Seeker of Truth

संसार-वाटिका

कुरङ्गमातङ्गपतङ्गभृङ्ग-
मीना हता: पञ्चभिरेव पञ्च।
एक: प्रमादी स कथं न हन्यते
य: सेवते पञ्चभिरेव पञ्च॥

‘हरिण, हाथी, पतंग, भौंरा और मछली—ये पाँचों जीव पाँचों विषयोंमेंसे एक-एकसे मारे जाते हैं; फिर जो प्रमादी अकेले ही अपनी पाँचों इन्द्रियोंसे पाँचों विषयोंका सेवन करता है, वह क्यों न मारा जायगा?’

अत: मनुष्यको उचित है कि विषयोंसे मन-इन्द्रियोंका संयम करके उन्हें परमात्माकी ओर लगावे। इस विषयमें एक दृष्टान्त है। एक चक्रवर्ती राजा थे। एक बार उन्होंने यह घोषणा की कि जो कोई मनुष्य कल मेरा दर्शन कर लेगा, उसे मैं युवराजपद दे दूँगा। मैं अपने जिस बगीचेकी कोठीमें निवास करता हूँ, वह कल दिनभर सबके लिये खुली रहेगी। मेरे पास कोई भी मनुष्य आ सकता है। किसीके लिये भी कोई रुकावट नहीं रहेगी। प्रत्येक मनुष्यको बगीचेमें सैर करनेके लिये केवल दो घंटा समय दिया जायगा। कोई भी व्यक्ति दो घंटेसे अधिक नहीं रह सकता। बगीचेमें प्रवेश होनेके बाद मेरे पासतक पहुँचनेमें तो आधे मिनटका समय ही काफी है; क्योंकि वहाँकी सड़कें बड़ी ही सुगम और सुलभ हैं। अत: जो मनुष्य नियत समयके अंदर मेरा दर्शन कर लेगा, उसको तो युवराजपद दे दिया जायगा और जो बगीचेमें ही रमता रहेगा, उसे दो घंटे समाप्त होते ही बाहर निकाल दिया जायगा।

यह घोषणा राज्यमें सर्वत्र प्रचारित कर दी गयी। फिर बात ही क्या थी, सब लोग प्रात:काल होते ही बगीचेमें धड़ाधड़ प्रवेश करने लगे। बगीचेके दरवाजेपर ही प्रबन्धकर्ताका निवासस्थान था। वह प्रबन्धकर्ता, जो भी व्यक्ति बगीचेके अंदर प्रवेश करता, उसे एक टिकट दे देता और उसकी एक नकल अपने पास रख लेता। इस प्रकार लोग टिकट ले-लेकर भीतर जाने लगे। बगीचेमें जाकर कोई तो नाना प्रकारके चमेली, केवड़ा, गुलाबके फूलोंको सूँघते हुए शीतल, मन्द, सुगन्धित हवामें सैर करने लगे। कितने ही उनसे आगे पहुँचकर मेवा और मधुर फल तोड़-तोड़कर खाने लगे। कितने ही उनसे भी आगे जाकर सरकस, बायस्कोप, सिनेमा, अजायबघर, खेल-तमाशे आदिको तथा रत्नोंकी ढेरियों और सोने-चाँदीके नाना प्रकारके सिक्कोंको एवं और भी अनेक प्रकारके पहले कभी न देखे हुए पदार्थोंको देखने लगे। कितने ही लोग उनसे भी आगे बढ़कर पुष्पोंकी शय्यापर शयन करते हुए स्त्रियोंके साथ रमण करने लगे और कितने ही मनुष्य उनसे भी आगे बढ़कर ग्रामोफोन, रेडियो आदिके गाने सुनने लगे। इस प्रकार वे लोग बगीचेके ऐश, आराम, भोगोंमें फँसकर राजाके दर्शनसे निराश हो गये और अज्ञानवश यही सोचने लगे कि हमलोगोंको राजाके दर्शन कहाँ! उनमेंसे कोई एक जो विरक्त पुरुष थे, जिनके मन-इन्द्रिय वशमें थे, वे उन ऐश, आराम, स्वाद, शौकीनीका तिरस्कार करके महाराजके पास जा पहुँचे और उनको महाराज साहेबने युवराजपद दे दिया।

प्रबन्धकर्ताकी ओरसे उस बगीचेमें बहुत-से सिपाही घूमा करते थे। वे जिस मनुष्यका समय पूरा हो जाता था, उसकी टिकट लेकर उसे बगीचेसे बाहर कर देते थे। परंतु जो भाई पुष्पोंकी सुगन्ध लेता हुआ हवाखोरी करता है, वह कहता है—‘थोड़ी देर हमको और रहने दो।’ किंतु सिपाही तैनात किये हुए थे। कोई भी आदमी एक मिनट भी अधिक कैसे रह सकता है। सिपाही उसे धक्का देकर बलपूर्वक बाहर निकाल देते हैं। जो मेवा और मधुर फल तोड़-तोड़कर खा रहे हैं, वे सिपाहियोंसे कहने लगे कि ‘भैया! हमको दो मिनट और रहने दो। हमने जो मेवा और मधुर फल तोड़े हैं, उनकी गठरी तो बाँध लें।’ सिपाहियोंने कहा—‘यहाँसे कोई कुछ भी बाँधकर नहीं ले जा सकता। जो कुछ तुमने खा लिया, वही तुम्हारा है।’ ऐसा कहकर उनकी गठरी-मुटरी छीन लेते हैं और उन्हें धक्का देकर बाहर निकाल देते हैं। जो खेल-तमाशा, सिनेमा आदि देख रहे हैं, वे तो वहाँसे उठना ही नहीं चाहते; किंतु वहाँ कोई भी एक मिनट भी अधिक रह ही कैसे सकता है? सिपाही उनको धक्के मार-मारकर बलपूर्वक बाहर निकालने लगे। कितनोंने तो रुपया, मुहर और रत्नोंकी गठरी बाँध ली। सिपाहियोंने पूछा—‘यह क्या है और तुमने यह गठरी क्यों बाँधी है?’ उन्होंने उत्तर दिया कि इनमें रुपये, मुहर तथा रत्न हैं, हम इनको अपने साथ ले जायँगे। सिपाही लोग उन्हें डंडे मारने लगे और कहने लगे—‘मूर्खो! इनका तुम केवल दर्शन ही कर सकते हो, यहाँसे कोई भी आदमी एक पाई भी अपने साथ नहीं ले जा सकता।’ उन लोगोंको बाँधी हुई गठरी छोड़नेमें बड़ा दु:ख होता था; पर उपाय ही क्या, बाध्य होकर छोड़ना पड़ा। जो लोग पुष्पोंकी शय्यापर सोकर स्त्रियोंके साथ रमण कर रहे थे, वे तो किसी प्रकार भी बाहर नहीं होना चाहते थे; पर बिना कानून कोई एक क्षण भी वहाँ कैसे रह सकता? सिपाहियोंने उनको भी अवधि समाप्त होते ही डंडे मारकर निकाल बाहर किया और जो ग्रामोफोन, रेडियो आदि सुन रहे थे, उनको तो कुछ पता ही नहीं रहा कि कितना काल बीत गया है। सिपाहियोंने उनकी टिकटोंका नंबर देखकर कहा कि ‘चलो, तुम्हारा समय हो गया।’ सुननेवालोंने कहा, ‘अरे भाई! यह गाना तो पूरा सुन लेने दो।’ सिपाहियोंने कहा—‘तुम्हारा समय समाप्त हो गया है, तुम अब एक क्षण भी यहाँ नहीं रह सकते।’ ऐसा कहकर उनको भी डंडोंसे मारकर बलपूर्वक बगीचेसे बाहर ढकेल दिया।

यह एक कल्पित दृष्टान्त है। इसे दार्ष्टान्तरूपमें इस प्रकार समझना चाहिये कि चक्रवर्ती राजा यहाँ परमेश्वर हैं और उनका बगीचा ही यह संसार है। राजाकी घोषणा ही श्रुति-स्मृति आदि शास्त्र हैं। लोगोंका आना-जाना ही सर्ग है। बगीचेके लिये नियत किया हुआ दो घंटेका समय ही मनुष्यकी आयु है। राजाके दर्शनमें किसीके लिये रुकावट नहीं है, यही मनुष्यमात्रके लिये ईश्वरप्राप्तिमें स्वतन्त्रताकी घोषणा है। युवराजपद ही परम नि:श्रेयसकी प्राप्ति है। सुगम और सुलभ सड़कोंपर चलकर आधे मिनटमें मार्ग तय करना ही भक्ति आदि उच्चकोटिके सुगम साधनोंके द्वारा छ: महीनेमें ईश्वर-साक्षात्कारका रास्ता तय करना है। प्रबन्धकर्ता धर्मराज हैं। टिकट देना ही आयु देना है। टिकटकी नकल अपने पास रखना ही आयुका हिसाब रखना है। बगीचेमें प्रवेश करना और वापस बाहर जाना ही मनुष्यका जन्मना-मरना है। बगीचेमें प्रवेश करके जो पुष्पादिकी सुगन्ध लेते हुए हवा खाना है, यही यहाँ नासिका-इन्द्रियके वशीभूत हुए मनुष्योंका पुष्पमाला, इत्र, फुलेल, लवेंडर आदिकी सुगन्धमें अपना समय बरबाद करना है। बगीचेमें जो मेवा और मधुर फलोंका खाना है, वही यहाँ जिह्वा-इन्द्रियोंके वशीभूत हुए मनुष्योंका भोजनादिके रसास्वादमें समय व्यय करना है। बगीचेमें खेल-तमाशे आदिको देखना ही यहाँ नेत्र-इन्द्रियके वशीभूत हुए मनुष्योंका नाशवान् क्षणभंगुर आश्चर्यमय पदार्थोंको देखकर अपने अमूल्य समयको नष्ट करना है। बगीचेमें स्त्रियोंके साथ पुष्पोंकी शय्यापर रमण करना आदि ही यहाँ स्पर्श-इन्द्रियके वशीभूत हुए मनुष्योंका स्पर्शादिके द्वारा स्पर्श करनेयोग्य नाशवान् क्षणभंगुर पदार्थोंका उपभोग करके अपने जीवनको खतरेमें डालना है। बगीचेमें ग्रामोफोन, रेडियो आदिका सुनना ही यहाँ कर्णेन्द्रियके वशीभूत हुए मनुष्योंका रसकी बातोंको सुनकर अपने जीवनके अमूल्य समयको बेकार नष्ट करना है। राजाके दर्शनसे निराश होना ही यहाँ परमात्माकी प्राप्तिमें श्रद्धाकी कमीके कारण होनेवाली साधनविषयक अकर्मण्यता है। बगीचेमें सीधे ही राजाके निकट जानेवाला जो मन-इन्द्रियोंका संयमी विरक्त पुरुष है, वही यहाँ परम साक्षात्काररूप सिद्धि प्राप्त करनेयोग्य उच्चकोटिका साधक है। बगीचेमें राजाका दर्शन करना ही भगवत्साक्षात्कार और युवराजपद ही परमपदकी प्राप्ति है। बगीचेमें घूमनेवाले प्रबन्धकर्ताके सिपाही ही इस संसारमें धर्मराजके दूत हैं। टिकटकी अवधिका शेष होना ही यहाँ मनुष्यकी आयुकी समाप्ति है। बगीचेसे लोगोंको बाहर कर देना ही यहाँ मनुष्योंको यमराजके हवाले कर देना है। बगीचेमें फलोंकी और रुपयोंकी गठरी बाँधना ही यहाँ मरनेके समय अज्ञान और स्नेहके कारण धन आदि पदार्थोंका संग्रह करना है। इच्छा न होनेपर भी उनको सिपाहियोंका डंडे और धक्के मारकर बलपूर्वक बाहर निकाल देना ही यहाँ मरनेकी इच्छा न होनेपर भी यमदूतोंका बलात् यन्त्रणा देते हुए यमके द्वार ले जाना है। बगीचेसे मेवा-फल, रुपये आदि कोई भी पदार्थ साथमें नहीं ले जा सकना ही इस संसारके मेवा-मिष्टान्न, धन, स्त्री-पुत्र आदि पदार्थोंको यहीं छोड़कर जाना है; क्योंकि इस संसारकी कोई भी किंचिन्मात्र भी वस्तु किसी भी प्रकार न तो आजके पहले किसीके साथ गयी और न जा सकती है। इसलिये इन नाशवान् क्षणभंगुर पदार्थोंसे और विषयोंसे वैराग्यपूर्वक मन-इन्द्रियोंको हटाकर परमात्मामें लगाना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur