Seeker of Truth

शंका-समाधान

प्र०—उद्देश्यहीनता एवं निष्काम कर्ममें क्या अन्तर है?

उ०—उद्देश्यहीन कर्म एवं निष्काम कर्म दो पृथक् वस्तु हैं। उद्देश्यहीन कर्म व्यर्थ होनेके कारण प्रमादस्वरूप, तमोगुणके कार्य एवं आत्माको हानि पहुँचानेवाले हैं। शास्त्रोंमें इनका निषेध किया गया है। पर निष्काम कर्म अन्त:करणको पवित्र करनेवाले, परमात्माकी प्राप्तिमें सहायक एवं कर्म-बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं। निष्काम कर्म उद्देश्यहीन नहीं, पर फलेच्छारहित अवश्य होते हैं। जिस प्रकार एक नौकर स्वामीकी आज्ञा-पालनको कर्तव्य जानकर, स्वामीको प्रसन्न करनेके लिये कर्म करता है, उसका उद्देश्य केवल मालिकको प्रसन्न करना और उसकी आज्ञा पालन करना है। इसके अतिरिक्त वह कर्मके किसी फलसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता। फलका भागी तो मालिक ही होता है। इसी प्रकार परम पिता परमेश्वरकी आज्ञा पालन करते हुए, कर्मफलकी इच्छाको त्याग करके केवल भगवत्प्रीत्यर्थ कर्तव्यपालनस्वरूप किये हुए कर्म निष्काम कर्म होते हैं, इनमें आसक्ति और ममताको स्थान नहीं रहता।

प्र०—गन्तव्य स्थानके निश्चय बिना राह चलना कैसे सम्भव है? क्योंकि प्राय: देखा जाता है कि कोई भी कार्य लक्ष्य स्थिर किये बिना नहीं होते।

उ०—उत्तम उद्देश्य यानी परमात्माकी प्रसन्नताका लक्ष्य रखकर कर्म करने चाहिये। उद्देश्य रखना पाप नहीं। इच्छा, कामना, आसक्ति और ममता ही पापका मूल है।

प्र०—यदि कोई ईश्वरसे किसी वस्तुकी याचना न करके केवल ईश्वर-भक्ति और ईश्वर-प्रेमकी ही याचना करता है तो क्या इसको कामना नहीं कहेंगे? क्या यह माँग निष्काम कहलायेगी? धन-धान्यके याचक कौड़ीके याचक हैं और भक्त अमूल्य रत्नके याचक हैं। भक्तोंके लिये भक्ति सुख है और धन चाहनेवालेके लिये धन सुख है। हुए तो दोनों याचक ही, फिर भक्तोंमें निष्कामता कहाँ रही?

उ०—जो प्रेम केवल प्रेमके लिये ही होता है वही विशुद्ध प्रेम है, उसके समान संसारमें और कोई पदार्थ नहीं है। इसी प्रेमका लक्ष्य कर जो स्वार्थरहित हो परमेश्वरसे प्रेम करता है, मुक्ति तो बिना चाहे ही उसके चरणोंमें लोटती है। इस प्रेमकी कामना निर्मल पवित्र कामना है, इस उद्देश्यसे किये जानेवाले कर्म सकाम नहीं होते। क्योंकि ईश्वरमें प्रेम होना किसी भी कर्मका फल नहीं है, यह तो कर्मोंके फल-त्यागका फल है; निष्कामकर्मी कर्मोंके फलका त्याग करता है, पर वह त्यागके फलका त्याग नहीं करता। श्रीभरत और श्रीहनूमान् आदिने ईश्वरमें प्रेम होनेकी याचना की थी। अवश्य ही यह याचना थी, पर कर्मोंके फलकी याचना नहीं थी; इसीसे उनकी निष्कामतामें कोई दोष नहीं आया, वे सकाम नहीं समझे गये। क्योंकि सकाम कर्मोंका फल तो पुत्र-धनादि या स्वर्गादिकी प्राप्ति है जो संसारमें फँसानेवाले हैं; ईश्वर-प्रेम या ईश्वर-प्राप्ति संसारसे उद्धार करनेवाले हैं।

हाँ, त्यागके फलका त्याग और भी श्रेष्ठ है; पर वह साधककी समझमें आना कठिन है, उसे तो सिद्ध पुरुष ही समझ सकते हैं। ऐसा त्याग ईश्वर और ईश्वर-प्राप्त भक्त ही कर सकते हैं। तुलसीदासजीने कहा भी है—

हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥

अत: प्रेमका भिखारी बननेमें कोई आपत्ति नहीं, प्रेमका भिखारी तो हम भगवान् को भी कह सकते हैं। कोई मनुष्य किसीसे किसी बातकी इच्छा न रखकर हेतुरहित प्रेम करे तो वह प्रशंसाका ही पात्र है, फिर उस परम प्यारे परमेश्वरसे प्रेम करना तो बहुत ही प्रशंसनीय है। इस प्रेमके त्यागकी बात भगवान् ने कहीं नहीं कही, इसे तो धारण करनेयोग्य ही बतलाया गया है।

प्र०—गीतामें ‘जहि शत्रुम्’ इत्यादि वचनोंमें भगवान् इच्छाको शत्रुवत् बतलाते हैं, पर ‘धर्माविरुद्धो भूतेषु’ इत्यादिमें धर्मानुकूल इच्छाको विधेय भी कहते हैं एवं बिना इच्छाके कार्य हो नहीं सकते, क्योंकि विद्याध्ययनकी इच्छाके बिना पढ़ा नहीं जाता, भूखके बिना खाया नहीं जाता, तो फिर धार्मिक कार्योंकी भी इच्छा करनी चाहिये या नहीं? यदि करनी चाहिये तो ‘यक्ष्ये दास्यामि’ इसको गीतामें अनुचित क्यों बतलाते हैं? क्या दान करना धर्म नहीं है? यदि सकाम कर्म मुक्तिदायक नहीं है तो ‘धर्माविरुद्ध’ यह क्यों कहा गया?

उ०—उद्देश्यपूर्तिके लिये की हुई इच्छा और फलप्राप्तिकी इच्छामें बहुत अन्तर है। उद्देश्यपूर्तिकी इच्छा फलेच्छा नहीं है। निष्काम कर्मोंमें फलकी इच्छाका त्याग है, कर्म करनेकी इच्छाका त्याग नहीं, अत: धार्मिक कर्म करनेकी इच्छा करनेमें कोई दोष नहीं, पर उन कर्मोंके फलकी इच्छा नहीं करनी चाहिये। भगवान् ने श्रीगीतामें कहा है—

एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥
(१८।६)

‘हे पार्थ! यह यज्ञ, दान और तपरूप कर्म तथा और भी सम्पूर्ण श्रेष्ठ कर्म, आसक्तिको और फलोंको त्यागकर अवश्य करने चाहिये, ऐसा मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।’

स्वार्थरहित उत्तम कर्म करनेकी इच्छा निर्मल पवित्र इच्छा है, यह कर्मोंको सकाम नहीं बनाती। इसको सकाम मानकर कर्म न करना तो भ्रममें पड़ना है। फिर उत्तम कर्म होंगे ही कैसे? ‘जहि शत्रुम्’ इस श्लोकमें भगवान् ने जिस इच्छाका निषेध किया है वह संशय और राग-द्वेषमूलक इच्छा है, जिसका परिणाम पाप है। इस श्लोकके पूर्वका श्लोक, ‘अथ केन’ (३।३६) जिसमें अर्जुनने शंका की है, देखनेसे ही इस बातका साफ पता चल जाता है। यह निन्दनीय इच्छा है, पर ‘धर्माविरुद्धो’ इस श्लोकके अनुसार जो धर्मानुकूल कामना है, उसकी भगवान् ने प्रशंसा ही की है। भगवान् में प्रेम करनेकी इच्छा या भगवान् में प्रेम होनेके लिये कर्म करनेकी इच्छा विशुद्ध इच्छा है, एवं भगवत्-प्राप्तिमें हेतु होनेके कारण उसको भगवान् ने अपना स्वरूप ही बतलाया है। स्वार्थरहित धर्मपालनकी इच्छा विधेय है और उसके फलकी इच्छा त्याज्य है। अत: विवेकपूर्वक विचार करनेसे गीताका कथन कहीं असंगत प्रतीत नहीं होता। केवल श्लोकोंके अर्थभेदको न समझनेके कारण ही विरोध-सा प्रतीत होता है, समझ लेनेपर विरोध नहीं रहता।

‘यक्ष्ये दास्यामि’ इस श्लोकमें यज्ञ-दान आदिके करनेकी इच्छाको निन्दनीय नहीं बतलाया गया है। अभिमान और अहंकारपूर्वक दम्भसे यज्ञ-दानादि करनेके भाव प्रकाशित करनेवाले आसुरी प्रकृतिके मनुष्योंकी निन्दा की गयी है। यज्ञ, दान अवश्य करने चाहिये, पर उनका विधिपूर्वक करना कर्तव्य है; केवल दिखौवा दम्भपूर्वक किये हुए यज्ञ-दानादि कर्म धर्म नहीं हैं। अत: इस श्लोकमें आसुरी भाववाले मनुष्योंकी निन्दा की गयी है, यज्ञ-दानादिकी नहीं।

सकाम कर्म धर्मानुकूल होनेपर भी मुक्तिदायक नहीं हैं यह ठीक है, परन्तु कामनारूप दोष निकाल देनेपर वे मुक्तिदायक हो जाते हैं। ऐसा ही करनेके लिये भगवान् ने कहा है एवं धर्म-पालनकी इच्छा भगवान् का स्वरूप ही है, अत: ‘धर्माविरुद्धो’ इस श्लोकमें कोई दोष नहीं आता।

प्र०—प्राय: देखा जाता है कि मन जिस ओर जाता है इन्द्रियाँ भी उसी ओर जाती हैं, मनके बिना कर्मेन्द्रियाँ कोई काम नहीं कर सकतीं, यदि किया भी जाता है तो ठीक नहीं होता। यदि मन ही ईश्वरमें लगा रहा तो इन्द्रियाँ सांसारिक काम कैसे कर सकेंगी? फिर ‘तनसे काम,मनसे राम ’ ‘मच्चित्ता मद्गतप्राणा:’ के साथ ‘युध्यस्व’ कैसे होगा?

उ०—यद्यपि आरम्भमें ‘तनसे काम,मनसे राम’ होना बहुत ही कठिन है, क्योंकि यह स्वाभाविक बात है कि इन्द्रियाँ जिस ओर जाती हैं, मन भी दौड़कर उसी तरफ चला जाता है, पर विशेष अभ्यास करनेसे इस स्वभावका परिवर्तन हो सकता है—यह आदत बदली जा सकती है। जिस प्रकार नटी अपने पैरोंके तलुओंमें सींग बाँधकर बाँसपर चढ़ जाती है और गाती-बजाती हुई रस्सीको हिलाते हुए उसी रस्सीपरसे दूसरे बाँसपर चली जाती है, उसके प्राय: सब इन्द्रियोंसे ही अलग-अलग काम होते हुए भी मन पैरोंमें रहता है, यह उसके साधनाका फल है। इसी प्रकार अभ्यास करनेसे मनुष्यका मन भी परमेश्वरमें रह सकता है एवं इन्द्रियोंके कार्योंमें बाधा उपस्थित नहीं होती। भगवान् ने गीतामें कहा है—

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
(८।७)

‘हे अर्जुन! तू सब समय निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त हुआ नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’

यदि ऐसा सम्भव न होता तो भगवान् इसका निर्देश ही कैसे करते? भगवान् तो यहाँ मन-बुद्धितक अर्पण करके युद्ध करनेको कह रहे हैं। यदि युद्ध करते हुए भी भगवान् में मन-बुद्धि लगाये जा सकते हैं तो दूसरे कामोंको करते हुए भगवान् में मन-बुद्धि लगानेमें कठिनता ही क्या है?

मनकी मुख्य वृत्तिको ईश्वरमें लगाकर गौणवृत्तिसे अन्य कार्योंका करना तो साधारण बात है, सहजसाध्य है। क्योंकि मनुष्योंमें प्राय: देखा जाता है कि वे मन दूसरी जगह रहते हुए पुस्तक पढ़ते रहते एवं सुनकर लिखते रहते हैं। अत: इन्द्रियोंका कार्य मन दूसरी जगह रहते हुए भी हो सकता है। ईश्वरका तत्त्व जान लेनेपर तो ईश्वरमें नित्य-निरन्तर चित्त रहते हुए सम्पूर्ण इन्द्रियोंका कार्य सुचारुरूपसे होनेमें कोई आपत्ति ही नहीं आती। जिस प्रकार सुवर्णके अनेक आभूषणोंको अनेक प्रकारसे देखते हुए भी सुनारकी सुवर्णबुद्धि नित्य बनी रहती है, वैसे ही परमेश्वरको जाननेवाले पुरुषकी सर्वत्र परमेश्वरबुद्धि निरन्तर बनी रहती है। गीतामें कहा है—

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
(६।३१)

‘इस प्रकार जो पुरुष एकीभावमें स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है, वह योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी मुझमें बर्तता है, क्योंकि उसके अनुभवमें मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।’

प्र०—क्या प्रारब्धके प्रकोपसे कर्मस्वातन्त्र्यमें बाधा नहीं पड़ती? जीवसे ‘जैसी हो भवितव्यता वैसी उपजै बुद्धि’ इसके अनुसार जबरदस्ती काम करवाकर सजा क्यों दी जाती है? इसमें उसका क्या दोष है?

क्या गोस्वामीजीके—

‘जैसी हो भवितव्यता वैसी उपजै बुद्धि’

एवं—

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥

क्या इन दोनोंमें आपसमें विरोध नहीं पड़ता?

उ०—प्रारब्धके प्रकोपसे कर्मस्वातन्त्र्यमें विशेष बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि सुख-दु:ख आदिकी प्राप्तिमें हेतुभूत स्त्री-पुत्रादिकी प्राप्ति और नाशमें ही प्रारब्धकी प्रधानता है। नवीन पुण्य-पापके करनेमें प्रारब्धकी प्रधानता नहीं समझी जाती।

‘जैसी हो भवितव्यता वैसी उपजै बुद्धि’ मतिरुत्पद्यते तादृग् यादृशी भवितव्यता’ ‘करतलगतमपि नश्यति यस्य भवितव्यता नास्ति’—ये कथन प्रारब्धकृत सुख-दु:खादिके भोग करानेके विषयहीमें कहे गये हैं। नवीन कर्मोंसे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। नवीन कर्म करनेमें तो राग-द्वेषादि ही हेतु हैं और उनका चेष्टा करनेसे नाश हो सकता है। अत: नवीन कर्मोंमें मनुष्यकी स्वतन्त्रता है और इसीलिये यह उनके फलका भागी समझा जाता है। ईश्वर या प्रारब्धकी इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है।

तुलसीदासजीके दोनों दोहे युक्तिसंगत एवं न्याययुक्त हैं। इन दोनोंका आपसमें कोई सम्बन्ध नहीं है। ‘जैसी हो भवितव्यता वैसी उपजै बुद्धि’ यह प्रारब्धभोगके विषयमें एवं ‘सो परत्र दुख पावई’ कर्तव्यपालनके विषयमें है। जो मनुष्य कर्तव्यपालन नहीं करता उसको अवश्य ही कष्ट उठाना पड़ता है। अत: इनमें कोई विरोध नहीं है।

प्र०—यदि ईश्वर सर्वद्रष्टा, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान् है तो फिर अन्धेको गिरनेसे क्यों नहीं बचाता, निर्बलकी रक्षा क्यों नहीं करता, मूर्खको विष खानेसे क्यों नहीं रोकता? यदि वह न्यायपरायण और शरणागतवत्सल है तो निर्बल, अन्धे, मूर्ख जीवकी प्रबल शत्रुओंसे रक्षा क्यों नहीं करता? क्या दयावान् के लिये बिना पूछे रास्ता बतलाना मना है? क्यों वह जीवोंके दु:ख-दृश्योंको देखता रहता है?

उ०—ईश्वर सर्वद्रष्टा, सर्वान्तर्यामी, न्यायकर्ता और सर्वशक्तिमान् है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। वह अन्धेको बचानेके लिये, निर्बलकी रक्षाके लिये, मूर्खको विष खानेसे रोकनेके लिये महात्माओं एवं शास्त्रोंद्वारा बराबर चेष्टा करता है। हृदयमें स्थित रहकर बराबर सचेत करता रहता है। इसपर भी यदि मनुष्य शास्त्र और महात्माओंकी आज्ञाका उल्लंघन करके, हृदयस्थित ईश्वरकी दी हुई सत्-परामर्शको न मानकर जबरदस्ती विष भोजन करे, गड्ढेमें पड़े एवं निषिद्ध कर्मोंका आचरण करे तो उसको उन नियमोंके भंग करनेसे बलपूर्वक रोकनेका नियम ईश्वरके न्यायालयमें नहीं है।

जीव मोहवश अन्धा एवं निर्बल-सा हो रहा है। इसीलिये काम-क्रोधादि प्रबल शत्रु इसे सताते हैं, फिर भी यह अभागा उस ईश्वरकी दयाकी ओर खयाल नहीं करता। जो ईश्वर बार-बार इसको सचेत करता एवं इन शत्रुओंसे बचनेके लिये बराबर सत्परामर्श देता रहता है, उस सर्वज्ञसे इस जीवकी परिस्थिति छिपी नहीं है। वह सर्वशक्तिमान् तथा न्यायकर्ता भी है। जीवोंको बचानेके लिये न्यायानुकूल सहायता भी देता है, पद-पदमें सावधान करता रहता है, पर अज्ञताके कारण जीव न समझे तो इसमें उस ईश्वरका क्या दोष? यदि सूर्यके प्रकाशमें नेत्रोंके दोषके कारण उल्लूको अन्धकार मालूम हो तो सूर्यका क्या दोष?

परमेश्वर बिना पूछे मार्ग बतानेवाला एवं हेतुरहित प्रेम करनेवाला है। वह तो शास्त्र एवं महात्माओंद्वारा सत्परामर्श और सत्-शिक्षा देता है, जीवोंको दु:ख देकर तमाशा देखना उस दयालुके प्रेमी स्वभावसे बाहरकी बात है। ये जीव अज्ञानवश अपने-आप भूलसे दु:ख पाते हैं। वह दयालु परमेश्वर तो इन दु:खी जीवोंको पूर्णतया सहायता करनेके लिये सब प्रकारसे तैयार है। पर पापी जीव अश्रद्धा और अज्ञानके कारण उस परमेश्वरसे लाभ नहीं उठाते। जिस प्रकार दीपकके पास पतंगोंको देखकर दयालु पुरुष उन पतंगोंको बचानेकी अनेक चेष्टा करते हैं, पर इस रहस्यको वे पतंग नहीं समझ सकते, जबरन् जल ही मरते हैं। उसी प्रकार ईश्वरके बार-बार बचानेपर भी ये अभागे जीव संसारके इस अनित्य तुच्छ विषयजन्य सुखकी लोभनीय चमकमें चौंधियाकर उस अतुलनीय आनन्ददाताकी दयाको भूल जाते हैं एवं इसीमें फँस मरते हैं।

प्र०—भगवान् जिनके लिये ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्, (९।२२) ददामि बुद्धियोगं तम्, (१०।१०) नचिरात् मृत्युसंसारसागरात् उद्धर्ता, (१२।७) गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्, (९।१८) अभयं सर्वभूतेभ्यो ददामि’ (वा० रा० ६।१८। ३३) आदि कहते हैं, उनके सदृश भगवान् का कृपापात्र मनुष्य कैसे बने? क्या मनमें काम-क्रोधादि विकारोंको भरे रखनेवाले मनुष्य भी ईश्वरके कृपापात्र माने जायँ? एवं ईश्वरके मित्र रहते हुए भी क्या राग-द्वेषादि चोर-डाकू जीवोंकी फजीहत करते हैं?

उ०—ऐसा कृपापात्र बननेका उपाय भगवान् ने इन श्लोकोंके पहले श्लोकोंमें ही बतलाया है। जैसे—

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
(गीता १०। ९)

‘वे निरन्तर मेरेमें मन लगानेवाले और मेरेमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन, सदा ही मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं।’

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
(गीता १२। ६)

‘जो मेरे परायण हुए भक्तजन, सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वरको ही तैलधाराके सदृश अनन्य ध्यानयोगसे निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं।’

इन उपायोंका साधन करना चाहिये। इनका साधन करनेसे मनुष्य भगवान् की पूर्ण दयाका पात्र बन जाता है। उसको भगवान् अपना वास्तविक तत्त्व जना देते हैं। तुलसीदासजीका यह कहना बहुत ही ठीक है—

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।

जिसके मनमें काम-क्रोधादि विकार भरे हुए हैं वह भी ईश्वरकी दयाका समानभावसे अवश्य पात्र है, पर अज्ञानवश वह भगवद्दयाका लाभ नहीं उठा सकता। जिस प्रकार अज्ञानी पुरुषको गंगाके किनारे रहते हुए भी बिना ज्ञानके उससे लाभ नहीं होता, दरिद्र मनुष्यको घरमें पारस रहते हुए भी उसको पत्थर समझनेके कारण लाभ नहीं मिलता। इसी प्रकार ईश्वरका तत्त्व न जाननेके कारण अज्ञानी उससे लाभ नहीं उठा सकता, क्योंकि ईश्वरके विषयमें जो जितना जानता है वह उतना ही लाभ उठा सकता है।

यद्यपि ईश्वर सबका प्रेमी, सुहृद् और रक्षक है पर जो ईश्वरको प्रेमी और मित्र समझता है, परमेश्वर उसीकी सब प्रकार रक्षा करता है। जो उसको ऐसा नहीं समझता, उसकी रक्षाका भार ईश्वरपर न होनेके कारण उसे ये काम-क्रोधादि डाकू लूटते रहते हैं, क्योंकि जो ईश्वरको नहीं मानता या उससे सहायता नहीं चाहता, ईश्वर उसकी सहायता करनेके लिये बाध्य नहीं है। ईश्वर न्यायप्रिय है एवं न्यायपरायणताको रखते हुए ही दयालु है।

प्र०—वह कौन-सा उपाय है जिससे ईश्वर प्राणसे भी बढ़कर प्यारा लगे?

उ०—‘ईश्वर क्या है?’ इस बातका रहस्य जान लेनेपर अर्थात् ईश्वरको यथार्थरूपसे जान लेनेपर ईश्वर प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारा लग सकता है।

प्र०—तुलसीदासजीने कहा है कि ‘ईश्वरका कृपापात्र उसीको समझना चाहिये जिसके मनोविकार दूर हो गये हों एवं जिसके प्रभु साक्षी, गति, सुहृद् हों।’ मैं तो ईश्वरको अपना हितैषी तभी समझूँ जब वे मेरी राग-द्वेषादिसे रक्षा करें।

उ०—ईश्वर समानभावसे सबका प्रभु, सुहृद्, साक्षी होते हुए भी जो उसको वैसा समझ लेता है उसीके लिये ये गुण फलीभूत होते हैं। जिस क्षण आप ईश्वरको परम हितैषी, प्राणोंसे बढ़कर प्यारा समझ लेंगे, उसी क्षण आपके मनोविकार राग-द्वेषादि डाकू समूल नाश हो जायँगे। उसी समय आप ईश्वरकी विशेष दयाके पात्र समझे जायँगे। इसी भावको सामने रखकर तुलसीदासजीने कहा है—उसीको ईश्वरका कृपापात्र समझना चाहिये, जिसके मनोविकार दूर हो गये हों।

प्र०—विविध साधनमार्गोंमें अर्थात् ज्ञानयोग, धर्माचरण, भक्ति आदि सभी साधनोंमें प्रेमयोगको श्रेष्ठ बतलाया गया है, क्योंकि गीताके ‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते’ (७।१९) इस कथनके अनुसार दूसरे साधन दीर्घकालके बाद परम पद देते हैं। जो सिद्धि प्रेमोपासक नामदेवजीको तीन-चार दिनमें ही प्राप्त हो गयी, वही ज्ञानियोंको बहुत जन्मोंके बाद मिलती है। क्या यह ठीक है?

उ०—ज्ञान, योग, धर्माचरण, भक्ति आदि सभी साधनोंमें प्रधान प्रेमयोग है। यानी प्रेमसे—अनन्य भक्तिसे भगवान् बहुत शीघ्र प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं और वे तत्त्वसे जाने भी जाते हैं। गीतामें कहा है—

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
(११।५४)

‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन! अनन्यभक्ति करके तो, इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये और तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।’

इसमें कोई सन्देह नहीं, पर आपने जो अन्य साधनोंको बहुत कालके बाद मोक्षफल देनेवाले बतलाते हुए ‘बहूनां जन्मनामन्ते’ इस गीताके श्लोकका उदाहरण दिया सो ठीक नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान और भक्तिके साधनके फलका भेद नहीं बतलाता, परन्तु भक्तिके फलका ही वर्णन करता है। चार प्रकारके भक्तोंमेंसे ज्ञानी भक्तको श्रेष्ठ और दुर्लभ बतलानेके लिये यह श्लोक कहा गया है। अत: इसका अभिप्राय यों समझना चाहिये कि बहुत जन्मोंके बादके अन्तिम जन्ममें मनुष्य भगवान् वासुदेवको सर्वरूप समझकर प्राप्त करता है।

प्र०—आत्महत्या किसे कहते हैं? क्या ऋषि शरभंग, कुमारिल भट्ट आदिकी मृत्यु आत्महत्या नहीं कहलायेगी? क्या ईश्वरके लिये विवश होकर प्राणत्याग करना आत्महत्या नहीं कहलायेगी?

उ०—आत्महत्या दो प्रकारकी होती है—एक न्यायविरुद्ध काम, क्रोध, लोभ आदिके वशमें होकर प्रयत्न करके हठपूर्वक देहसे प्राणोंका वियोग करना, एवं दूसरी मनुष्य-जन्म पाकर आत्माके उद्धारके लिये प्रयत्न न करनेके कारण पुन: संसारके जन्म-मरणरूप चक्करमें पड़ जाना।

ऋषि शरभंगका चितामें प्रवेश, कुमारिल भट्टका तुषमें जलना आत्महत्या नहीं कहलाती, क्योंकि इनका कार्य न्यायोचित था।

ईश्वरके लिये विवश होकर प्राणत्याग करनेवालेकी भी मृत्यु ‘आत्महत्या’ नहीं कहलायेगी, पर शास्त्रोंमें ऐसे हठको ईश्वर-प्राप्तिका साधन नहीं बतलाया है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur