सर्वोपयोगी प्रश्न
एक सज्जनने कुछ उपयोगी प्रश्न किये हैं, यहाँ वे उत्तरसहित प्रकाशित किये जाते हैं—
(१) प्रश्न—सच्चा वैराग्य किस प्रकार हो?
उत्तर—संसारके सम्पूर्ण पदार्थ क्षणभंगुर और नाशवान्
होनेके कारण दु:खप्रद और अनित्य हैं, इस रहस्यको सच्चे वैराग्यवान् पुरुषोंके संगसे समझनेपर सच्चा वैराग्य हो सकता है।
(२) प्रश्न—ईश्वर-प्राप्ति पुरुषार्थ और भगवत्कृपाद्वारा होती है, वह पुरुषार्थ किस प्रकार किया जाय और भगवत्कृपा किस तरह समझी जाय?
उत्तर—सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन भगवान् की सब प्रकारसे शरण होना ही असली पुरुषार्थ है। अतएव भगवान् की शरण होनेके लिये वैराग्ययुक्त चित्तसे तत्पर होना चाहिये। भगवान् के नामका जप, उनके स्वरूपका ध्यान, उनकी आज्ञाका पालन और सुख-दु:खोंकी प्राप्तिके साधनों मेंएवं सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें उन परमात्माकी कृपा कापद-पदपर अनुभव करनेका नाम शरण है। और उनकी शरण होनेसे ही उनकी कृपाका रहस्य समझमें आ सकता है।
(३) प्रश्न—ईश्वरके दर्शन और प्राप्तिका सहज उपाय क्या है?
उत्तर—अनन्य-भक्ति ही सहज उपाय है। भगवान् ने कहा है—
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
(गीता ११। ५४)
‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन! अनन्य-भक्तिके द्वारा तो मैं इस प्रकार प्रत्यक्ष देखा जा सकता हूँ, तत्त्वसे जाना जा सकता हूँ तथा एकीभावसे प्राप्त भी किया जा सकता हूँ।’
अनन्य-भक्तिका स्वरूप यह है—
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संगवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव॥
(गीता ११। ५५)
‘हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे लिये ही कर्म करता है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिसे रहित है और सम्पूर्ण प्राणियोंमें वैरभावसे रहित है, वह (अनन्य भक्तिवाला पुरुष) मुझको (ही) प्राप्त होता है।’
सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्माके स्वरूपकी प्राप्ति तो ज्ञानयोगद्वारा भी हो सकती है। परन्तु सगुण रूपके साक्षात् दर्शन केवल ईश्वरकी अनन्य-भक्तिसे ही होते हैं। अनन्य-भक्ति और अनन्य-शरण वस्तुत: एक ही है। परन्तु व्याख्या करते समय शरणकी व्याख्यामें अनन्य-भक्तिका और अनन्य-भक्तिकी व्याख्यामें अनन्य-शरणका वर्णन हुआ करता है। जैसे उपर्युक्त श्लोकके ‘मत्परम:’ शब्दसे भगवत्-शरणका कथन किया गया है, वैसे ही गीता अध्याय ९ के ३४ वें श्लोकमें शरणके अन्तर्गत अनन्य-भक्तिका कथन आया है। गीता अध्याय ९ के ३२ वें श्लोकमें भगवान् ने अर्जुनसे कहा—स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनिवाले (अन्त्यज) भी मेरी शरण होकर परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं—
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
इस उपदेशके बाद आगे चलकर भगवान् ने ३४ वें श्लोकमें शरणका स्वरूप इस प्रकार बतलाया—
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
‘मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त हो, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझे प्रणाम कर। इस प्रकार मेरे शरण हुआ (तू) आत्माको मुझमें एकीभाव करके मुझको ही प्राप्त होगा।’
यों तो इस सारे ही श्लोकमें ‘शरण’ के नामसे अनन्य-भक्तिका ही वर्णन है, परंतु ‘मद्भक्तो भव’ शब्दसे स्पष्टरूपमें भक्तिका कथन है।
(४) प्रश्न—मनुष्य ईश्वरकी जरूरत क्यों नहीं समझता?
और उस जरूरतके समझनेका उपाय क्या है?
उत्तर—ईश्वरके स्वरूप, रहस्य, स्वभाव, गुण, प्रभाव और तत्त्वको न जाननेके कारण ही ईश्वरकी जरूरत मनुष्यकी समझमें नहीं आती। इस अज्ञानके नाश होते ही जरूरत समझमें आ जाती है। ईश्वरके उपर्युक्त स्वरूपादिको यथार्थत: जाननेवाले पुरुषोंके संगसे ही इस अज्ञानका नाश हो सकता है।
(५) प्रश्न—
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
भगवान् का ऐसा कौन-सा स्वभाव है जिसके जान लेनेपर भजन किये बिना न रहा जाय?
उत्तर—भगवान् पुरुषोत्तम बिना ही कारण सबपर दया और प्रेम करनेवाले परम सुहृद् हैं, शरणागतवत्सल हैं एवं दीनबन्धु हैं इत्यादि अनेकों गुणोंसे युक्त उनके स्वभावको तत्त्वसे जान लेनेपर मनुष्य उनका भजन किये बिना नहीं रह सकता।
श्रीभगवान् स्वयं कहते हैं—
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५। १९)
‘हे भारत! इस प्रकार तत्त्वसे जो ज्ञानी पुरुष मुझको पुरुषोत्तम जानता है वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।’
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(गीता ५। २९)
‘मुझको यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूतप्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित प्रेमी तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।’
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
(गीता ४। ११)
‘हे अर्जुन! जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं (भी) उनको वैसे ही भजता हूँ। (इस रहस्यको जानकर ही) बुद्धिमान् मनुष्यगण सब प्रकारसे मेरे मार्गके अनुसार बर्तते हैं।’
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥
(वा० रा० यु० १८। ३३)
‘मेरा यह व्रत है कि जो एक बार भी मेरी शरण आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे अभय चाहता है, उसे मैं समस्त प्राणियोंसे निर्भय कर देता हूँ।’
(६) प्रश्न—हम बड़ी-बड़ी बातें करना ही जानते हैं, साधन नहीं करते, ऐसा क्यों होता है?
उत्तर—बुरी आदतके कारण ऐसा होता है। सत्पुरुषोंके और उत्तम साधकोंके संगसे एवं शास्त्रके विचारसे यह आदत नष्ट हो सकती है।
(७) प्रश्न—सच्चे महात्माओंके प्रति भी कभी-कभी अविश्वास होनेमें क्या कारण है?
उत्तर—नास्तिक पुरुषोंका संग और पूर्वकृत पापोंके संस्कारोंका उदय; इन दो कारणोंसे सच्चे महात्माओंके प्रति भी कभी-कभी अविश्वास उत्पन्न हो जाता है। अतएव विचारके द्वारा नास्तिक पुरुषोंके संगका त्याग और कुसंस्कारोंका परिहार करना चाहिये। कुसंस्कारोंके नाशके लिये ईश्वरसे प्रार्थना भी करनी चाहिये।
(८) प्रश्न—यदि हम पुरुषार्थ नहीं करें, केवल भगवत्कृपा समझते रहें तो क्या उद्धार नहीं हो सकता?
उत्तर—भगवत्कृपाके समझनेका यह दुष्परिणाम नहीं हो सकता कि जिसमें समझनेवाला भगवत्के अनुकूल पुरुषार्थसे रहित हो जाय। क्योंकि भगवान् की शरण होना ही असली पुरुषार्थ है और शरण होनेसे ही मनुष्य भगवान् की कृपाके रहस्यको समझ सकता है। फिर उस कृपाके रहस्यको समझनेवाला पुरुष पुरुषार्थहीन कैसे हो सकता है?
(९) प्रश्न—भगवान् हर जगह मौजूद हैं, हमारी प्रार्थना दयार्द्र हृदयसे सुनते हैं और व्याकुल होनेपर प्रकट होकर दर्शन भी दे सकते हैं, ऐसा दृढ़ विश्वास कैसे हो?
उत्तर—भगवान् के गुण, प्रेम, प्रभाव, रहस्य, लीला और तत्त्वके अमृतमय वचन उनके तत्त्वको जाननेवाले भक्तोंद्वारा पुन:-पुन: श्रवण करके मनन करनेसे एवं उनके बतलाये हुए मार्गके अनुसार चलनेसे दृढ़ विश्वास हो सकता है।
(१०) प्रश्न—कोई अपनेको नीचा समझता है तो वह नीचा हो जाता है, किन्तु गोसाईं तुलसीदासजी तो अपनेको दीन समझकर ही परमपदको पा गये। यह कैसे हुआ?
उत्तर—नीचा कर्म करनेसे ही मनुष्य नीचा होता है, अपनेको दीन समझनेसे नहीं। परमेश्वरके सम्मुख दीनभावसे प्रार्थना करनेवाला तो नीच भी परमपदको प्राप्त हो जाता है। फिर गोस्वामी तुलसीदासजी परमपदको प्राप्त हुए, इसमें आश्चर्य ही क्या है? जो सच्चे हृदयसे अपनेको सबसे लघु , दीन समझता है, उसीका प्रभु उद्धार करते हैं क्योंकि प्रभुका नाम दीनबन्धु बतलाया गया है। दूसरोंसे अपनेको श्रेष्ठ माननेवाला तो नीचे गिरता है। क्योंकि उसमें अहंकार-बुद्धि होती है और अहंकार अज्ञानजनित होनेसे पतनका कारण है। दूसरोंसे अपनेको श्रेष्ठ मानना ही मूढ़ता है। दीन मानना तो गुण है। अपनेको नीचा समझनेसे कोई नीचा नहीं होता, बल्कि वह तो सबसे ऊँचा समझा जाता है।
(११) प्रश्न—ईश्वरके प्रति सच्ची परायणता कैसे हो?
उत्तर—ईश्वरपरायण भक्तोंके संग और उनकी आज्ञाका पालन करनेसे हो सकती है?
(१२) प्रश्न—भगवान् को यन्त्री और अपनेको यन्त्र कैसे बनाया जा सकता है?
उत्तर—जो भगवान् के यन्त्र बन चुके हैं अर्थात् शरण हो चुके हैं, उन पुरुषोंके संग और कथनानुसार साधनसे बनाया जा सकता है।
(१३) प्रश्न—भगवान् के सच्चे भक्तोंके दर्शन कैसे हो सकते हैं?
उत्तर—पूर्वसंचित उत्तम कर्मोंके समुदायसे, भगवान् के भक्तोंमें सच्ची श्रद्धा होनेसे एवं भगवान् और भगवद्भक्तोंकी कृपासे सच्चे भक्तोंके दर्शन होते हैं।