भी उन्हें स्वीकार न करना चाहिये।

श्रीमद्भागवतमें जहाँ-तहाँ काम-व्यभिचारकी निन्दा है, क्रोध और असत्यका विरोध है, चोरी-बरजोरी, हत्या, शिकार और मांस-सेवन आदिका निषेध है—कुछ थोड़े-से उदाहरण देखिये—

यस्त्विह वा अगम्यां स्त्रियमगम्यं वा पुरुषं योषिदभिगच्छति तावमुत्र कशया ताडयन्तस्तिग्मया सूर्म्या लोहमय्या पुरुषमालिङ्गयन्ति स्त्रियं च पुरुषरूपया सूर्म्या।

(५। २६। २०)

‘इस लोकमें यदि कोई पुरुष परस्त्रीसे अथवा कोई स्त्री परपुरुषसे व्यभिचार करती है तो यमदूत उन्हें ‘तप्तसूर्मि’ नामक नरकमें ले जाकर कोड़ोंसे पीटते हुए पुरुषको तपाये हुए लोहेकी स्त्री-मूर्तिसे और स्त्रीको तपायी हुई पुरुष-मूर्तिसे आलिंगन कराते हैं।’

बलि राजाने कहा है—

‘न ह्यसत्यात्परोऽधर्म:’
(८। २०। ४)

‘असत्यसे बढ़कर कोई अधर्म नहीं है।’

यस्त्विह वै स्तेयेन बलाद् वा हिरण्यरत्नादीनि ब्राह्मणस्य वापहरत्यन्यस्य वानापदि पुरुषस्तममुत्र राजन् यमपुरुषा अयस्मयैरग्निपिण्डै: सन्दंशैस्त्वचि निष्कुषन्ति।

(५। २६। १९)

‘यहाँ जो व्यक्ति चोरी या बरजोरीसे ब्राह्मणके या आपत्तिकालके बिना ही किसी दूसरे पुरुषके सुवर्ण-रत्नादि पदार्थोंका हरण करता है, उसे मरनेपर यमदूत ‘सन्दंश’ नामक नरकमें ले जाकर तपाये हुए लोहेके गोलोंसे दागते हैं और सँड़सीसे उसकी खाल नोचते हैं।’

स्वयं भगवान् ने राजा मुचुकुन्दसे कहा है—

क्षात्रधर्मस्थितो जन्तून् न्यवधीर्मृगयादिभि:।
समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रित:॥
(१०। ५१। ६३)

‘तुमने क्षत्रियवर्णमें शिकार आदिके द्वारा बहुत-से पशुओंकी हत्या की थी; अब एकाग्रचित्तसे मेरी उपासना करते हुए तपस्याके द्वारा उस पापको धो डालो।’

कपिलदेवजी कहते हैं—

अर्थैरापादितैर्गुर्व्या हिंसयेतस्ततश्च तान्।
पुष्णाति येषां पोषेण शेषभुग् यात्यध: स्वयम्॥
(३। ३०। १०)

‘मनुष्य जहाँ-तहाँसे भयंकर हिंसा आदिके द्वारा धन बटोरकर स्त्री-पुत्रादिके पालन-पोषणमें लगा रहता है और शेष बचे हुए भागको खाकर पापका फल भोगनेके लिये स्वयं नरकमें जाता है।’

ये त्विह वै दाम्भिका दम्भयज्ञेषु पशून् विशसन्ति तानमुष्मिलॸलोके वैशसे नरके पतितान् निरयपतयो यातयित्वा विशसन्ति।

(५।२६।२५)

‘जो पाखण्डपूर्वक यज्ञोंमें पशुओंका वध करते हैं, वे निश्चय ही दाम्भिक हैं, उन पतितोंको परलोकमें ‘वैशस’ नरकमें डालकर वहाँके अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं।’

देवर्षि नारदजीने मरे पशुओंको आकाशमें दिखलाकर राजा प्राचीनबर्हिसे कहा है—

भो भो: प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे।
संज्ञापिताञ्जीवसङ्घान् निर्घृणेन सहस्रश:॥
एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव।
सम्परेतमय:कूटैश्छिन्दन्त्युत्थितमन्यव: ॥
(४। २५। ७-८)

‘प्रजापालक नरेश! देखो-देखो, तुमने यज्ञमें निर्दयताके साथ जिन हजारों पशुओंकी बलि दी है, उन्हें आकाशमें देखो। ये सब तुम्हारे द्वारा दी हुई पीड़ाओंको याद करते हुए तुमसे बदला लेनेके लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोकमें जाओगे, तब ये अत्यन्त क्रोधमें भरकर तुम्हें अपने लोहेके-से सींगोंसे छेद डालेंगे।’

सभी दोषोंको भागवतमें त्याज्य और महान् अशुभ फलदायक बतलाया गया है। लेखका कलेवर न बढ़ जाय, इसलिये यहाँ थोड़े ही उदाहरण दिये गये हैं।

