Seeker of Truth

समता अमृत और विषमता विष है

राजपूतानेके किसी गाँवमें एक अत्यन्त गरीब वैश्य रहता था। दैवयोगसे वहाँ एक बार भयानक अकाल पड़ा। अन्नके अभावमें लोग तड़प-तड़पकर मरने लगे। गरीब वैश्यपर भी विपत्ति टूट पड़ी। कुछ दिन तो उसने जैसे-तैसे काम चलाया। आखिर परिवारके भरण-पोषणका कोई उपाय न देख, घरवालोंकी कुछ दिनोंके लिये किसी तरह व्यवस्था कर वह निकल पड़ा। उसका एक बचपनका धर्म-मित्र था। वह आसाममें व्यापार करता था। खूब सम्पन्न था। उसका बड़ा व्यापार चलता था। गरीब वैश्यको उसकी याद आ गयी और ‘बिपति काल कर सतगुन नेहा’ मित्रका यह लक्षण सोचकर वह किसी तरह आसाम पहुँचा। जिस स्थानमें मित्रका कारबार था, वहाँ जाकर उसने मित्रसे भेंट की। उसे पूरा भरोसा था कि मित्रके यहाँ सहज ही आदर होगा और दु:खके दिन अच्छी तरह कट जायँगे। मित्रने उसका स्वागत किया; पर उसके चेहरेपर प्रफुल्लताकी जगह कुछ झुँझलाहटकी-सी, कुछ बोझकी-सी रेखाएँ पड़ रही थीं। गरीब वैश्य तो दु:खी था। उसने संक्षेपमें बड़े ही करुण शब्दोंमें अपना सारा किस्सा सुनाकर आश्रयकी भीख माँगी। कहा—‘भाई साहेब! घरमें आपकी भाभी और बच्चे भूखों मर रहे होंगे, उनके लिये आज ही कुछ खर्च भेजना आवश्यक है। साथ ही मेरे लिये भी ऐसे कामका प्रबन्ध होना चाहिये, जिसमें मेरे ये दु:खके दिन निकल जायँ और बच्चोंको प्रतिमास कुछ भेजा जा सके।’

धनी मित्रने लंबी साँस खींचकर कहा—‘भाई साहेब! बात तो ठीक है। मुझे इस समय आपकी कुछ सेवा करनी भी चाहिये, परंतु मेरे यहाँ न तो इतनी आमदनी है कि मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ और न आजकल कोई काम ही है, जो आपको दे सकूँ। मूल पूँजीके ब्याजसे, मकानोंके किरायेसे और व्यापारकी आमदनीसे कुल मिलाकर चालीस-पचास हजार रुपये आते होंगे। आप जानते हैं, आजकल महँगी है, फिर अपनी इज्जतके अनुसार खर्च भी करना ही पड़ता है। परिवार है, मुनीम-गुमाश्ते हैं। मुश्किलसे काम चलता है। फिर बताइये, आपका और आपके परिवारका भरण-पोषण करनेकी मुझमें कहाँ शक्ति है? मुझे खेद है, पर बाध्य होकर कहना ही पड़ता है कि मुझसे इस समय कुछ भी नहीं बन पड़ेगा। आप कोई दूसरा रास्ता सोचें।’

गरीब वैश्यने उदास होकर कहा—‘भाई साहेब! मैं तो यहाँ किसीको जानता भी नहीं, केवल आपके ही भरोसे आया हूँ। फिर मेरा खर्च ही कौन-सा भारी है। पचास रुपये इस समय राजपूताने भेज दिये जायँ और फिर पचास-साठ रुपये मासिककी मजदूरीका काम मुझे मिल जाय तो काम चल जायगा। कुछ मेरे खर्चमें लग जायगा, बचेगा सो बाल-बच्चोंके लिये भेज दूँगा। जहाँ पचासों हजारकी आमदनी है, वहाँ इतना-सा खर्च आपको भारी नहीं मालूम होना चाहिये। फिर मैं तो काम करके मजदूरीके पैसे लेना चाहता हूँ।’ यों कहते-कहते उसकी आँखोंमें आँसू छलक आये। मित्रके निराशाजनक वचनोंसे उसे बड़ा सन्ताप हो रहा था। धनी मित्रने उसके चेहरेकी ओर देखा, पर उसका हृदय नहीं पसीजा। उसने फिर कपट-विनयके साथ वही कहा—‘भाई साहेब! आपका कहना तो यथार्थ है, पर मैं लाचार हूँ। आपको कोई दूसरा उपाय ही सोचना पड़ेगा। हाँ, दो-चार दिन जबतक आपके कामकी कोई व्यवस्था न हो, आप यहाँ ठहर जायँ। घरमें ही खायें-पीयें। अभी शौच-स्नान करें। भोजन तैयार हो गया होगा।’ इतना कहकर धनी मित्र अपने काममें लग गया। गरीब वैश्य बेचारा मन-ही-मन जाने क्या-क्या विचार करता हुआ शौच-स्नानमें लगा।

धनी मित्रका तो रूखा और कंजूस स्वभाव था ही, उसकी पत्नी उससे भी बढ़कर थी। उसे कोई दूसरा सुहाता ही नहीं था। पति तो सभ्यतावश कहीं-कहीं कुछ सह भी लेता था; परंतु पत्नी तो पतिको भी फटकार देती थी। घरपर आये हुए बचपनके परिचित मित्रको सभ्यतावश भोजन करवाना ही होगा। उसने अंदर जाकर पत्नीसे कहा—‘राजपूतानेसे मेरे एक पुराने धर्ममित्र आये हैं। उन्हें भोजन कराना है। जहाँतक हो सके, उनके लिये अच्छी चीजें बनाकर आदरपूर्वक खिलाना चाहिये। मित्र हैं, फिर अतिथि हैं।’ परम्परासे अतिथिसत्कारकी बात सुनी हुई थी; पत्नी झुँझला न उठे, इसलिये उसने यह दलील भी सामने रख दी। किंतु उसपर इसका क्या प्रभाव पड़ता। उसने तड़ककर कहा—‘भाड़में जायँ आपके ये मित्र और अतिथि; चूल्हा फूँकते-फूँकते मेरी तो आँखें फूटने लगीं। आज मित्र, कल अतिथि, परसों व्यापारी—रोज एक-न-एक आफत लगी ही रहती है। मैं तो तंग आ गयी इस गृहस्थीसे। मुझसे यह सब नहीं होगा, अपना दूसरा प्रबन्ध कीजिये।’ पतिने सकुचाकर चुपके-से कहा—‘अरी! जरा धीरे तो बोलो, वे बाहर ही खड़े हैं, सुन लेंगे तो उन्हें बड़ा दु:ख होगा।’ उसने झल्लाकर कहा—‘तो और भी अच्छा होगा, जल्दी बला टलेगी।’ पतिने उसकी कुछ बड़ाई करके किसी तरह मनाकर कहा—‘देखो! मैंने पहले ही उनसे कह दिया है कि मेरे पास काम नहीं है, आप दूसरा उपाय सोचिये; दो-चार दिनोंमें वे चले जायँगे। इतने दिन किसी तरह अपनी इज्जतके अनुसार उनको भोजन तो कराना ही चाहिये।’ पत्नीने बात मान ली और भोजन बनाया; परंतु मनमें कष्ट तो बना ही रहा। अस्तु,

भोजन तैयार होनेपर गरीब अतिथिको साथ लेकर धनी मित्र अंदर आया तो पत्नीने कहा—‘पहले अपने मित्रको भोजन करा दीजिये, क्योंकि अतिथिको पहले भोजन कराना धर्म है, पीछे आप कर लीजियेगा।’ पतिने यह बात मान ली और अतिथिको अच्छी तरह भोजन कराया गया। भोजनमें चीनी डाली हुई बढ़िया खीर, पूरी, दही और कई तरहकी तरकारियाँ थीं; परंतु भोजन करानेवालोंके चेहरेपर कोई उल्लास या मिठास नहीं था। वहाँ प्रत्यक्ष रूखापन तथा विषाद था। मालूम होता था वे किसी आफतमें आ पड़े हैं और उन्हें बिना मन यह सब करना पड़ रहा है। गरीब अतिथिने चुपचाप भोजन तो कर लिया, परंतु उनकी मुखमुद्रा देखकर उसे सुख नहीं मिला। सुख तो प्रेममें ही समाया होता है। भोजन करनेके बाद वह लघुशंकाके लिये बाहर गया, इधर घरकी मालकिनने अपने पतिके लिये भोजन परोसा। इसमें बहुत-सी ऐसी चीजें थीं, जो अतिथिसे छिपाकर रखी गयी थीं। वह बेचारा लघुशंका करके अंदर हाथ धोने आया और इच्छा न रहनेपर भी सहज ही धनी मित्रकी भोजनकी थालीकी ओर उसकी दृष्टि चली गयी। उसने देखा, बादामका हलवा है। एक कटोरेमें खीरकी मलाई और दूसरेमें दहीकी मलाई है। बहुत बढ़िया खूब फूले हुए पतले-पतले फुलके हैं, जिनपर ताजा मक्खन लगाया गया है। गोभी-परवलकी कई और तरकारियाँ तथा कई तरहके अचार रखे हैं। यह सब देखकर उसकी समझमें स्पष्ट यह बात आ गयी कि इसी विषमताके कारण मुझे इसके साथ भोजन नहीं कराया गया था। वैषम्यजनित सन्ताप और भी बढ़ गया और वह चुपचाप हाथ धोकर बाहर चला गया।

रात्रिका समय हुआ तो धनी मित्रने पत्नीसे पूछा—‘अतिथिके सोनेका प्रबन्ध कहाँ करना चाहिये?’ स्त्रीने झुँझलाकर कहा—‘मेरे सिरपर, भला यह भी कोई पूछनेकी बात है! जहाँ सुविधा हो, वहीं कर दिया जाय। घरमें आकर तो वह सोनेसे रहा।’ पतिने कहा—‘अच्छी बात है। बाहर गद्दीमें वे सो जायँगे; पर वहाँ मच्छर बहुत ज्यादा हैं, बेचारेको नींद नहीं आवेगी। दो दिनके लिये मछहरी दे दो तो अच्छा हो।’ उसने तड़ककर कहा—‘मेरे पास तो एक मछहरी है, आप लगा लें, या उसके मूँड़ मार दें।’ पत्नीके स्वभावको वह जानता था। अधिक बात बढ़ाना हितकर न समझकर चुपचाप बाहर चला आया और अतिथि मित्रसे कहने लगा—‘भाई साहेब! गद्दी-तकिये लगे ही हैं; आप यहीं सो जाइये। यहाँ सुविधा रहेगी।’ उस बेचारेने विनय-विनम्र शब्दोंमें स्वीकार किया। सेठ अंदर चले गये और वह वहीं सो गया। गरमीका मौसम था; मच्छर तो थे ही, गद्दी-तकियोंमें खटमलोंकी भी कमी नहीं थी। लेटते ही कतार-की-कतार निकलकर उन्होंने उसपर आक्रमण आरम्भ किया। खटमलोंको चुन-चुनकर फेंकने और मच्छरोंके उड़ानेमें ही रात बीत गयी। बेचारा घड़ीभर भी सुखकी नींद नहीं सो सका।

दूसरे दिन सबेरे वह घरसे निकलकर बाजारकी ओर गया। चौराहेपर पहुँचते ही उसे अपने गाँवका एक परिचित मनुष्य दिखायी दिया। उसने भी इनको देख लिया। वह बहुत गरीब था, पर था बड़ा सहृदय। देखते ही दौड़कर पास आया और बड़े प्रेम तथा उल्लाससे पूछने लगा—‘भाई साहेब! आप यहाँ कब आ गये? मुझे कोई खबर ही नहीं दी। आपको बड़ा कष्ट हुआ होगा। खबर होती तो स्टेशन चला आता। यहाँ पहुँचकर भी आपने कोई संदेशा नहीं भेजा। बताइये, आप ठहरे कहाँ हैं? चलिये, घरपर। मैं सामान लेता आऊँगा। मेरा बड़ा भाग्य है जो आपसे मिलना हो गया। विदेशोंमें भला घरके प्रेमी पुरुष कहाँ मिलते हैं?’

उसकी सच्चे प्रेमसे सनी हुई वाणी सुनकर गरीब बेचारेका हृदय द्रवित हो गया। उसे बड़ा आश्वासन मिला, मानो डूबतेको सहारा मिल गया। उसने अपने आनेका सारा कारण कह सुनाया और कहा कि ‘सामानमें तो मेरे पास एक धोती-गमछा, एक सतरंजी और लोटामात्र है। वह उन सेठजीके यहाँ रखा है।’ उस गरीब भाईने कहा—‘वे तो बहुत बड़े आदमी हैं। यदि आप मुझे अपना मानते हैं तो आपको अपने घरपर आ जाना चाहिये। घरमें आरामसे रहिये; जो कुछ रूखा-सूखा घरमें बनता है, आनन्दसे खाइये। मैं फुटकर चीजोंकी खरीद-बिक्रीका काम करता हूँ। दो रुपये रोज कमा लेता हूँ। अकेला हूँ। आप रहेंगे तो हमलोग दो हो जायँगे। दुगुना काम होगा तो आमदनी भी दो-ढाई गुनी होने लगेगी। मेहनत और सचाईका काम है। जितना मेहनत, उतनी बरकत। पचास रुपये मासिक तो आप घर भेज ही देंगे। अधिकके लिये भी कोशिश की जायगी। आप घबरायें नहीं। भगवान् गरीबोंकी सुनेगा ही। पचास रुपये तो मेरे पास पहलेके रखे हैं, इन्हें तो आज ही घर भेज दें।’ यों कहकर वह उसे अपने घर ले गया। छोटा-सा टीनसे छाया मिट्टीका घर था, साफ-सुथरा और उसमें बाहर छोटी-सी दूकान थी। जाते ही उसने पचास रुपये निकाले और उनका तुरंत मनीआर्डर कर दिया। उस समय बेचारे अकालपीड़ितको कितना सुख और आश्वासन मिला, यह कहा नहीं जा सकता। फिर वह गरीब दूकानदार सेठके यहाँ जाकर उसका सामान ले आया।

घर लौटनेपर उसने अपनी पत्नीसे कहा—‘अपने देशके एक सज्जन आये हैं। अपने परिचित भी हैं। उनके लिये भोजन बनाओ।’ साध्वी पत्नीने प्रसन्न होकर कहा—‘बड़े भाग्य हैं हमारे जो आज अपने देशके सज्जन आये हैं। हमलोग भी धन्य हैं; जो भगवान् ने हमें ऐसा सुअवसर दिया।’ उसने बड़े प्रेमसे रसोई तैयार की। उस समय चावल सस्ते थे। मोटे चावल बने, मामूली पत्तियोंकी तरकारी, रूखी। जौ चनाकी रोटियाँ और मट्ठा। घरवालीने दोनोंको बड़े आदरके साथ बिना किसी भेदके समानभावसे भोजन कराया। बल्कि अतिथिको बार-बार बड़े प्रेमसे आग्रह करके वह परस रही थी। आज उसे भोजन करनेमें बड़ी तृप्ति मिली। बड़ा सुख मिला। प्रेमकी सूखी रोटीमें जो आनन्द है, प्रेमरहित मेवा-मिष्टान्नमें वह कदापि नहीं है। खा-पीकर दोनों दूकानका काम देखने लगे।

रातको अपने सम्मान्य अतिथिको सोनेके लिये उस गरीब दूकानदारने एक मूँजकी बुनी पुरानी चारपाई, जो उसने तीन रुपयेमें खरीदी थी, डाल दी। उसपर टाटके बोरे बिछा दिये। मच्छरोंसे बचानेके लिये उसकी स्त्रीने अपनी महीन मलमलकी पुरानी ओढ़नी चार बाँसकी पट्टियाँ खड़ी करके उनपर तान दी। अकालपीड़ित भाईको पहली रातकी नींद थी ही। चारपाईपर लेटते ही उसे गाढ़ी नींद आ गयी। रातभर वह बड़े सुखसे सोया। सारी थकावट दूर हो गयी।

तीन-चार दिनोंके बाद एक दिन रास्तेमें धनी मित्रके साथ अकालपीड़ित भाईकी भेंट हो गयी। धनी मित्रने सभ्यतासे पूछा—‘क्यों, कहीं कामकी व्यवस्था हुई? कहाँ रहते हैं? खाने-पीनेको मिल रहा है न?’ उसने कहा—‘बहुत अच्छी व्यवस्था हो गयी है। मैं अपने देशके अमुक दूकानदार भाईके घर रहता हूँ, पति-पत्नी दोनों बड़े ही सज्जन हैं। दूकानमें मेरा आधा हिस्सा कर दिया है। पचास रुपये तो उसी दिन घर भिजवा दिये और भविष्यके लिये यह आश्वासन दिया है कि भोजनकी तो कोई बात ही नहीं, घरमें एक साथ करेंगे ही। कम-से-कम पचास रुपये प्रतिमास बाल-बच्चोंके लिये घर भेज दिये जायँगे। खाने-पीनेकी भी बड़ी अच्छी व्यवस्था है। उसके यहाँ अमृततुल्य भोजन करके मुझे बड़ी ही तृप्ति मिलती है। उनका इतना ऊँचा प्रेमभरा समताका व्यवहार है कि मैं तो उसे जीवनभर नहीं भूल सकता।’ उसकी इन बातोंको सुनकर मानो सेठके गर्वपर कुछ ठेस-सी लगी। पर सच्ची बात थी। उसे अपने बर्तावका पूरा पता था। बोलता भी क्या। एक बात सूझी, उसे बड़ा गर्व था कि हमारे घर बड़ा बढ़िया भोजन बनता है। बढ़िया सजा-सजाया मकान है; गद्दी-तकिये, झाड़-फानूस लगे हैं। उस गरीबके यहाँ ऐसी चीजें कहाँसे होंगी? अतएव उसने अपनी बात ऊँची रखने तथा उस गरीब दूकानदारकी निन्दा करनेकी इच्छासे कहा—‘वहाँ आपको भोजन क्या मिला होगा। वही मोटे चावल, रूखी-सूखी रोटी, घास-पातकी तरकारी और सोनेको कहीं खाली जमीन या बहुत हुआ तो कोई पुरानी चारपाई मिली होगी। उस कँगलेके यहाँ और रखा ही क्या है। यहाँके बढ़िया भोजन और सजे-सजाये हुए घरको छोड़कर आप वहाँ गये, अब तो मनमें पछताते होंगे।’ उसने हँसकर कहा—‘भाई साहेब! आप अपने घरमें बड़े धनी हैं। आपके यहाँ गद्दी-तकिये हैं, झाड़-फानूस लगे हैं। सजा-सजाया मकान है। मेरे लिये तो ये सब विषके समान हुए। बढ़िया भोजन भी बनता है। परंतु मुझे इससे क्या। आपके यहाँ मुझे न तो खानेका सुख मिला, न सोनेका ही। मैं तो खटमल मच्छरोंसे तंग आ गया। रातभर नींद नहीं आयी। मेरे लिये तो वह मूँजकी चारपाई, टाटका बिछौना और पुरानी ओढ़नीकी मछहरी ही परम सुखप्रद है, जिनसे मैं रातको बड़े सुखसे सोता हूँ। भोजनकी तो मैं क्या कहूँ। वहाँ मुझे उन मोटे चावलों, रूखी रोटियों और पत्तीकी तरकारीमें जैसा सुख मिलता है, वैसा कहीं नहीं मिला। आपका भोजन तो विषवत् था और उसका साक्षात् अमृतके सदृश है। आपलोगोंके मनमें बोझा-सा था। आप मेरे आनेको आफत मानते थे और मनमें विषमता भरी थी। महात्मालोग कहा करते हैं कि ‘विषमता ही विष है और समता ही अमृत है।’ अत: आपके मेवा-मिष्टान्न भी विषमताके कारण विषतुल्य थे और उसके रूखे-सूखे भोजनमें समता होनेसे वह अमृतके तुल्य है। इतना ही नहीं, उसका बर्ताव भी अमृतके समान है। आपके पास लाखों रुपये हैं और लाखोंकी आमदनी है तथा आप मेरे बचपनके धर्ममित्र भी हैं; पर आपने मेरे भूखसे बिलबिलाते बच्चोंके लिये न तो कुछ भेजना स्वीकार किया और न मेरे लिये पचास-साठ रुपये वेतनकी नौकरी ही दी और उस बेचारे गरीब दूकानदारने, जिससे मेरा केवल एक गाँवके होनेके नाते साधारण परिचयमात्र था, गरीब निर्धन होते हुए भी मुझे आश्रय दिया। मेरी सहायता की। पचास रुपये तुरंत घर भिजवा दिये। मुझे अपने काममें बराबरका हिस्सेदार बना दिया। बतलाइये, मैं उसके उपकारको कैसे भूल सकता हूँ? और उसने यह जो किया सो भी उपकारकी भावनासे नहीं, विशुद्ध प्रेमसे और कर्तव्यकी भावनासे। वह मेरे ऊपर अहसान नहीं करता, बल्कि मुझे सुख पहुँचाकर वह उलटे मेरा कृतज्ञ होता है और इसमें अपनेको धन्य मानकर सुखी होता है। उसकी धर्मपत्नीका भी ऐसा ही ऊँचा भाव है। उन दोनोंके चेहरोंपर इसीलिये प्रफुल्लता और उल्लास चमकते-दमकते रहते हैं।’

धनी मित्रने पूछा, ‘मेरे यहाँ आपको किस बातमें विषमता दिखलायी दी और उसके यहाँ समता कैसे थी?’ इसपर उसने कहा—‘आपके यहाँ मुझे बहुत बढ़िया भोजन-पदार्थ मिले, इसमें कोई सन्देह नहीं। परंतु मेरे लिये वे विषके तुल्य हो गये। आपको स्मरण होगा, मुझे अतिथि बतलाकर पहले अकेले भोजन कराया गया। भोजन करनेपर मैं लघुशंकाके लिये बाहर गया। मैं हाथ धोनेके लिये लौटा तो मेरी दृष्टि आपके भोजन-पदार्थोंकी ओर चली गयी। मैंने देखा आपके लिये बादामका हलवा, मक्खन, पतले-पतले फुलके, खीर, दहीकी मलाइयाँ, गोभी-परवल आदिकी तरकारियाँ और अचार आदि रखे हैं। ये सब चीजें मुझे नहीं परोसी गयी थीं। मुझे इनके खानेका शौक नहीं है, परंतु इस विषमताको देखकर मुझे दु:ख हुआ। मैं समझता हूँ आपको ये चीजें विशेषरूपसे खिलानी थीं, इसीलिये आपकी धर्मपत्नीने ‘अतिथिको पहले भोजन करानेका’ बहाना करके आपको पीछे अलग जिमाना चाहा था। ऐसा भेद न करके मुझे भी आपके साथ ही भोजन कराया जाता तो क्या होता? कुछ पैसे ही तो अधिक खर्च होते। आपने भी इस बातपर कुछ भी विचार नहीं किया और पत्नीका प्रस्ताव मान लिया। धर्ममित्रके साथ ऐसा बर्ताव क्या कलंक नहीं है? इसी विषमताके कारण आपका भोजन विषवत् था।

‘उधर उसका व्यवहार देखिये। वह बेचारा बड़ा गरीब है; पर उसकी पत्नीने मोटे चावल, रूखी-सूखी रोटियाँ, पत्तियोंकी तरकारी और छाछ—जो कुछ घरमें था, हम दोनोंको एक साथ बैठाकर समानभावसे बड़े आदर-प्रेम तथा उल्लासके साथ भोजन कराया। रातको सोनेके लिये अपने सोनेकी एकमात्र चारपाई डाल दी। बिछानेके लिये टाट दे दी और मच्छरोंके उपद्रवसे बचनेके लिये अपनी ओढ़नीकी मछहरी तान दी। उसके ऐसे निष्काम प्रेम और समताके व्यवहारने मुझपर जो प्रभाव डाला, उसे मैं ही जानता हूँ। मैं तो वहाँ इसीलिये अमृत-ही-अमृत पाता हूँ और उसके व्यवहारका स्मरण करके बार-बार प्रफुल्लित और हर्षसे गद्‍गद हो जाता हूँ।’

धनी मित्रने बहाना करके कहा ‘मैं बीमार रहता हूँ। मुझे मन्दाग्नि हो रही है, इसीसे वैद्यने मुझे ये चीजें खानेको बता रखी हैं।’ इसपर उसने कहा कि ‘प्रथम तो मन्दाग्निकी बीमारीमें ये चीजें खानेको दी नहीं जातीं और यदि ऐसा हो भी तो मुझे भी वे चीजें परसी जातीं तो क्या हानि थी?’

धनी मित्रके पास कोई उत्तर नहीं था। वह अत्यन्त लज्जित होकर अपनी व्यवहार-विषमता तथा प्रेमहीनताके लिये मन-ही-मन पछताने लगा और सिर नीचा करके वहाँसे चल दिया!

यह एक कल्पित दृष्टान्त है। इससे हमको यह सीखना चाहिये कि सबके साथ प्रेम और विनययुक्त त्याग तथा उदारताका बर्ताव करें। खान-पानादिसे व्यवहारमें पूर्ण समता रखें। इसका यह अर्थ नहीं कि विधर्मी और विजातीय पुरुषोंके साथ एक पंक्तिमें बैठकर उन-जैसा ही निषिद्ध आहार करें। भाव इतना ही है कि विधर्मी और विजातीय कोई भी क्यों न हो, सबको यथायोग्य शास्त्रानुकूल आदर-सत्कारपूर्वक विनय और प्रेमपूर्वक बिना किसी भेद-भावके वही भोजन करावें जो अपने लिये बनाया गया हो और पहले उनको भोजन कराके फिर स्वयं भोजन करें। नीयत शुद्ध होनी चाहिये अर्थात् मनमें जरा भी वैषम्य नहीं होना चाहिये!


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur