Seeker of Truth

श्रद्धा-विश्वास और प्रेम

प्रश्न—भगवान् और महात्मा पुरुषोंके प्रभाव और गुणोंको सुनकर भी श्रद्धा-विश्वास नहीं होता और उसके अनुसार तत्परतासे चेष्टा नहीं होती—इसमें क्या कारण है?

उत्तर—भगवान् के तथा महापुरुषोंके प्रभाव और गुणोंको सुनकर भी श्रद्धा नहीं होती—इसमें कारण है अन्त:करणकी मलिनता और तदनुकूल चेष्टा न होनेमें कारण है श्रद्धाका अभाव! अन्त:करणके अनुरूप ही श्रद्धा होती है। भगवान् ने कहा है—

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स:॥
(गीता १७। ३)

‘हे भारत! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अन्त:करणके अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है। अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा है वैसा ही उसका स्वरूप है।’

अन्त:करणकी मलिनता दूर होनेसे ही उत्तम श्रद्धा होती है और श्रद्धा होनेसे ही तत्परता होती है।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
(४।३९)

अन्त:करणकी मलिनता दूर करनेका उपाय इस समय सबसे बढ़कर भगवान् के नामका जप है। इसलिये कैसे भी हो—हठसे या प्रेमसे—नाम-जप करता रहे। नाम-जपसे अन्त:करणकी मलिनता नष्ट हो जायगी, उसमें सात्त्विक श्रद्धा उत्पन्न होगी और फिर भगवान् तथा महात्माओंमें आप ही श्रद्धा हो जायगी और उनके कथनानुसार तत्परतासे चेष्टा होने लगेगी।

प्रश्न—सत्संग करते हैं फिर भी मन जैसा होना चाहिये वैसा नहीं होता—इसमें क्या कारण है?

उत्तर—इसमें भी सत्संगका प्रभाव न जानना एवं अन्त:करणकी मलिनता ही हेतु है। अन्त:करण मलिन होनेसे सत्संगका रंग नहीं चढ़ता। मैला कपड़ा रंगमें डुबोनेपर उसमें रंग अच्छा नहीं चढ़ता। साफ होता है तो रंग अच्छा चढ़ता है। (प्रेम, आसक्ति, रुचि, राग—इन सबका अर्थ एक ही है।) पारससे लोहा छुआ देनेसे लोहा सोना बन जाता है—यह बात सत्य है; किन्तु बीचमें यदि व्यवधान होता है तो वह सोना नहीं होता। इसी तरह महात्माओंके संगसे रंग चढ़ता ही है, किन्तु यदि अविश्वासका व्यवधान होता है तो नहीं चढ़ता। जिसको पूर्ण विश्वास होता है उसके रंग चढ़ता ही है।

भगवान् न्यायकारी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, यह विश्वास हमारा हो जाय तो फिर हम एक भी पाप नहीं कर सकते। ईश्वरकी सत्ता मान लेनेसे ही पापका नाश हो जाता है। मानते हुए भी यदि पाप करते हैं तो यही समझना चाहिये कि किसी एक अंशमें ही मानते हैं, पूरा विश्वास नहीं है। सरकार जिस कामसे प्रसन्न नहीं है यानी जो काम सरकारके प्रतिकूल है, उसे हम नहीं करते। यह सरकार तो सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् भी नहीं है। परमात्मा सर्वज्ञ हैं, सब जगह हैं और सर्वसमर्थ हैं। जो कोई भी उन्हें सर्वज्ञ समझ लेता है उससे पाप नहीं हो सकते।

प्रश्न—जैसे पिता पुत्रको अनुचित कामसे जबरन् मना कर देता है वैसे ही ईश्वरको भी मना कर देना चाहिये। पर वह मना क्यों नहीं करता?

उत्तर—मना करता है—महात्मापुरुषोंद्वारा—मनके द्वारा—सब प्रकारसे मना करता है। किन्तु ईश्वरने जीवोंको स्वतन्त्रता दे रखी है। इसलिये जीव परतन्त्र होनेपर भी स्वतन्त्र हैं। जैसे हमको बंदूक चलानेका लाइसेन्स है। हम राज्यके कानूनोंके हिसाबसे ही बंदूक चला सकते हैं। कानूनसे बँधे हुए हैं किन्तु फिर भी हम चाहे जिस किसीपर कानूनके विरुद्ध भी चला तो सकते हैं न? फिर चाहे दण्ड मिले। ठीक वही बात यहाँ भी है।

प्रश्न—जब कभी कोई बात एक-दो मिनटोंके लिये समझमें आ जाती है तो वह ठहरती क्यों नहीं? ईश्वरको उसे ठहरा देना चाहिये—इतनी तो मदद करनी चाहिये।

उत्तर—भगवान् से जो मदद चाहता है उसे मदद मिलती है। जो यह प्रार्थना करता है कि हे भगवन्! मेरा मन निरन्तर भजन-ध्यानमें लगा रहे तो उसे भगवान् मदद देते हैं। सामान्य मदद तो सभीको है किन्तु विशेष मदद जो चाहता है, उसे दी जाती है। इसलिये उनसे प्रार्थना करनी चाहिये जिससे कि वह स्थिति छूटे नहीं। जिसका ऐसा विश्वास होता है कि मैं भगवान् की शरण हूँ—मेरी धारणाको दृढ़ और अन्त:करणकी शुद्धि भगवान् ही करते हैं, उसकी हो जाती है। एक सज्जन चाहते हैं कि मैं अमुकके आज्ञानुकूल चेष्टा करूँ, कभी-कभी कुछ चेष्टा भी करते हैं पर मौका पड़नेपर पीछे हट जाते हैं तो यही समझना चाहिये कि उनका इस बातमें पूरा विश्वास नहीं है कि चाहे प्राण भले ही चले जायँ इनकी आज्ञा ही पालनीय है। अगर भगवान् में पूरा विश्वास करके भगवान् से मदद माँगे तो भगवान् इसके लिये भी मदद दे सकते हैं।

प्रश्न—श्रद्धा, प्रेम और दयापर कुछ विशेषरूपसे कहिये।

उत्तर—ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे कहनेकी आदत पड़ गयी है और आपलोगोंको सुननेकी। बार-बार कहा जाता है। आप सुनते ही हैं। किन्तु जबतक बात समझमें नहीं आती, काममें नहीं लायी जाती, तबतक हमेशा ही नयी है और हमेशा ही बार-बार सुननेकी जरूरत है।

बात है बड़ी अच्छी! इसमें कुछ भी खर्च नहीं होता। मूर्ख-से-मूर्ख भी इसे कर सकता है। इसमें बलकी, बुद्धिकी, धनकी, जातिकी, वर्णकी या कुलकी—किसीकी भी जरूरत नहीं है। यह साधनकालमें भी प्रत्यक्ष शान्ति देनेवाली है। फिर सुनकर भी यदि काममें नहीं लायी जाती है तो यही समझना चाहिये कि विश्वासकी कमी है। संसारमें जो प्रत्यक्षमें सुख-शान्ति देनेवाली होती है उसको तो लोग करनेको तैयार रहते हैं। फिर यह तो आदि, मध्य और अन्त सर्वत्र आनन्द देनेवाली है। अभी आरम्भ कीजिये, अभी शान्ति-आनन्द तैयार है। यह नहीं कि कोई घंटे-दो-घंटे बाद आनन्द मिलेगा।

बात यह है—प्रथम तो यह विश्वास कर लेना चाहिये कि परमात्मा दीखते नहीं—तब भी हैं और सब जगह हैं। जैसे प्रेत दीखता नहीं है पर है—ऐसी झूठी कल्पना करके भी लोग भयभीत हो जाते हैं और दु:खी हो जाते हैं। फिर सच्ची धारणा करनेपर सुख और शान्ति प्रत्यक्ष मिलें इसमें तो कहना ही क्या है? इसलिये परमात्मा न भी दीखें तो भी मान लेना चाहिये कि वे हैं—अवश्य हैं।

ईश्वर दयालु हैं, प्रेमी हैं। उनकी दया और प्रेम सब जगह परिपूर्ण हो रहे हैं। अणु-अणुमें उनकी दया और प्रेमको देख-देखकर हमें मुग्ध होना चाहिये। हर समय प्रसन्न रहना चाहिये। इसको साधन बना लेना चाहिये। इसमें न कुछ परिश्रम है और न किसी अन्य चीजकी आवश्यकता है।

ईश्वरकी दया और प्रेम अपार है—असीम है। यह बात मनमें है तो ईश्वरकी स्मृति निरन्तर रहनी चाहिये। सब जगह ईश्वरकी दया और प्रेम परिपूर्ण है जैसे बादलमें सब जगह जल परिपूर्ण है। दया और प्रेमका बड़ा भारी समुद्र उमड़ा हुआ है—भरा हुआ है। उसमें अपने-आपको डुबो दे। चारों तरह बाहर-भीतर, नीचे-ऊपर सर्वत्र ईश्वरकी दया और प्रेमका समुद्र परिपूर्ण है। जैसे सूर्यकी धूपमें हम बैठते हैं—हमारे चारों ओर धूप-ही-धूप पूर्ण है उसी तरह परमात्माकी दया और प्रेम सब जगह पूर्ण है। सूर्यका प्रकाश तो केवल बाहर ही है। किन्तु दया और प्रेम तो बाहर-भीतर सब जगह पूर्ण हो रहे हैं। इस प्रकार देख-देखकर हर समय मुग्ध होते रहना चाहिये। अहा! हम धन्य हैं! हमपर ईश्वरकी कितनी भारी दया है! सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुमें ईश्वरकी दयाका दर्शन करें और इसी प्रकार प्रेम बढ़ावें।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(गीता ५। २९)

ईश्वर परम सुहृद् हैं। सुहृद्का अर्थ क्या है? दया और प्रेम जिसमें हो उसका नाम सुहृद् है। उसकी दया और प्रेम अनन्त है, अपार है। अणु-अणुमें, जर्रे-जर्रेमें व्याप्त हो रहे हैं। एक बादशाहकी दया हो जाती है तो आनन्दका ठिकाना नहीं रहता। एक महात्माकी दया हो जाती है तो आनन्द समाता नहीं फिर ईश्वरकी दया तो अपार है। फिर क्या बात है? (सहजमें ही हमारी स्थिति बदल सकती है। हम बहुत शीघ्र परमात्माको पा सकते हैं।) हर समय यह भाव जाग्रत् रहना चाहिये। अहा! ईश्वरकी हमपर कितनी दया है। ईश्वरका हमपर कितना प्रेम है। सबपर समानभावसे अपार दया है। जब इतनी दया है, तब हमको भय, चिन्ता, शोक करनेकी क्या आवश्यकता है। हम चिन्ता-भय करें यह तो हमारी मूर्खता है। भय किसका? न वहाँ भय है, न चिन्ता है, न मोह है। यह हमारी बेसमझी थी—हम जानते नहीं थे कि प्रभु इतने दयालु हैं। अब कहाँ चिन्ता? कहाँ भय? कहाँ शोक? प्रभुकी अपार दया है। यह साधन बना लें। हर समय खयाल रखें, मनसे इस प्रकार अनुभव करें तो उसी समय शान्ति और आनन्दका भण्डार भरा पड़ा है। इस साधनसे थोड़े ही कालमें साक्षात् प्रभुकी प्राप्ति हो जाय।

एक समृद्धिशाली पुरुष है, स्वप्नमें भिखारी बन गया—इसलिये दु:खी हो रहा है। किन्तु जागनेपर दु:ख कहाँ? दु:ख था ही नहीं, उसने बिना हुए ही दु:ख मान लिया। इसी तरह हम भी बेसमझीके कारण ही दु:खी हो रहे हैं। ईश्वरकी दया और प्रेम तो सब जगह पूर्ण हो ही रहे हैं। हम मानते नहीं तभी हम दु:खी होते हैं। पर हम नहीं मानते हैं उस समय भी ईश्वरकी दया तो है ही। बस, मान लें तो आनन्द-ही-आनन्द है। ऐसा अमृतमय आनन्द प्रत्यक्ष है, इसमें कुछ भी शंका नहीं है फिर उसे क्यों छोड़ते हैं? ‘प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्’ प्रत्यक्ष आनन्दका अनुभव हो रहा है फिर उसमें प्रमाण क्या? केवल मान लेना ही साधन है। जप या ध्यान—कुछ भी करनेकी बात नहीं कही। केवल मान लो, बस, इतना ही करना है। वह परम सुहृद् है जिसमें अपार दया हो— हेतुरहित प्रेम हो। भगवान् की दया अपार है। वह अपार दयादृष्टिसे हमें देख रहा है फिर किस बातकी चिन्ता है। माता स्नेहसे बच्चेको पकड़कर यदि फोड़ेको चिरवा रही है तो चिन्ता क्यों करनी चाहिये। माँ देख रही है न? बच्चा यदि रोता है तो उसका बालकपन है। समझदार तो रोता भी नहीं। हमपर कोई भी दु:ख आवे तो समझना चाहिये—हमारी माँ, भगवान् हमें सुखी करनेके लिये, पवित्र करनेके लिये गोदमें लेकर चिरवा रहे हैं।

कितनी दयाभरी दृष्टि है। अपार दयाकी छटा छायी हुई है। कोई स्थान उसकी दया और प्रेमसे खाली नहीं। उसकी दया, प्रेम सर्वत्र परिपूर्ण हो रहे हैं। वे दर्शन देनेको तैयार हैं। वे सब प्राणियोंके सुहृद् हैं। यदि पूरा विश्वास हो जाय कि भगवान् हमें दर्शन देंगे तो उसी क्षण दर्शन देना पड़ेगा—एक क्षण भी वे नहीं रुक सकेंगे।

नास्तिक पुरुषोंको तो विश्वास नहीं है। वे समझते हैं ईश्वर है या नहीं। जिनका होनेमें विश्वास है वे समझते हैं कि पता नहीं मिलते हैं या नहीं। दूसरे यह समझते हैं कि मिलते तो हैं पर बहुत भजन-ध्यान करनेसे मिलते हैं यह भी भूल है। भगवान् बड़े ही दयालु हैं। यदि भजन-ध्यान कराकर मिलते हैं तो फिर दयालु क्या हुए? यदि हम दृढ़ विश्वास कर लें कि वे तो बड़े ही दयालु हैं, उनके न मिलनेमें हमारी बेसमझी ही कारण है। हमको मिलेंगे, जरूर मिलेंगे और आज ही मिलेंगे—ऐसा दृढ़ निश्चय कर लें तो आज ही मिल जायँगे इसमें तनिक भी शंका नहीं है।

जो कुछ भी ईश्वरका विधान है उसमें हित ही भरा है। कहीं भी अहित दीखता है तो यह अपनी समझकी कमी है। अणु-अणुमें सब समय, सब देश और सब वस्तुमें अपना हित ही देखे, यह देखना ही सर्वत्र उसकी दयाको देखना है। विश्वासपूर्वक मान लें, बस, फिर काम खतम। उसके आनन्दका ठिकाना ही नहीं है। प्रत्यक्ष शान्ति और आनन्द है। इन बातोंके पढ़ने-सुननेमात्रसे ही महान् शान्ति और आनन्द होते हैं तो फिर बार-बार मनन करनेसे बड़ी भारी शान्ति और आनन्दका अनुभव क्यों नहीं होगा?

ईश्वरकी दया सर्वत्र है। सर्वत्र उसके प्रेमकी छटा छा रही है। फिर हम क्यों भय करें। वह प्रेमका महान् समुद्र है, उसमें हम डूबे हुए हैं—प्रेम-जलसे भीगे हुए हैं—मग्न हो रहे हैं। यह भाव जब दृढ़ हो जायगा तब शान्ति और आनन्दकी बाढ़ प्रत्यक्ष दीखने लगेगी। फिर प्रेम आनन्दके रूपमें परिणत हो जायगा, वही परमात्माका स्वरूप है। परमात्मा आनन्दमय है। परमात्मा प्रेममय है। वह प्रेम ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देता है। इस समय वह प्रेम अदृश्य है। जब प्रेम हो जाता है तो भगवान् प्रत्यक्ष मूर्तिमान् होकर प्रकट हो जाते हैं। भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णका स्वरूप प्रेमका ही पुंज है। प्रेमके सिवा दूसरी वस्तु नहीं है। प्रेम ही आनन्द है और आनन्द ही प्रेम है। एक ही चीज है। भगवान् सगुण-साकारकी उपासना करनेवालोंके लिये प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण-निराकारकी उपासना करनेवालोंके लिये आनन्दमय बन जाते हैं।