दूसरी बात यह है कि इतिहासोंमें —कथाओंमें वर्णित सभी बातें आचरणीय नहीं होतीं। शास्त्रोंके विधिवाक्य ही आचरणीय होते हैं। निषेधवाक्य उनसे भी अधिक बलवान् होते हैं। शास्त्रोंमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, व्यभिचारादिके लिये कहीं भी विधि नहीं है—निषेध ही है। कहीं प्रासंगिक कोई बात हो तो भी उसे किसी भी अंशमें—किंचिन्मात्र भी, कभी किसी प्रकार भी उपादेय या अवलम्बन करने योग्य न मानना चाहिये।

असलमें जहाँ भगवान् की भक्ति होती है, वहाँ तो काम-क्रोधादि दोष रह ही नहीं पाते। श्रीशुकदेवजी कहते हैं—

यस्य भक्तिर्भगवति हरौ नि:श्रेयसेश्वरे।
विक्रीडतोऽमृताम्भोधौ किं क्षुद्रै: खातकोदकै:॥
(६। १२। २२)

‘जो मोक्षके स्वामी भगवान् श्रीहरिकी भक्ति करता है, वह तो अमृतके समुद्रमें खेलता है। क्षुद्र गढ़ैयामें भरे हुए मामूली गंदे जलके सदृश किसी भी भोगमें या स्वर्गादिमें उसका मन कभी चलायमान नहीं होता।’ जब किसी भी भोगोंकी आसक्ति और कामना ही नहीं होती, तब निषिद्ध कर्म, दुर्गुण, दुराचार तो हो ही कैसे सकते हैं। गोसाईंजीने कहा है—

बसइ भगति मनि जेहि उर माहीं।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं॥

अतएव यह निश्चय कर लेना चाहिये कि जो यथार्थमें भक्त, साधु या महापुरुष हैं, उनका हृदय, उनकी प्रत्येक क्रिया और चेष्टा, उनके उपदेश या भाव, उनके दर्शन और भाषण—सभी पवित्र होते हैं, पवित्र करनेवाले होते हैं। उनके सारे आचरण आदर्श और सब लोगोंके लिये कल्याणकारी होते हैं। यह सोचना चाहिये कि भक्त, संत और महापुरुषोंसे ही यदि जगत् को सदाचार और सद्गुणोंकी समुचित शिक्षा न मिलेगी तो फिर संसारमें सदाचारका आदर्श कौन होगा। अतएव श्रीमद्भागवतमें आये हुए प्रासंगिक काम, रमण, रति आदि शब्दोंका और वैसे प्रकरणोंका यदि कोई पुरुष लौकिक गंदे काम, रमण आदि अर्थ करे तो उसे किसी भी अंशमें न मानना चाहिये। समय बड़ा विकट है। आजकल भक्त या साधुका वेष बनाकर न जाने कितने कपटी लोग अपनी दुर्वासनाओंकी पूर्तिके लिये लोगोंको ठग रहे हैं। ऐसे ही लोग प्राय: सद्‍ग्रन्थोंके इस प्रकारके प्रकरणोंका और शब्दोंका आश्रय लेकर—उन्हें महापुरुषोंमें अपवाद बतलाकर लोगोंको अपने चंगुलमें फँसाते हैं। संसारके भोले-भाले नर-नारी, जो महापुरुषोंके लक्षण और आचरणोंसे पूरे परिचित नहीं हैं, जिन्हें शास्त्रोंमें आये हुए ऐसे प्रकरणों या शब्दोंके अर्थका ठीक-ठीक पता नहीं है, वे लोग उन कामिनी-कांचन, इन्द्रियोंके नाना प्रकारके भोग और मान-बड़ाई तथा पूजा-प्रतिष्ठा चाहनेवाले, वाचाल दम्भियोंकी बातोंमें फँस जाते हैं। अतएव सभी भाई-बहिनोंसे निवेदन है कि वे सावधान हो जायँ और जिनके आचरणमें ये बुरी बातें दिखलायी दें अथवा जो शास्त्रोंके प्रमाण दे-देकर दुर्गुण, दुराचार, व्यभिचार, चोरी, कपट और असत्य आदिका समर्थन करें, उनको महात्मा कभी न मानें। यथार्थ श्रेष्ठ पुरुषमें दुर्गुण-दुराचार होते ही नहीं। वे परस्त्री-परद्रव्यकी तो बात ही क्या, शास्त्रानुकूल मान-बड़ाईके प्राप्त होनेपर भी सकुचाते हैं।

इसपर यदि कोई कहे कि इतिहासोंमें ज्ञानी पुरुषोंमें भी काम-क्रोध आदिके उदाहरण मिलते हैं, तो इसका उत्तर यह है कि ज्ञानी पुरुषोंमें काम-क्रोध आदि नहीं होते। वे लोकसंग्रहार्थ नाट्य करते हों तो दूसरी बात है और यदि वास्तवमें काम-क्रोध हों तो शास्त्रके अनुसार उन्हें भगवत्प्राप्त सिद्ध, महात्मा या यथार्थ ज्ञानवान् न मानना चाहिये।

हाँ, पापी और दुराचारी भी भगवान् की भक्ति अवश्य कर सकते हैं और भक्तिमें लग जानेपर वे भी परम पवित्र बन सकते हैं।

श्रीभगवान् ने स्वयं कहा है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)

‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।’

भगवान् की भक्तिके सभी अधिकारी हैं। कोई किसी भी जातिका हो, उसके अबतक कितने ही नीच आचरण हों, भगवान् के शरण होकर उनकी भक्ति करनेसे वह शीघ्र ही पवित्र हो जाता है और अन्तमें पापोंसे सर्वथा मुक्त होकर भगवान् को प्राप्त कर लेता है।

इन सब बातोंपर ध्यान देकर प्रत्येक मनुष्यको चाहिये कि वह अपने जीवनको भजनमय बनानेकी चेष्टा करे। भगवान् में अनन्य प्रेम हो—इसके लिये भगवान् के नामका जप, उनके गुण-प्रभाव-रहस्य-तत्त्वके ज्ञानसहित उनके स्वरूपका ध्यान और उनकी लीलाओंका श्रवण-कथन-मनन करे। यही मनुष्यका परम कर्तव्य है। जो ऐसा करता है, वह भगवान् की भक्तिके प्रभावसे पूर्णमनोरथ हो जाता है और यदि वह कुछ भी नहीं चाहता तो भगवान् अपने-आपको ही उसके अर्पण कर देते हैं।

जीवन थोड़ा है और नाना प्रकारके विघ्नोंसे भरा है। जो समय बीत गया, वह तो गया ही। अब शेष बचे हुए जीवनके प्रत्येक क्षणको भगवान् की सेवामें —उनके भजनमें लगा देना चाहिये। इसीमें मनुष्य-जीवनकी सार्थकता है। भगवत्प्राप्तिरूप परमकल्याणकी प्राप्ति मनुष्य-जीवनमें ही सम्भव है। उसीको प्राप्त करना चाहिये। दूसरे भोग तो और योनियोंमें भी मिल सकते हैं, परन्तु भगवान् की प्राप्ति तो इस मनुष्य-जन्ममें ही हो सकती है।

श्रीभगवान् कहते हैं—

नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥
(श्रीमद्भा० ११। २०। १७)

‘यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका आदि कारण है, यह (पुण्यवान् के लिये) सुलभ और (पापात्माके लिये) अत्यन्त दुर्लभ है। (भवसागरसे पार होनेके लिये) सुदृढ़ नौकारूप है। गुरु ही इसके कर्णधार हैं। अनुकूल वायुरूप मेरी सहायता पाकर यह पार लग जाती है। (यह सब सुयोग पाकर भी) जो पुरुष संसार-समुद्रसे पार नहीं होता, वह आत्मघाती ही है।’

यही बात भगवान् श्रीरघुनाथजीने अपनी प्रजासे कही है—

बड़े भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥

कलियुगमें भगवत्प्राप्तिके साधन बहुत सुलभ हैं—भगवान् के नाम-संकीर्तनसे ही सारा काम बन सकता है। सत्संग मिल जाय, फिर तो कहना ही क्या है! श्रीमद्भागवतमें कहा है—

तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
भगवत्सङ्गिसङ्गस्य मर्त्यानां किमुताशिष:॥
(१। १८। १३)

‘भगवत्संगी अर्थात् नित्य भगवान् के साथ रहनेवाले अनन्यप्रेमी भक्तोंके निमेषमात्रके भी संगके साथ हम स्वर्ग तथा मोक्षकी भी समानता नहीं कर सकते, फिर मनुष्योंके इच्छित पदार्थोंकी तो बात ही क्या है?’

कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण:।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत्॥
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
(१२। ३। ५१-५२)

‘हे राजन् ! दोषोंके खजाने कलियुगमें एक ही यह महान् गुण है कि भगवान् श्रीकृष्णके कीर्तनसे ही मनुष्य आसक्तिरहित होकर परमात्माको प्राप्त हो जाता है। सत्ययुगमें ध्यानयोगसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंसे और द्वापरमें विधिपूर्वक पूजा-अर्चाके द्वारा भगवान् की आराधना करनेवालेको जो फल मिलता है, वही कलियुगमें केवल श्रीहरिके नाम-संकीर्तनसे ही मिल जाता है।’

अतएव भक्ति-श्रद्धापूर्वक श्रीभगवान् के नाम-गुणोंका जप-कीर्तन, महापुरुषोंका संग और श्रीमद्भागवत, गीता एवं रामायण-जैसे सद्‍ग्रन्थोंका स्वाध्याय करके मनुष्य-जीवनको सफल बनानेकी चेष्टा प्राणपणसे करनी चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur