सांख्ययोग और कर्मयोग
गीता अध्याय ५ श्लोक ५में भगवान् कहते हैं—
यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥
‘ज्ञानयोगियोंद्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है निष्काम कर्मयोगियोंद्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है, इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोगको एक देखता है वही यथार्थ देखता है।’ परन्तु इस विषयमें यह शंका होती है कि यहाँ भगवान् सांख्य और योगके फलको एक कहते हैं या दोनोंका सिद्धान्त ही एक बतलाते हैं। यदि फल एक कहते हैं तो सिद्धान्त भिन्न-भिन्न होनेसे फल एक कैसे हो सकता है और यदि दोनोंका सिद्धान्त ही एक कहा जाय तो उचित नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि योग और सांख्यके सिद्धान्तमें परस्पर बड़ा अन्तर है।
योगके सिद्धान्तमें फलासक्तिको त्यागकर मनुष्य ईश्वरके लिये कर्म करता है तो भी उसमें कर्तापनका अभिमान रहता है।
सांख्यके सिद्धान्तसे कर्मका कर्ता मनुष्य नहीं है, उसके द्वारा कर्म होते हैं तो भी उन कर्मोंमें उस पुरुषका अभिमान नहीं रहता, वह तो केवल साक्षीमात्र ही रहता है।
कर्मयोगी अपनेको, ईश्वरको तथा कार्यसहित प्रकृतिको पृथक्-पृथक् तीन सत्य पदार्थ मानता है; परन्तु सांख्ययोगी ईश्वरकी सत्ताको अपनेसे अलग नहीं मानता, केवल एक आत्मसत्ता ही है ऐसे मानता है तथा विकारसहित प्रकृतिको अन्तवन्त यानी नाशवान् मानता है। अतएव दोनोंका सिद्धान्त भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, फिर सांख्य और योगको यहाँ किस विषयमें एक बतलाया गया है?
उपर्युक्त शंकाका उत्तर यह है—
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥
(गीता ५। ४)
‘सांख्य और योग इन दोनोंमेंसे एकमें भी अच्छी प्रकारसे स्थित हुआ पुरुष दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त होता है।’ परमात्माकी प्राप्तिरूप फल दोनोंका एक ही है। परमधाम, परमपद और परमगतिकी प्राप्ति भी इसीको कहते हैं।
इससे यह बात सिद्ध हुई कि सांख्य और योग इन दोनों साधनोंका फल एक होनेके कारण इन्हें एक कहा है। फल एक होनेसे सिद्धान्त भी एक ही होना चाहिये, यह ठीक है परन्तु यह कोई नियम नहीं है। मार्ग (साधन) और लक्ष्य भिन्न-भिन्न भी हो सकते हैं।
जैसे एक ही ग्रामको जानेके लिये अनेक रास्ते होते हैं, किसी रास्तेसे जाइये, परिणाम सबका एक ही होता है। जैसे किसी एक देश (अमेरिका)-को जानेवालोंमें एक तो अपनी दिशा (भारतवर्ष)-से पश्चिम-ही-पश्चिम जाता है और दूसरा पूर्व-ही-पूर्व जाता है; किन्तु चलते-चलते अन्तमें दोनों ही वहाँ पहुँच जाते हैं। रास्ता भिन्न-भिन्न होनेके कारण परस्पर एकसे दूसरेका बड़ा अन्तर मालूम होता है; परन्तु उस देशमें पहुँचनेपर वह अन्तर नहीं रहता।
इस प्रकार एक ग्रामको जानेके लिये जैसे अनेक मार्ग होते हैं, वैसे ही एक कार्यकी सिद्धिके लिये साधन भी अनेक हो सकते हैं।
जैसे सूर्य और चन्द्रग्रहणको सिद्ध करनेवाले पुरुषोंमें एक पक्ष तो कहता है कि पृथ्वी स्थिर है, सूर्य और चन्द्रमा चलते हैं और दूसरा कहता है कि पृथ्वी भी चलती है। दोनोंका मत भिन्न-भिन्न होनेके कारण एकसे दूसरेका बड़ा अन्तर है, किन्तु फल दोनोंका एक होता है।
इसलिये साधन और मतकी अत्यन्त भिन्नता होनेपर भी दोनोंका उद्देश्य और परिणाम एक ईश्वरकी प्राप्ति होनेसे वह एक ही है।
अब सांख्य१ और कर्मयोग२ की एकताके विषयमें लिखा जाता है। उपासना दोनों ही साधनोंमें रहती है। उपासनारहित ज्ञान और कर्मयोग वैसे ही शुष्क हैं, जैसे बिना जलके नदी।
१-२. गीतोक्त सांख्य और कर्मयोगको महर्षि कपिलप्रणीत सांख्यदर्शनसे तथा महर्षि पतंजलिप्रणीत योगदर्शनसे भिन्न समझना चाहिये।
गीताके अनुसार सांख्ययोगीकी निष्ठामें विज्ञानानन्दघन केवल एक आत्मतत्त्व ही अनादि, नित्य और सत्य है। उस विज्ञानानन्दघनके संकल्पके आधारपर एक अंशमें संसारकी प्रतीति होती है जैसे निर्मल आकाशके किसी एक अंशमें बादलकी। इसलिये सांख्ययोगी विशुद्ध बुद्धिसे युक्त होकर शोक, भय, राग-द्वेष, ममता, अहंकार और परिग्रहसे रहित हुआ पवित्र और एकान्तदेशका सेवन करता है एवं मन, वाणी तथा शरीरको वशमें किये हुए, सम्पूर्ण भूतोंमें समभाव होकर आत्मतत्त्वका विवेचन करता हुआ प्रशान्त-चित्तसे परमात्माके स्वरूपका एकीभावसे इस प्रकार ध्यान करता है कि एक आनन्दघन विज्ञानस्वरूप पूर्णब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है। उससे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उस ब्रह्मका ज्ञान भी उस ब्रह्मको ही है। वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है, उसका कभी अभाव नहीं होता। इसलिये उसे सत्य, सनातन और नित्य कहते हैं। वह सीमारहित, अपार और अनन्त है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, द्रष्टा, दृश्य, दर्शन आदि जो भी कुछ है, सब ब्रह्मस्वरूप ही है। वास्तवमें एक पूर्णब्रह्म परमात्माके सिवा अन्य कोई भी वस्तु नहीं है।
वह विज्ञानानन्दघन परमात्मा ‘पूर्ण-आनन्द’ ‘अपार-आनन्द’ ‘शान्त-आनन्द’ ‘घन-आनन्द’ ‘बोधस्वरूप-आनन्द’ ‘ज्ञानस्वरूप-आनन्द’ ‘परम-आनन्द’ ‘नित्य-आनन्द’ ‘सत्-आनन्द’ ‘चेतन-आनन्द’ ‘आनन्द-ही-आनन्द’ है। एक ‘आनन्द’ के सिवा और कुछ भी नहीं है। इस प्रकार मनन करते-करते जब मनके समस्त संकल्प उस परमात्मामें विलीन हो जाते हैं, जब एक बोधस्वरूप, आनन्दघन परमात्माके सिवा अन्य किसीके भी अस्तित्वका संकल्प ही नहीं रहता, तब उसकी स्थिति उस आनन्दमय अचिन्त्य परमात्मामें निश्चल हो जाती है। इस प्रकारसे ध्यानका नित्य नियमपूर्वक अभ्यास करते-करते साधन परिपक्व होनेपर जब साधकके ज्ञानमें उसकी अपनी तथा इस संसारकी सत्ता ब्रह्मसे भिन्न नहीं रहती, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय सभी कुछ एक विज्ञानानन्दघन ब्रह्मस्वरूप बन जाते हैं, तब वह कृतार्थ हो जाता है।
सांख्ययोगी व्यवहारकालमें चौबीस तत्त्वोंवाले* क्षेत्रको जड़, विकारी, नाशवान् और अनित्य समझता है और सम्पूर्ण क्रिया—कर्मोंको प्रकृतिके कार्यरूप उस क्षेत्रसे ही किये हुए समझता है अर्थात् इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थोंमें बर्त रही हैं इस प्रकार समझता है।
* महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचरा:॥
(गीता १३। ५)
पाँच महाभूत अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीका सूक्ष्मभाव; अहंकार, बुद्धि और मूल-प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया भी तथा दस इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा, एक मन और पाँच इन्द्रियोंके विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध।
एवं नित्य, चेतन, अविनाशी आत्माको निर्विकार, अकर्ता तथा शरीरसे विलक्षण समझता है। यों समझकर वह सांख्ययोगी मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर कर्म करता हुआ भी कर्मोंद्वारा नहीं बँधता।
वह सम्पूर्ण भूतोंके पृथक्-पृथक् भावको केवल एक परमात्माके संकल्पके आधार स्थित देखता है और उस परमात्माके संकल्पसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्तिके विस्तारको देखता है। इस प्रकार अभ्यास करते-करते अभ्यासके परिपक्व होनेसे वह ब्रह्मको एकीभावसे प्राप्त हो जाता है। यानी वह उस ब्रह्मको तद्रूपतासे प्राप्त हो जाता है। जैसे गीतामें भगवान् ने कहा है—
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:॥
(५। १७)
‘हे अर्जुन! तद्रूप है बुद्धि जिनकी, तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही है निरन्तर एकीभावसे स्थिति जिनकी ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञानद्वारा पापरहित हुए अपुनरावृत्तिको अर्थात् परमगतिको प्राप्त होते हैं।’
ब्रह्मको प्राप्त होनेके बाद पुरुषकी जो स्थिति होती है, उसके विषयमें कुछ भी लिखना वस्तुत: बड़ा ही कठिन है। तथापि साधु, महात्मा और शास्त्रोंके द्वारा यत्किंचित् जो कुछ समझमें आया है, वह पाठकोंकी जानकारीके लिये लिखा जाता है, त्रुटियोंके लिये विज्ञजन क्षमा करें।
जैसे मनुष्य, बादलोंके पृथक्-पृथक् विकारके कारण, प्रतीत होनेवाले पृथक्-पृथक् आकाशके खण्डोंको बादलोंके नाश हो जानेपर उस एक अनन्त निर्मल महाकाशके अन्तर्गत ही देखता है अर्थात् केवल एक अनन्त निर्मल आकाशके अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखता, वैसे ही ज्ञानी महात्मा मायासे उत्पन्न हुए शरीरोंके पृथक्-पृथक् विकारके कारण (अज्ञानसे) प्रतीत होनेवाले भूतों (जीवों)-के पृथक्-पृथक् भावोंको अज्ञानके नाश हो जानेपर उन जीवोंकी नाना सत्ताको केवल उस एक अनन्त, नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्माके अन्तर्गत ही देखता है अर्थात् वह केवल एक विशुद्ध, नित्य, विज्ञानानन्दघन ब्रह्मके सिवा और कुछ भी नहीं देखता। यद्यपि उस ज्ञानीके लिये संसारका अत्यन्त अभाव हो जाता है तो भी प्रारब्धके कारण उसके अन्त:करणमें संसारकी प्रतीतिमात्र होती भी है।
जैसे स्वप्नसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नकी सृष्टिका उपादान-कारण और निमित्त-कारण अपने-आपको ही देखता है, वैसे ही वह सम्पूर्ण चराचर भूतप्राणियोंका उपादान-कारण१ और निमित्त-कारण२ केवल विज्ञानानन्दघन ब्रह्मको ही देखता है; क्योंकि जब एक विज्ञानानन्दघन ब्रह्मके अतिरिक्त कोई वस्तु ही नहीं रहती, तब वह उस ब्रह्मसे भिन्न किसको कैसे देखे? यही उस परमात्माके स्वरूपकी प्राप्ति है।
१-उपादान-कारण उसे कहते हैं, जिससे कार्यकी उत्पत्ति होती है। जैसे घड़ेका उपादान-कारण मिट्टी और आभूषणोंका सुवर्ण है।
२-निमित्त-कारण उसे कहते हैं जिसके द्वारा वस्तुका निर्माण होता है। जैसे घड़ेका निमित्त-कारण कुम्हार और आभूषणोंका सुनार।
इसीको परमपद, परमधाम और परमगतिकी प्राप्ति भी कहते हैं।
गीताके अनुसार कर्मयोगकी निष्ठामें प्रकृति यानी माया, जीवात्मा और परमेश्वर यह तीन पदार्थ माने गये हैं। सातवें अध्यायमें भगवान् ने मायाके विस्तारको अपरा प्रकृति, जीवात्माको परा और परमेश्वरको अहंके नामसे वर्णन किया है। पंद्रहवें अध्यायमें इन्हीं तीनों पदार्थोंको क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तमके नामसे कहा है। वे सर्वशक्तिमान् सबके कर्ता-हर्ता, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी परमेश्वर उस नित्य विज्ञानानन्दघन ब्रह्मकी प्रतिष्ठा हैं३ यानी विज्ञानानन्दघन ब्रह्म भी वही हैं।
३-ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च। शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥ (गीता १४। २७)
उन्होंने ही अपनी योगमायाके एक अंशसे सम्पूर्ण संसारको अपनेमें धारण कर रखा है।४
४-विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥ (गीता १०। ४२)
माया ईश्वरकी शक्ति है तथा जड़, अनित्य और विकारी है एवं ईश्वरके अधीन है तथा जीवात्मा भी ईश्वरका अंश होनेके कारण नित्य विज्ञानानन्दघनस्वरूप है।५
५- ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। (गीता १५। ७)
इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी॥
किन्तु मायामें स्थित होनेके कारण परवश हुआ वह गुण और कर्मोंके अनुसार सुख-दु:खादिको भोगता एवं जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है। परन्तु परमात्माकी शरण होनेसे वह मायासे छुटकारा पाकर परमपदको प्राप्त हो सकता है। गीता अध्याय ७ श्लोक १४ में कहा है—
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
‘क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है; परन्तु जो पुरुष मुझको ही निरन्तर भजते हैं, यानी मेरी शरण आ जाते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।’
इसलिये कर्मयोगी पवित्र और एकान्त स्थानमें स्थित होकर भी शरीर, इन्द्रिय और मनको स्वाधीन किये हुए परमात्माकी शरण हुआ प्रशान्त और एकाग्र मनसे श्रद्धा और प्रेमपूर्वक परमात्माका ध्यान करता है, ऐसे योगीकी भगवान् ने स्वयं प्रशंसा की है—
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
(गीता ६। ४७)
‘सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मासे मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।’
व्यवहारकालमें कर्मयोगी कर्मोंके फल और आसक्तिको त्यागकर समत्वबुद्धिसे भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ कर्म करता है, इसलिये उसको कर्म नहीं बाँध सकते। क्योंकि राग-द्वेष ही बाँधनेवाले हैं। समत्वबुद्धि होनेसे राग-द्वेषका नाश हो जाता है। इसलिये उसको कर्म नहीं बाँध सकते। ऐसे योगीकी प्रशंसा करते हुए स्वयं भगवान् कहते हैं कि ‘उसको नित्य-संन्यासी जानना चाहिये।’
ज्ञेय: स नित्य संन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥
(गीता ५। ३)
‘हे अर्जुन! जो पुरुष न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है, वह निष्काम कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक संसाररूप बन्धनसे मुक्त हो जाता है।’
भगवत्की आज्ञासे भगवदर्थ कर्म किये जानेके कारण उसमें कर्तापनका अभिमान भी निरभिमानके समान ही है। इसलिये वह निष्काम कर्मयोगी व्यवहारकालमें भगवान् की शरण होकर निरन्तर भगवान् को याद रखता हुआ भगवान् के आज्ञानुसार सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान् की प्रीतिके लिये ही करता है, जैसे गीता अध्याय १८ श्लोक ५६-५७ में भगवान् ने कहा है—
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय:।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
‘मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है।’
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥
‘इसलिये हे अर्जुन! तू सब कर्मोंको मनसे मेरे अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्व-बुद्धिरूप निष्काम कर्मयोगको अवलम्बन करके निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो।’
इस प्रकार अभ्यास करते-करते जब भगवान् की कृपासे उनके प्रभावको समझ जाता है तब वह सब प्रकारसे नित्य-निरन्तर भगवान् वासुदेवको ही भजता है। जैसे गीतामें कहा है—
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(१५। १९)
‘हे भारत! इस प्रकार तत्त्वसे जो ज्ञानी पुरुष मेरेको पुरुषोत्तम जानता है वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।’
फिर उसको भजनके प्रभावसे सर्वत्र एक वासुदेव ही दीखता है। इसलिये वह वासुदेवसे कभी अलग नहीं हो सकता।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६। ३०)
‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’
इससे वह भगवान् वासुदेवको ही प्राप्त हो जाता है और उसके लिये यह सम्पूर्ण संसार भी वासुदेवके रूपमें परिणत हो जाता है। एक वासुदेवके सिवा कोई भी वस्तु नहीं रहती। वहाँ मायाका अत्यन्त अभाव हो जाता है।
भक्ति, भक्त, भगवन्त सब एक ही रूपमें परिणत हो जाते हैं। इसलिये इस भक्तकी भगवान् से कोई अलग सत्ता नहीं रहती। तद्रूपतासे उस परमात्माके स्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है।
यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
इन शब्दोंसे जो सांख्ययोगके द्वारा साधन करनेवाले ज्ञानीको प्राप्त होनेयोग्य परमधाम बतलाया गया है, भगवान् की कृपासे वही परमधाम निष्काम कर्मयोगके साधन करनेवाले भक्तको प्राप्त होता है।
उसी महात्माकी प्रशंसा करते हुए भगवान् कहते हैं—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
‘जो बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेवके सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।’
परन्तु कोई-कोई भक्त अविद्याके नाश होनेपर भी भगवान् के रहस्यको जानता हुआ प्रेमके सामने मुक्तिको तुच्छ समझता है और वह भगवान् को सेव्य और अपनेको सेवक या सखा समझकर भगवान् के प्रेमरसका पान करता है, उसके लिये भगवान् की माया लीलाके रूपमें परिणत हो जाती है। इसलिये वह पुरुष भगवान् में तद्रूपताको न प्राप्त होकर भगवान् की कृपासे दिव्य देहको धारण करके अर्चिमार्गके द्वारा स्थान-विशेष भगवान् के परम दिव्य नित्यधामको प्राप्त होता है, वहाँ उस लीलामय भगवान् के साथ लीला करता हुआ नित्य प्रेममय अमृतका पान करता है; फिर दु:खके आलय इस अनित्य पुनर्जन्मको वह प्राप्त नहीं होता।
साधनकी परिपक्व अवस्था होनेसे दोनोंके ही राग-द्वेष, अहंता-ममता, भय एवं अज्ञान आदि विकार नाश हो जाते हैं और वे तेज, क्षमा, धृति, शौच, सन्तोष, समता, शान्ति, सत्यता और दया आदि गुणोंसे सम्पन्न हो जाते हैं।
सांख्ययोगीका कर्मोंमें कर्तृत्व-अभिमान न रहनेके कारण कर्मोंसे सम्बन्ध नहीं रहता और कर्मयोगी फलासक्तिको त्यागकर कर्मोंको ईश्वर-अर्पण कर देता है, इसलिये उसका कर्मोंसे सम्बन्ध नहीं रहता। सांख्ययोगी संसारका बाध करके विज्ञानानन्दघन परमात्माके स्वरूपकी स्थापना करता है और निष्काम कर्मयोगी प्रकृतिसहित संसारको और अपने-आपको भी परमात्माके स्वरूपमें परिणत कर देता है। फलत: बात एक ही है। इसीलिये भगवान् ने सांख्य और योगको फलमें एकता होनेके कारण एक कहा है।
उपसंहार
परमात्माकी प्राप्तिका यह विषय इतना गहन है कि इसे लिखकर समझाना असम्भव है; क्योंकि यह वाणीका विषय ही नहीं है। यह परम गोपनीय रहस्य है और सम्पूर्ण साधनोंका फल है। जो इसको प्राप्त होता है वही इसको जानता है परन्तु इस प्रकार भी कहना नहीं बनता। जो भी कुछ कहा जाता है या समझा जाता है उससे वह विलक्षण ही रह जाता है। जाननेवाले ही उसको जानते हैं और जाननेवालोंसे ही जाना जा सकता है। अतएव जाननेवालोंसे जानना चाहिये। श्रुति कहती है—
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
(कठ० १। ३। १४)
‘उठो, जागो और महापुरुषोंके समीप जाकर उनके द्वारा तत्त्वज्ञानके रहस्यको समझो। कविगण इसे क्षुरके तीक्ष्ण धारके समान अत्यन्त कठिन मार्ग बतलाते हैं।’ परन्तु कठिन मानकर हताश होनेकी कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि भगवान् में चित्त लगानेसे मनुष्य सारी कठिनाइयोंसे अनायास ही तर जाता है। गीतामें भगवान् ने कहा है—
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(८। १४)
‘हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्य-चित्तसे स्थित हुआ सदा ही निरन्तर मुझको स्मरण करता है, उस निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ। यानी सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’
किन्तु बिना प्रेमके निरन्तर चिन्तन नहीं होता और बिना श्रद्धा प्रेम होना कठिन है तथा वह श्रद्धा महान् पुरुषोंके द्वारा भगवान् के गुण, प्रेम, प्रभाव और रहस्यको समझनेसे होती है।
इसलिये महान् पुरुषोंका संग करके* परमेश्वरमें श्रद्धा और प्रेम बढ़ाना चाहिये।
* संसारमें जो सबसे उत्तम सदाचारी, त्यागी, ज्ञानी, महात्मा दीखें, उन्हींके पास जाकर उनके आज्ञानुसार साधनमें तत्परताके साथ लगना संग करना है।
जिनकी परमेश्वरमें श्रद्धा और प्रीति नहीं है उन्हींके लिये सब कठिनाइयाँ हैं।