शीघ्र कल्याण कैसे हो?
लोग परमात्म-प्राप्तिके साधनमें जो समय लगाते हैं, उसके सदुपयोग और सुधारकी अत्यधिक आवश्यकता है। साधनके लिये जैसी चेष्टा होनी चाहिये वैसी वस्तुत: होती नहीं। दो-चार साधकोंके विषयमें तो मैं कह नहीं सकता, पर अधिकांश साधक विशेष लाभ उठाते नहीं दीखते। यद्यपि उन्हें लाभ होता है, पर वह बहुत ही साधारण है, अत: समयके महत्त्वको समझते हुए भविष्यमें ऐसी चेष्टा करनी चाहिये, जिससे जीवनके शेष भागका अधिकाधिक सदुपयोग होकर परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र-से-शीघ्र हो सके। मृत्यु निकट आ रही है। हमें अचानक यहाँसे चले जाना होगा। जबतक मृत्यु दूर है और शरीर स्वस्थ है तबतक आत्माके कल्याणार्थ प्रत्येक प्रकारसे तत्पर हो जाना चाहिये।
मनुष्य-जन्म ही जीवात्माके कल्याणका एकमात्र साधन है। देवयोनि भी यद्यपि पवित्र है, पर उसमें भोगोंकी अधिकताके कारण साधन बनना कठिन है। इसीलिये देवगण भी यह इच्छा रखते हैं कि हमारा जन्म मनुष्यलोकमें हो, जिससे हम भी अपना श्रेय-साधन कर सकें। ऐसे सुर-दुर्लभ मनुष्य-जन्मको पाकर भी जो लोग ताश-चौपड़ खेलते, गाँजा-भाँग आदि नशा करते और व्यर्थका बकवाद तथा लोक-निन्दा करते रहते हैं वे अपना अमूल्य समय ही व्यर्थ नहीं बिताते, बल्कि मरकर तिर्यक्योनि अथवा इससे भी नीच-गतिको प्राप्त होते हैं। परन्तु बुद्धिमान् पुरुष, जो जीवनकी अमूल्य घड़ियोंका महत्त्व समझकर साधनमें तत्पर हो जाते हैं, बहुत शीघ्र अपना कल्याण कर सकते हैं। अत: जिज्ञासुओंको उचित है कि वे समयके सदुपयोग और सुधारके लिये विशेषरूपसे दत्तचित्त होकर साधनको परिपक्व बनानेमें तत्पर हो जायँ।
भगवान् ने हमें बुद्धि प्रदान की है। उसे सद्विचार और सत्कार्यमें लगानेकी आवश्यकता है। जो अविवेकी इस मनुष्य-शरीरको विषय-भोगादि निन्दनीय कर्मोंमें खो देते हैं, उनमें और पशुओंमें कोई अन्तर नहीं। सच पूछा जाय तो कहना पड़ेगा कि कई अंशोंमें वे उनसे भी गये-बीते हैं। हमें स्वप्नमें भी कभी इस विचारको आश्रय नहीं देना चाहिये कि हम भोग भी भोगें और भगवान् को भी प्राप्त कर लें। दिन और रातको एक साथ देखना निस्सन्देह आकाश-कुसुमोंको तोड़ना है। जहाँ भोग है वहाँ भगवान् रह नहीं सकते। सन्तोंकी यह वाणी ध्रुव सत्य है—
जहाँ योग तहँ भोग नहिं, जहाँ भोग नहिं योग।
जहाँ भोग तहँ रोग है, जहाँ रोग तहँ सोग॥
भोगीसे कभी योगका साधन हो नहीं सकता। भोगका फल रोग और रोगका फल शोक है। अत: पाप-ताप और रोग-शोककी आत्यन्तिक निवृत्तिके लिये विषयोंसे मुँह मोड़कर साधन-पथपर उत्तरोत्तर अग्रसर होते रहना चाहिये। संसारमें सार वस्तु परमात्मा है। उससे भिन्न सब कुछ सर्वथा निस्सार, क्षणिक और अनित्य है। अत: मायिक पदार्थोंके संग्रह और भोगोंमें आसक्त होनेके कारण यदि इसी जन्ममें हम परमात्माकी प्राप्ति न कर सके तो निर्विवादरूपसे मानना होगा कि हमारा जीवन भाररूप ही है।
बन्धुओ! आप मानव-कर्तव्यपर विचार तो कीजिये? भगवान् आपको उन्नतिके लिये आवाहन करते हैं। अवनत होना तो कर्तव्य-विमुखता है। भगवान् श्रीकृष्णकी उद्बोधनमयी वाणीपर ध्यान दीजिये—
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
(गीता ६। ५)
उद्धारका अर्थ क्या है? उन्नति। रुपये कमाना उन्नति नहीं है। सन्तान-वृद्धि भी उन्नति नहीं है। यह सब तो यहीं धरे रहेंगे। इनका मोह त्यागकर आत्मोद्धारके अति विलक्षण मार्गपर आगे बढ़िये। समयको व्यर्थ न खोइये। जो लोग प्रमाद, आलस्य, निद्रा और भोगमें समयको बिताते हैं वे अपनेको जान-बूझकर अग्निमें झोंकते हैं। प्रमाद ही मृत्यु है। समयको व्यर्थ खोना ही प्रमाद है। बहुत-से भाई साधनके लिये समय निकालते हैं सही, परन्तु उन्हें लाभ नहींके बराबर हो रहा है। इसका कारण यह है कि वे समयका सदुपयोग और सुधार नहीं करते। वे कभी एकान्तमें बैठकर यह नहीं सोचते कि ऋषिसेवित तपोभूमिमें जन्म, द्विज-जातिमें उत्पत्ति और भगवत्-सम्बन्धी चर्चा करने-सुननेका अवसर, इन सारी अनुकूल सामग्रियोंके जुट जानेपर भी यदि सुधार न हुआ तो फिर कब होगा? अब तो सावधानतया ऐसा प्रयत्न होना चाहिये कि जिससे थोड़े समयमें ही बहुत अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके। आगेकी पंक्तियोंमें मैं अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार जो निवेदन करूँगा, उससे आपको निश्चय हो सकेगा कि स्वल्प कालमें ही अत्यधिक लाभ किस प्रकार हो सकता है।
सबसे पहले गायत्रीके जपपर ही विचार किया जाता है। मन्त्रका जोरसे उच्चारण करके जप करनेपर जो फल मिलता है, उससे दसगुना अधिक फल उपांशु अर्थात् जिह्वासे किये जानेवाले जपसे प्राप्त होता है। मानसिक जपका फल उपांशुसे दसगुना तथा साधारण जपसे सौगुना अधिक होता है (मनु० २। ८५)। इससे यही सिद्ध होता है कि मनुष्य सौ वर्षोंमें साधारण जपसे जो फल प्राप्त कर सकता है, वही फल मानसिक जपद्वारा उसे एक ही वर्षमें प्राप्त हो सकता है, फिर वही भजन यदि निष्कामभाव और गुप्त रीतिसे किया जाय तो यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि सौ वर्षोंमें जो फल नहीं हो सकता वह छ: मासमें ही प्राप्त हो सकता है। अश्वमेध-पर्वगत उत्तरगीतामें भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके प्रति कहा है कि ‘जो पुरुष रात-दिन तत्पर होकर विज्ञान-आनन्दघनके स्वरूपका चिन्तन करता है वह शीघ्र ही पवित्र होकर परम पदको प्राप्त हो जाता है।’ यह कौन नहीं जानता कि अटलव्रती ध्रुवजी केवल साढ़े पाँच महीनोंमें ही भगवद्दर्शनका अलभ्य लाभ उठाकर कृतकृत्य हो गये थे। मित्रो! निश्चय रखिये कि यदि वैसी तत्परताके साथ लग जायँ तो इस समय हम मनुष्य-जन्मका परम लाभ केवल पाँच ही दिनोंमें प्राप्त कर सकते हैं। पर शोक! भगवान् का चिन्तन कौन करते हैं? चिन्तन तो करते हैं विषयोंका! ऐसा करनेको तो भगवान् मिथ्याचार बतलाते हैं।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥
(गीता ३। ६)
‘जो मूढ़-बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियोंको हठसे रोककर इन्द्रियोंके भोगोंको मनसे चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहलाता है।’
लोग एकान्तमें ध्यानके लिये बैठते हैं तो झटसे ऊँघने लगते हैं। इस बीचमें यदि कोई श्रद्धेय पुरुष संयोगवश वहाँ आ पहुँचे तो उठ बैठते हैं। यही तो पाखण्ड है। भगवान् इससे बड़े नाराज होते हैं। वे समझते हैं कि ये भक्तिके नामपर मुझे ठगते हैं। रिझाना तो ये चाहते हैं लोगोंको और नाम लेते हैं एकान्तमें साधनका! भला, ऐसे स्वाँगकी आवश्यकता ही क्या है? साधकोंको भक्तिरूपी अमूल्य धनका संग्रह गुप्तरूपसे करना चाहिये। निष्काम और गुप्त भजन ही शीघ्रातिशीघ्र फलदायक होता है। स्त्री-पुत्रादिकी प्राप्तिके लिये भजनको बेच देना भारी भूल है। यद्यपि इससे पतन नहीं होता, पर फल अति अल्प ही होता है।
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥
(गीता ७। १६-१७)
‘हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्मवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् निष्कामी ऐसे चार प्रकारके भक्तजन मुझको भजते हैं, उनमें भी नित्य मुझमें एकीभावसे स्थित हुआ अनन्य प्रेम-भक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्त्वसे जाननेवाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझको अत्यन्त प्रिय है।’
निष्काम भक्तको भगवान् ने अपना ही स्वरूप माना है। ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ वही सबसे श्रेष्ठ है। अत: गायत्री-मन्त्रके जपकी तरह किसी भी मन्त्र अथवा नामके जपसे यदि हमें थोड़े ही समयमें अधिक लाभ प्राप्त करना अभीष्ट हो तो उपर्युक्त शैलीसे उसमें सुधार कर लेना चाहिये। साथ ही मन्त्रका जप अर्थसहित, आदर और प्रेमपूर्वक किया जाना चाहिये। यदि अर्थ समझमें न आता हो तो भगवान् के ध्यानसहित जप करना चाहिये। चारों वेदोंमें गायत्रीके समान किसी भी मन्त्रका महत्त्व नहीं बतलाया गया है, पर लोगोंको उससे उतना लाभ नहीं होता, इसका कारण यह है कि वे अर्थके सहित, प्रेम और आदरसे उसे जपते नहीं। मनुजीने स्पष्ट कहा है कि ‘जो व्यक्ति गायत्रीकी दस मालाएँ नित्य जपता है वह केवल तीन ही वर्षोंमें भारी-से-भारी पापसे छूट जाता है।’ पर आजकल जापकका मन तो कहीं रहता है और मणियाँ कहीं फिरती रहती हैं—
करमें तो माला फिरे, जीभ फिरे मुख मायँ।
मनुवा तो चहुँदिसि फिरे, यह तो सुमिरण नायँ॥
संख्या तो पूरी करनी ही नहीं है। साधकको तो भगवान् को रिझाना है। फिर प्रेम और आदरमें कमी क्यों करनी चाहिये? उपर्युक्त विशेषणोंको लक्ष्यमें रखकर जप करनेसे एक मालासे जो लाभ होगा, वह एक हजारसे भी न हुआ और न होगा। आप आजहीसे इस प्रकार करके देखिये, थोड़े-से समयमें कितना अपरिमित लाभ होता है। डेढ़ वर्षमें आपने जो मालाएँ जपीं, वह एक दिनसे भी कम रहेंगी। इतना होनेपर भी यदि असावधानता बनी रही तो विश्वासकी कमी ही समझनी चाहिये।
अब गीताके सम्बन्धमें विचार किया जाता है। एक भाई गीताका आद्योपान्त पाठ करता है, पर उसका अर्थ और भाव कुछ भी नहीं समझता। पाठके समय उसका मन भी संसारमें चला जाता है। संकल्पोंकी अधिकताके कारण उसे यह भी ज्ञान नहीं कि मैं किस अध्याय एवं किस श्लोकका पाठ कर रहा हूँ। उसके लिये यह कार्य एक प्रकारसे बेगार-सा है। पर बेगार है भगवान् की, इसलिये वह व्यर्थ नहीं जा सकती। दूसरा भाई प्रत्येक श्लोकका अर्थ समझकर प्रेमपूर्वक पाठ करता है। तत्त्व और रहस्यको समझकर पाठ करनेसे केवल एक ही श्लोकके पाठसे जो फल मिलता है वह पूरे सात सौ श्लोकोंके साधारण पाठसे भी नहीं मिलता। एक साधक पूर्वापर ध्यान देकर सारी गीताका पाठ करता है, पर आचरणमें एक बात भी नहीं लाता। वह श्लोक पढ़ लेता है—
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥
(गीता १७। १४)
वह समझता है कि ‘देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका पूजन, शुचिता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीरसम्बन्धी तप कहलाता है’, पर उसका यह केवल समझनामात्र ही है, जबतक कि वह अपने जीवनमें वैसा व्यवहार नहीं करता। दूसरा भाई, केवल एक ही श्लोकको पढ़ता है, पर उसे अक्षरश: कार्यान्वित कर देता है। ऐसी अवस्थामें कहना पड़ेगा कि आचरणमें लानेवाला साधक अर्थके जाननेवालेसे सात सौ गुना तथा बेगारीवालेसे चार लाख नब्बे हजारसे भी अधिक गुना लाभ उठानेवाला है। अन्तरं महदन्तरम्! दिन-रातका अन्तर प्रत्यक्ष दीख रहा है। अर्थसहित पाठ करनेवाला जो लाभ दो वर्षोंमें नहीं उठा सकता, धारण करनेवाला एक ही दिनमें उससे कहीं अधिक लाभ उठा सकता है।
यों तो गीताके पाठसे लाभ है, क्योंकि भगवान् कहते हैं—
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:॥
(गीता १८। ७०)
‘हे अर्जुन! जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनोंके संवादरूप गीताशास्त्रको पढ़ेगा अर्थात् नित्य पाठ करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा, ऐसा मेरा मत है।’
इस प्रकार मुक्तिरूप प्रसादी तो उसे मिल ही जायगी, पर धारण करनेपर तो एक ही श्लोक मुक्तिका दाता हो सकता है। पूरी गीताका नहीं तो, कम-से-कम एक अध्यायका पाठ तो कर ही लेना चाहिये। इस प्रकार जिसने चौबीस आवृत्ति कर ली, उसने एक वर्षमें चौबीस ज्ञानयज्ञ कर डाले। जो पढ़ना नहीं जानता, वह सुनकर भी यदि आचरण करे तो मुक्तिका अधिकारी हो सकता है। भगवान् कहते हैं—
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३। २५)
‘दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए, दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही उपासना करते हैं अर्थात् उन पुरुषोंके कहनेके अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुननेके परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरको निस्सन्देह तर जाते हैं।’
कितने आदमी नित्य ही गीता सुनते हैं पर सुननेसे ही काम न चलेगा। आजसे ही यह संकल्प कर लेना चाहिये कि प्रत्येक प्रकारसे व्यवहारमें लाकर हम अपना जीवन गीताके कथनानुसार बनानेकी चेष्टा करेंगे। उत्तम लोकोंका अधिकारी तो श्रद्धासे सुननेवाला भी हो ही जाता है; क्योंकि भगवान् कहते हैं—
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नर:।
सोऽपि मुक्त: शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥
(गीता १८। ७१)
जो पुरुष श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिसे रहित हुआ इस गीता-शास्त्रका श्रवणमात्र भी करेगा वह भी पापोंसे मुक्त होकर उत्तम कर्म करनेवालोंके श्रेष्ठ लोकोंको प्राप्त होवेगा अतएव कम-से-कम प्रत्येक मनुष्यको गीताके श्रवणके द्वारा यमराजका द्वार तो बन्द कर ही देना चाहिये।
अब सन्ध्योपासनके विषयमें कुछ लिखा जाता है। श्रद्धा, प्रेम और सत्कारपूर्वक की हुई सन्ध्योपासनासे सब पापोंका नाश होकर आत्माका कल्याण हो सकता है। सब द्विजातियोंको प्रात:, मध्याह्न और सायंकालकी सन्ध्या श्रद्धा, प्रेम और सत्कारपूर्वक करनी चाहिये। तीन कालकी न कर सकें तो प्रात:-सायं-सन्ध्या तो अवश्यमेव करनी चाहिये। द्विज होकर जो सन्ध्या नहीं करता, वह प्रायश्चित्तका भागी और शूद्रके समान समझा जाता है। द्विजोंको सन्ध्याका त्याग कभी नहीं करना चाहिये। रात्रिके अन्त और दिनके आरम्भमें जो ईश्वरोपासना की जाती है वह प्रात:सन्ध्या और दिनके अन्त तथा रात्रिके आरम्भमें जो सन्ध्या की जाती है वह सायं-सन्ध्योपासना कहलाती है। विधिपूर्वक ठीक समयपर करना ही सत्कारपूर्वक करना है। जैसे समयपर बोया हुआ बीज ही लाभप्रद होता है, उसी प्रकार ठीक समयपर की हुई सन्ध्योपासना ही उत्तम फल देनेवाली होती है। असमयमें खेतमें बोया हुआ अनाज प्रथम तो उगता नहीं और यदि उग आया तो विशेष फलदायक नहीं होता, अत: हमें ठीक समयपर विधिसहित सन्ध्या करनेके लिये तत्पर होना चाहिये। प्रात:कालकी सन्ध्या तारोंके रहते करना उत्तम, तारोंके छिप जानेपर मध्यम एवं सूर्योदयके अनन्तर कनिष्ठ मानी गयी है—
उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका।
कनिष्ठा सूर्यसहिता प्रात:सन्ध्या त्रिधा स्मृता॥
यदि यह कहा जाय कि इसमें सूर्यकी प्रधानता क्यों मानी गयी, तो इसका उत्तर यह है कि प्रकट देवताओंमें सूर्यसे बढ़कर कोई दूसरा देव नहीं है और सृष्टिके आदिमें भगवान् ही सूर्यरूपमें प्रकट होते हैं। इसलिये सूर्यकी उपासना ईश्वरकी ही उपासना है। ‘समयपर सन्ध्या करनेका महत्त्व इतना अधिक क्यों है’—इसके उत्तरमें निवेदन है कि सूर्य सबसे बढ़कर महान् पुरुष हैं। वह जब हमारे देशमें आते हैं तो उनका सत्कार करना हमारा परम कर्तव्य है। वह सत्कार ठीक समयपर किये जानेपर ही सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। जैसे कोई महात्मा हमारे हितके लिये हमारे यहाँ आते हैं तो उनके सत्कारार्थ बहुत-से भाई स्टेशनपर जाते हैं। कई तो ट्रेनके पहुँचनेके पूर्व ही उनके स्वागतार्थ सब प्रकारका प्रबन्ध करके ट्रेनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। गाड़ीसे उतरते ही बड़े प्रेमसे पुष्पमाला और प्रणाम आदिके द्वारा उनका सत्कार करते हैं। दूसरे कितने ही भाई उनके पहुँचनेके समय प्लेटफार्मपर पहलेवालोंके साथ सम्मिलित होकर स्वागतके कार्यमें योग देने लगते हैं। तीसरे कितने ही भाई उनके नियत स्थानपर पहुँच जानेके दो घण्टे बाद अभिवन्दनादिद्वारा उनका सत्कार करते हैं। इन तीनोंमें प्रथम श्रेणीवालोंका दिया हुआ आदर उत्तम, द्वितीयवालोंका मध्यम और तृतीयवालोंका कनिष्ठ समझा जाता है। इसी प्रकार प्रात:कालकी सन्ध्याके समयमें सूर्यभगवान् का किया हुआ सत्कार समझना चाहिये।
सायंकालकी सन्ध्याका भी सूर्यके रहते हुए करना उत्तम, अस्त हो जानेपर मध्यम और नक्षत्रोंके प्रकट हो जानेपर करना कनिष्ठ माना जाता है—
उत्तमा सूर्यसहिता मध्यमा लुप्तभास्करा।
कनिष्ठा तारकोपेता सायंसन्ध्या त्रिधा स्मृता॥
क्योंकि जिस प्रकार महापुरुषके आनेपर समयपर किया गया सत्कार उत्तम माना जाता है, उसी प्रकार उनके विदा होनेके समय भी ठीक समयपर किया गया सत्कार ही सर्वोत्तम माना जाता है। जैसे कोई श्रेष्ठ पुरुष हमारे हितका कार्य सम्पादन करके जब विदा होते हैं तो उस समय बहुत-से भाई उनका आदर करते हुए स्टेशनपर उनके साथ जाते हैं और बड़े सत्कारके साथ उन्हें विदा करते हैं और दूसरे बन्धुगण उनके सत्कारार्थ कुछ देरी करके स्टेशनपर जाते हैं जिससे उन्हें दर्शन नहीं हो पाते। इस कारण वे उन्हें पत्रद्वारा अपनी श्रद्धा और प्रेमका परिचय देते हैं। तीसरे भाई, यह सुनकर कि महात्माजी विदा हो गये, स्टेशनपर भी नहीं जाते और न जानेका कारण पत्रद्वारा जनाते हुए अपना प्रेम प्रकट करते हैं। इन तीनों श्रेणियोंमें प्रथमका आदर-प्रेम उत्तम, द्वितीयका मध्यम और तृतीयका कनिष्ठ माना जाता है। इसी प्रकार सूर्यास्तके पूर्व सन्ध्या करनेपर सूर्य भगवान् का सत्कार उत्तम, सूर्यास्तके बाद मध्यम और तारोंके प्रकट होनेपर कनिष्ठ माना जाता है।
मार्जन, आचमन और प्राणायामादिकी विधिको समझकर ही सारी क्रियाएँ प्रमाद और उपेक्षाको छोड़कर आदरपूर्वक करनी चाहिये, प्रत्येक मन्त्रके पूर्व जो विनियोग छोड़ा जाता है उसमें बतलाये हुए ऋषि, छन्द, देवता और विषयको समझते हुए मन्त्रका प्रेमपूर्वक शुद्धता और स्पष्टतासे उच्चारण करना चाहिये। उस मन्त्र या श्लोकके प्रयोजनको भी समझ लेनेकी आवश्यकता है। जैसे—
ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥
इस श्लोकको पढ़कर हम बाहर-भीतरकी पवित्रताके लिये शरीरका मार्जन करते हैं। यह विचारनेका विषय है कि मन्त्रके उच्चारणसे शरीरकी पवित्रता होती है अथवा जलके मार्जनसे। गौर करनेपर यह मालूम होगा कि मुख्य बात इन दोनोंसे ही भिन्न है। वह यह कि ‘पुण्डरीकाक्ष’ भगवान् का स्मरण करनेपर मनुष्य बाहर-भीतरसे पवित्र होता है; क्योंकि श्लोकका आशय यही है। यदि यह पूछा जाय कि फिर श्लोकके पढ़ने और मार्जन करनेकी आवश्यकता ही क्या है, तो इसका उत्तर यह है कि श्लोक-पाठका उद्देश्य तो परमात्म-स्मृतिके महत्त्वको बतलाना है और मार्जन पवित्रताकी ओर लक्ष्य करवाता है। इसी प्रकार सब मन्त्रों, श्लोकों और विनियोगोंके तात्पर्यको समझ-समझकर सन्ध्या करनी चाहिये। सूर्यभगवान् के दर्शन, ध्यान और अर्घ्यके समय ऐसा समझना चाहिये कि हम भगवान् का साक्षात् दर्शन और स्वागतादि कर रहे हैं। इस प्रकार प्रत्येक बातको खूब समझकर पद-पदपर प्रेममें मुग्ध होना चाहिये एवं मनमें इस बातका दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि प्रेम और आदरपूर्वक समयपर सूर्यभगवान् की उपासना करते-करते हम उनकी कृपासे अवश्य ही परम धामको प्राप्त कर सकेंगे। क्योंकि प्रेमी और श्रद्धालु उपासकद्वारा की हुई उपासनाकी सुनवायी अवश्य ही होगी। ईशोपनिषद्में भी लिखा है कि उपासक मरणकालमें परम धाममें जानेके लिये सूर्यभगवान् से प्रार्थना करता है—
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥
(मन्त्र १५)
‘हे सूर्य! सत्यरूप आपका मुख सुवर्ण-सदृश पात्रद्वारा ढका हुआ है उसको आप हटाइये, जिससे कि मुझे आप सत्य धर्मवाले ब्रह्मके दर्शन हों।’
श्रद्धा, प्रेम और आदरपूर्वक उपासना करनेवाले उपासककी ही उपर्युक्त प्रार्थना स्वीकृत होती है।
यह बात युक्तियुक्त भी है कि कोई भी सेवक जब अपने स्वामीकी श्रद्धा और प्रेमसे सेवा करता है तो उत्तम पुरुष उसके प्रत्युपकारार्थ अपनी शक्तिके अनुसार उसका हितसाधन करता ही है। फिर सूर्यभगवान् की श्रद्धा-भक्तिसे उपासना करनेवाले उपासकके कल्याणमें तो सन्देह ही क्या है?
महाभारतमें प्रसिद्ध है कि महाराज युधिष्ठिरने तो अपने भक्त कुत्तेको अपने साथ स्वर्गमें ले जाना चाहा था। फिर सूर्यभगवान् हमारा कल्याण करें, इसमें तो कहना ही क्या है?
अत: जिन्हें शीघ्र-से-शीघ्र परम शान्ति प्राप्त करनेकी इच्छा हो, उन्हें उचित है कि वे अपने समयका सदुपयोग करते हुए उपर्युक्त शैलीसे साधनमें दृढ़तापूर्वक तत्पर हो जायँ।