संसारमें भी यह बात है कि जिससे जितना प्रेम बढ़ेगा उससे उतना ही अधिक आनन्द होगा। यही बात इस विषयमें है। वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही भक्तोंका प्रेमानन्द है और वही पूर्णब्रह्म परमात्मा मूर्तिमान् होकर प्रकट होते हैं।

तुलसीदासजी कहते हैं—

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

हरि सब जगह परिपूर्ण हैं। वे प्रेममय हैं। वे प्रेमसे ही प्रकट होते हैं; क्योंकि वे स्वयं प्रेममय हैं।

यदि कहो कि बात तो सही है पर हमलोगोंमें प्रेम नहीं है। तो यह तो आपकी ही मान्यता है न? ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ प्रेम न हो। प्रेमियोंका प्रेम और ज्ञानियोंका आनन्द सब जगह है। वेदान्तमें अस्ति, भाति, प्रिय कहा है। समझना चाहिये—प्रिय क्या वस्तु है। प्रिय और प्रेममें कोई अन्तर नहीं है। संसारमें कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जिसमें आनन्द व्याप्त न हो। प्रेम उसका स्वरूप है। वह सब जगह है।

भगवान् ने वाल्मीकिमुनिसे रहनेका स्थान पूछा। उन्होंने कहा—‘भगवन्! बतलाइये, आप कहाँ नहीं हैं?’ वह प्रेममय परमात्मा बाहर-भीतर सब जगह परिपूर्ण है।’

हममें प्रेम नहीं है, भजन-साधनकी कमीके कारण हमें भगवान् नहीं मिलते—यह हमारी मान्यता नीतिके अनुसार ठीक है। ऐसा मानकर हम भगवान् का भजन करें, सत्संग करें तो आगे जाकर हमारा कल्याण हो सकता है। नीति तो यही है किन्तु इसीसे विलम्ब हो रहा है। एक बात इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। हम कानून माननेवाले हैं इसलिये भगवान् ने यह कानून बना दिया। पर हम यह मान लें कि कानूनकी बात तो वही है—अपनी दृष्टिसे तो वही बात है पर प्रभु असम्भवको भी सम्भव करनेवाले हैं—वे अपने दासोंके दोषोंकी ओर देखते ही नहीं। वे बिना ही कारण दासोंपर दया और प्रेम करते हैं। उनका स्वभाव ही ऐसा है। उनके स्वभावपर हम दृढ़ विश्वास कर लें तो फिर हम इस बातकी प्रतीक्षा करें कि एक क्षणका भी विलम्ब क्यों हो रहा है? हम इस बातपर अड़ जायँ कि एक क्षणका भी विलम्ब क्यों होना चाहिये? बस, फिर विलम्ब हो नहीं सकता।

हमारा प्रेम, हमारी करनी तो विलम्ब ही करनेवाले हैं किन्तु इस अपनी मान्यताको छोड़कर प्रभुकी ओर खयाल करें तो फिर विलम्ब नहीं होना चाहिये। हमारी धारणा बलवती होनी चाहिये। ‘‘प्रभो! आप तो परम दयालु हैं, आप तो दासोंके दोषोंको देखते ही नहीं। आपकी दया तो प्रत्यक्ष है। आप परम प्रेमी हैं—आपका प्रेम तो बिना हेतु ही होता है। प्रभो! मैं जब ऐसा मानता था कि ‘प्रभु न्यायकारी हैं, जब हम भजन करेंगे तो वे दर्शन देंगे’ उस समयतक तो विलम्ब होना ठीक ही था, किन्तु प्रभो! अब तो मैं यह मानता हूँ कि आप परम दयालु हैं, आपका दया करना ही एकमात्र स्वभाव है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि आप अब एक क्षण भी विलम्ब नहीं करेंगे।’’ ऐसा दृढ़ विश्वास रखें तो फिर उस कानूनसे जो विलम्ब हो रहा है वह नहीं हो।

यह एक असम्भव-सी बात लगती है कि एक क्षणमें हमारा कल्याण हो जायगा। लोगोंकी यह धारणा हो रही है कि भगवान् न्यायकारी हैं—जब हम पात्र होंगे तब भगवान् दर्शन देंगे। यह बात युक्तिसंगत होते हुए भी भगवान् पर लागू नहीं हो सकती। भगवान् के लिये कुछ भी असम्भव नहीं है। असम्भव बात भी सम्भव हो सकती है—प्रभु ऐसे ही प्रभावशाली हैं। प्रभुका प्रभाव ही ऐसा है। वहाँ सारा असम्भव भी सम्भव है। यह बात हम समझ लें तो उसी समय कल्याण हो जाय। दया, प्रेम प्रभुके गुण हैं। असम्भवको भी सम्भव कर देना यह प्रभाव है। प्रभुके गुणोंमें या प्रभावमें—किसी एकमें भी विश्वास हो जाय तो फिर बस, आप कैसे भी हों, आपको एक-एक मिनट प्रभुका विलम्ब सहन नहीं हो सकेगा। आप प्रतिक्षण व्याकुल होकर प्रतीक्षा करेंगे और प्रभु उसी क्षण प्रकट हो जायँगे। बस, केवल उसकी दयापर निर्भर होना चाहिये। फिर हम-सरीखोंकी तो बात क्या, हमसे भी गये-बीते लोगोंको एक क्षणमें दर्शन हो सकते हैं। हमें दर्शन होनेमें विलम्ब इसीलिये हो रहा है कि हम विश्वास नहीं करते हैं।

प्रश्न—यह निश्चय कैसे हो?

उत्तर—भगवान् और भक्तोंकी दयासे यह निश्चय करानेके लिये ही यह सब बातें कही जाती हैं। जब हम यह मान लें कि भगवान् ही इस प्रकारकी श्रद्धा कराते हैं और इस तरहकी श्रद्धा करानेका वातावरण भी भगवान् ही उपस्थित करते हैं और उनकी अहैतुकी कृपासे ही यह सब सम्भव है तो फिर हम यह क्यों शंका करें कि प्रभु कृपा नहीं करते। प्रभु तो कृपा कर ही रहे हैं। तुम जो यह कह रहे हो कि प्रभु कृपा क्यों नहीं करते यही तो विलम्बका कारण है।

ये जो भगवद्विषयकी बातें हैं—ये ही रहस्यकी बातें हैं। मनुष्य यदि प्रभुके गुण और प्रभावका रहस्य समझ जाय तो उसको धारण ही कर ले। समझकी ही बात है। समझ लेनेपर काम बाकी नहीं रहता। ‘संसारके जितने भी पदार्थ हैं, वे विष हैं।’ यह बात समझ लेनेवाला फिर इनका सेवन नहीं कर सकता। जब यह पता लग जाय कि लड्डुओंमें जहर है तो भला, कौन उनको खावेगा! खाता है तो समझना चाहिये कि वह समझा ही नहीं। किसी दरिद्रीको पारस मिल जाय और फिर भी वह दरिद्री ही रहे तो समझना चाहिये कि उसने पारसको जाना ही नहीं।

भगवान् के प्रेम और दयाका तत्त्व समझना चाहिये। उसकी दया, प्रेम और प्रभाव अपार हैं, उसका तत्त्व नहीं जानते तभी हम लाभ नहीं उठाते। भगवान् का प्रभाव भगवान् के लिये थोड़े ही है, वह तो हमलोगोंके लाभ उठानेके लिये ही है। ऐसे प्रभावशालीका प्रभाव संसारके उद्धारके लिये ही है। हृदयसे जो उसका ऐसा प्रभाव मानता है वही लाभ उठा लेता है।

जगत् में एक दयावान् पुरुष है—उसके पास धन है। उसके धनसे वही लाभ उठाता है जो उसको पैसेवाला और दयालु मानता है। पैसेवाला मानकर भी यदि दयालु नहीं मानता तो लाभ नहीं उठा सकता और दयालु मानकर भी यदि उसे धनी नहीं मानता तब भी लाभसे वंचित ही रहता है। प्रत्यक्ष बात है। इसी प्रकार महात्मासे लाभ वही उठा सकता है जो उसे महात्मा समझता है। दूसरे भी उठाते हैं पर थोड़ा। समझनेवाला तो पूरा और तुरंत लाभ उठा लेता है। दयालु धनीको जो दयालु नहीं मानता वह भी लाभ तो उठा सकता है किन्तु थोड़ा। इसी प्रकार भगवान् को दयालु न माननेवाले भी लाभ तो उठाते ही हैं। सामान्यभावसे सभी लाभ उठाते हैं किन्तु जो उसे दयालु और प्रभावशाली मानता है वह विशेष लाभ उठा सकता है। अग्निसे सामान्य गर्मी सभीको मिलती है किन्तु जो जानता है कि यहाँ अग्नि पड़ी है वह अधिक लाभ उठा लेता है।

पारस घरमें पड़ा है। वह लोहेसे छुआ गया—लोहा सोना हो गया। हमने समझा काकतालीयन्यायसे हो गया। हमको पता नहीं कि कैसे हुआ, तो थोड़ा लाभ है और जान जावें तो पूरा लाभ उठा सकते हैं।

इसी प्रकार संत-महात्माओंकी दया, प्रेम, प्रभाव अपार हैं। भगवान् का अवतार हुआ। अब हम पश्चात्ताप करते हैं कि उस समय हम भी तो किसी-न-किसी योनिमें थे ही—हमने लाभ नहीं उठाया। अब यदि भगवान् का अवतार हो तो हम भी लाभ उठावें। किन्तु समझनेकी बात है। भगवान् तो भक्तोंके प्रेमसे बाध्य होकर अवतार लेते हैं। भगवान् का प्रकट होना तो भक्तोंके अधीन है।

यदि हम ऐसा विश्वास कर लें तो जो लाभ हमको अवतारसे हो सकता है वह हम उन भक्तोंसे ही उठा सकते हैं। भगवान् की तो यह समझ है कि मेरे भक्त मुझसे भी श्रेष्ठ हैं; क्योंकि मैं तो कानूनमें बँधा हुआ हूँ। मैं ही कानूनको बनानेवाला हूँ, इसलिये मैं कानून तोड़ना नहीं चाहता। पर भक्त इतने बलवान् होते हैं कि उनके वशमें होकर तो मुझे कहीं कानूनको भी लाँघना पड़ता है। इसलिये भक्त मुझसे श्रेष्ठ हैं। किन्तु भक्तोंकी मान्यता यह नहीं है। वे तो यही समझते हैं कि भगवान् ही सर्वोत्तम हैं। उनसे बढ़कर कोई नहीं। भक्त जब भगवान् को सर्वोत्तम मानता है तब भगवान् भी भक्तको सर्वोत्तम मानते हैं। भगवान् सत्यसंकल्प हैं। उनका मानना सत्य ही है। अत: किसको छोटा-बड़ा कहें।

हमलोगोंको तो यही मानना चाहिये कि यह उनकी प्रेमकी लड़ाई है—अपने लिये तो दोनों ही बड़े हैं। हमारी दरिद्रताको मेटनेके लिये दोनों ही असंख्यपति हैं। भगवान् के भक्त सभी समयमें मिलते हैं। यह ठीक है किन्तु करोड़ोंमें कोई एक विरला ही महात्मा होता है। भगवान् कहते हैं—

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
(गीता ७। ३)

‘हजारों मनुष्योंमें कोई एक मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियोंमें भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्वसे जानता है।’ पर भक्त हैं तो सही न। नहींकी बात तो नहीं कहते। वे सदा ही रहते हैं। भगवान् के भक्त न हों तो फिर भगवान् की भक्तिका प्रचार ही कौन करे। भगवान् स्वयं अपनी भक्तिका प्रचार नहीं करते। उनके सहायक रहते हैं। अपनी भक्तिका तो कोई भी अच्छा मनुष्य प्रचार नहीं करता। फिर भगवान् तो पुरुषोत्तम हैं। यदि संसारमें भक्त न होते तो भगवान् की भक्तिका नाम संसारमें शायद ही रहता, इसीलिये भगवान् भक्तोंके ऋणी होते हैं। आजतक हनुमान् जीके ऋणसे न भगवान् मुक्त हुए और न भरतजी। पर हनुमान् जी कभी ऐसा नहीं मानते।

जो काम भगवान् नहीं करते उसको भी भक्त कर देते हैं। इस न्यायसे भगवान् से भी बढ़कर भगवान् के भक्त हैं।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur