शरणागतिका स्वरूप और फल
शरणागतिका प्रारम्भिक स्वरूप क्या है तथा बादमें उसका क्या स्वरूप हो जाता है—इसी विषयपर इस निबन्धमें विचार करना है। यह विषय बहुत ही गम्भीर और रहस्यपूर्ण है। जो व्यक्ति इस रहस्यको हृदयंगम कर लेता है वह सदाके लिये कृतार्थ हो जाता है। महर्षि पतंजलिने भी योगदर्शनमें पहले मनोनिरोधके लिये अभ्यास और वैराग्यका कथन किया है और फिर ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’ (१।२३) कहकर शरणागतिका महत्त्व प्रतिपादन किया है। रामायण और गीता आदिमें भी ईश्वरशरणको ही भगवत्प्राप्तिका मुख्य साधन बतलाया गया है। शरणागति और भक्ति—दोनोंका एक ही तात्पर्य है। इनके पूर्व ‘अनन्य’ शब्द जोड़ देनेपर भक्ति और शरणागतिमें पूर्णता आ जाती है।
शरणका आरम्भ ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ’ इस कथनमात्रसे ही हो जाता है। यही कथन आगे चलकर यथार्थ शरणागतिके रूपमें परिणत हो जाता है। मारवाड़में क्यामख्यानी नामकी एक मुसलमान जाति है। सुना जाता है कि पहले ये लोग हिंदू थे। जिस जगह ये प्रधानतासे रहा करते थे वहाँके शासकने इन्हें मुसलमान बना लेनेकी नीयतसे यह कहा कि ‘तुमलोगोंसे मैं एक बातकी आशा करता हूँ। वह यह कि तुमलोग वास्तवमें चाहे मुसलमान न भी बनो पर कम-से-कम पूछनेपर अपनेको मुसलमान बतलाते रहो।’ इस राजाज्ञाको मान लेनेमें उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई। उनके घरू व्यवहार और वैयक्तिक रहन-सहन ठीक हिंदुओंके-जैसे ही बने रहे, पर पूछनेपर वे अपनेको मुसलमान ही बतलाते थे। आश्चर्य है कि मुसलमान शासककी यह दूरदर्शितापूर्ण नीति शीघ्र ही काम कर गयी और आज उनके खान-पान और रहन-सहन आदि समस्त व्यवहार मुसलमानी ढाँचेमें पूर्णरूपसे ढल गये। अब वे लोग अपनेको वास्तवमें पूरे मुसलमान मानने लगे हैं। इस दृष्टान्तके अनुसार यदि हम अपने ईश्वररूप राजाके व्यापक राज्यमें रहकर यह स्वीकार कर लें कि ‘हे प्रभो! हम आपके हैं।’ तो फिर हमें सच्चा भक्त बन जानेमें देर नहीं लगेगी, क्योंकि उस दयालु परमेश्वरने तो डंकेकी चोटपर यह घोषणा ही कर रखी है—
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥
(वा० रा० ६। १८। ३३)
अर्थात् ‘मेरी शरण आनेके लिये जो एक बार भी यह कह देता है कि ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ।’ तो मैं उसे समस्त भूतोंसे निर्भय कर देता हूँ। यह मेरा व्रत है।’ महाभारत-युद्ध-आरम्भके समय गीतामें अर्जुन भी इसी प्रकार शरणागतके रूपमें हमें दृष्टिगत होते हैं। वे मनस्तापसे व्यथित होकर अपने चिरन्तन सखा भगवान् श्रीकृष्णके सामने कातर स्वरमें कह उठते है—
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
(गीता २। ७)
अर्थात् ‘कायरतारूप दोष करके उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपको पूछता हूँ कि जो साधन निश्चय ही कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ; इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये।’
इसके पूर्व गीतामें कहीं भी शरणागतिका वर्णन नहीं आया इसलिये यह शरणागति प्रारम्भिक समझनी चाहिये, क्योंकि इसके बाद ही वे कहने लगते हैं कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा।’ संजय कहते हैं—
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परंतप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥
(गीता २। ९)
‘हे राजन्! निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराजके प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्दभगवान् से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये।’
अर्जुनकी इस ‘न योत्स्ये’ वाली उक्तिको सुनकर भगवान् अपनी मुसकराहटको रोक न सके, क्योंकि एक तरफ तो वे कह रहे हैं कि ‘मैं आपके शरण हूँ, मुझे उपदेश दीजिये’ और दूसरी ओर अपनी मनमानी कहते है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा।’ यह व्यवहार तो उस झगड़ालूकी तरहका-सा हुआ कि जो अपने किसी विश्वास-भाजन पंचके पास जाकर कहता है कि ‘मेरा एक नालीके सम्बन्धमें पड़ोसीसे झगड़ा हो गया है। आप उसका निपटारा कर दीजिये। मुझे आपका निर्णय सर्वथा मान्य होगा। किन्तु इस बातका ध्यान रहे कि इस नालीका पानी तो जहाँ गिरता है वहीं गिरेगा।’ इस बातको सुनकर पंच उसके इस आग्रहको देखकर मन-ही-मन हँसता है और न्यायके लिये किसी दूसरेके पास जानेकी सलाह देता है। यहाँ अर्जुनकी भी दशा इसी तरहकी-सी देखी जाती है। वह कहते है कि मैं आपके शरण हूँ, आप कहेंगे सो करूँगा, परन्तु युद्ध नहीं करूँगा। इस दशामें भी दयामय भगवान् को अर्जुनके इस कथनपर कोई अन्यथाभाव नहीं हुआ, उन्होंने उन्हें अपने शरणसे दूर नहीं किया। बल्कि हर तरहसे समझा-बुझाकर मार्गपर लानेकी सफल चेष्टा की। क्योंकि वे ‘त्वां प्रपन्नम्’ ‘मैं आपके शरण हूँ’ ऐसा एक बार कह चुके थे।
इस कथनसे यह नहीं समझना चाहिये कि वास्तवमें अर्जुनकी भगवद्भक्तिमें कमी थी। उनकी भक्तिमें कमी होती तो भगवान् उनके रथके घोड़े ही क्यों हाँकते? बात यह है कि भगवान् ने अपनी लीलासे अर्जुनको मोहित-सा करके यहाँ लोकशिक्षार्थ प्रारम्भिक शरणागतिका स्वरूप दिखलाया है।
यह तो प्रारम्भिक शरणकी बात हुई। अब शरणागतिके स्वरूपको समझनेकी आवश्यकता है। इन्द्रिय, मन, शरीर और आत्मा सबसे सर्वथा निष्काम प्रेमभावसे भगवान् के शरण होनेका नाम ही अनन्य शरणागति है। परमेश्वरके नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला और रहस्यका सदा मनन करते रहना मनसे भगवान् के शरण होना है। वाणीसे भगवन्नामका उच्चारण करना, चरणोंसे भगवान् के मन्दिर आदिमें जाना, नेत्रोंसे भगवान् की मूर्ति आदिके दर्शन एवं शास्त्रावलोकन करना, कानोंसे उनके गुणानुवादादि सुनना तथा हाथोंसे उनके विग्रहकी पूजा करना और सबमें भगवद्बुद्धि करके सबकी सेवा करना तथा श्रीहरिकी आज्ञाओंका पालन करना इत्यादि इन्द्रियोंसे उनके शरण होना है। और उनके चरणोंमें साष्टांग प्रणाम करना आदि शरीरसे भगवान् के शरण होना है। तथा भगवत्प्रेमके सिवा और किसीको भी हृदयमें स्थान न देकर भगवान् के परायण होना ही अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देना है, यही अनन्य शरण है। शास्त्रोंमें तो परम दयालु परमात्माको केवल एक ही बार प्रणाम कर देनेका भी बहुत अधिक माहात्म्य बतलाया गया है—
एकोऽपि कृष्णस्य कृत: प्रणामो
दशाश्वमेधावभृथेन तुल्य:।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म
कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय॥
(महा०, शान्ति० ४७।९१)
‘भगवान् श्रीकृष्णको किया हुआ एक भी प्रणाम दस अश्वमेधयज्ञोंके अवभृथस्नानके बराबर है, (इतना ही नहीं, विशेषता यह है कि) दस अश्वमेध करनेवालेको तो फिर जन्म लेना पड़ता है, किन्तु भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवालेको फिर जन्म नहीं लेना पड़ता।’
इसी प्रकार श्रीहरिके पावन नामका केवल एक ही बार उच्चारण कर देनेसे भी समस्त पापोंका नाश होकर अकथनीय फलकी प्राप्ति होती है। प्रत्यक्षमें वैसा फल दृष्टिगत न होनेमें हमारी अश्रद्धा ही प्रधान कारण है।
वाणीसे शरण होना जितना सुगम है, शरीरकी शरणागति उतनी सुगम नहीं है। एक आदमी किसीका अपराध कर देता है तब वह अपनेको संकटापन्न समझकर क्षमा-याचनाके लिये उसके शरणमें जाता है। उस समय वह अपने मुँहसे तो उससे क्षमा माँग लेता है पर उसके चरणोंमें गिरने आदिमें उसे संकोच होता है। फिर भी वह केवल कथनद्वारा भी अपने अपराधोंकी क्षमा करवा ही लेता है। वाणी और शरीरसे शरण होनेकी अपेक्षा इन्द्रियोंसहित अन्त:करणद्वारा शरण होना और भी कठिन है। क्योंकि मनुष्य वाणीसे कह देता है कि मैं आपके शरण हूँ और शरीरसे भी चरणोंमें गिरकर शरणागत हो जाता है परन्तु मनसे शरण होना इससे भी कठिन है। मनसे शरण हो जानेका फल यह है कि भगवान् के सिवा किसी अन्य वस्तुका चिन्तन ही नहीं होता। उसे तो नित्य-निरन्तर अपने प्रियतम वासुदेव ही सर्वत्र विराजित दीखने लगते हैं।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:।
(गीता ७। १९)
उपर्युक्त प्रकारसे परमात्माके शरण हो जानेपर किसी-किसी साधकको तो अपने तनकी भी सुधि नहीं रहती। वह भगवान् से परे और किसीको भी नहीं जानता और भगवान् के ही अनन्य प्रेममें मग्न रहता है। इस शरणागतिमें पूर्वोक्त सभी भेदोंका अन्तर्भाव है।
अब यह प्रश्न उठ सकता है कि हम उस प्रभुकी शरणके लिये कहाँ जायँ? मन्दिरमें जाकर उसके विग्रहकी शरण लें अथवा सब जगह प्रतिष्ठित सर्वव्यापक विभुकी शरण ग्रहण करें? इसके उत्तरमें निवेदन है कि जिसकी जैसी रुचि हो वह उसीके अनुसार भगवान् की शरण ले सकता है। यदि कारणविशेषसे मन्दिरोंमें जानेमें सुविधा या रुचि न हो तो जो जहाँ हो वह वहीं भगवान् की शरण हो सकता है। क्योंकि भगवान् सर्वव्यापक हैं, कोई भी ऐसा स्थान नहीं जहाँ वे न हों। यदि हम उन्हें कोई वस्तु अर्पण करना चाहें तो वे तत्काल उसे ग्रहण कर सकते हैं, क्योंकि वे ‘सर्वत:पाणि’ अर्थात् सब ओर हाथोंवाले हैं। यदि हम उन्हें नमस्कार करना चाहें तो वे हमारे नमस्कारको भी सब जगह स्वीकार कर सकते हैं; क्योंकि वे ‘सर्वत:पाद’ अर्थात् सब जगह पैरवाले हैं। यदि हम उन्हें अपनी श्रद्धामयी पूजा-क्रियादिको दिखलाना चाहें तो वे उन्हें देख भी सकते हैं; क्योंकि वे ‘सर्वतोऽक्षि’ अर्थात् सब जगह नेत्रोंवाले हैं। यदि हम उनके मस्तकपर प्रेमपुष्पांजलि समर्पित करना चाहें तो वे उसे भी सहर्ष स्वीकार कर सकते हैं; क्योंकि वे ‘सर्वत:शिर:’ अर्थात् सब स्थानोंपर सिरवाले हैं। हमारे द्वारा किये गये गुणानुवादोंको भी वे प्रभु सब जगह सुन सकते हैं; क्योंकि वे ‘सर्वत:श्रुतिमत्’ अर्थात् सभी जगह कानोंवाले हैं। इस प्रकार प्रेमसे अर्पण किये हुए हमारे नैवेद्यको भी वे ‘सर्वतोमुख:’ भगवान् नि:संकोच खा सकते हैं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(गीता ९। २६)
अर्थात् ‘जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रेमसे खाता हूँ।’
ऊपरकी पंक्तियोंमें भगवान् के निमित्त पूजा आदि क्रियाओंको करनेकी विधिका निरूपण किया गया। अब निराकार सर्वत्र व्यापक भगवान् विभुकी आज्ञाएँ कैसे प्राप्त की जायँ इस विषयपर कुछ लिखा जाता है। गीताके उपदेशोंको ही भगवान् की आज्ञा मानकर अर्जुनकी तरह अपने-आपको उसके अनुगत बना दे। इसपर यह शंका हो सकती है कि किसी सन्दिग्ध विषयको न समझ सकनेकी दशामें उसका समाधान किस प्रकार किया जाय। इसका उत्तर यह है कि एकान्तमें बैठकर ‘सर्वभूताशयस्थित’ भगवान् को अपने मनके समस्त सन्देह सुना दे, ऐसा करनेपर वे स्वत: ही हृदयमें प्रेरणा कर देंगे। इसपर भी हृदयकी मलिनताके कारण यदि कोई बात समझमें न आ सके तो भगवान् के भक्तोंको पूछना चाहिये। उन भक्तोंका पता भी भगवान् ही बतला सकेंगे, वे जिनके लिये हृदयमें प्रेरणा करें वे ही हमारे लिये भक्त कहे जा सकते हैं।
हम भगवान् की पूर्णतया शरण हो गये—इसका निश्चय कैसे हो? इस शंकाका समाधान करनेके लिये अर्जुनका दृष्टान्त देते हैं। अर्जुनसे भगवान् कहते हैं—
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
(गीता १८। ६५)
‘हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करनेसे तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।’
इस श्लोकमें शरणागतिकी चारों बातें आ गयीं। ‘मन्मना:!’ अर्थात् मेरेमें मन लगानेवाला हो। ‘मद्भक्त:’ मुझमें ही प्रेम करनेवाला हो, स्त्री-पुत्रादिमें नहीं। ‘मद्याजी’ से भगवान् की पूजा और आज्ञापालन समझना चाहिये। ‘नमस्कुरु’ अर्थात् मेरे चरणोंमें प्रणाम कर। प्रणाम करनेका महत्त्व तो लोकमें भी प्रत्यक्ष ही देखनेमें आता है। जब अपराधी चरणोंमें गिर पड़ता है तो चाहे कोई कितना ही निष्ठुर हृदय क्यों न हो उसे उसको क्षमा प्रदान करनी ही पड़ती है। छोटा बालक अपराध करके अपनी माताकी गोदमें जा बैठता है और बड़ा चरणोंमें गिर पड़ता है। इसी प्रकार भक्त अपने परम सुहृद् परमात्माके पादपद्मोंमें गिर पड़े। फिर वे चाहे मारें या तारें; इसकी कोई परवा नहीं, भगवान् के द्वारा किये हुए विधानमें सदा प्रसन्न रहे, भारी-से-भारी दु:ख पड़नेपर भी कभी विचलित न हो। जिस समय बालकके फोड़ेकी चीराफाड़ी होती है उस समय वह अपनी माताकी गोदमें सुखसे बैठा रहता है, जरा भी घबड़ाता नहीं। वह रोता हुआ भी इस बातको जानता है कि मेरी स्नेहमयी जननी कभी स्वप्नमें भी मेरा अहित नहीं कर सकती। उसका प्रत्येक विधान मेरे लिये सदा मंगलमय ही होता है। इसी प्रकार भक्त नि:शंक होकर विश्वासपूर्वक भगवान् के चरणोंमें पड़ा रहता है। भारी-से-भारी दु:खके उपस्थित होनेपर भी बुद्धिके विचारसे वह उसके गर्भमें अपने कल्याणको देखता रहता है किन्तु कभी-कभी प्रणयकोप भी कर बैठता है और कभी-कभी रोने भी लगता है। प्रभु उसके बालकपनको समझकर उसके दु:खकी, उसके रोनेकी परवा नहीं करते और अन्तमें उसे ऐसा बना देते हैं कि वह प्रत्येक अवस्थामें सन्तुष्ट रहता है। अनिकेत बन जाता है—देह और गेह उसके निकेत नहीं रहते। उसका देहाभिमान छूट जाता है और उसकी गृहासक्ति नष्ट हो जाती है।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥
(गीता १२। १९)
इस प्रकार बुद्धिके स्थिर हो जानेपर वह प्रत्येक विधानमें प्रसन्न रहता है। गीताके १२ वें अध्यायके श्लोक १३ से २० तकमें भक्तोंके जितने लक्षण भगवान् ने बतलाये हैं यदि वे हममें घटने लगें तो समझ लेना चाहिये कि हम भगवान् के पूर्णतया शरण हो गये।
यहाँतक शरणागतिकी प्रारम्भिक और अन्तिम स्थितिका प्रतिपादन किया गया। अब उसकी बीचकी सीढ़ियोंपर भी कुछ प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है। जिस प्रकार हनुमान् जी ने छलाँग मारकर ही समुद्रको पार कर लिया था उसी प्रकार भक्त भी बीचकी सीढ़ियोंपर चढ़े बिना भी संसारसमुद्रसे पार होकर परमात्माकी दयासे अपने अभीष्ट धामको पहुँच सकता है।
भगवान् श्रीकृष्णद्वारा वर्णित अध्याय १६ के आरम्भके ‘अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:’ आदि दैवी सम्पदाके २६ गुणोंको अपने हृदयमें धारण कर लेना ही शरणागतिकी बीचकी अवस्था है इसका फल भगवत्प्राप्ति है।
यदि कहें कि दैवी सम्पत्तिके लक्षण भक्तिमार्गके साधन क्यों माने जायँ, तो भगवान् ने नवें अध्यायमें स्पष्ट कहा है—
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥
(गीता ९। १३)
‘परन्तु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृतिके आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मनसे युक्त होकर निरन्तर भजते हैं।’
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥
(गीता ९। १४)
‘वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं।’
इस श्लोकमें भक्ति (शरणागति)-के लक्षणोंका वर्णन किया है इसलिये दैवी सम्पत्तिको भक्तिके प्रकरणमें लेना उचित ही है।
शरणागतिके मार्गपर चलनेवाले साधकके हृदयमें दुर्गुण और दुराचार स्वत: ही नष्ट होते जाते हैं तथा सदाचार और सद्गुणका विकास भी भगवान् की दयासे अपने-आप ही होता जाता है। दैवी सम्पदाकी प्राप्ति और आसुरी सम्पदाके नाशमें भगवान् की दया ही प्रधान हेतु है। यदि सद्गुणोंकी वृद्धि होती न दीखे तो समझना चाहिये कि शरणमें अभी त्रुटि है। जैसे सूर्यकी शरण ले लेनेपर अन्धकारको कहीं भी स्थान नहीं रह जाता वैसे ही भगवान् के शरण हो जानेपर हृदयमें किसी प्रकारका दोष रह ही नहीं सकता! शरणागतिकी दृढ़ताके लिये साधकको सदा आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिये। वह अपने मनको सदा देखता रहे कि उसमें सद्गुणोंका और भगवान् का वास हो रहा है या विषयोंका। वह ध्यान रखे कि उसकी वाणी भगवद्गुणानुवादका रसानुभव कर रही है या नहीं। उसकी क्रियाएँ भगवान् के बदले कहीं भोगोंके लिये तो नहीं हो रही हैं? शरीरको समर्पित कर देनेपर तत्सम्बन्धी सुख-दु:खोंमें साधकको भगवान् की दया स्पष्टरूपसे दीखने लगती है। ज्यों-ज्यों भगवान् में प्रेम बढ़ता है त्यों-त्यों विषयोंमें आनन्द कम होता जाता है और भगवान् में बढ़ता जाता है यही प्रेमकी कसौटी है। भगवान् में जितना प्रेम बढ़ता जायगा, भगवान् का उतना ही ज्ञान होता जायगा, उतना ही सांसारिक विषयोंमें वैराग्य होकर उनमें स्वत: ही आनन्द कम प्रतीत होने लगेगा। धीरे-धीरे भगवान् के प्रेमका आनन्द बढ़ेगा और फिर उसके सामने त्रिलोकीका आनन्द भी तुच्छ प्रतीत होगा।
भगवान् के शरणार्थीको ऐसा मानना चाहिये कि भगवान् जो कुछ करते हैं, सब मंगल ही करते हैं। उनके प्रत्येक विधानमें दया और न्याय मानकर आनन्दित होना चाहिये। उन्हीं नवीन कर्मोंको करना चाहिये जिनसे भगवान् प्रसन्न हों। भगवान् को हर समय याद रखना चाहिये। स्त्री-पुत्र आदिके प्राप्त होनेपर यह समझे कि भगवत्-प्राप्तिमें सहायताके लिये ये मिले हैं, और इनके नाश होनेपर यह समझे कि मैं इनकी आसक्तिमें फँस गया था इसलिये भगवान् ने दया करके इनको हटा लिया है। इसी प्रकार अन्य विषयोंकी प्राप्ति और विनाशमें भी समझना चाहिये।
यों समझते-समझते मनका जितना-जितना विकार हटता जाता है, उतना-उतना ही वह प्रभुके नजदीक जाता रहता है। प्रभुकी दयासे उसमें सद्गुणोंकी वृद्धि होती रहती है। वह किसीकी सेवा करता है तो यह समझता है कि मैं प्रभुकी ही सेवा कर रहा हूँ। हरेक कालमें उसका नि:स्वार्थ भाव रहता है। जैसे पतिव्रता स्त्री अतिथियोंकी सेवा करती है परन्तु उनमें आसक्त नहीं होती, इसी प्रकार भक्त भी सारी दुनियाकी सेवा करता हुआ भी उनमें आसक्त नहीं होता।
किसी-किसी भक्तमें ऐसा भी होता है कि जब सेवा करनेसे उसकी प्रतिष्ठा होने लगती है तब आरम्भमें तो वह उससे प्रसन्न-सा होता है और खूब सेवा करता है परन्तु आगे जाकर विचार करता है कि मैं तो मान-बड़ाईके लिये सेवा कर रहा हूँ, प्रभुके लिये कहाँ? धीरे-धीरे उसकी मान-बड़ाईकी चाह कम होती जाती है और वह स्वयं मान-बड़ाईके उद्देश्यको छोड़ता जाता है; परन्तु फिर भी दूसरोंके द्वारा दी गयी मान-बड़ाईको कहीं स्वीकार कर बैठता है। इसके बाद वह मान-बड़ाईके प्राप्त होनेपर लज्जित हो जाता है। मनमें समझता है कि पृथ्वी फट जाय तो उसमें धँस जाऊँ और इसके बाद तो जहाँ ऐसा मौका आनेकी सम्भावना होती है वहाँ वह जाना ही नहीं चाहता, जैसे पतिव्रता स्त्री बुरे वातावरणमें नहीं जाना चाहती। ऐसी अवस्थामें उसे मान-बड़ाईमें दु:ख और अपमान तथा निन्दामें सुख-सा प्रतीत होने लगता है। इसी प्रकार क्रमश: उसके अहंकारका कतई नाश होता जाता है, वह विचार करता है कि मुझमें जो ‘मैं’ था, वह ‘मैं’ तो प्रभुके शरण हो गया। अब तो मैं प्रभुकी कठपुतलीमात्र हूँ। इसी स्थितिको बतलाते हुए भगवान् कह रहे हैं—
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(गीता १२। ६-७)
‘परन्तु जो मेरे परायण रहनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वरको ही अनन्य भक्तियोगसे निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसारसमुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ।’
मतलब यह कि जिस प्रकार कठपुतलीको सूत्रधार जैसे नचाता है वह वैसे ही नाचती है। अपनी ओरसे कोई चेष्टा नहीं करती वैसे ही वह भक्त अपने अहंकारसे कुछ भी नहीं करता। उसके द्वारा जो कुछ होता है, सब भगवान् ही करते हैं, इसीलिये उसकी प्रत्येक क्रिया परम पवित्र और आदर्श होती है। उससे ऐसा कोई कार्य होता ही नहीं जो भगवान् की आज्ञा और रुचिके प्रतिकूल हो। यही कर्मोंका अर्पण है। उसके मन, शरीर और इन्द्रियाँ सब कुछ भगवान् के ही अर्पित होती हैं। इसी प्रकार वह सुख-दु:खकी प्राप्तिमें भी किसी प्रकार अपनी स्थितिसे विचलित नहीं होता। वरं उसे भगवान् का विधान समझकर पद-पदमें भगवान् की दयाका दर्शन करता हुआ मुग्ध रहता है। उसका चित्त अनन्यरूपसे केवल भगवान् के ही चिन्तनमें लगा रहता है, दूसरे किसी विषयके अस्तित्वकी भी कल्पना उसकी वृत्तिमें नहीं आती। इस प्रकार कर्मसे, शरीर और इन्द्रियोंसे और मन-बुद्धिसे जो सर्वथा भगवान् के अर्पित हो जाता है उसे भगवान् स्वयं अति शीघ्र संसार-सागरसे उद्धार कर अपना परमप्रेमी बना लेते हैं और स्वयं उसके परमप्रेमी बन जाते हैं। ऐसी स्थितिमें उसको सब ओर प्रभुका ही रूप दीखने लगता है। वह अपने-आपको सर्वथा भूलकर प्रेममय बन जाता है। तब उसे नीतिका भी ज्ञान नहीं रहता। वह मस्त हो जाता है। यही पूर्ण शरणागति है, इसीको अनन्यभक्ति और अनन्य शरण कहते हैं, यही अपने-आपको भगवान् के पूर्णतया समर्पण करना है।