Seeker of Truth

शरणागति

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(गीता १८। ६२)

मनुष्य-जीवनका चरम लक्ष्य आत्यन्तिक आनन्दकी प्राप्ति है, आत्यन्तिक आनन्द परमात्मामें है अतएव परमात्माकी प्राप्ति ही मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य है। इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये शास्त्रकारों और महात्माओंने अधिकारीके अनुसार अनेक उपाय और साधन बतलाये हैं, परन्तु विचार करनेपर उन समस्त साधनोंमें परमात्माकी शरणागतिके समान सरल, सुगम, सुखसाध्य साधन अन्य कोई-सा भी नहीं प्रतीत होता। इसीलिये प्राय: सभी शास्त्रोंमें इसकी प्रशंसा की गयी है। श्रीमद्भगवद्गीतामें तो उपदेशका आरम्भ और पर्यवसान दोनों ही शरणागतिमें होते हैं। पहले अर्जुन ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (गीता २। ७) ‘मैं आपका शिष्य हूँ, शरणागत हूँ, मुझे यथार्थ उपदेश दीजिये’ ऐसा कहता है, तब भगवान् उपदेशका आरम्भ करते हैं और अन्तमें उपदेशका उपसंहार करते हुए कहते हैं—

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८।६६)

सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर केवल मुझ एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता न कर।

इससे पहले भी भगवान् ने शरणागतिको जितना महत्त्व दिया है उतना अन्य किसी भी साधनाको नहीं दिया। जाति या आचरणसे कोई कैसा भी नीच या पापी क्यों न हो, भगवान् की शरणमात्रसे ही वह अनायास परमगतिको प्राप्त हो जाता है।

भगवान् ने कहा है—

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
(गीता ९।३२)

हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्रादि और पापयोनिवाले भी जो कोई होवें, वे भी मेरे शरण होकर तो परमगतिको ही प्राप्त होते हैं।

श्रुति कहती है—

एतद्‍ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्‍ध्येवाक्षरं परम्।
एतद्‍ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥
(कठ० १।२।१६-१७)

यह अक्षर ही ब्रह्मस्वरूप है, यह अक्षर ही पररूप है, इस अक्षरको ही जानकर जो पुरुष जैसी इच्छा करता है, उसको वह ही प्राप्त होता है। इस अक्षरका आश्रय (शरण) श्रेष्ठ है। यह आश्रय सर्वोत्कृष्ट है, इस आश्रयको जानकर (वह) ब्रह्मलोकमें पूजित होता है।

महर्षि पतंजलि अन्यान्य सब उपायोंसे इसीको सुगम बतलाते हुए कहते हैं—

ईश्वरप्रणिधानाद्वा॥ (योगदर्शन १।२३)

ईश्वरकी शरणागतिसे समाधिकी प्राप्ति होती है। आगे चलकर पतंजलि इसका फल बतलाते हैं—

तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च॥
(योगदर्शन १।२९)

उस ईश्वरप्रणिधानसे परमात्माकी प्राप्ति और (साधनमें आनेवाले) सम्पूर्ण विघ्नोंका भी अत्यन्त अभाव हो जाता है।

भगवान् श्रीरामने घोषणा की है—

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्‍व्रतं मम॥
(वा० रा० ६।१८।३३)

यह तो प्रमाणोंका केवल दिग्दर्शनमात्र है। शास्त्रोंमें शरणागतिकी महिमाके असंख्य प्रमाण वर्तमान हैं। परंतु विचारणीय विषय तो यह है कि शरणागति वास्तवमें किसे कहते हैं। केवल मुखसे कह देना कि ‘हे भगवन्! मैं आपके शरण हूँ’ शरणागतिका स्वरूप नहीं है। साधारणतया शरणागतिका अर्थ किया जाता है मन, वाणी और शरीरको सर्वतोभावसे भगवान् के अर्पण कर देना, परन्तु यह अर्पण भी केवल ‘श्रीकृष्णार्पणमस्तु’ कह देनेमात्रसे सिद्ध नहीं हो सकता। यदि इसीमें अर्पणकी सिद्धि होती तो अबतक न मालूम कितने भगवान् के शरणागत भक्त हो गये होते, इसलिये अब यह समझना चाहिये कि अर्पण किसे कहते हैं।

