Seeker of Truth

सार बातें

‘सत्संगकी बातें सुननेसे जो असर होता है वह पाँच मिनटके कुसंगसे कम हो जाता है, क्योंकि कुसंग पाते ही पूर्वके कुविचार जग उठते हैं, इसलिये कुसंगका सर्वथा त्याग करे।’

‘बुरे कर्म करनेवालोंकी दुर्गति होनेमें तो आश्चर्य ही क्या है, बुरे कर्म करनेवालोंका जो चिन्तन करते हैं, उनकी भी हानि होती है। व्यभिचारीको याद करनेसे कामकी जागृति होती है।’

‘भगवान् का भजन गुप्तरूपसे करना चाहिये, नहीं तो कपूरकी भाँति मान-बड़ाईमें उड़ जाता है।’

‘स्वार्थको छोड़कर दूसरेके हितके लिये चेष्टा करनी, यही उसे प्रेममें बाँधनेका उपाय है।’

‘दूसरेको सुख पहुँचाना ही उसे अपना बना लेना है। अपना तन, मन, धन जो कुछ दूसरेके काममें लग जाय वही सार्थक है, बाकी तो सब व्यर्थ जाता है। जो इस बातको ध्यानमें रखकर चलता है उसे कभी पछताना नहीं पड़ता।’

‘भगवान् को बुलाना हो तो अनन्य प्रेम करना चाहिये। प्यारे मनमोहनकी माधुरी मूर्तिको मनसे कभी न भुलावे। आर्तभावसे भगवान् के लिये रोवे। भगवान् अपने प्रेमी भक्तके साथ रहते हैं। तुम अनन्य प्रेम करोगे तो तुम्हें भगवत् की प्राप्ति अवश्य हो जायगी।’

‘चाहे सारी दुनियासे नाता टूट जाय और प्राण अभी चले जायँ, परन्तु भगवान् के प्रेममें किंचित् भी कलंक नहीं लगने देना चाहिये।’

‘जैसे विषनाशिनी विद्या जाने बिना सर्पको पकड़ रखनेसे वह काट लेता है, फिर विष चढ़ जानेसे मनुष्यकी मृत्यु हो जाती है, उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य विषयोंको पकड़कर अन्तमें उनमें मतवाला होकर मृत्युको प्राप्त हो जाता है।’

‘ज्ञानी पुरुषोंकी वाणीसे निकली हुई ज्ञानरूपी चिनगारियाँ जिसके कानोंद्वारा अन्त:करणतक पहुँच जाती हैं, उसके सारे पाप जलकर भस्म हो जाते हैं।’

‘काम, क्रोध तभीतक रहते हैं जबतक अज्ञान है। अज्ञानरूप कारणका नाश हो जानेपर कामादि कार्य नहीं रह सकते।’

‘भगवान् का भजन अमृतसे भी बढ़कर है, यह बात कहनेसे समझमें नहीं आ सकती। जिनका भजनमें प्रेम होता है, वे इस बातका अनुभव करते हैं।’

‘जिस मनुष्यकी भगवान् या किसी महात्मामें पूर्ण श्रद्धा हो जाती है वह तो उनके परायण ही हो जाता है। परायणतामें जितनी कमी है, उतनी ही कमी विश्वासमें भी समझनी चाहिये।’

‘महापुरुषोंद्वारा किये गये उत्तम बर्तावको भगवान् का बर्ताव ही समझना चाहिये। क्योंकि महापुरुषके अन्दरसे भगवान् ही सब कुछ करते-कराते हैं।’

‘एक श्रीसच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सब जगह परिपूर्ण है। जैसे समुद्र सब ओरसे जलसे व्याप्त है, उसी प्रकार यह संसार परमात्मासे व्याप्त है।’

‘भगवान् के प्रेमी भक्तोंद्वारा भगवान् के प्रभाव और प्रेमरहस्यकी बातें सुननी चाहिये और उन्हींके अनुसार साधन करना चाहिये। ऐसा करनेसे उद्धारमें कोई शंका नहीं।’

‘समय बीत रहा है, बहुत सोच-समझकर इसे कीमती काममें लगाना चाहिये। वह कीमती काम भगवान् का भजन और सन्तोंका संग ही है।’

‘भगवान् को सर्वोत्तम समझनेके बाद एक क्षणके लिये भी भगवान् का ध्यान नहीं छूट सकता। जबतक भगवान् के ध्यानका आनन्द-रस नहीं मिलता, तभीतक वह संसारके विषयोंकी धूल चाटता है।’

‘जो मनुष्य संसारके क्षणभंगुर नाशवान् पदार्थोंको सच्चे और सुखदायी समझकर उनका चिन्तन करता है, उनसे प्रेम करता है और अज्ञानसे उनमें अपना जीवन लगाता है वह महामूर्ख है।’

‘श्रीनारायणदेवके समान अपना परम सुहृद्, दयालु, नि:स्वार्थ प्रेमी और कोई भी नहीं है, इतना होनेपर भी अज्ञानी जीव उन्हें भुलाकर क्षणविनाशी विषय-भोगोंमें लग रहा है, अपने अमूल्य जीवनको धूलमें मिला रहा है। अज्ञानकी यही महिमा है।’

‘मान, बड़ाई, स्वाद, शौकीनी, सुख-भोग, आलस्य-प्रमाद सबको छोड़कर श्रीपरमात्माके शरण होना चाहिये। भगवान् की शरणागति बिना कल्याण होना कठिन है।’

‘भगवान् का निरन्तर चिन्तन, भगवान् के प्रत्येक विधानमें सन्तुष्ट रहना, भगवान् की आज्ञाका पालन करना और निष्कामभाव रखना—यही भगवान् की शरणागति है।’

‘ध्यानके लिये वैराग्य और उपरामता ही मुख्य साधन है। आनन्दकी नदी बह रही है। मायाका बाँध तोड़ डालो, फिर तुम्हारा अन्त:करणरूपी खेत आप ही आनन्दसे भर जायगा, तुम आनन्दस्वरूप हो जाओगे।’

‘मनुष्यको अपने दोषोंपर विचार करना चाहिये। दोषोंपर ध्यान देनेसे उनके नाशके लिये आप ही चेष्टा हो सकती है।’

‘जहाँ मन जाय, वहाँ या तो परमेश्वरका चिन्तन करना चाहिये या उसे वहाँसे हटाकर पुन: जोरसे भगवान् में लगाना चाहिये। नाम-जप करते रहनेसे मन लगानेमें बहुत सहायता मिलती है।’

‘निष्काम-भावसे जीवोंकी सेवा करनेसे और किसीकी भी आत्माको कष्ट न पहुँचानेसे भगवान् में प्रेम हो सकता है।’

‘जो मनुष्य भगवान् की नित्य समान दयाका प्रभाव जान लेता है, वह भगवत्-भजनके सिवा अन्य कुछ भी नहीं कर सकता।’

‘विषयोंमें फँसे हुए मनुष्योंको प्रेमपूर्वक सत्संगमें लगाना चाहिये। जीवोंको श्रीनारायणके शरण करनेके समान उनकी दूसरी कोई भी सेवा नहीं है; यह सेवा सच्चे प्रेमियोंको अवश्य ही करनी चाहिये।’

‘मनसे निरन्तर श्रीभगवान् का ध्यान करना और उन्हें प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छा करनी चाहिये। वाणीसे श्रीभगवान् के नाम और गुणोंका कीर्तन सदा-सर्वदा करना चाहिये। शरीरसे प्राणिमात्रको भगवान् का स्वरूप समझकर निष्काम-भावसे उनकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये।’

‘मन बड़ा ही पाजी और हरामी है। इससे दबना नहीं चाहिये। संसारके आरामोंसे हटाकर इसे बहुत जोरसे श्रीहरिके भजन-ध्यानमें लगाना चाहिये।’

‘संसारके अनित्य पदार्थोंमें प्रेम करके अमूल्य जीवनको व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये। सच्चे दयालु और परम धन परमात्माके साथ प्रेम करना चाहिये और उनकी शरण होकर उनकी दयालुता और प्रेमका आनन्द लूटना चाहिये।’

‘श्रीभगवान् में अनन्य प्रेम होना चाहिये, निरन्तर विशुद्ध प्रेमसे उनका स्मरण होना चाहिये। दर्शन न हो तो कोई परवा नहीं, प्रेमको छोड़कर दर्शनोंकी अभिलाषा भी नहीं करनी चाहिये। सच्चे प्रेमी भक्त दर्शनके भूखे नहीं होते, प्रेमके पिपासु होते हैं। प्रेमके सामने मुक्ति भी कोई वस्तु नहीं है।’

‘प्रभुके मिलनेमें इसीलिये विलम्ब होता है कि साधक भक्त उस विलम्बको सह रहा है, जिस क्षण उसके लिये प्रभुका वियोग असह्य हो जायगा, प्रभु बिना उसके प्राण निकलने लगेंगे, उसी क्षण भगवान् का मिलन होगा। जबतक भगवान् के बिना उसका काम चल रहा है, तबतक भगवान् भी देखते हैं कि इसका मेरे बिना काम तो चल ही रहा है फिर मुझे ही इतनी क्या जल्दी है?’

‘जो मायाके वशमें है, माया उन्हींके लिये प्रबल है। परमात्मा और उसके प्रभावको जाननेवाले भक्तोंके सामने मायाकी शक्ति कुछ भी नहीं है। यदि मनुष्य परमात्माके शरण होकर उसके रहस्य और स्वरूपको जान ले तो मायाकी शक्ति कुछ भी नहीं रह जाती। जीव परमात्माका सनातन अंश है, अपनी शक्तिको भूल रहा है, इसीसे उसे माया प्रबल प्रतीत होती है, यदि भगवत्कृपासे अपनी शक्तिको जाग्रत् कर ले तो मायाकी शक्ति सहज ही परास्त हो जाय।’

‘गुणातीतकी वास्तविक स्थितिको दूसरा कोई भी नहीं जान सकता। वह स्वसंवेद्य अवस्था है। परन्तु जो अपनेमें ज्ञानीके लक्षण हैं कि नहीं, इस बातकी परीक्षा करता है, उसे ज्ञानी नहीं समझना चाहिये। क्योंकि लक्षणोंके खोजनेसे उसकी स्थिति शरीरमें सिद्ध होती है। ज्ञानीकी सत्ता ब्रह्मसे भिन्न है नहीं, फिर खोजनेवाला कौन?’

‘जो द्रव्य परोपकार यानी लोक-सेवामें खर्च किया जाता है, वह इस लोक और परलोकमें सुख देनेवाला होता है। यदि निष्काम-भावसे खर्च किया जाय तो वही मुक्तिदायक बन जाता है, यह बात युक्ति और शास्त्र दोनों ही प्रमाणोंसे सिद्ध है।’

‘श्रीभगवान् के नाम-जपसे मनकी स्फुरणाएँ रुकती हैं, पापोंका नाश होता है, मनुष्य गिरनेसे बचता है, उसे शान्ति मिलती है। नाम-जप ईश्वर-प्राप्तिमें सर्वश्रेष्ठ साधन है। यज्ञ, दान, तप, सेवा आदि कुछ भी न बन सके तो केवल नाम-जपसे ही भगवान् की स्मृति रह सकती है। नाम-महिमा सर्व शास्त्रसम्मत है और युक्ति तथा अनुभवसे सिद्ध है, इसीलिये निरन्तर निष्कामभावसे नाम-जपकी चेष्टा करनी चाहिये।’

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)