Seeker of Truth

सत्यकी शरणसे मुक्ति

सत्—यह शब्द व्यापक है, असलमें तो ‘सत्’ शब्दपर विचार करनेसे यही सूझता है कि यह परमात्माका ही स्वरूप है—उसीका नाम है। जो पुरुष सत् के तत्त्वको जानता है वह परमात्माको जानता है। जो सत् है वही नित्य है—अमृत है। इसके तत्त्वका ज्ञाता मृत्युको जीत लेता है, शोक और मोहको लाँघकर निर्भय—नित्य परमधामको जा पहुँचता है। वह सदाके लिये अभय अमृतपदको प्राप्त हो जाता है। उसीको लोग संसारमें जीवन्मुक्त, ज्ञानी, महात्मा आदि नामोंसे पुकारते हैं। उसकी सबमें समबुद्धि हो जाती है; क्योंकि सत् परमात्मा सबमें सम है और वह सत् में स्थित है, इसलिये उसमें विषमताका दोष नहीं रह सकता। वह कभी असत्य नहीं बोलता। उसके मन, वाणी और शरीरके होनेवाले सभी कर्म सत्य होते हैं। उसकी कोई भी क्रिया असत्य न होनेसे उसके द्वारा किया हुआ प्रत्येक आचरण सत्य समझा जाता है। वह जो आचरण करता या बतलाता है वही लोकमें प्रामाणिक माना जाता है—

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(गीता ३। २१)

ऐसे पुरुषका अन्त:करण, शरीर और उसकी इन्द्रियाँ सत्यसे पूर्ण हो जाती हैं। उसके आहार-व्यवहार और क्रियाओंमें सत्य साक्षात् मूर्ति धारण करके विराजता है। ऐसे नर-रत्नोंका जन्म संसारमें धन्य है। अत: हमलोगोंको इस प्रकार समझकर सत्यकी शरण लेनी चाहिये अर्थात् उसे दृढ़तापूर्वक भलीभाँति धारण करना चाहिये।

सत्यका स्वरूप

सत्य उसका नाम है जिसका किसी कालमें बाध नहीं होता। जो नित्य एकरस, सदा-सर्वदा सब जगह समभावसे स्थित है और जो स्वत: प्रमाण है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
(गीता २। १६)

ऐसा ‘सत्य’ एक विज्ञान आनन्दघन चेतन परमात्मादेव ही है। श्रुति कहती है—

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।
(तै०२।१)

जीवात्मा भी सत् है। परमेश्वरका अंश होनेके नाते उसको भी सनातन—नित्य कहा है—

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
(गीता १५। ७)

गीता अध्याय २ श्लोक १७ से २१ और २३ से २५ तकमें इस विषयका वर्णन किया गया है। अतएव उस सनातन, अव्यक्त, सत्यरूप परमात्माकी शरण लेनेसे यह जीव मायाको लाँघकर सत्यस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है। विज्ञान आनन्दघन परमात्मा सत्य है इसलिये उसका नाम भी सत् कहा गया है, क्योंकि रूपके अनुसार ही नाम होता है, यह लोकमें प्रसिद्ध ही है—

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।
(गीता १७। २३)

ॐ, तत्, सत्—ये तीन नाम ब्रह्मके बताये गये हैं। ‘सत्’ शब्द भावका अर्थात् अस्तित्वका वाचक है। संसारमें जो कुछ भी सिद्ध होता है वह ‘सत्’ के आधारपर ही होता है। अतएव सारे संसारका आधार सत्य ही है। सूर्य, चन्द्र, वायु, पृथिवी आदि सब सत्यमें ही प्रतिष्ठित हैं। सत्यकी ही प्रतिष्ठासे सूर्य तपता है और वायु बहता है। बिना सत्यके किसी भी पदार्थकी सिद्धि नहीं होती। सत्य परमात्माका स्वरूप है और परमात्मा सबसे उत्तम अर्थात् श्रेष्ठ है, इसलिये श्रेष्ठ गुण, उत्तम कर्म और साधुभावमें ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया गया है अर्थात् जो कुछ भी श्रेष्ठ गुण, उत्तम कर्म और साधुभाव होता है वह सद्गुण, सद्भाव और सत्कर्म नामसे ही लोक और शास्त्रमें विख्यात है।

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते॥
(गीता १७। २६)

उत्तम कर्म होनेके नाते यज्ञ, दान और तप भी सत्कर्मके नामसे प्रसिद्ध हैं एवं इनमें जो निष्ठा तथा स्थिति है उसे भी ‘सत्’ कहते हैं। स्वार्थको त्यागकर सत् स्वरूप परमात्माके अर्थ किया हुआ प्रत्येक कर्म लोक और शास्त्रमें सत्कर्मके नामसे ही विख्यात है।

यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥
(गीता १७। २७)

विचारनेसे यह बात युक्तियुक्त भी सिद्ध होती है कि सत्यके अर्थ जो भी क्रिया की जाती है वह सत्य ही समझी जाती है। इसीलिये सत्यके निमित्त कर्म करनेवालेकी कायिक, मानसिक और वाचिक सम्पूर्ण क्रियाएँ सत्य ही होती हैं यानी वे सब क्रियाएँ लोकमें सत्य प्रमाणित होती हैं।

सत्य-भाषण

कपट, शब्द-चातुरी और कूटनीतिको छोड़कर हिंसावर्जित सरलताके साथ जैसा देखा, सुना और समझा हो उसे वैसा-का-वैसा—न कम, न ज्यादा—कह देना सत्य-भाषण है। सत्य-भाषणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको निम्नलिखित बातोंपर विशेष ध्यान रखना चाहिये—

(१) न स्वयं झूठ कभी बोलना चाहिये और न किसीको प्रेरित करके बुलवाना चाहिये। दूसरेको प्रेरणा करके अथवा उसपर दबाव डालकर जो उससे झूठ बुलवाता है वह स्वयं झूठ बोलनेकी अपेक्षा गुरुतर मिथ्या-भाषण करता है; क्योंकि इससे झूठका प्रचार अधिक होता है। किसी झूठ बोलनेवालेसे सहमत भी नहीं होना चाहिये। उस समय मौन साधे रहना भी एक प्रकारसे झूठ ही समझा जाता है। तात्पर्य यह कि कृत, कारित और अनुमोदित—इनमेंसे किसी प्रकारका मिथ्या-भाषण नहीं होना चाहिये।

(२) जहाँतक बन पड़े किसीकी निन्दा-स्तुति नहीं करनी चाहिये। निन्दा-स्तुति करनेवाला व्यक्ति स्वार्थ, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय एवं उद्वेग आदिके वशीभूत होकर जोशमें आकर कम या अधिक निन्दा-स्तुति करने लग जाता है। इनमें निन्दा करना तो सर्वथा ही अनुचित है। विशेष योग्यता प्राप्त होनेपर यदि कहीं स्तुति करनी पड़े तो वहाँ भी बड़ी सावधानीके साथ काम लेना चाहिये।

जो अधिक स्तुतिके योग्य हो और उसकी कम स्तुति की जाय तो अर्थान्तरसे वह स्तुति निन्दाके तुल्य ही हो जाती है।

जो कम स्तुतिके योग्य हो, उसकी अधिक स्तुति हो जाय तो उससे जनतामें भ्रम फैलकर लाभके बदले हानि होनेकी सम्भावना है। इस प्रकारकी झूठी स्तुतिसे स्वयं अपनी और जिसकी स्तुति की जाय उसकी लाभके बदले हानि ही होती है। परन्तु किसी बातका निर्णय करनेके लिये राज्यमें या पंचायतमें जो यथार्थ बात कही जाय तो उसका नाम निन्दा-स्तुति नहीं है। उसमें यदि किसीकी निन्दा-स्तुतिके वाक्य कहने पड़ें तो भी उसे वास्तवमें वक्ताकी नीयत शुद्ध होनेसे उसे निन्दा-स्तुतिमें परिगणित नहीं करना चाहिये।

कोई व्यक्ति यदि अपने दोष जाननेके लिये पूछनेका आग्रह करे तो प्रेमपूर्वक शान्तिसे उसे उसका यथार्थ दोष बतला देना भी निन्दा नहीं है।

(३) यथासाध्य भविष्यकी क्रियाओंका प्रयोग नहीं करना चाहिये। ऐसी क्रियाओंका प्रयोग विशेष करनेसे उनका सर्वथा पालन होना कठिन है; अत: उनके मिथ्या होनेकी सम्भावना पद-पदपर बनी रहती है। जैसे किसीको कह दिया कि ‘मैं कल निश्चय ही आपसे मिलूँगा,’ किन्तु फिर यदि किसी कारणवश वहाँ जाना न हो सका तो उसकी प्रतिज्ञा झूठी समझी जाती है। अत: ऐसे अवसरोंपर यही कहना उचित है कि ‘आपके घरपर कल मेरा आनेका विचार है या इरादा है।’

(४) किसीको शाप या वर नहीं देना चाहिये। इससे तपकी हानि होती है। शाप देनेसे तो पापका भी भागी होना सम्भव है। इस प्रकारके बुरे अभ्याससे स्वभावके बिगड़ जानेपर सत्यकी हानि और आत्माका पतन होता है।

(५) किसीके साथ हँसी-मजाक नहीं करना चाहिये। इसमें प्राय: विनोद-बुद्धिसे असत्य शब्दोंका प्रयोग हो ही जाया करता है। जिसकी हम हँसी उड़ाते हैं वह बात उसके मनके प्रतिकूल पड़ जानेपर उसके चित्तपर आघात पहुँच सकता है, जिससे हिंसा आदि दोषोंके आ जानेकी भी सम्भावना है।

(६) व्यंग्य और कटाक्षके वचन भी नहीं बोलने चाहिये। इनमें भी झूठ, कपट और हिंसादि-दोष घट सकते हैं।

(७) शब्द-चातुरीके वचनोंका प्रयोग नहीं करना चाहिये। जैसे, शब्दोंसे तो कोई बात सत्य है परन्तु उसका आन्तरिक अभिप्राय है विपरीत। राजा युधिष्ठिरने अपने गुरु-पुत्र अश्वत्थामाकी मृत्युके सम्बन्धमें अश्वत्थामा नामक हाथीका आश्रय लेकर शब्दचातुर्यका प्रयोग किया था। वह मिथ्या-भाषण ही समझा गया।

(८) मितभाषी बनना अर्थात् गम्भीरताके साथ विचारकर यथासाध्य बहुत कम बोलना चाहिये, क्योंकि अधिक शब्दोंका प्रयोग करनेसे विशेष विचारके लिये समय न मिलनेके कारण भूलसे असत्य शब्दका प्रयोग हो सकता है।

सत्यके पालन करनेवाले मनुष्यको काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, द्वेष, ईर्ष्या और स्नेहादि दोषोंसे बचकर वचन बोलनेकी चेष्टा करनी चाहिये। जिस समय सत्यकी प्रतिष्ठा हो जाती है उस समय उपर्युक्त दोष प्राय: नष्ट हो जाते हैं। जब कि इनमेंसे किसी एक दोषके कारण भी मनुष्य सत्यसे विचलित हो जाता है तो फिर अधिक दोषोंके वशमें होकर असत्य-भाषण करनेमें तो आश्चर्य ही क्या है?

सत्य बोलनेवाले पुरुषको हिंसा और कपटसे खूब सावधानी रखनी चाहिये। जिस सत्य-भाषणसे किसीकी हिंसा होती है तो वह सत्य सत्य नहीं है, इसके सम्बन्धमें महाभारत-कर्णपर्वके ६९ वें अध्यायमें कौशिक ब्राह्मणकी कथा प्रसिद्ध है। ऐसे अवसरपर सत्य-भाषणकी अपेक्षा मौन रहना अथवा न बतलाना ही सत्य है। हाँ, अपनी या दूसरेकी प्राण-रक्षाके लिये झूठ बोलना पड़े तो वह सत्य तो नहीं समझा जाता परन्तु उसमें पाप भी नहीं माना गया है।

जिस सत्यमें कपट होता है वह सत्य सत्य नहीं समझा जाता। सत्य बोलनेवाला मनुष्य जान-बूझकर सत्यका जितना अंश शब्दोंसे या भावसे छिपाता है, वह उतने अंशकी चोरी करता है। हिंसा और कपट—ये दोनों ही सत्यमें कलंक लगानेवाले हैं। इसलिये जिस सत्यमें हिंसा और कपटका थोड़ा भी अंश रहता है वह सत्य शब्दोंसे सत्य होनेपर भी झूठ ही समझा जाता है।

जो विषयी और पामर पुरुष हैं वे तो बिना ही कारण प्रमादवश झूठ बोल दिया करते हैं, क्योंकि वे सत्य-भाषणके रहस्य और महत्त्वसे सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं। उनका पतन होना भी फलत: स्वाभाविक ही है परन्तु जो विचारशील पुरुष हैं वे सत्यको उत्तम समझकर उसके पालनकी इच्छा तो रखते हैं किन्तु उनसे भी सर्वथा सत्यका पालन होना कठिन है। अनन्त जन्मोंसे मिथ्या-भाषणका अभ्यास होनेके कारण उनके लिये भी सत्यकी सिद्धि दुष्कर है। पर विवेक-बुद्धिके द्वारा स्वार्थको छोड़कर जो सत्यके पालनकी विशेष चेष्टा करते हैं, उनके लिये इसका पालन होना—इसकी प्रतिष्ठा होनी सम्भव है असाध्य नहीं। जो सत्यका अच्छी प्रकार अभ्यास कर लेता है अर्थात् जिसकी सत्यमें सर्वांगप्रतिष्ठा हो जाती है उसकी वाणी सत्य हो जाती है अर्थात् वह जो कुछ कहता है वह सत्य हो जाता है। महर्षि पतंजलि भी योगपाद २ सूत्र ३६में कहते हैं—

‘सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्’

अगस्त्यके वचनोंसे नहुषका पतन हो जाना आदि अनेक कथाएँ शास्त्रोंमें प्रसिद्ध ही हैं।

सत्य बोलनेवाला पुरुष निर्भय हो जाता है, क्योंकि जबतक भय रहता है तबतक वह यथार्थभाषी नहीं होता—भयके कारण कहीं-न-कहीं मिथ्या-भाषण घट ही जाता है। जो सर्वथा सत्यको जीत लेता है वह क्षमाशील होता है, वह क्रोधके वशीभूत नहीं होता। क्रोधी मनुष्य सत्यके पालनमें सर्वथा असमर्थ रहता है। क्रोधोन्मादमें वह क्या-क्या नहीं बक बैठता?

सत्य-पालनके प्रभावसे मनुष्यमें निरभिमानिता आ जाती है। मान और प्रतिष्ठाकी जहाँ इच्छा होती है वहाँ दम्भ और कपटको आश्रय मिल जाता है। और बस, जहाँ इन्होंने प्रवेश किया वहाँसे सत्य तत्काल कूच कर जाता है। नि:सन्देह कपटी और दम्भीका सत्यसे पतन हो जाना अनिवार्य है।

जब सर्वथा सत्यकी प्रतिष्ठा हो जाती है तो उस सत्यवादीमें किसी प्रकारकी इच्छा या कामना नहीं रहती। भोगोंकी इच्छावाला मनुष्य भला क्या-क्या अनर्थ नहीं कर बैठता? क्योंकि काम ही पापोंका मूल है। इसीलिये कामके वशीभूत हुआ कामी पुरुष झूठ, कपट, छल आदि दोषोंकी खान बन जाता है। अतएव सत्यके सम्यक् पालनसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या और अहंकार आदि दोषोंका नाश हो जाता है और वह मनुष्य एक सत्यके ही पालनसे दया, शान्ति, क्षमा, समता, निर्भयता आदि सम्पूर्ण गुणोंका भण्डार बन जाता है। अत: मनुष्यको सत्य-भाषणपर कटिबद्ध होकर विशेषरूपसे प्रयत्न करना चाहिये।

सत्य आहार

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कोई भी क्यों न हो, शास्त्रके द्वारा बतलायी हुई विधिके अनुसार न्यायपूर्वक अपने परिश्रमद्वारा उपार्जित द्रव्यसे वह जो सात्त्विक* आहार करता है उसका नाम सत्य आहार है। यद्यपि ब्राह्मणके लिये दान लेकर भी जीविका-निर्वाह करना शास्त्रानुकूल है तथापि दाताका उपकार किये बिना जो याचनावृत्तिसे अपना धर्म समझकर जीविका करता है वह ब्राह्मणोंमें निन्दनीय समझा जाता है। उससे तपका नाश, आलस्य तथा अकर्मण्यताकी वृद्धि होती है। इसलिये शास्त्रोक्त होनेपर भी इस प्रकारकी जीविकासे किया हुआ सत्य आहार सत्य आहार नहीं है। इसलिये ब्राह्मणको दाताका प्रत्युपकार करके अथवा शिलोञ्छवृत्तिसे जीविका-निर्वाह करना चाहिये, इसी प्रकार क्षत्रियको भी स्वधर्मके अनुसार सत्य और न्यायसे उपार्जित शुद्ध द्रव्यसे जीविका चलानी चाहिये।

* आयु:सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना:। रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया:॥ (गीता १७।८)
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिको बढ़ानेवाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभावसे ही मनको प्रिय—ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ सात्त्विक पुरुषको प्रिय होते हैं॥ ८॥

यद्यपि वैश्यके लिये व्याज लेकर जीविका-निर्वाह करना धर्म-शास्त्रानुकूल है तथापि क्रय-विक्रय-व्यापारके बिना केवल व्याज-वृत्तिकी शास्त्रकारोंने निन्दा की है। इसलिये भगवान् ने गीतामें इसका उल्लेख ही नहीं किया। इससे आलस्य और निरुद्यमताकी वृद्धि होती है। गिरवी रखे हुए आभूषण और जमीन आदिकी कीमतसे भी मूलसहित व्याजकी रकम जब अधिक हो जाती है तो कर्जदार उनको छुड़ाकर वापस नहीं ले सकता। इससे उसकी आत्माको बड़ा कष्ट पहुँचता है। अत: केवल व्याजकी जीविका निन्दनीय है। इस प्रकारकी जीविकासे जो वैश्य आहार करता है वह आहार भी सत्य नहीं है, इसी प्रकार क्षत्रिय आदिके लिये समझ लेना चाहिये।

जो पुरुष शास्त्रविहित अपने वर्णाश्रमके अनुकूल परिश्रम करके न्यायसे प्राप्त हुए सात्त्विक द्रव्यका आहार करता है उसका वह आहार सत्य आहार कहलाता है। जैसे कोई वैश्य झूठ और कपटको त्यागकर ईश्वरकी आज्ञासे अपना धर्म समझकर क्रय-विक्रय आदि न्याययुक्त जीविकाद्वारा प्राप्त सात्त्विक पदार्थोंका सेवन करता है तो उसका वह आहार सत्य आहार है। व्यापार करनेवाले वैश्यको उचित है कि यथासाध्य कम-से-कम मुनाफा लेकर माल बिक्री करे; गिनती, नाप और वजनमें न कम दे और न अधिक ले; व्याज, मुनाफा, आढ़त और दलाली ठहराकर न किसीको कम दे और न अधिक ले; लेन-देनके विषयमें जैसा सौदा चतुर और समझदार आदमीसे किया जाय उसी दरसे मूर्ख, भोले और सीधे-सादे आदमीके साथ करे अर्थात् सबके साथ सम बर्ताव करे। जो कुछ सम्पत्ति हो उसे ईश्वरकी समझकर लाभ-हानिमें सम रहते हुए दक्षतापूर्वक व्यापार करे और ऐसी चेष्टा की जाय कि जिससे मूलधनका नाश न हो; जहाँतक हो सके किसीकी जीविकाकी हानि न करके विशेष हिंसाका बचाव रखते हुए न्यायसे धन उपार्जन करे और सादगीसे रहे; जितने कमसे अपना और अपने कुटुम्बका निर्वाह हो सके—ऐसी चेष्टा करे; बढ़े हुए धनमें भी अपना स्वत्व न समझकर संसारका हितचिन्तन करके लोकोपकारके ही लिये व्यय करे, यही सत्य व्यापार है। इस प्रकारके व्यापारद्वारा उपार्जित द्रव्यसे जो सात्त्विक अन्नादिका आहार किया जाता है वह वैश्यके लिये सत्य आहार है, इसी प्रकार अन्य सबके लिये समझ लेना चाहिये।

सद्भाव और सद्‍व्यवहार

ऊपर लिखा जा चुका है कि ‘सत्’ परमेश्वरका नाम है। अत: उसे प्राप्त करवानेवाले भाव और व्यवहार ही सद्भाव और सद्‍व्यवहार हैं। उन्हींको साधुभाव कहा गया है। गीताके १३वें अध्यायमें ये ज्ञानके नामसे एवं १६वेंमें दैवी-सम्पदाके नामसे प्रसिद्ध हैं। उनमें जो भाववाचक शब्द हैं, वे सब साधुभाव समझे जाने चाहिये। जिन पुरुषोंमें उत्तम भाव रहते हैं वे परमात्माकी प्राप्तिके पात्र समझे जाते हैं; अत: प्राप्तिमें हेतु होनेसे इनको सद्भाव कहा गया है।

अमानित्व (मानका न चाहना), क्षमा (अपने साथ किये गये अत्याचारोंका बदला न चाहना), कोमलता, सरलता, पवित्रता, शान्ति, शीतलता, समता, वैराग्य, श्रद्धा, दया, उदारता, सुहृदता इत्यादि भाव साकार परमेश्वरमें तो स्वाभाविक होते हैं एवं भगवान् की शरण होकर उनकी उपासना करनेवाले भक्तोंमें उनकी दयासे विकसित हो जाते हैं। ऐसे सद्भावोंसे युक्त भक्त परमात्मदर्शनके अधिकारी होते हैं। अत: हमलोगोंको ऐसे भावोंको प्राप्त करनेके लिये सब प्रकारसे परमेश्वरकी शरण लेनी चाहिये। भगवत्-दयासे जिस मनुष्यमें उपर्युक्त सद्भाव आ जाते हैं उसके आचरण भी सत्य ही होते हैं; क्योंकि सदाचारमें सद्भाव ही हेतु बतलाये गये हैं। जैसा आन्तरिक भाव होता है वैसी ही बाहरी चेष्टा होती है। अत: सद्भावसे मुक्ति और असद्भावसे पतन समझना चाहिये। उपर्युक्त सद्गुणोंसे सम्पन्न पुरुष यथासाध्य उस जगह नहीं जाता जहाँ मान, बड़ाई और पूजा मिलनेकी सम्भावना होती है। यदि कोई व्यक्ति उसका अनिष्ट कर देता है तो वह यही समझता है कि मेरे पूर्वकृत कर्मोंके फलसे हुआ है; यह तो निमित्तमात्र है—ऐसा मानकर वह किसीसे द्वेष या घृणा नहीं करता; बल्कि अवसर पड़नेपर उसके हृदयसे संकोच, ग्लानि, भय और द्वेषको दूर करनेकी ही चेष्टा करता है।

यदि उसके साथ कोई असद्‍व्यवहार करता है अथवा व्यंग्य और कठोर वाक्योंका प्रयोग करता है तो भी वह विनय और सरलतासे सनी हुई मधुर वाणीसे उसी प्रकार शान्तिपूर्वक उत्तर देता है जिस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीने कैकेयीको दिया—

सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहिं भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहिं सनमुख आजू॥
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥

वास्तवमें ऐसा सद्भावोंसे सम्पन्न पुरुष सारे जगत् में अपने परम प्रिय स्वामी परमात्माका स्वरूप देखता है और मन-ही-मन सबको प्रणाम करता हुआ सबके साथ सद्‍व्यवहार करता है।

सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥

ऐसे पुरुषोंका वैरी अथवा मित्रमें समभाव रहता है और काम पड़नेपर वे वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा श्रीकृष्णने अर्जुन और दुर्योधनके साथ किया था। महाभारतके युद्ध-आरम्भके पूर्व जब वे दोनों श्रीकृष्णके पास गये तो उन्होंने यही कहा कि मेरे लिये तुम दोनों ही समान हो। मेरे पास जो कुछ है उसे तुम दोनों इच्छानुसार बाँटकर ले सकते हो। एक ओर तो मेरी एक अक्षौहिणी सेना है और दूसरी ओर मैं स्वयं नि:शस्त्र हूँ। तुम्हारे परस्परके युद्धमें मैं शस्त्र ग्रहण न करूँगा। इन दोनोंमेंसे जिसे जो जँचे वह ले सकता है। इसपर दुर्योधनने सेनाको लिया और अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णको!

तथा ऐसे पुरुषोंको बड़े भारी विषयभोग भी वैसे ही विचलित नहीं कर सकते, जैसे यमराजका दिया हुआ प्रलोभन नचिकेताको न कर सका। उसने रथ, घोड़े और स्वर्गादिके ऊँचे-से-ऊँचे भोगोंको तत्काल ठुकराकर परमात्म-धनको ही पसन्द किया—

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीय: स एव॥
अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन्मर्त्य: क्वध:स्थ: प्रजानन्।
अभिध्यायन्वर्णरतिप्रमोदानतिदीर्घे जीविते को रमेत॥
यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते॥
(कठ० १। १। २७—२९)

‘मनुष्य द्रव्यसे तृप्त नहीं होता। धन तो आपके दर्शनसे मिल ही जायगा। जबतक आप अनुग्रहपूर्वक प्राणियोंपर शासन करते हैं, तबतक मैं जीवित भी रह सकूँगा, परन्तु मैं तो वही वर चाहता हूँ जो मैंने माँगा है। जरा-रहित अमृतरूप देवोंके समीप जाकर जरामरणयुक्त तथा पृथिवीरूपी अध:स्थानमें स्थित रहा हुआ कौन पुरुष अनित्य वस्तुको चाहेगा? रूप, क्रीड़ा और उससे उत्पन्न होनेवाले सुखको अनित्य जानकर भी कौन पुरुष लम्बी आयुसे सन्तुष्ट होगा? हे मृत्यो! परलोक-सम्बन्धी आत्म-तत्त्वमें जो शंका की जाती है, वह आत्मविज्ञान ही मुझसे कहिये, इस अत्यन्त गूढ़ वरके अतिरिक्त नचिकेता और कुछ नहीं माँगता।’

और ऐसे पुरुषोंका वेद, शास्त्र और महापुरुषोंके वचनोंमें भी प्रत्यक्षवत् विश्वास होता है। जैसे कल्याण-कामी सत्यकामका गुरु-वचनोंमें बड़ा भारी विश्वास था। वह उद्दालककी सेवामें ब्रह्मज्ञानके उपदेशार्थ उपस्थित होता है। उसे गुरु तत्काल आज्ञा दे देते हैं कि—‘ये चार सौ गायें वनमें ले जाओ, पूरी हजार हो जानेपर वापस चले आना।’ (छान्दोग्य० ४। ४। ५) कहना नहीं होगा कि अपनी दृढ़ श्रद्धा और गुरुप्रसादके कारण सत्यकाम वनमें ही आत्मज्ञान प्राप्तकर कृतकृत्य हो गया।

अत्यन्त निष्ठुरता और निर्दयताका व्यवहार करनेवालेके साथ भी उत्तम पुरुष उदारता, दया और सुहृदताका ही बर्ताव करते हैं। इस सम्बन्धमें भक्त जयदेव कविका चरित्र बड़े महत्त्वका है—

एक बार भक्तशिरोमणि अयाचक जयदेवको किसी राजाने अनेक प्रकारसे अनुनय-विनय करके बहुमूल्य रत्न प्रदान किये। उस विपुल धनराशिको लेकर जब वह अपने घरको जा रहे थे तो मार्गमें डाकुओंसे भेंट हुई। लोभ किससे क्या नहीं करवा लेता? डाकुओंने रत्न छीनकर बेचारे नि:स्पृही भक्तके हाथ काट डाले! धनलिप्साकी इतिश्री यहीं नहीं हो गयी! उन्होंने निर्दयतापूर्वक उन्हें पासके किसी जलहीन सूखे कुएँमें डालकर और भी अधिक पापकी पोटली बाँधी! दैवयोगसे राजा उसी कुएँपर प्याससे व्याकुल होकर आ पहुँचा। ज्यों ही पानी खींचनेके लिये रस्सी अन्दर लटकायी, त्यों ही परिचित-सी आवाज सुन पड़ी। पूछनेपर पता चला कि वह कष्टापन्न व्यक्ति जयदेवके सिवा कोई दूसरा न था! राजाने उसे बाहर निकलवाकर दु:खभरे चकितभावसे पूछा, ‘यह क्या हुआ जयदेव? किस निष्ठुरने तुम्हारे साथ यह दुर्व्यवहार कर अपनी मौतको याद किया है?’ भक्त चुप रहा—अनेक बार आग्रह करनेपर भी न बोला। राजाका कोई वश न चला। वह उसे अपने राजमहलमें ले जाकर रात-दिन उसकी सेवा-शुश्रूषामें तत्पर रहने लगा। संयोगसे वे ही डाकू महलकी ओर आते हुए दीख पड़े। आनन्दोल्लासभरे स्वरमें जयदेव बोल उठा—‘राजन्! आप मुझे धन लेनेके लिये अनेक बार प्रार्थना किया करते हैं! आज आप इच्छानुसार खुले दिलसे मेरे इन मित्रोंको दान कर सकते हैं।’ कहनेभरकी देरी थी। राजाने उन भयकम्पित डाकुओंको अपने पास बुलवाया। अपराधी लुटेरोंके प्राण कण्ठको आने लगे—टाँगें परस्पर टकराने लगीं। बहुत देरतक आशा-आश्वासन पानेके बाद उनका धड़कता हुआ हृदय थमा! साहस करके जो मनमें आया वही माँगा! अपने दुष्कृत्योंका उलटा फल पाकर वे अचम्भित और हर्षित हुए! साथमें कोतवालको नियुक्त करके उन्हें सादर बिदाई दी गयी। कोतवालने इस अद्भुत रहस्यके जाननेके लिये उत्सुकतापूर्ण भावसे पूछा ‘क्योंजी, आपका जयदेवजी भक्तके साथ क्या सम्बन्ध है? उन्होंने इतनी अधिक सम्पत्ति दिलवाकर किस कृतज्ञताका बदला चुकाया है?’

डाकुओंने छलभरी मुसकराहटके साथ कहा—‘कोतवाल साहब! हमलोगोंने इस जयदेवको एक बार मृत्युके मुखसे बचाया था—अब यह उसी प्राण-दानका बदला चुका रहा है।’ अन्तिम अक्षरोंके निकलते ही उनके आगेकी पृथ्वी झटसे फट पड़ी और उन पतितोंको उसने अपनेमें सदाके लिये समा लिया। कोतवालने राज-दरबारमें उपस्थित होकर दोनोंके सम्मुख सारा वृत्तान्त कह सुनाया। सुनते ही जयदेवकी आँखोंसे आँसू बह निकले! आँसू पोंछनेपर उनके दोनों हाथ निकल आये, राजाके विस्मित होकर बार-बार पूछनेपर परम भागवत जयदेवने सारा हाल कह सुनाया! राजाका आश्चर्य घटनेकी अपेक्षा और भी अधिक बढ़ गया। उसने तत्काल पूछा—‘जब आपके हाथ इन्होंने काट दिये तो ये मित्र कैसे?’

जयदेव—मैंने प्रतिग्रह स्वीकार न करनेकी जो प्रतिज्ञा कर रखी थी उसे आपके आग्रहवश तोड़नी पड़ी। उसी प्रतिज्ञाभंगके दण्डस्वरूप मेरे हाथ काटकर इन्होंने मुझे उपदेश दिया। इस प्रकारके क्रियात्मक उपदेशद्वारा हित-साधन करनेवाले लोग मित्र नहीं तो क्या हैं?

राजा—इनको आपने धन कैसे दिलवाया?

जयदेव—कहीं धनकी लालसा रहनेपर ये फिर भी कभी समय पाकर किसी निरपराधका खून कर सकते हैं, ऐसा विचारकर इनकी कामना-पूर्ति और सन्तोषके लिये मैंने आपसे धन दिलवाया। मित्रताके नाते भी धन दिलवाना न्यायसंगत ही था।

राजा—इनकी मृत्युसे आप रोने कैसे लगे?

जयदेव—मेरे निमित्तसे इन्हें प्राणोंसे हाथ धोना पड़ा। मुझे लोग श्रेष्ठ कहते हैं, श्रेष्ठके संगका फल श्रेष्ठ होना चाहिये, पर हुई बात इसके विपरीत। इसीलिये मैं रोता हूँ कि—‘हे प्रभो! मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया था कि जिससे इनको मेरे संगका यह दुष्परिणाम भोगना पड़ा?’

राजा—तो आपके हाथ कैसे आ गये?

जयदेव—यह ईश्वरकी दया है! वे अपने सेवकके अपराधोंका विचार न कर अपने विरद—अपने दयापूर्ण स्वभावकी ओर ही देखते हैं।

भक्तशिरोमणि जयदेवके ये वचन सुनकर राजा पुलकित हो उठा— आनन्दसे गद्‍गद हो गया। इसका नाम है सत्यपालकका सद्भाव और उसकी सहृदयता!

सत्कर्म

परम पिता परमेश्वर सत् हैं, इसलिये उनके निमित्त किये जानेवाले कर्म भी सत्कर्म हैं।

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥
(गीता १७। २७)

अतएव मोक्षकी इच्छा रखनेवाले पुरुषद्वारा जो कुछ भी कर्म किया जाता है वह भगवदर्थ ही होता है।

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतप:क्रिया:।
दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि:॥
(गीता १७। २५)

इस प्रकार ईश्वरार्थ और ईश्वरार्पण कर्म करनेसे मनुष्य पुण्य और पापोंसे छूटकर सत्स्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है। ईश्वरार्थ और ईश्वरार्पण दोनों ही प्रकारके कर्म मुक्तिके देनेवाले हैं। भगवान् श्रीकृष्णने स्थान-स्थानपर इस प्रकार कर्म करनेकी आज्ञा अर्जुनको दी है। देखिये—गीता अ०३।९; ९।२७;१२। १०-११ आदि।

इसलिये यज्ञ, दान, तप,सेवा, पूजा या जीविका आदिके सभी कर्म ईश्वरार्थ ही करने चाहिये। जैसे सच्चा सेवक (मुनीम गुमाश्ता) प्रत्येक कार्य स्वामीके नामपर, उसीके निमित्त, उसीकी इच्छाके अनुसार करता हुआ किसी कर्म अथवा धनपर अपना अधिकार नहीं समझता है और स्वप्नमें भी किसी वस्तुपर उसके अन्त:करणमें ममत्वका भाव न आनेसे वह न्याययुक्त की हुई प्रत्येक क्रियामें हर्ष-शोकसे मुक्त रहता है, उसी प्रकार भगवान् के भक्तको उचित है कि वह अपने अधिकारगत धन, परिवार आदि सामग्रीको ईश्वरकी ही समझकर उसकी आज्ञाके अनुसार उसीके कार्यमें लगानेकी न्याययुक्त चेष्टा करे और वह जो भी नवीन कर्म अथवा क्रिया करे उसे उसकी प्रसन्नता और आज्ञाके अनुकूल ठीक उसी प्रकार करे जिस प्रकार बन्दर नटकी इच्छा और आज्ञानुसार करता है।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि ईश्वरकी इच्छाका पता किस प्रकार चले? इसके उत्तरमें यह कहा जा सकता है कि आप इस सम्बन्धमें ईश्वरसे पूछ सकते हैं। वह आपके हृदयमें विराजमान है—

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
(गीता १५। १५)

‘हमारे लिये क्या करना उचित है और क्या अनुचित है’ यह बात आप अपने हृदयस्थ परमात्मासे यदि जानना चाहेंगे तो वह न्यायकारी प्रभु आपके हृदयमें सत्प्रेरणा ही करेंगे। जब कोई व्यक्ति सद्भावसे अन्तरात्मासे परामर्श लेता है तो उसे पवित्र आत्माद्वारा सत्परामर्श ही प्राप्त होता है। साधारणत: जैसे कोई अपनी आत्मासे पूछता है कि ‘चोरी, व्यभिचार, झूठ और कपट आदि कर्म कैसे हैं?’ तो उत्तर मिलता है कि ‘त्याज्य हैं—निषिद्ध हैं!’ इसी प्रकार ब्रह्मचर्य, अहिंसा और सत्य आदिके विषयमें सम्मति माँगनेपर यही उत्तर मिलता है कि ‘अवश्य पालनीय हैं।’ अज्ञान, राग-द्वेष और संशय आदि दोषोंद्वारा हृदयके आच्छादित रहनेपर किसी-किसी विषयमें निश्चित उत्तर नहीं मिलता; अत: ऐसे अवसरपर अपनी दृष्टिमें जो भगवान् के तत्त्वको जाननेवाले महापुरुष हों, उनके द्वारा बतलाये हुए विधानको ईश्वरकी आज्ञा मानकर तदनुकूल आचरण करना चाहिये।

सत्स्वरूप परमात्माकी प्राप्ति करवानेवाले व्यवहारका नाम ही सद्‍व्यवहार है। इसीको सदाचार कहते हैं। अपना कल्याण चाहनेवाले साधकोंको उचित है कि वे इसके पालनकी ओर विशेषरूपसे सचेष्ट रहें। भगवत्प्राप्त पुरुषोंमें तो सत्यका आचरण स्वाभाविक ही होता है।

संसारमें किसी जीवको कभी भी किसी प्रकारसे दु:ख, भय और क्लेश नहीं पहुँचाना चाहिये और न पहुँचानेकी इच्छा या प्रेरणा ही करनी चाहिये। यदि कोई किसीको कष्ट पहुँचाता हो तो उसको किसी प्रकारसे न तो सहायता ही देनी चाहिये और न उसका अनुमोदन ही करना चाहिये। इतना ही नहीं, वरं भीतरमें प्रसन्नता भी न माननी चाहिये।

अज्ञान और राग-द्वेष सदाचारके लिये परम विघातक हैं। अत: साधकको इनसे खूब ही बचकर रहना चाहिये। भ्रम और मूर्खताके कारण मनुष्य हर एक प्रकारके दुराचरणमें प्रवृत्त हो जाता है। इसलिये सदाचारी मनुष्यको सत्य और असत्यके विषयमें शास्त्र और साधु पुरुषोंकी सहायतासे अपनी बुद्धिद्वारा निर्णय करके सत्यका आचरण करना चाहिये। अन्यथा वह सत्यको असत्य और दुराचारको सदाचारका रूप देकर दुराचरणमें प्रवृत्त हो जाता है, जिससे उसका परमार्थभ्रष्ट हो जाना स्वाभाविक है।

राग

यह साधकका बड़ा भारी शत्रु है। यही काम और लोभके रूपमें परिणत होकर समस्त अनर्थोंका मूल बन जाता है। इसीके कारण यह विषयोंका दास होकर अर्थकी कामनाके लिये संसारमें भटकता फिरता है। आत्मसुधारकी कामनावाले पुरुषको इस बातका पद-पदपर ध्यान रखना चाहिये कि कहीं मैं स्वार्थके चंगुलमें फँसकर आचरण-भ्रष्ट न हो जाऊँ! जब मनुष्य किसी कार्यको आरम्भ करता है तो आसक्तिके स्वाभाविक दोषके कारण उस कार्यकी सिद्धि-असिद्धिमें निजी स्वार्थका अन्वेषण करने लगता है और सोचता है कि उस कार्यके करनेमें मुझे क्या लाभ प्राप्त होगा? इस प्रकारकी अर्थ-कामना उसे सब विषयोंका दास बनाकर श्रेयमार्गसे तत्काल गिरा देती है। अत: कल्याणकामी साधकको उचित है कि वह कार्य-आरम्भके पूर्व ही सावधान हो जाय कि जिससे स्वार्थको घर कर लेनेका अवसर न मिल सके। मनमें स्वार्थके प्रवेश कर जानेसे सदाचार दुराचारके रूपमें परिणत हो जाता है। सदाचारका पालन करनेमें यदि भूलसे कुछ कमी आ जाय या किसी अंशमें कहीं पालन न बन सके तो नि:स्वार्थी पुरुष दोषी नहीं समझा जाता। दोष तो सारा स्वार्थसे आता है। स्वार्थ बड़ा ही प्रबल है, इसका ऐसा विस्तार और प्रसार है कि यह पद-पदपर व्याप्त है इसीलिये सावधान होनेपर भी धोखा हो जाता है। संसारके सम्पूर्ण कर्मों और समस्त पदार्थोंमें इसने अपना स्थान बना रखा है। अच्छे-अच्छे विद्वान् और बुद्धिमान् पुरुष भी इसके फेरमें पड़कर कर्तव्यको भूल जाते हैं। स्वार्थसे बचने, स्वार्थका समूल नाश करनेके लिये मनुष्यको सतत सावधानीसे प्रयत्न करते रहना चाहिये और बार-बार अन्तर्वृत्ति करके देखना चाहिये। जो पुरुष इस स्वार्थपर विजय पाता है, सब प्रकारकी कामना और स्पृहाको त्यागकर विचरता है, वही परम शान्तिको प्राप्त होता है। विषयलोलुप मनुष्योंके न तो आचरणोंमें ही सम्यक् सुधार होता है और न उन्हें कभी कहीं शान्ति ही मिलती है।

द्वेष

रागकी भाँति द्वेष भी मनुष्यका परम शत्रु है। इसीके कारण वह क्रोधके वशीभूत हो कर्तव्य भूलकर विपरीत आचरण करने लगता है, जिससे उसका सर्वनाश हो जाता है। परन्तु यह स्मरण रखना चाहिये कि द्वेषका मूल कारण वास्तवमें राग या आसक्ति ही है। इसी राग या आसक्तिसे काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि भीषण शत्रुओंका दल उत्पन्न होकर मनुष्यको सदाचारसे गिराकर उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर देता है, जिससे वह परमार्थसे भ्रष्ट हो जाता है, इसलिये आसक्तिके त्यागपर विशेष ध्यान रखना चाहिये।

आसक्तिरहित पुरुषकी प्रत्येक क्रिया स्वार्थहीन होती है, इससे उसके हर एक आचरणमें प्रेम और दयाका भाव विकसित हुआ रहता है। किसी भी पदार्थमें राग न रहनेके कारण, संसारके जितने भोग्य पदार्थ हैं उसके अधीन होते हैं, उन सबको वह उदार-चित्तसे देश-काल-पात्रके अनुसार लोकहितार्थ सद्‍व्यय करनेकी चेष्टामें रहता है। ऐसे सत्पुरुषोंकी सारी क्रियाएँ मूर्ख और अज्ञानियोंकी समझमें नहीं आतीं। वे उसकी क्रियाओंको अपनी अज्ञानावृत्त क्रियाओंसे तुलना करके उनमें दोष ही देखा करते हैं। परन्तु वास्तवमें ऐसे महात्माओंकी स्वार्थरहित क्रियाओंमें दोषका लेशमात्र भी प्रवेश नहीं हो सकता। इस लोक या परलोककी कोई भी कामना या स्वार्थ न रहनेके कारण ऐसे महापुरुषोंके आचरण अज्ञानी मनुष्योंकी दृष्टिमें दोषयुक्त होनेपर भी सर्वथा पवित्र होते हैं। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका और संसारकी किसी भी स्थितिका लोभ नहीं होनेके कारण संसारकी कोई भी वस्तु इन्हें अपनी ओर नहीं खींच सकती, वे नित्य निर्भयपदमें स्थिर रहते हुए न तो किसीसे डरते हैं और न किसीके साथ कठोर बर्ताव ही करते हैं। विनय, कोमलता, सत्य और शान्तिकी तो वे साक्षात् मूर्ति ही होते हैं। क्षमा उनका स्वभाव बन जाता है इससे क्रोधकी उत्पत्ति उनमें कभी होती ही नहीं, कभी योग्यता प्राप्त होनेपर उनमें कोई क्रोधकी-सी बाहरी क्रिया देखी जाती है परन्तु वस्तुत: उनमें क्रोध नहीं हो सकता। सर्वत्र सबमें समबुद्धि होनेके कारण वे किसीकी अनुचित निन्दा-स्तुति नहीं करते। झूठ-कपटका उनमें सर्वथा अभाव होता है। जहाँ, जिस बातके प्रकट हो जानेसे किसीको हानि पहुँचती हो या अपनी प्रशंसा होती हो उसे वे यदि छिपा लेते हैं तो उनका यह आचरण कपट, असत्य या स्तेयमें नहीं गिना जाता।

उपसंहार

सत्यका विषय बड़ा व्यापक है। इसपर बहुत अधिक लिखा जा चुका है तो भी इसमें मनके सब भाव व्यक्त नहीं हो पाये हैं। इसकी विशदरूपसे व्याख्या करनेकी आवश्यकता है। किन्तु लेख बढ़ जानेके संकोचसे जहाँतक बन पड़ा, संक्षिप्तमें ही समाप्त करनेकी चेष्टा की है।

सत्य एक ऐसी वस्तु है, जिसका आश्रय लेनेसे सम्पूर्ण उत्तम गुणोंकी प्राप्ति स्वयमेव हो जाती है। सत्यका आश्रयी सत्पुरुष सद्गुणोंका समुद्र और ज्ञानका भण्डार बन जाता है। यद्यपि सत्यके पालनमें आरम्भमें साधकको अनेक प्रकारकी कठिनाइयों और क्लेशोंका सामना करना पड़ता है, किन्तु सत्यकी सिद्धि हो जानेपर उसके शोक और मोहका आत्यन्तिक अभाव हो जाता है। अत: सत्यके पालन करनेवाले पुरुषको निर्भयतासे अपने लक्ष्यपर डटे रहना चाहिये। एक ओर सत्यका त्याग और दूसरी ओर प्राणोंका त्याग—इन दोनोंको तौलनेपर सत्यका पलड़ा ही भारी मालूम देता है। इसलिये यदि मनुष्य प्राणोंकी भी परवा न करके सत्यपर डटा रहेगा तो सभी आपत्तियाँ देखते-ही-देखते आप ही नष्ट हो जायँगी। अन्तमें उस सत्यकी विजय होगी। उदाहरणार्थ प्रह्लादका इतिहास प्रसिद्ध है। सत्यके लिये प्रमाणोंकी अपेक्षा नहीं है। वह तो स्वयं स्वत:प्रमाण है। अन्य सब प्रमाणोंकी सिद्धि सत्यपर ही अवलम्बित है। सत्यका प्रतिपक्षी सत्यको नष्ट करनेके लिये चाहे जितने उपाय करे, सत्यको जरा भी आँच नहीं आती—बल्कि वह जितना ही कसौटीपर कसा जाता है—जितना ही तपाया जाता है उतना ही वह उज्ज्वल रूप धारण करता रहता है। जो ताड़नासे, तापसे मिट जाय वह सत्य ही नहीं है। जो सत्यपालनका थोड़ा-सा भी महत्त्व समझ गया है उससे सत्यका त्याग होना कठिन है, फिर जिन्होंने इसके तत्त्वका सम्यक् परिज्ञान प्राप्त कर लिया है वे कैसे विचलित हो सकते हैं? केवल एक सत्यका तत्त्व जान लेनेपर मनुष्य सब तत्त्वोंका ज्ञाता बन जाता है; क्योंकि सत्य परमात्माका स्वरूप है और परमात्माके ज्ञानसे सबका ज्ञान हो जाना प्रसिद्ध है। अत: मन, वाणी और इन्द्रियोंद्वारा सत्यकी शरण लेनी चाहिये। सत्य सम्पूर्ण संसारमें व्याप्त है। अन्वेषण करनेपर सर्वत्र सत्यकी ही प्रतीति और अनुभूति होने लगेगी। जो कुछ भी प्रतीत होता है, विचारपूर्वक परीक्षा करनेसे सबका बाध होकर एक सत्य ही शेष रहता है। सम्पूर्ण संसारका अस्तित्व सत्यपर टिका हुआ है। इसके बिना किसी भी पदार्थकी सिद्धि नहीं हो सकती। यदि कोई भ्रमवश इसके विपरीत मान लेता है, वह विपरीतता ठहरती नहीं। वर्षा होनेसे जैसे बालूकी दीवार विशेष समयतक नहीं ठहर सकती, इसी प्रकार विचार-बुद्धिसे अन्वेषण करनेपर असत्यका अस्तित्व तुरन्त ही लुप्त हो जाता है। बालूकी दीवारके नष्ट होनेपर बालूके कण तो रहते भी हैं पर इस असत्यका तो नामो-निशान भी मिट जाता है। जो असत्य है उसे भले ही कितने ही साधनोंसे सत्य प्रमाणित करनेकी चेष्टा की जाय पर अन्तमें असत्य ही रहेगा—अस्तित्वहीन रहेगा और सत्यको मिटानेके सभी प्रयत्न निष्फल होंगे। ऐसा महत्त्व होनेपर भी जो मूढ़ इसे छोड़कर असत्यका आश्रय लेते हैं वे निस्सन्देह दयनीय हैं। अतएव कल्याणकामी बन्धुओंको प्राणोंसे भी बढ़कर सत्यका आदर करना चाहिये और उसके पालनार्थ कटिबद्ध होकर प्रयत्न करना चाहिये।

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)