Seeker of Truth

सर्वोच्च ध्येय

एक सज्जनके दो प्रश्न हैं—

प्रश्न १—अबतककी उम्रमें आपको श्रवण, भाषण, सहवास, शिक्षण, अध्ययन, मनन, निदिध्यासन, कृति, भ्रमण, निरीक्षण, सत्संग और सद्गुरु तथा अनुभव इत्यादिके द्वारा ऐसा कौन-सा सिद्धान्त, उच्च ध्येय जँचा है जिसमें शील, सदाचार, मानवकर्तव्य, आनन्द, मोक्ष, योगादि तथा आत्मिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, जागतिक उन्नति अथवा समाज-सुधार आदि सभी सिद्ध होते हों और जिस (उच्च ध्येय)-को सुलभ साधनोंद्वारा पृथ्वीभरके सभी मनुष्य सदा प्राप्त कर सकें?

उत्तर १—जिस उच्च ध्येयके विषयमें आपका प्रश्न है उसका यथार्थ वर्णन तो वही पुरुष कर सकता है जिसने उस सर्वोत्तम उच्च ध्येयको प्राप्त कर लिया हो। मैं तो साधारण मनुष्य हूँ, मुझे इतना ज्ञान नहीं है जिससे आपको मेरे उत्तरसे सन्तोष हो सके। क्योंकि विशेष करके न तो मैंने सत्-शास्त्रोंका श्रवण-मनन, पठन-पाठन ही किया है, न सद्गुरु एवं महात्मा पुरुषोंका सेवन, सत्संग, सहवास और अनुकरण ही कर सका हूँ और न उनकी आज्ञाओंका इतना पालन ही कर पाया हूँ। मनन और निदिध्यासन भी विशेष नहीं हैं। किन्तु मुझे जो रुचिकर है, जिसे मैं अच्छा समझता हूँ वही अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार आपकी प्रसन्नताके लिये आपकी सेवामें संक्षेपमें निवेदन कर रहा हूँ—

केवल एक विज्ञानानन्दघन परमात्माके सब प्रकारसे अनन्य शरण होना ही सर्वोत्तम सिद्धान्त एवं उच्च ध्येय है और यही परम धर्म तथा परम कर्तव्य है। अतएव इसको परम कर्तव्य समझकर इसका पालन करनेसे मनुष्य अनायास सदाचार और सद्गुणसम्पन्न होकर पूर्ण शान्ति एवं मोक्षतकके आनन्दको सुलभतासे प्राप्त कर सकता है। इसीसे कौटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, जागतिक उन्नति और सुधारका होना सम्भव है एवं पृथ्वीभरके सारे मनुष्य सुलभतासे इसे प्राप्त कर सकते हैं तथा मनुष्यमात्रका ही इसमें अधिकार है। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने गीतामें कहा है—

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
(९। ३२)

‘हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्रादि और पापयोनिवाले भी जो कोई होवें वे भी मेरी शरण होनेसे परम गतिको ही प्राप्त होते हैं।’

इसलिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने अन्तिम उपदेश भी यही दिया है—

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(१८। ६६)

‘सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर केवल मुझ एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता न कर।’

भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने भी यही घोषणा की है—

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्‍व्रतं मम॥
(वा० रा० ६। १८। ३३)

‘जो एक बार भी मेरी शरण आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मुझसे अभय माँगता है उसे मैं समस्त प्राणियोंसे निर्भय कर देता हूँ—यह मेरा व्रत है।’

श्रुति भी कहती है—

एतद्धॺेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धॺेवाक्षरं परम्।
एतद्धॺेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥

‘यह अक्षर ही ब्रह्म है, यह अक्षर ही परम है, इस अक्षरको ही जानकर जो पुरुष जैसी इच्छा करता है उसको वही प्राप्त होता है। यह अक्षर ही सर्वोत्कृष्ट आश्रय है, इसका आश्रय लेना ही परम उत्तम है। इस आश्रयका रहस्य जानकर मनुष्य ब्रह्मलोकमें पूजित होता है।’

इसलिये लज्जा, भय, मान, बड़ाई, आसक्तिको त्यागकर अहंता-ममतासे रहित होकर केवल एक परमात्माको ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उस व्यक्त-अव्यक्तस्वरूप सर्वव्यापी विज्ञानानन्द परमेश्वरके मन, बुद्धि, इन्द्रिय, शरीरादिद्वारा सब प्रकारसे शरण होनेके लिये तत्पर होना चाहिये।

अनन्य शरणका स्वरूप

(क) उस परमेश्वरके नामका जप और प्रभाव एवं रहस्यसहित स्वरूपका ध्यान (चिन्तन) निष्काम प्रेमभावसे श्रद्धापूर्वक सदा-सर्वदा करते रहना। हरि, ॐ, तत्सत्, नारायण, वासुदेव, शिव इत्यादि उसके अनेक नाम हैं। इन नामोंमेंसे, जिसकी जिसमें विशेष श्रद्धा और रुचि हो उसके लिये उसी नामका जप विशेष लाभप्रद है। उस परमेश्वरके दो रूप हैं—निर्गुण और सगुण। इनमें निर्गुण (गुणातीत)-का चिन्तन तो बन नहीं सकता। जो चिन्तन किया जाता है वह सगुणका ही किया जाता है। सगुणके भी दो भेद हैं—अव्यक्त और व्यक्त। या यों समझिये, एक निराकार और दूसरा साकार। महासर्गके आदिमें जिससे सम्पूर्ण संसार उत्पन्न होता है तथा महाप्रलयके अन्तमें सम्पूर्ण संसार जिसमें विलीन होता है एवं जो सर्वत्र समभावसे व्याप्त है और सम्पूर्ण संसारका नाश होनेपर भी जिसका नाश नहीं होता, ऐसे अव्यक्त, सर्वव्यापी, अनन्त, विज्ञानानन्दघन परमात्माको निराकार ब्रह्म कहते हैं। वही विज्ञानानन्दघन परमात्मा जब संसारके उद्धारके लिये मनुष्य या देवतादिके रूपमें प्रकट होकर ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, सदाचारादि धर्मका प्रचार करता है, तब उस प्रेम, दया और आनन्दमय मूर्तिको साकार ब्रह्म कहते हैं। इनमें जिसकी जिसमें विशेष श्रद्धा-प्रेम हो, उसके लिये उसी स्वरूपका ध्यान करना विशेष लाभप्रद है।

(ख) उस परमेश्वरकी आज्ञा एवं इच्छाके अनुसार यथासाध्य चलनेके लिये सदा-सर्वदा कोशिश करते रहना, अर्थात् ईश्वरको जो (अनुकूल) प्रिय हो, तत्परतासे वही करना। सत्-शास्त्रों और महात्मा पुरुषोंकी आज्ञाको ही ईश्वरकी आज्ञा समझना, उनके द्वारा समझे हुए विषयपर मनन करनेसे अपनी आत्मामें निरपेक्षभावसे जो निर्णय हो उसको ईश्वरकी इच्छा समझना एवं उसीको परम कर्तव्य समझकर उसके अनुसार सदा-सर्वदा चलनेकी चेष्टा करना। शास्त्रमें बतलाये हुए लक्षण और आचरण जिसमें पाये जाते हों ऐसे महापुरुषोंमेंसे जिसकी बुद्धिमें जो सबसे श्रेष्ठ पुरुष पहले हो गये हों या वर्तमान हैं, वे ही उसके लिये महात्मा पुरुष समझे जाते हैं। श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराणादि आर्ष-ग्रन्थ ही सत्-शास्त्र हैं। इनके अतिरिक्त महापुरुषोंद्वारा रचे हुए जिन शास्त्रोंमें जिसकी श्रद्धा-भक्ति हो उसके लिये वे भी सत्-शास्त्र समझे जाते हैं। वर्तमान कालके लिये श्रीमद्भगवद्गीता श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराणादि सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार एवं पक्षपातरहित, सार्वभौम, धार्मिक सद्ग्रन्थ है। इसीसे कहा गया है—

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥
(भीष्म० ४३। १)

‘गीता सुगीता करनेयोग्य है अर्थात् श्रीगीताजीको भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भावसहित अन्त:करणमें धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो स्वयं श्रीपद्मनाभ विष्णु भगवान् के मुखारविन्दसे निकली हुई है। फिर अन्य शास्त्रोंके विस्तारसे क्या प्रयोजन है! इसलिये विशेष शास्त्रोंका अभ्यास न हो सके तो श्रीमद्भगवद्गीताका अध्ययन तो अवश्यमेव करना चाहिये।

(ग) सुख-दु:खकी एवं सुख-दु:खदायक पदार्थोंकी प्राप्ति और विनाशमें तथा हानि और लाभमें परम दयालु सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी परमेश्वरका ही किया हुआ विधान समझकर सदा-सर्वदा प्रसन्नचित्त रहना, अर्थात् परेच्छा या अनिच्छासे जो कुछ भी प्रारब्धानुसार प्राप्त हो उसमें उस प्रेमास्पद, दयासिन्धु परमेश्वरकी दयाका पद-पदपर अनुभव करते हुए सदा-सर्वदा आनन्दमें मुग्ध रहना।

(घ) संसारकी किसी भी वस्तुको न तो अपनी सम्पत्ति समझना चाहिये एवं न अपने भोगकी सामग्री ही। क्योंकि वास्तवमें सब कुछ नारायणसे उत्पन्न होनेके कारण नारायणका ही है। इसलिये उनमेंसे ममताको हटाकर सब वस्तुएँ नारायणके ही अर्पण कर देनी चाहिये। अर्थात् नारायणके आज्ञानुसार नारायणके काममें ही उन्हें लगा देना चाहिये।

तात्पर्य यह है कि बुद्धिसे परमात्माके रहस्य और प्रभावसहित तत्त्वको समझना, श्रद्धा-प्रेमपूर्ण चित्तसे उस परमात्माके स्वरूपका चिन्तन, श्वासद्वारा भगवन्नाम-जप, कानोंसे भगवान् के गुण, प्रभाव और स्वरूपकी महिमाका श्रवण, नेत्रोंसे भगवान् की मूर्तिका एवं उनके भक्तोंका दर्शन तथा सत्-शास्त्रोंका अवलोकन, वाणीसे उनके गुणोंका कीर्तन एवं शरीरसे भगवान् और उनके भक्तोंकी सेवा-पूजा, नमस्कारादि तथा उनकी इच्छामें अपनी इच्छाको मिलाकर उनके आज्ञानुसार केवल उन परमेश्वरके लिये ही फल और आलस्यको छोड़कर सम्पूर्ण कर्मोंको करना। यही उनकी सब प्रकारसे शरण होना है। उपर्युक्त प्रकारसे मनुष्य जैसे-जैसे भगवान् की शरण जाता है वैसे-वैसे ही उसमें धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, क्षमा, दया, संतोष, समता आदि सद्गुणोंकी तथा शम, दम, तप, दान, त्याग, सेवा, सत्य, ब्रह्मचर्यादि उत्तम आचरणोंकी एवं अतिशय शान्ति और परमानन्दकी क्रमश: वृद्धि होती चली जाती है। इस प्रकारसे उन्नत होता हुआ वह फिर उस परम दयालु परमात्माकी दयासे सारी उन्नतियोंकी शेष सीमाके परमोच्च शिखरपर पहुँच जाता है अर्थात् परम धाम, परम पद, परम गतिरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता।

प्रश्न २—प्रत्येक मनुष्यको प्रतिदिन चौबीस घंटेमें कितना-कितना समय आत्मिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, जागतिक, समाजसुधार, आजीविका आदि कार्योंमें लगाना चाहिये, जिससे स्वार्थ और परमार्थ दोनों सधें। कायिक, वाचिक, मानसिक, बौद्धिक सुधार, आत्मसुधार आदि प्रत्येक कार्यमें मनुष्यको कितना समय और अर्थ व्यय करना चाहिये जिससे इनका पूरा विकास हो और समय, अर्थ तथा श्रम सार्थक सिद्ध हो?

उत्तर २—समय बहुत ही अमूल्य है। लाखों रुपये खर्च करनेपर भी जीवनका एक क्षण नहीं मिल सकता। ऐसे मनुष्य-जीवनका एक क्षण भी प्रमाद, आलस्य, पाप, भोग और अकर्मण्यतामें कदापि नहीं खोना चाहिये। जो मनुष्य अपने इस अमूल्य समयको बिना सोचे-विचारे व्यर्थ प्रमादमें बितावेगा, उसे आगे चलकर अवश्य ही पश्चात्ताप करना पड़ेगा। गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है—

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥

कविराय गिरधर ने भी कहा है—

बिना बिचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जगमें होत हँसाय॥
जगमें होत हँसाय, चित्तमें चैन न पावै।
खान, पान, सनमान, राग-रँग मन नहिं भावै॥
कह गिरधर कबिराय करम गति टरत न टारे।
खटकत है जिय माहिं कियौ जो बिना बिचारे॥

अतएव मनुष्यको उचित है कि ऊपर बतलाये हुए अनन्य शरणरूप परम धर्ममय कर्तव्यके पालनमें ही अपने सम्पूर्ण अमूल्य समयका व्यय करे। प्रत्येक कर्म करनेके पूर्व ही सावधानीके साथ यह सोच लेना चाहिये कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह मेरे लिये सर्वथा लाभप्रद है या नहीं। यदि उसमें कहीं जरा भी त्रुटि मालूम पड़े तो उसका तुरंत सुधार कर लेना चाहिये।

इस प्रकार सावधानीसे समयका व्यय करनेसे उसका स्वार्थ भी परमार्थके रूपमें परिणत होकर उसके सम्पूर्ण कार्योंकी सफलता हो जाती है अर्थात् वह कृतकार्य हो जाता है।

वर्णाश्रम और स्वभावकी विभिन्नताके कारण समयके विभागमें भेद होना सम्भव है। अतएव सब मनुष्योंके लिये समयका विभाग एक-सा नियत नहीं किया जा सकता। उपर्युक्त सिद्धान्तको लक्ष्यमें रखकर अपनी-अपनी बुद्धिसे ही अपने-अपने सुभीतेके अनुसार सबको यथायोग्य समयका विभाग कर लेना चाहिये। आपकी प्रसन्नताके लिये समय विभागके विषयमें कुछ निवेदन भी किया जाता है।

भगवान् ने गीतामें कहा है—

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥
(६। १७)

‘दु:खोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवालोंका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालोंका और यथायोग्य शयन करनेवाले तथा जागनेवालोंका ही सिद्ध होता है।’

गीताके उपर्युक्त श्लोकका विवेचन करनेसे यह बात प्रकट होती है। साधारणत: प्रत्येक मनुष्यको दिन-रातके २४ घंटोंके चार विभाग कर लेने चाहिये। उनमेंसे ६ घंटे तो लोक-सेवा एवं स्वास्थ्य-रक्षाके लिये यथायोग्य आहार, विहार, आदिमें, ६ घंटे न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जनरूपी कर्ममें, ६ घंटे शयन करनेमें और ६ घंटे केवल आत्मोद्धार करनेके लिये योगसाधनमें लगाने चाहिये। अर्थात् ६ घंटे तो शौच, स्नान, भोजनादि स्वास्थ्य-रक्षाके लिये एवं कौटुम्बिक, सामाजिक तथा अपनी शक्ति हो तो राष्ट्रीय और जागतिक सेवा एवं सुधारके लिये लगाने चाहिये। कौटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और जागतिक आदिके विशेष कार्य उपस्थित होनेपर दूसरे विभागमेंसे भी समय निकाला जा सकता है। ६ घंटे फल और आसक्तिको छोड़कर कर्तव्यबुद्धिसे वर्णाश्रमके अनुसार यथासाध्य ईश्वरप्रीत्यर्थ शरीर-निर्वाहके लिये न्यायपूर्वक द्रव्य कमानेमें बिताने चाहिये, ६ घंटे समयपर स्वास्थ्य-रक्षाके लिये शयनमें व्यतीत करने चाहिये और शेष ६ घंटे केवल आत्मोद्धारके लिये ही पवित्र और एकान्त स्थानमें अकेले बैठकर संसारके भोगोंसे मन, बुद्धि और इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको हटाकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक वैराग्ययुक्त अनन्य मनसे परमेश्वरके नामका जप और स्वरूपका ध्यान एवं सत्संग और सत्-शास्त्रोंका विचार करना चाहिये। सामान्यत: उपर्युक्त समय-विभागका कार्यक्रम नीचे लिखे अनुसार नियत किया जा सकता है।

कार्यक्रम

प्रात:काल सूर्योदयसे करीब डेढ़ या दो घंटे पहले बिछौनेसे उठ जाना चाहिये। प्रात: चार बजे उठकर यथासाध्य ईश्वर-स्मरण करके शौच-स्नानादिसे पाँच बजेतक निवृत्त हो जाना चाहिये। पाँचसे आठ बजेतकका समय एकान्त और पवित्र स्थानमें बैठकर आत्मोद्धारके लिये ही यथारुचि शास्त्रविधिके अनुसार उपर्युक्त प्रकारसे केवल भजन, ध्यान, आदि ईश्वरोपासनामें ही बिताना चाहिये। ८ से १० बजेतकका समय कौटुम्बिक, सामाजिक आदि सेवा और सुधारके कार्य तथा भोजनादि स्वास्थ्योपयोगी कार्योंमें लगाना चाहिये। १० से ४ बजेतकका समय जीविकाके लिये वर्णाश्रमके अनुसार न्यायानुकूल द्रव्योपार्जनमें लगाना चाहिये। ४ से ६ बजेतकका समय कौटुम्बिक, सामाजिक और अपनी रुचि और शक्ति हो तो राष्ट्रीय और जागतिक सेवा, उन्नतिके कार्यमें व्यतीत करना चाहिये। ६ से ९ बजेतक आत्मोद्धारके लिये यथारुचि शास्त्रविधिके अनुसार भजन, ध्यान, सत्संग, कथा-कीर्तन एवं शास्त्रके विचार और पठन-पाठन आदि ईश्वरोपासनामें ही बिताना चाहिये। ९ से १० बजेतक भोजन एवं स्वास्थ्य-रक्षाके निमित्त समय बिताना चाहिये और रात्रिके १० से प्रात: ४ बजेतक शयन करना चाहिये।

उपर्युक्त समय-विभागमें अपनी रुचि और सुविधाके अनुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है; क्योंकि जाति, देश, काल, स्वभाव आदिकी विभिन्नताके कारण सबके लिये समयका विभाग एक-सा अनुकूल नहीं हो सकता।

अपने शरीर और कुटुम्बका निर्वाह जितने कम धनसे हो सके उतने ही कममें करना चाहिये। इसके लिये यथासाध्य बराबर चेष्टा रखनी चाहिये। इसके बाद बचे हुए द्रव्यका अंश अपने वर्णधर्मके अनुसार स्वार्थ त्यागकर शास्त्रानुकूल यथासाध्य देव, पितृ, मनुष्य और प्राणिमात्रके हितमें व्यय करना चाहिये।

यह बात विशेष खयाल रखनेकी है कि परमेश्वरके नामका जप और स्वरूपका ध्यान हर समय ही करनेके लिये चेष्टा करनी चाहिये अर्थात् परमेश्वरके नामका जप और स्वरूपका ध्यान नित्य-निरन्तर करते हुए ही परमेश्वरप्रीत्यर्थ शारीरिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, जागतिक एवं जीविकादिके भी सम्पूर्ण कर्म फलासक्तिको त्यागकर ही करने चाहिये।

भगवान् ने गीतामें भी कहा है—

तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
(८। ७)

‘इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। (इस प्रकार) मेरेमें अर्पण किये हुए मन और बुद्धिसे युक्त हुआ नि:सन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।’

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥
(गीता १८। ५७)

‘सब कर्मोंको मनसे मेरेमें अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोगका अवलम्बन करके निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो।’

इस प्रकार करनेसे मनुष्योंके कायिक, वाचिक, मानसिक, बौद्धिक आदि सम्पूर्ण कर्मोंका सुधार होकर उनका समय, श्रम और पैसे सार्थक हो जाते हैं एवं परमात्माकी दयासे अनायास ही परम शान्ति एवं परमानन्दकी अर्थात् परमपदकी प्राप्ति हो जाती है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur