Seeker of Truth

शोकनाशके उपाय

दु:ख अथवा शोकके दो ही हेतु होते हैं—प्रियवियोग एवं अप्रियसंयोग अथवा इष्टका विनाश एवं अनिष्टकी प्राप्ति। इन्हीं दो हेतुओंसे मनुष्यको दु:ख, शोक, चिन्ता, भय अथवा व्याकुलता होती है। इन्हीं दो बातोंको लेकर सारा संसार दु:खी हो रहा है, ऐसा कहा जाय तो भी अत्युक्ति न होगी। कोई-कोई तो इनके कारण इतने अधिक दु:खी हो जाते हैं कि उन्हें सारा संसार अन्धकारमय दीखने लगता है, उन्हें चारों ओरसे निराशाके बादल घेर लेते हैं, शोकके मारे दिन-रात उनकी छाती जला करती है, दिनमें चैन नहीं पड़ता और रातको नींद नहीं आती, शरीर सूखकर काँटा हो जाता है, खाना-पीना हराम हो जाता है—यहाँतक कि कुछ लोगोंको तो जीवन भारी हो जाता है और वे घुल-घुलकर शरीर छोड़ देते हैं। कुछ लोग तो और भी आगे बढ़ जाते हैं—वे मूर्खतासे विषादिका प्रयोग करके, जलमें डूबकर, फाँसी लगाकर अथवा आगमें जलकर प्राण त्याग देते हैं। प्राय: लोग स्त्री, पुत्र, धन, मान, कीर्ति अथवा स्वास्थ्य आदि इष्ट पदार्थोंके नाश हो जाने अथवा किसी मुकद्दमेमें फँस जाने, किसी भयानक रोगके शिकार हो जाने या किसी प्राणसंकटके उपस्थित हो जानेपर ही ऐसा करते हैं। ऐसे पुरुषोंके चित्तको शान्त करनेका क्या उपाय है, इसीपर आज कुछ विचार किया जाता है।

वास्तवमें बात यह है कि ज्ञान, भक्ति अथवा विवेक-विचार किसी भी दृष्टिसे शोक करना अज्ञानके सिवा और कुछ नहीं है। अतएव मनुष्यको न तो धन-मकान, जमीन-जायदाद आदि जड वस्तुओंके लिये और न स्त्री, पुत्र आदि चेतन प्राणियोंके लिये शोक करना चाहिये। जिनका विनाश हो चुका है, उनके लिये तो शोक करना बिलकुल ही बेकार है; बल्कि जिनका विनाश होनेवाला है, उनके लिये भी बुद्धिमान् मनुष्यको शोक नहीं करना चाहिये। भगवान् श्रीकृष्णने गीताके आरम्भमें अर्जुनको शोककी निवृत्तिके लिये ज्ञानकी दृष्टिसे यही उपदेश दिया है। भगवान् कहते हैं—

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥
(गीता २। ११)

‘हे अर्जुन! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके-से वचनोंको कहता है; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण अभी नहीं गये हैं अर्थात् जो मरनेवाले हैं उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।’

ऊपरके श्लोकसे भगवान् का तात्पर्य यह है कि किसीके लिये किसी प्रकार किंचिन्मात्र भी शोक कदापि न करना चाहिये।

ज्ञानके सिद्धान्तके अनुसार दो ही पदार्थ माने गये हैं—(१) जड और (२) चेतन। इन्हींको दूसरे शब्दोंमें (१) असत् और (२) सत् भी कह सकते हैं। सत् वह है जिसका नाश न हो और असत् अथवा मिथ्या वह है जो कायम नहीं रहता—

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
(गीता २। १६)

उपर्युक्त वचनसे भगवान् ने यह सिद्ध किया है कि इन्द्रियोंद्वारा दीखनेवाले जितने पदार्थ हैं, वे सब जड, अनित्य, क्षणिक एवं नाशवान् हैं—कुछ गहरा विचार करनेपर प्रतीत होता है कि वे स्वप्नवत् हैं और स्वप्नवत् होनेसे वे वास्तवमें हैं ही नहीं। इसलिये जो ये नाशवान् जड पदार्थ हैं, उनके लिये शोक करना किसी प्रकार भी नहीं बनता।

दूसरा जो चेतन-तत्त्व है, वह नित्य है, सत् है—उसका कभी विनाश नहीं होता। इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। बालीके मारे जानेपर उसकी पत्नी ताराको भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने भी यही उपदेश दिया था। वे क्या कहते हैं, इसे गोस्वामी तुलसीदासजीके शब्दोंमें सुनिये—

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
(राम०, किष्कि० १०। २-३)

‘पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु—इन पंचतत्त्वोंसे यह अत्यन्त अधम शरीर बना हुआ है। वह शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है और जीव नित्य है, फिर तुम किसके लिये रोती हो?’

ऊपरके वचनोंसे भी भगवान् ने यही दिखलाया है कि शरीर विनाशी है और आत्मा नित्य—अविनाशी है, इसलिये दोनोंकी ही दृष्टिसे शोक करना नहीं बनता। जो वस्तु विनाशी है, नाश होनेके पूर्व भी उसे नष्ट ही समझना चाहिये; क्योंकि वह वस्तु एक-न-एक दिन अवश्य नष्ट होगी, स्थिर नहीं रहनेकी। इस प्रकार इष्ट वस्तुके वियोगमें शोक नहीं करना चाहिये, यह बात ज्ञानकी दृष्टिसे बतलायी गयी।

इसी प्रकार अनिष्टकी प्राप्तिमें भी ज्ञानकी दृष्टिसे शोक करना नहीं बनता। इस बातको स्वप्नके दृष्टान्तसे समझाया जाता है। स्वप्नमें किसीको कोई रोग हो जाय, कैद या बन्धन हो जाय अथवा जलप्लावन आदि कोई अन्य संकट उपस्थित हो जाय या बाघ, भालू, सर्पादिसे भय प्राप्त हो तो नेत्र खुलनेपर उस अनिष्टकी सत्ता नही रहती। जब नेत्र खुलनेपर—जाग्रत् में उस वस्तुकी सत्ता नहीं रहती, तब विचारसे ऐसा समझमें आता है कि स्वप्नके समय भी उसका अभाव ही था—अज्ञानके कारण निद्रा-दोषसे बिना हुए ही उसकी प्रतीति हुई थी, जिसके कारण उस स्वप्नका देखनेवाला दु:खी हो गया था। उपर्युक्त स्वप्नके दृष्टान्तसे यह मानना चाहिये कि यदि जाग्रत् में हमें अपने मनके प्रतिकूल किसी अनिष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है तो वह भी वास्तवमें असत् ही है; क्योंकि कुछ समयके बाद उस वस्तुका अभाव हो जाता है और जिस वस्तुका अभाव हो जाता है वह वास्तवमें है ही नहीं, केवल प्रतीत होती है। ज्ञान होनेके उत्तरकालमें तो इस दृश्य जगत् का अत्यन्त अभाव हो जाता है। ऐसा समझकर विवेकी पुरुषको अनिष्टकी प्राप्तिमें भी शोक नहीं करना चाहिये।

ऊपर ज्ञानकी दृष्टिसे इष्ट वस्तुके विनाश और अनिष्टके संयोगमें शोक करनेका अनौचित्य बतलाया। अब भक्तिकी दृष्टिसे शोक करनेकी अनावश्यकता बतलाते हैं। ऊँचे भक्तोंकी बात तो जाने दीजिये; साधारण कोटिके भक्तोंको भी, यदि उन्हें भक्तिका सिद्धान्त मान्य है, उपर्युक्त दोनों हेतुओंमेंसे किसी भी हेतुको लेकर शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि भक्तिके सिद्धान्तमें जड-चेतन सभी पदार्थ, यहाँतक कि भक्त स्वयं भी—अर्थात् उसका शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, सब कुछ भगवान् के ही होते हैं। ऐसी स्थितिमें यदि किसीका पुत्र मर गया, स्त्री जाती रही, पति मर गया, धन नष्ट हो गया, इज्जत-आबरू चली गयी, पैठ मारी गयी, तो उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह वस्तु कहीं गयी नहीं; क्योंकि जब सब कुछ भगवान् का है और भगवान् सर्वव्यापी हैं—वे सब जगह और सब कालमें हैं, तब जो वस्तु हमसे छिन जाती है वह भगवान् के राज्यको छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं चली जाती, भगवान् के ही भण्डारमें रहती है। जब सब कुछ भगवान् का है और भगवान् ही जड-चेतन सबके मालिक हैं, तब वे यदि अपनी किसी वस्तुको एक जगहसे हटाकर दूसरी जगह ले जाते हैं, तो हमें उसके लिये दु:खी क्यों होना चाहिये? इसी बातको दृष्टान्तके द्वारा समझानेकी चेष्टा की जाती है।

एक सेठकी कई जगह दूकानें हैं अथवा सरकारी डाकखाने जगह-जगह हैं। यदि सेठ अपनी एक दूकानका माल दूसरी जगह भेजता है अथवा सरकार यदि एक पोस्ट-ऑफिसका रुपया दूसरे पोस्ट-ऑफिसमें भेजती है, तो मुनीमको अथवा पोस्टमास्टरको इसके लिये रोनेकी अथवा मन मैला करनेकी क्या आवश्यकता है? यदि वे ऐसा करते हैं तो यह उनकी सरासर मूर्खता एवं अन्याय है। मालिककी खुशी है, वह अपनी चीजको चाहे जहाँ रखे। सच्चा भक्त अथवा नौकर तो वह है जो मालिक जैसा कहे वैसा करे, मालिककी राजीमें ही राजी रहे। इसके विपरीत जो नौकर मालिककी चीजको मालिकके माँगनेपर देनेमें आनाकानी करता है अथवा दु:खी होता है वह सच्चा नौकर नहीं, नमकहराम है। मुनीम दूकानके मालको और पोस्टमास्टर डाकखानेके खजानेको अपना समझने लगे और बदनीयतीसे अपने ही पास रखना चाहे तो वह दण्डका पात्र होता है। इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान् की चीजको अपनी मानकर भगवान् के माँगनेपर देनेमें आनाकानी करता है अथवा मन मैला करता है, वह बेईमान है, भक्त नहीं। भक्तको तो प्रभुके विधानमें सदा सन्तुष्ट रहना चाहिये। भगवान् की प्रत्येक क्रिया निर्भ्रान्त एवं हितसे भरी हुई होती है और जो कुछ होता है भगवान् की आज्ञासे ही होता है—ऐसा समझकर उसे प्रत्येक घटनामें प्रसन्न रहना चाहिये।

भक्तोंकी बात तो जाने दीजिये; संसारमें जो नेकनीयत मनुष्य होते हैं, वे भी ऐसे स्थलोंपर शोक नहीं करते। मान लीजिये कोई मनुष्य अपने किसी विश्वस्त मित्र अथवा बन्धुके पास धरोहरके रूपमें कुछ रुपया अथवा गहने इत्यादि रख देता है और आवश्यकता होनेपर जब उन्हें वापस ले जाता है तो जो ईमानदार होता है वह उस धरोहरको वापस देते समय न आनाकानी करता है और न उस धरोहरके हाथसे चले जानेपर शोक ही करता है, बल्कि जिसकी जो वस्तु थी उसे उसके हवाले करके वह सुखी होता है और ऐसा समझता है मानो उसके सिरसे एक बोझा उतर गया। शोक करनेका तो उसके लिये कोई प्रश्न ही नहीं उठता। किसी मित्रकी धरोहरको अपने पास रखकर उसे लौटानेमें जो आनाकानी करता है वह तो बेईमान है और विश्वासघाती कहलाता है। इसी प्रकार स्त्री, पुत्र, धन आदि भगवान् की दी हुई धरोहरको जो अपनी मानकर वापस देनेमें आनाकानी करता है अथवा भगवान् के द्वारा जबर्दस्ती वापस ले लिये जानेपर रोता है, वह भगवान् पर विश्वास रखनेवाला भी नहीं समझा जा सकता, फिर भक्त तो उसे कहा ही कैसे जाय? उसे तो भगवान् की वस्तु भगवान् को सौंप देनेमें प्रसन्नता होनी चाहिये और ऐसा करके चिन्तासे मुक्त हो जाना चाहिये।

यदि कोई स्त्री, पुत्र आदिको भगवान् की वस्तु न समझे तो भी उसे यह समझकर प्रसन्नता होनी चाहिये कि मेरी स्त्री, मेरा पति अथवा पुत्र भगवान् के पास उनकी रक्षामें पहुँच गया। जितनी सँभाल उसकी भगवान् कर सकते हैं, उतनी वह कर ही नहीं सकता था। ऐसी दशामें अपनी प्यारी वस्तुको अपनेसे कहीं अधिक समर्थ एवं प्रेमी रक्षककी देख-रेखमें गयी समझकर उसे शोकके बदले प्रसन्नता ही होनी चाहिये।

यह तो हुई इष्ट वस्तुके वियोगमें शोक न करनेकी बात। इसी प्रकार अनिष्टकी प्राप्तिमें भी भक्तको शोक नहीं करना चाहिये, यह बात आगे समझायी जाती है। जो कुछ भी अनिष्ट हमें प्राप्त होता है, प्रभुकी आज्ञासे ही प्राप्त होता है। कोई वस्तु अथवा घटना अपने कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो, वह मेरे स्वामीके तो अनुकूल ही है—ऐसा समझकर भक्तको सदा प्रसन्न रहना चाहिये। मेरे स्वामीसे भूल तो कभी होती ही नहीं; वे जो कुछ करते हैं, समझ-बूझकर ही करते हैं। ऐसी स्थितिमें अनिष्टरूपमें जो कुछ मुझे प्राप्त होता है, वह तो मेरे प्रभुका भेजा हुआ पुरस्कार है, ऐसा समझकर प्रह्लादकी भाँति उसे प्रतिक्षण मुग्ध होते रहना चाहिये। इसके विपरीत जो किसी अनिष्ट प्रसंगपर क्षुब्ध होता है, वह भगवान् का भक्त नहीं कहा जा सकता। भक्तको तो ऐसा मानना चाहिये कि जो कुछ प्रभु करते हैं हमारे हितके लिये ही करते हैं, हम अज्ञतावश उसे समझ नहीं पाते। जिसको हम अनिष्ट समझते हैं, थोड़ा भीतर प्रवेश करनेपर हमें मालूम होगा कि वह तो वास्तवमें हमारे लिये परमानन्दका विषय है। अनिष्ट कहलानेवाले प्रसंगोंसे, थोड़ा-सा भी विचार करनेपर हमें निम्नलिखित लाभ प्रत्यक्ष दिखायी देंगे। इनके अतिरिक्त न मालूम कितने लाभ भगवान् की उन मनको प्रतिकूल लगनेवाली क्रियाओंसे हमें होते हैं—उनका हम अंदाजा नहीं लगा सकते।

(१) पहली बात तो यह है कि हमें अपने मनके प्रतिकूल जिस दु:खदायक पदार्थकी प्राप्ति होती है, वह हमारे ही किसी पूर्वकृत अपराधका फल है; क्योंकि भगवान् के राज्यमें बिना अपराध किसीको दण्ड नहीं मिल सकता। इस प्रकार हमारे अपराधोंका दण्ड देकर भगवान् हमें पापमुक्त करते हैं, शुद्ध बनाते हैं।

(२) इस प्रकारकी शिक्षा देकर भगवान् हमें भविष्यमें पाप करनेसे रोकते हैं।

(३) इस प्रकार कष्ट देकर भगवान् हमारे आत्माको बलिष्ठ बनाते हैं। आगमें तपानेसे जैसे सोना निखर उठता है, उसी प्रकार कष्ट सहनेसे आत्मा शुद्ध और बलिष्ठ होता है—यह सबका अनुभव है।

(४) कभी-कभी हमलोग अपनी भक्तिका झूठा अभिमान करने लगते हैं और वास्तवमें भगवान् में जैसा विश्वास होना चाहिये, वैसा न होनेपर भी अपनेको विश्वासी मान बैठते हैं। इसलिये इस प्रकारके कष्ट देकर भगवान् हमारी परीक्षा लेते हैं और हमें अपनी असली स्थितिका परिचय कराते हैं तथा हमारा अभिमान भंग करते हैं।

(५) हमारे अपराधोंका दण्ड देकर भगवान् अपनी न्यायशीलता सिद्ध करते हैं और हमें चेतावनी देते हैं कि मेरे भजनके सहारे पापमें कभी प्रवृत्त न होना, नहीं तो इस प्रकारका दण्ड फिर तैयार है; मैं भजनके बलपर पाप करनेवालोंकी रू-रियायत नहीं करता।

(६) अन्तिम और सबसे बड़ा लाभ यह है कि कष्टमें हमें भगवान् याद आते हैं। हमलोग संसारके तुच्छ, नाशवान् भोगोंके पीछे भगवान् को भूले रहते हैं। इसलिये बीच-बीचमें कष्ट देकर भगवान् हमें चेतावनी देते रहते हैं कि मुझे भूलो मत, नहीं तो बड़ी दुर्दशा होगी; यह मनुष्यशरीर भोगोंके लिये नहीं मिला है, मुझे प्राप्त करनेके लिये ही मिला है—इसलिये इसे व्यर्थ कामोंमें न गँवाओ।

इसके अतिरिक्त हमारे मनको प्रतिकूल लगनेवाली भगवान् की क्रियाओंमें हमारा कितना हित भरा रहता है, इसे हमलोग समझ नहीं सकते। अत: प्रभु हमारे लिये जो कुछ करते हैं, उसमें उनकी अपार दया एवं अपना परम हित मानकर हमें खूब प्रसन्न रहना चाहिये।

विवेक एवं विचारकी दृष्टिसे भी हमें इष्ट वस्तुके वियोग एवं अनिष्टकी प्राप्तिमें शोक नहीं करना चाहिये। इष्टका वियोग एवं अनिष्टका संयोग दोनों ही क्षणिक हैं। जिस वस्तुके साथ संयोग होता है, उसका वियोग भी अवश्यम्भावी है। संसारके संयोग और वियोग वैसे ही हैं जैसे किसी मुसाफिरखाने अथवा पान्थशालामें यात्रियोंका एकत्रित होना तथा अलग-अलग हो जाना अथवा रेलगाड़ीमें मुसाफिरोंका चढ़ना-उतरना। जैसे किसी मुसाफिरखाने अथवा सरायमें रात्रिमें विश्राम करनेके लिये यात्री लोग ठहरते हैं और सबेरा होते ही अपने-अपने निर्दिष्ट स्थानको चल देते हैं, उसी प्रकार एक परिवारमें कई प्राणी एकत्र होते हैं और समय पूरा होते ही बिछुड़ जाते हैं। रेलगाड़ीमें जैसे भिन्न-भिन्न स्थानोंको जानेवाले मुसाफिर चढ़ते-उतरते रहते हैं, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न जीव इस संसारमें जन्मते-मरते रहते हैं। रेलगाड़ीमें हम जिस डिब्बेमें बैठे हुए होते हैं उसमें यदि कोई दूसरा मुसाफिर सवार होता है, तो उसके आनेपर हम खुशी नहीं मनाते और उसके उतर जानेपर हम दु:खी नहीं होते। इसी प्रकार अपने परिवारवालोंके जन्मने-मरनेपर हमें हर्ष-शोक नहीं करना चाहिये। बल्कि रेलगाड़ीमें तो कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है। हमारे डिब्बेमें दूसरेके घुस आनेपर हम अप्रसन्न होते हैं और उतर जानेपर हम प्रसन्न होते हैं; किन्तु ऐसा भी होना ठीक नहीं है। रेलगाड़ीमें हमारे पास जिस स्टेशनका टिकट होता है उसके आगे हम नहीं जा सकते, उसी प्रकार जितनी आयु लेकर मनुष्य इस संसारमें आता है, उससे अधिक वह नहीं जी सकता। इसलिये विवेक एवं विचारकी दृष्टिसे भी हमें इष्टविनाश एवं अनिष्टसंयोगपर दु:खी नहीं होना चाहिये।

इसके अतिरिक्त इष्टविनाश एवं अनिष्टसंयोगपर शोक अथवा चिन्ता करना, रोना-चिल्लाना, लौकिक दृष्टिसे भी महान् मूर्खता है। इससे प्रत्यक्षमें हमारी हानि होती है। लोगोंकी दृष्टिमें हम गिर जाते हैं, दुर्बलहृदय समझे जाते हैं। जगत् में हमारी मूर्खता ही प्रकट होती है। स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, शरीर चिन्तासे जर्जर हो जाता है, ओज, बल एवं नेत्रकी हानि होती है और हम दु:खी होकर रोते-रोते मरते हैं। इसलिये विवेकी पुरुषकी तो बात ही क्या है, जो थोड़ा भी समझदार है, उसे भी शोक नहीं करना चाहिये, बल्कि ईश्वरके प्रत्येक विधानमें उसकी दया मानकर प्रसन्न रहना चाहिये। यदि दया समझमें न आवे तो कम-से-कम होनीको प्रबल समझकर ही शोक नहीं करना चाहिये। चाहे हम ज्ञान, भक्ति—इनमेंसे किसी भी सिद्धान्तको न मानें, बल्कि ईश्वरमें भी हमारा विश्वास न हो तो भी जो कुछ होनेको है वह तो होकर ही रहेगा, हमारे टाले टलेगा नहीं—यही समझकर हमें धैर्य धारण करना चाहिये। जो निरुपाय बात है, उसके लिये चिन्ता करनेसे क्या लाभ है? फिर जो बात हो चुकी, उसके लिये शोक करना तो और भी बेकार है। हमारे शोक करनेसे वह अन्यथा तो हो नहीं सकती, फिर उसके लिये शोक करना अपनी ही हानि करना है।

जो लोग शोकसे अभिभूत होकर अथवा आवेशमें आकर आत्महत्या कर बैठते हैं, वे तो अत्यन्त ही मूर्ख हैं। वे लोग अज्ञानवश वर्तमान कष्टसे मुक्त होनेके लिये शरीरका नाश कर देते हैं; परन्तु इससे सुख पाना तो दूर रहा, उलटा उन्हें अधिक कष्ट भोगना पड़ता है। ऐसा करनेसे प्रथम तो उन्हें अमूल्य मानव-जीवनसे हाथ धोना पड़ता है, जिसके द्वारा मनुष्य नित्यसुखरूप परमात्माको पाकर कृतार्थ हो जाता है और जन्म-मरणरूप बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है, जिसे शास्त्रोंने अत्यन्त दुर्लभ बतलाया है और जिसे यह जीव चौरासी लाख योनियोंमें भटकता-भटकता कभी परमात्माकी अहैतुकी कृपासे ही प्राप्त करता है।*

* मानव-देहके लिये गोस्वामीजीने रामचरितमानसमें लिखा है—आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी। फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥

कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही।

नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो । सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥

इसके अतिरिक्त प्राणोंके वियोगके समय भी उसे इतना कष्ट होता है जिसकी सीमा नहीं है। पहले उसे उस कष्टका अनुमान नहीं होता, परन्तु पीछे जब उसके प्राण निकलते हैं, उस समय उसे इतना कष्ट होता है जिसके समान और कोई दु:ख नहीं है। साधारण मृत्युके समय भी लोग कहते हैं हजारों बिच्छुओंके डंक मारने जैसा कष्ट होता है फिर जो स्वयं जान-बूझकर मरता है उसके कष्टका तो कहना ही क्या है!

तीसरी बात यह है कि मरनेके बाद उसे घोर नरकोंकी प्राप्ति होती है। ईशोपनिषद्में कहा है—

असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृता:।
ताॸस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:॥
(ईश० ३)

अर्थात् वे असुरसम्बन्धी लोक आत्माके अदर्शनरूप अज्ञानसे आच्छादित हैं। जो कोई भी आत्माका हनन करनेवाले लोग हैं वे मरनेके अनन्तर उन्हें प्राप्त होते हैं।

तात्पर्य यह है कि ज्ञान, भक्ति अथवा विवेक-विचार—किसी भी दृष्टिसे शोक करना उचित नहीं है। वास्तवमें इष्टवियोग अथवा अनिष्टसंयोग दु:खदायक नहीं होता, अज्ञानमूलक ममता ही दु:खका हेतु है। मान लीजिये किसी सड़कके दोनों ओर दो मकान हैं। उनमेंसे एकमें हमारी ममता है और दूसरेमें पारक्यबुद्धि है। जिसमें ममता नहीं है, उसपर यदि कोई आपत्ति आती है—कोई उसे तोड़ता है अथवा उसमें आग लग जाती है तो हमें दु:ख नहीं होता; किन्तु जिसमें हमारी ममता है, उसकी यदि कोई एक ईंट भी निकालता है तो हमें ऐसा दु:ख होता है मानो हमारे शरीरको ही कोई नोचता हो। कुछ दिन बाद उसी मकानको हम पूरा मूल्य लेकर बेच डालते हैं। उसके बाद यदि कोई उसको भी तोड़ता है अथवा उसमें आग लगाता है, तो हम खड़े-खड़े हँसते हैं, हमें दु:ख नहीं होता। इससे यह सिद्ध होता है कि मकानका टूटना या नष्ट होना दु:खदायी नहीं है; उसमें जो हमारी ममता है, वही दु:खका हेतु है। इसी प्रकार अज्ञानी जीव संसारमें, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी जमीन है, यह मेरी सम्पत्ति है, यह मेरा शरीर है—इस प्रकार ममता कर लेता है और फिर उनके विनाशसे दु:खी होता है। अत: ममताका नाश ही दु:खनाशका उपाय है और ममताके नाशके लिये दो ही उपाय हैं—(१) ज्ञानी महात्माओंके संगसे ज्ञान प्राप्तकर ममताके मूल अज्ञानका नाश करना अथवा (२) ईश्वरकी भक्ति करके उनकी कृपासे अज्ञानका नाश करना। गीतामें भी दु:खनाश और परम शान्ति प्राप्त करनेके यही दो मुख्य उपाय बतलाये गये हैं—

(१) तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥
(४। ३४)

‘उस ज्ञानको तू समझ; श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्यके पास जाकर उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।’

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
(४। ३९)

‘जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है तथा ज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके तत्काल ही भगवत्-प्राप्तिरूप परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।’

(२) तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(१८। ६२)

‘हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परमशान्तिको तथा सनातन परम धामको प्राप्त हो जायगा।’

यह ईश्वरकी शरणागति ही दु:खसे सदाके लिये छूटनेका सर्वोत्तम उपाय है और किसी रास्तेसे दु:ख नहीं मिटेगा, चाहे हम जीवनभर रोते और कलपते रहें।

जो सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार, सर्वलोकमहेश्वर भगवान् सबके प्रेरक, सर्वान्तर्यामी और सबके परम सुहृद् हैं—अपने मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रिय, प्राण और समस्त धन-जनादिको उनके समर्पण करके उन्हींपर निर्भर और निर्भय हो जाना सब प्रकारसे परमेश्वरके शरण होना है। अर्थात् बुद्धिके द्वारा भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व और स्वरूपका श्रद्धापूर्वक निश्चय करके भगवान् को ही परम प्राप्य, परमगति, परम आश्रय और सर्वस्व समझना, उनको अपना एकमात्र स्वामी, भर्ता, प्रेरक, रक्षक और परम हितैषी मानकर सब प्रकारसे उनपर निर्भर और निर्भय हो जाना और सब कुछ भगवान् का समझकर और भगवान् को सर्वव्यापी जानकर समस्त कर्मोंमें ममता, अभिमान, आसक्ति और कामनाका त्याग करके भगवान् के आज्ञानुसार अपने कर्मोंद्वारा समस्त प्राणियोंके हृदयमें स्थित परमेश्वरकी सेवा करना; जो कुछ भी दु:ख-सुख प्राप्त हों, उनको भगवान् के द्वारा भेजे हुए समझकर पुरस्काररूपमें उन्हें सिर चढ़ाकर सदा सन्तुष्ट रहना; भगवान् के किसी भी विधानमें कभी किंचिन्मात्र भी असन्तुष्ट न होना; मान, बड़ाई और प्रतिष्ठाका त्याग करके भगवान् के सिवा किसी भी सांसारिक वस्तुमें ममता और आसक्ति न रखना; अतिशय श्रद्धा और अनन्य प्रेमपूर्वक भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला, तत्त्व, नाम और स्वरूपका नित्य-निरन्तर चिन्तन करते रहना—ये सभी भाव तथा क्रियाएँ सब प्रकारसे परमेश्वरके शरण ग्रहण करनेके अन्तर्गत हैं। शरणागतिके इस भावको आदर्श रखकर जहाँतक बने भजन, ध्यान, सेवा, सत्संगमें ही अपने समयको बितानेके लिये तत्परतासे प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)