शरण, आश्रय, अनन्यभक्ति, अव्यभिचारिणी भक्ति, अवलम्बन, निर्भरता और आत्मसमर्पण आदि शब्द प्राय: एक ही अर्थके बोधक हैं।

एक परमात्माके सिवा किसीका किसी भी कालमें कुछ भी सहारा न समझकर लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्तिको त्यागकर, शरीर और संसारमें अहंता-ममतासे रहित होकर, केवल एक परमात्माको ही अपना परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भावसे, अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूपका चिन्तन करते रहना और भगवान् का भजन-स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञानुसार समस्त कर्तव्य-कर्मोंका नि:स्वार्थभावसे केवल भगवान् के लिये ही आचरण करते रहना, यही ‘सब प्रकारसे परमात्माके अनन्यशरण’ होना है।

इस शरणागतिमें प्रधानत: चार बातें साधकके लिये समझनेकी हैं—

(१) सब कुछ परमात्माका समझकर उसके अर्पण करना।

(२) उसके प्रत्येक विधानमें परम सन्तुष्ट रहना।

(३) उसके आज्ञानुसार उसीके लिये समस्त कर्तव्य-कर्म करना।

(४) नित्य-निरन्तर स्वाभाविक ही उसका एकतार स्मरण रखना।

इन चारोंपर कुछ विस्तारसे विचार कीजिये।

सर्वस्व अर्पण

सब कुछ परमात्माके अर्पण कर देनेका अर्थ घर-द्वार छोड़कर संन्यासी हो जाना या कर्तव्यकर्मोंका त्याग कर कर्महीन हो बैठना नहीं है। सांसारिक वस्तुओंपर हमने भूलसे जो ममता आरोपित कर रखी है यानी उनमें जो अपनापन है उसे उठा देना। यही उसकी वस्तु उसके अर्पण कर देना है। वस्तुएँ तो उसीकी हैं, हमसे छिन भी जाती हैं परन्तु हम उन्हें भ्रमसे अपनी मान लेते हैं, इसीसे छिननेके समय हमें रोना भी पड़ता है।

एक धनी सेठका बड़ा कारोबार है, उसपर एक मुनीम काम करता है। सेठने उसको ईमानदार और कर्तव्यपरायण समझकर सम्पत्तिकी रक्षा, व्यापारके संचालन और नियमानुसार व्यवहार करनेका सारा भार सौंप रखा है। अब मुनीमका यही काम है कि वह मालिककी किसी भी वस्तुपर अपना किंचित् भी अधिकार न समझकर, किसीपर ममता या अहंकार न रखकर मालिककी आज्ञा और उसकी नियत की हुई विधिके अनुसार समस्त कार्य बड़ी दक्षता, सावधानी और ईमानदारीके साथ करता रहे। करोड़ोंका लेन-देन करे, करोड़ोंकी सम्पत्तिपर मालिककी भाँति अपनी सँभाल रखे, मालिकके नामसे हस्ताक्षर करे, परन्तु अपना कुछ भी न समझे। मूल-धन मालिकका, कारोबारमें होनेवाला मुनाफा मालिकका और नुकसानका उत्तरदायित्व भी मालिकका।

यदि वह मुनीम कहीं भूल, प्रमाद या बेईमानीसे मालिकके धनको अपना समझकर अपने काममें लाना चाहे, मालिककी सम्पत्ति या नफेकी रकमपर अधिकार कर ले तो वह चोर, बेईमान या अपराधी समझा जाता है। न्यायालयमें मुकद्दमा जानेपर वह सम्पत्ति उससे छीन ली जाती है, उसे कठोर दण्ड मिलता है और उसके नामपर इतना कलंक लग जाता है जिससे वह सबमें अविश्वासी समझा जाकर सदाके लिये दु:खी हो जाता है। इसी प्रकार यदि मालिककी कोठीका भार सँभालकर वह काम करनेसे जी चुराता है, मालिकके नियमोंको तोड़ता है तो भी वह अपराधी होता है, अतएव मुनीमके लिये यह दोनों ही बातें निषिद्ध हैं।

इसी तरह यह समस्त जगत् उस परमात्माका है, वही यावन्मात्र पदार्थोंको उत्पन्न करनेवाला, वही नियन्त्रणकर्ता, वही आधार और वही स्वामी है, उसीने हमको हमारे कर्मवश जैसी योनि, जो स्थिति मिलनी चाहिये थी उसीमें उत्पन्न कर अपनी कुछ वस्तुओंकी सँभाल और सेवाका भार दे दिया है और हमारे लिये कर्तव्यकी विधि भी बतला दी है। परन्तु हमने भ्रमसे परमात्माके पदार्थोंको अपना मान लिया है, इसीलिये हमारी दुर्गति होती है। यदि हम अपनी इस भूलको मिटाकर यह समझ लें कि जो कुछ है सो परमात्माका है, हम तो उसके सेवकमात्र हैं, उसकी सेवा करना ही हमारा धर्म है, तो वह परमात्मा हमें ईमानदार समझकर हमपर प्रसन्न होता है और हम उसकी कृपा और पुरस्कारके पात्र होते हैं। मायाके बन्धनसे छूटना ही सबसे बड़ा पुरस्कार है। जो कुछ है सो परमात्माका है, इस बुद्धिके आ जानेपर ममता चली जाती है और जो कुछ है सो परमात्मा ही है, इस बुद्धिसे अहंकारका नाश हो जाता है—यानी एक परमात्माको ही जगत् का उपादान और निमित्तकारण समझ लेनेसे उसमें ममता और अहंकार (मैं और मेरा) नष्ट हो जाता है। ‘मैं-मेरा’ ही बन्धन है, भगवान् का शरणागत भक्त ‘मैं-मेरा’ के बन्धनसे मुक्त होकर परमात्मासे कहता है कि बस, केवल एक तू ही है और सब तेरा ही है।

यही अर्पण है, इस अर्पणकी सिद्धि हो जानेपर साधक बन्धनमुक्त हो जाता है, उसे किसी प्रकारकी कोई चिन्ता नहीं रहती। जो चिन्ता करता है, अपनेको बँधा हुआ मानता है, बन्धनसे मुक्ति चाहता है, वह वास्तवमें परमात्माके तत्त्वको जानकर उनके शरण नहीं हुआ। अपने उद्धारकी चिन्ता तो शरणागतिके साधकके चित्तसे भी चली जाती है। वास्तवमें बात भी यही है। शरण ग्रहण करनेपर भी यदि शरणागतको चिन्ता करनी पड़े तो वह शरण ही कैसी? जो जिसकी शरण होता है उसकी चिन्ता उसके स्वामीको ही रहती है।

जो जाको शरणो लियो, ताकहँ ताकी लाज।
उलटै जल मछली चले, बह्यो जात गजराज॥

जब कबूतरके शरणापन्न हो जानेपर दया और शरणागतवत्सलताके वशीभूत हो महाराज शिवि अपने शरीरका मांस देकर उसकी रक्षा कर सकते हैं, तब वह परमेश्वर जो अनाथोंका नाथ है, दयाका अनन्त, अथाह सागर है, जगत् के इतिहासमें शरणागतवत्सलताकी बड़ी-से-बड़ी घटना जिसकी शरणागतवत्सलताके सामने सागरकी तुलनामें एक जलकणके सदृश भी नहीं है, क्या शरण होनेपर वह हमारी रक्षा और उद्धार न करेगा? यदि इतनेपर हमारे मनमें अपने उद्धारकी चिन्ता होती है और हम अपनेको शरणागत भी समझते हैं तो यह हमारी नीचता है, हम शरणागतिका रहस्य ही नहीं समझते। वास्तवमें शरणागत भक्तको उद्धार होने-न-होनेसे मतलब ही क्या है? वह तो अपने-आपको मन-बुद्धिसहित उसके चरणोंमें समर्पितकर सर्वथा निश्चिन्त हो जाता है, उसे उद्धारकी परवा ही क्यों होने लगी? शरणागतिके रहस्यको समझनेवाले भक्तके लिये उद्धारकी चिन्ता करना तो दूर रहा, वह इस प्रसंगकी स्मृतिको भी पसंद नहीं करता। यदि भगवान् स्वयं कभी उसे उद्धारकी बात कहते हैं तो वह अपनी शरणागतिमें त्रुटि समझकर लज्जित और संकुचित होकर अपनेको धिक्कारता है। वह समझता है कि यदि मेरे मनमें कहीं मुक्तिकी इच्छा छिपी हुई न होती तो आज इस अप्रिय प्रसंगके लिये अवसर ही क्यों आता? मुक्ति तो भगवत्प्रेमका पासँगमात्र है, उस प्रेमधनको छोड़कर पासँगकी इच्छा करना अत्यन्त लज्जाका विषय है। मुक्तिकी इच्छाको कलंक समझकर और अपनी दुर्बलता तथा नीचाशयताका अनुभव कर भगवान् पर अपना अविश्वास जानकर वह परमात्माके सामने एकान्तमें रोकर पुकार उठता है कि—

‘हे प्रभो! जबतक मेरे हृदयमें मुक्तिकी इच्छा बनी हुई है तबतक मैं आपका दास कहाँ? मैं तो मुक्तिका ही गुलाम हूँ। आपको छोड़कर अन्यकी आशा करता हूँ, मुक्तिके लिये आपकी भक्ति करता हूँ और इतनेपर भी अपनेको निष्काम प्रेमी शरणागत भक्त समझता हूँ। नाथ! यह मेरा दम्भाचरण है। स्वामिन्! दयाकर इस दम्भका नाश कीजिये। मेरे हृदयसे मुक्तिरूपी स्वार्थकी कामनाका भी मूलोच्छेद कर अपने अनन्य प्रेमकी भिक्षा दीजिये। आप-सरीखे अनुपमेय दयामयसे कुछ माँगना अवश्य ही लड़कपन है, परन्तु आतुर क्या नहीं करता?

इस तरहसे शरणागत भक्त सब कुछ भगवदर्पण कर सब प्रकारसे निश्चिन्त हो रहता है।

भगवान् के प्रत्येक विधानमें सन्तोष

इस अवस्थामें जो कुछ होता है वह उसीमें सन्तुष्ट रहता है। प्रारब्धवश अनिच्छा या परेच्छासे जो कुछ भी लाभ-हानि, सुख-दु:खकी प्राप्ति होती है वह उसको परमात्माका दयापूर्ण विधान समझकर सदा समानभावसे सन्तुष्ट, निर्विकार और शान्त रहता है। गीतामें कहा है—

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
(४।२२)

अपने-आप जो कुछ आ प्राप्त हो, उसमें ही सन्तुष्ट रहनेवाला हर्ष-शोकादि द्वन्द्वोंसे अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात् ईर्ष्यासे रहित सिद्धि और असिद्धिमें समत्वभाववाला पुरुष कर्मोंको करके भी नहीं बँधता है।

वास्तवमें शरणागत भक्त इस तत्त्वको जानता है कि दैवयोगसे जो कुछ आ प्राप्त होता है, वह ईश्वरके न्यायसंगत विधान और उसकी दयापूर्ण आज्ञासे होता है। इससे वह उसे परम सुहृद् प्रभुद्वारा भेजा हुआ इनाम समझकर आनन्दसे मस्तक झुकाकर ग्रहण करता है। जैसे कोई प्रेमी सज्जन अपने किसी प्रेमी न्यायकारी सुहृद् सज्जनके द्वारा किये हुए न्यायको अपनी इच्छासे प्रतिकूल फैसला होनेपर भी उस सज्जनकी न्यायपरायणता, विवेक-बुद्धि, विचारशीलता, सुहृदता, पक्षपातहीनता और प्रेमपर विश्वास रखकर हर्षके साथ स्वीकार कर लेता है, इसी प्रकार शरणागत भक्त भी भगवान् के कड़े-से-कड़े विधानको सहर्ष सादर स्वीकार करता है; क्योंकि वह जानता है, मेरा सुहृद् अकारण करुणाशील भगवान् जो कुछ विधान करता है उसमें उसकी दया, प्रेम, न्याय और मेरी मंगलकामना भरी रहती है। वह भगवान् के किसी भी विधानपर कभी भूलकर भी मन मैला नहीं करता।

कभी-कभी भगवान् अपने शरणागत भक्तकी कठिन परीक्षा भी लिया करते हैं, वे सब कुछ जानते हैं, तीनों कालकी कुछ भी बात उनसे छिपी हुई नहीं है तथापि भक्तके हृदयसे मान, अहंकार, दुर्बलता आदि मलोंको हरकर उसे निर्मल बनाने और उसे परिपक्व कर उसका परम हित करनेके लिये परीक्षाकी लीला किया करते हैं।

जो परमात्माके प्रेमी सज्जन शरणागतिके तत्त्वको समझ लेते हैं उन्हें तो कोई भी विषय अपने मनसे प्रतिकूल प्रतीत ही नहीं होता। बाजीगरकी कोई भी चेष्टा उसके जमूरेको अपने मनसे प्रतिकूल या दु:खदायक नहीं दीखती। वह अपने स्वामीकी इच्छाके अधीन होकर बड़े हर्षके साथ उसकी प्रत्येक क्रियाको स्वीकार करता है। इसी प्रकार भक्त भी भगवान् की प्रत्येक लीलामें प्रसन्न रहता है। वह जानता है कि यह सब मेरे नाथकी माया है। वे अद्भुत खिलाड़ी नाना प्रकारके खेल करते हैं। मुझपर तो उनकी अपार दया है जो उन्होंने अपनी लीलामें मुझे साथ रखा है—यह मेरा बड़ा सौभाग्य है जो मैं उस लीलामयकी लीलाओंका साधन बन सका हूँ, यों समझकर वह उसकी प्रत्येक लीलामें, उसके प्रत्येक खेलमें उसकी चातुरी और उसके पीछे उसका दिव्य दर्शन कर पद-पदपर प्रसन्न होता है। यह तो सिद्धशरणागत भक्तकी बात है परन्तु शरणागतिका साधक भी प्रत्येक सुख-दु:खको उसका दयापूर्ण विधान मानकर प्रसन्न होता है। यहाँपर यह प्रश्न होता है कि सुखकी प्राप्तिमें तो प्रसन्न होना स्वाभाविक और युक्तियुक्त है, परन्तु दु:खमें सुखकी तरह प्रसन्न होना कैसे सम्भव है? इसका उत्तर यह है कि परमात्माके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषकी दृष्टिमें तो सुखकी प्राप्तिसे होनेवाली प्रसन्नता और शान्ति भी विकार ही है। वह तो पुण्य-पापवश प्राप्त होनेवाले अनुकूल या प्रतिकूल विषयजन्य सुख-दु:ख दोनोंसे ही अतीत है। परन्तु साधनकालमें भी प्रसन्नता तो होनी ही चाहिये। जैसे कठिन रोगके समय बुद्धिमान् रोगी सद्वैद्यद्वारा दी हुई अत्यन्त कटु उपयोगी ओषधिका सहर्ष सेवन करता है और वैद्यका बड़ा उपकार मानता है, इसी प्रकार नि:स्वार्थी वैद्यरूप परम सुहृद् परमात्माद्वारा विधान किये हुए कष्टोंको सहर्ष स्वीकार करते हुए उसकी कृपा और सदाशयताके लिये ऋणी होकर सुखी होना चाहिये। भगवान् का प्रिय प्रेमी शरणागत भक्त महान् दु:खरूप फलको बड़े आनन्दके साथ भोगता हुआ पद-पदपर उसकी दयाका स्मरण कर परम प्रसन्न होता है। वह समझता है कि दयालु डॉक्टर जैसे पके हुए फोड़ेमें चीरा देकर सड़ी हुई मवादको बाहर निकालकर उसे रोगमुक्त कर देता है, इसी प्रकार भगवान् भक्तके हितार्थ कभी-कभी कष्टरूपी चीरा लगाकर उसे नीरोग बना देते हैं। इसमें उनकी दया ही भरी रहती है। यह समझकर भक्त अपने भगवान् के प्रत्येक विधानमें परम सन्तुष्ट रहता है। वह दु:खसे उद्विग्न नहीं होता और सुखकी स्पृहा नहीं करता—‘दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।’ (गीता २।५६)

भगवान् के आज्ञानुसार कर्म

इसीलिये सुखकी इच्छा न रहनेके कारण वह आसक्ति या कामनावश कोई भी निषिद्ध कार्य नहीं कर सकता। उसका प्रत्येक कार्य ईश्वरके आज्ञानुसार होता है। उसकी कोई भी क्रिया परमात्माकी इच्छाके प्रतिकूल नहीं होती; क्योंकि परमात्माकी इच्छामें ही वह अपनी इच्छा मिला देता है, वह अपनी कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं रखता। जब कि एक साधारण श्रद्धालु सेवक भी अपने स्वामीके प्रतिकूल कोई कार्य करना नहीं चाहता, कभी भूलसे कोई विपरीत आचरण हो जाता है तो वह लज्जित-संकुचित होकर अपनी भूलपर अत्यन्त पश्चात्ताप करता है, तब भला निष्काम प्रेमभावसे शरणमें आया हुआ श्रद्धालु ईश्वरभक्त परमात्माके प्रतिकूल किंचिन्मात्र कार्य भी कैसे कर सकता है? जैसे सतीशिरोमणि पतिव्रता स्त्री अपने परम प्रिय पतिकी भृकुटीकी ओर ताकती हुई सदा-सर्वदा पतिके अनुकूल ही उसकी छायाके समान चलती है, उसी प्रकार ईश्वर-प्रेमी शरणागत भक्त भगवदिच्छाका अनुसरण करता है, सब कुछ उसीका समझकर उसीके लिये कार्य करता है।

यहाँपर यह प्रश्न होता है कि जब ईश्वर सबके प्रत्यक्ष नहीं है तब ईश्वरकी आज्ञा या इच्छाका पता कैसे लगे? इसका उत्तर यह है कि प्रथम तो शास्त्रोंकी आज्ञा ही एक प्रकारसे ईश्वरकी आज्ञा है; क्योंकि त्रिकालज्ञ भक्त ऋषियोंने भगवान् का अभिप्राय समझकर ही प्राय: शास्त्रोंका निर्माण किया है। दूसरे श्रीमद्भगवद्गीता-जैसे ग्रन्थोंमें भगवदाज्ञा प्रत्यक्ष ही है। इसके सिवा भगवान् सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी होनेसे सबके हृदयमें सदा प्रत्यक्ष विद्यमान हैं। मनुष्य यदि स्वार्थ छोड़कर सरल जिज्ञासु-भावसे हृदयस्थित ईश्वरसे पूछे तो उसे साधारणतया यथार्थ उत्तर मिल ही जाता है। झूठ बोलने, चोरी करने या हिंसादि करनेके लिये किसीका भी हृदय सच्चे भावसे आज्ञा नहीं देता। यही भगवान् की इच्छाका संकेत है।

अन्त:करणपर अज्ञानका विशेष आवरण होनेके कारण जिस प्रश्नके उत्तरमें शंकायुक्त जवाब मिले, जिसके निर्णय करनेमें हमारी बुद्धि समर्थ न हो, उस विषयमें स्वार्थरहित सदाचारी धर्मके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषोंसे पूछकर निर्णय कर लेना चाहिये। जिस विषयमें अपने मनमें शंका न हो, उस विषयमें भी उत्तम पुरुषोंसे परामर्श कर लेना तो लाभदायक ही है; क्योंकि जबतक मनुष्य परमात्माको तत्त्वसे नहीं जान लेता तबतक भ्रमसे कहीं-कहीं असत्यका सत्यके रूपमें प्रतीत हो जाना सम्भव है, इसलिये निर्णीत विषयोंको भी सत्पुरुषोंकी सम्मतिसे मार्जन कर लेना उचित है। अन्त:करण शुद्ध होनेपर परमात्माका संकेत यथार्थ समझमें आने लगता है। फिर साधक जो कुछ करता है सो सब प्राय: ईश्वरके अनुकूल ही करता है।

यह देखा जाता है कि मालिकके इच्छानुसार बर्तनेवाला स्वामिभक्त सेवक जो सदा मालिकके इशारेके अनुसार काम करता है, वह मालिकके भावको तनिक-से इशारेमात्रसे ही समझ लेता है। जब साधारण मनुष्योंमें ऐसा होता है तब एक ईश्वरका शरणागत भक्त श्रद्धा, विश्वास और प्रेमके बलसे ईश्वरके तात्पर्यको समझने लगे, इसमें आश्चर्य ही क्या है?

ईश्वरकी इच्छा समझनेके लिये एक बात और है। यह समझ लेना चाहिये कि ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, दयासागर, सबके आत्मा और सबके हितमें रत है। अतएव किसी भी जीवका किसी भी प्रकारसे किसी भी कालमें अहित या अनिष्ट करनेमें उसकी सम्मति नहीं हो सकती, इसलिये जिस कार्यसे यथार्थ रूपमें दूसरोंका हित होता हो, वही ईश्वरकी इच्छाके अनुकूल कार्य है और जिससे जीवोंका अनिष्ट होता हो, वह उसकी इच्छाके प्रतिकूल कार्य है।

कुछ लोग भ्रमवश शास्त्र या धर्मकी आड़ लेकर पराये अहित, अनिष्ट या हिंसा आदिको धर्म मान लेते हैं परन्तु ऐसा मानना अनुचित है। हिंसा और अहित कभी धर्म या ईश्वरको अभिप्रेत नहीं हो सकता। अवश्य ही किसीके हितके लिये माता-पिता या गुरुद्वारा स्नेहभावसे अपने बालक या शिष्यको ताड़ना देनेके समान दण्ड आदि देना हिंसामें शामिल नहीं है।

अतएव भक्त प्रत्येक कार्य भगवदिच्छाके अनुकूल ही करता है, जिससे वह कभी पाप या निषिद्ध कर्म तो कर ही नहीं सकता, उसका प्रत्येक कार्य स्वाभाविक ही सरल, सात्त्विक और लोक-हितकारी होता है; क्योंकि उसका संसारमें न कोई स्वार्थ है, न किसी वस्तुमें आसक्ति है और न किसी कालमें किसीसे उसे भय है।

शरणागत भक्तकी तो बात ही क्या है, भय और पाप तो उसके भी नहीं रहते जो ईश्वरका यथार्थरूपसे अस्तित्व (होनापन) ही मान लेता है। राजा या राजकर्मचारी निर्जन स्थान और अन्धकारमयी रात्रिमें सब जगह मौजूद नहीं रहते परन्तु राज्यकी सत्ताके कारण ही लोग प्राय: नियमविरुद्ध कार्य नहीं करते। राजकर्मचारी जहाँ रहता है वहाँ तो कानून तोड़ना बड़ा ही कठिन रहता है। जब राजसत्ताका यह प्रताप होता है तब सर्वशक्तिमान् परमात्माको जो सब जगह देखता है, उससे पाप कैसे बन सकते हैं? ईश्वर सर्वव्यापी होनेके कारण सब जगह उनका रहना सिद्ध ही है। फिर भय भी किस बातका? क्योंकि जब एक भी राजकर्मचारी साथ होनेपर कहीं चोरोंका भय नहीं रहता तब राजराजेश्वर भगवान् जिसके साथ हों उसके लिये भयकी सम्भावना ही कहाँ है? जो अपनेको भक्त कहकर परिचय देते हुए भी पापोंमें फँसे रहते या बात-बातमें मृत्यु आदिका भय करते हैं वे यथार्थमें ईश्वरका अस्तित्व ही नहीं मानते। ईश्वरको माननेवाले तो नित्य निष्पाप और निर्भय रहते हैं।

भगवान् का निरन्तर चिन्तन

शरणागत साधकको यदि कोई भय रहता है तो वह इसी बातका रहता है कि कहीं उसके चित्तसे प्रियतम परमात्माकी विस्मृति न हो जाय। वास्तवमें वह कभी परमात्माको भूल भी नहीं सकता; क्योंकि परमात्माके चिन्तनका वियोग उससे क्षणमात्रके लिये भी सहा नहीं जाता ‘तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता’ (नारदभक्तिसूत्र) सम्पूर्ण कर्म परमात्माके अर्पण करके प्रतिपल उसे स्मरण रखना और क्षणभरकी विस्मृतिसे मणिहीन सर्प या जलसे निकाली हुई मछलीकी भाँति परम व्याकुल होकर तड़पने लगना उसका स्वभाव बन जाता है। उसकी दृष्टिमें एकमात्र परमात्मा ही उसका परम जीवन, परम धन, परम आश्रय,परम गति और परम लक्ष्य रह जाता है, प्रतिपल उसके नाम-गुणोंका चिन्तन करना, उसके प्रेममें ही तन्मय हो रहना, बाह्यज्ञान भूलकर उन्मत्त हो जाना, परम उल्लाससे प्रेममें झूमना, यही उसकी जीवनचर्या बन जाती है।

क्वचिद्रुदन्त्यच्युतचिन्तया क्वचि-
द्धसन्ति नन्दन्ति वदन्त्यलौकिका:।
नृत्यन्ति गायन्त्यनुशीलयन्त्यजं
भवन्ति तूष्णीं परमेत्य निर्वृता:॥
(श्रीमद्भा० ११। ३। ३२)

वे भक्तगण कभी उन अच्युतका चिन्तन करते हुए रोते हैं, कभी हँसते हैं, कभी आनन्दित होते हैं, कभी अलौकिक कथा कहने लगते हैं, कभी नाचते हैं, कभी गाते हैं, कभी उन अजन्मा प्रभुकी लीलाओंका अनुकरण करते हैं और कभी परमानन्दको पाकर शान्त और चुप हो रहते हैं।

इस प्रकार परमात्माके शरणका तत्त्व जानकर वे भक्त भगवान् की तद्रूपताको प्राप्त हो जाते हैं—

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:॥
(गीता ५।१७)

‘तद्रूप है बुद्धि जिनकी तथा तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही है निरन्तर एकीभावसे स्थिति जिनकी, ऐसे परमेश्वरपरायण पुरुष ज्ञानके द्वारा पापरहित हुए अपुनरावृत्ति अर्थात् परमगतिको प्राप्त होते हैं।’ ऐसे ही पुरुषोंके लिये भगवान् ने कहा है, मैं उसका अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है—‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥’ (गीता ७। १७) उससे मैं अदृश्य नहीं होता, वह मुझसे अदृश्य नहीं होता—‘तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥’ (गीता ६।३०)

ऐसे पुरुषके द्वारा शरीरसे जो कुछ क्रिया होती है सो क्रिया नहीं समझी जाती। आनन्दमें मग्न हुआ वह भगवान् का शरणागत भक्त लीलामय भगवान् की आनन्दमयी लीलाका ही अनुकरण करता है, अतएव उसके कर्म भी लीलामात्रसे ही हैं। भगवान् कहते हैं—

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
(गीता ६।३१)

‘जो पुरुष एकीभावसे स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है; क्योंकि उसके अनुभवमें मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।’

इसलिये वह सबके साथ अपने आत्माके सदृश ही बर्तता है, उससे कभी किसीका अनिष्ट नहीं हो सकता। ऐसे अभिन्नदर्शी परमात्मपरायण तद्रूप भक्तोंमें कोई तो स्वामी शुकदेवजीकी तरह लोगोंके उद्धारके लिये उदासीनकी भाँति विचरते हैं, कोई अर्जुनकी भाँति भगवदाज्ञानुसार आचरण करते हुए कर्तव्य-कर्मोंके पालनमें लगे रहते हैं, कोई प्रात:स्मरणीया भक्तिमती गोपियोंकी तरह अद्भुत प्रेमलीलामें मत्त रहते हैं और कोई जड़भरतकी भाँति जड़ और उन्मत्तवत् चेष्टा करते रहते हैं।

ऐसे शरणागत भक्त स्वयं तो उद्धाररूप हैं ही और जगत् का उद्धार करनेवाले हैं, ऐसे महापुरुषोंके दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तनसे ही मनुष्य पवित्र हो जाते हैं। वे जहाँ जाते हैं वहींका वातावरण शुद्ध हो जाता है, पृथ्वी पवित्र होकर तीर्थ बन जाती है, ऐसे ही पुरुषोंका संसारमें जन्म लेना सार्थक और धन्य है, ऐसे ही महात्माओंके लिये यह कहा गया है—

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिन्
लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेत:॥
(स्कं० पु० माहे० खं० कौ० खं० ५५।१४०)


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur