Seeker of Truth

समयकी सार्थकता

श्रीभर्तृहरिजी कहते हैं—

आदित्यस्य गतागतैरहरह: संक्षीयते जीवितं
व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभि: कालो न विज्ञायते।
दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते
पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत्॥

‘सूर्यके उदय और अस्त—गमनागमनके द्वारा दिन-प्रतिदिन आयु नष्ट होती जा रही है; किंतु व्यापार-व्यवहारसम्बन्धी अनेक गुरुतर कार्यभारोंके कारण मनुष्यको इसका पता ही नहीं रहता कि कितना समय बीत गया और उसे जन्म, बुढ़ापा, विपत्ति तथा मृत्युको देखते हुए भी उनसे भय उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार यह समस्त जगत् प्रमादरूपी मोहमयी मदिराको पीकर उन्मत्त हो रहा है अर्थात् वह अपने कर्तव्याकर्तव्यके विवेकसे शून्य हो प्रमत्तकी भाँति अज्ञान-निद्रामें सो रहा है।’

ऐसी दशामें इस प्रमादसे सावधान होकर हमें विचार करना चाहिये कि हमारे जीवनका कितना समय चला गया—जीवनके कितने वर्ष कम हो गये। विचारनेपर पता लगेगा कि हमारा बहुत समय चला गया, समय बीता ही जा रहा है और आयु बहुत ही कम रह गयी है। अत: मनुष्यको अपने जीवनका जो मुख्य लक्ष्य है, जो प्रथम कर्तव्य है, उसकी ओर ध्यान देना चाहिये और अपने कामको शीघ्र बनानेका प्रयत्न करना चाहिये।

बंगालकी एक सुनी हुई घटना है—कहाँतक सच्ची है, पता नहीं। एक धनी सेठके यहाँ एक दिन दूध बेचनेवाली ग्वालिन आयी और उसने दूध देकर मुनीमसे उसकी कीमत माँगी। मुनीमने उससे कहा—‘पहले बाजारका सौदा कर आ, घर जाते समय पैसा ले जाना।’ वह बेचारी उस समय चली गयी तथा बाजारका काम करके फिर सेठके यहाँ आयी और मुनीमसे पैसा माँगा। मुनीम कुछ कार्यव्यस्त थे। उन्होंने कहा—‘अभी ठहरो।’ उस स्त्रीने दो-तीन बार पैसा माँगा; परंतु मुनीमजी वही जवाब देते रहे। आखिर, जब सूर्यास्त होनेको आया और मुनीमने पैसे नहीं दिये, तब वह स्त्री दु:खित हृदयसे बँगलामें ही बोली—‘आर बेला नाइ’—अर्थात् अब समय नहीं है, मुझे बहुत दूर जाना है, सूर्यभगवान् अस्ताचलको जा रहे हैं। सेठजी भी उस समय पासमें ही बैठे काम कर रहे थे। उस बंगालिनके लाचारीके शब्द उनके कानोंमें पड़े। उन्होंने मुनीमसे कहकर उसके पैसे दिलवा दिये। सेठजीके हृदयमें उसकी वह वाणी चुभ गयी। उन्होंने उसी समय मुनीमसे कहा—‘मेरा तलपट देखो और सब कारोबार बंद कर दो।’ मुनीमजी उनकी यह बात सुनकर आश्चर्यमें पड़ गये और बोले—‘आप इस तरह क्या कह रहे हैं?’ सेठजीने कहा—‘तुमने नहीं सुना, दूधवाली ग्वालिन क्या कह रही थी? उसने कहा था—‘आर बेला नाइ।’ बात बहुत ही सत्य है। ‘जीवन-सन्ध्या आ गयी, भैया! मुझको भी अब समय कहाँ?’ इस प्रकार कह, काम-काजका सब प्रबन्ध करके सेठजी घरसे चल दिये और अपनी शेष आयु अहर्निश हरिभजनमें ही बिताने लगे।

हमलोगोंको इस घटनापर विशेषरूपसे ध्यान देना चाहिये। हमारी आयु प्रतिक्षण बीत रही है। जिनकी उम्र चालीस-पचास वर्षकी हो गयी, उनकी तो अधिकांश आयु बीत चुकी, थोड़ी ही बाकी रही है। जिनकी उम्र छोटी है, उनका भी क्या भरोसा? मानव-जीवनकी पूर्णायु सौ वर्षकी बतलायी जाती है; किंतु आजकल पूरी आयु प्राप्त होनी कठिन है। आजकल तो अस्सी वर्षको ही पूर्ण आयु समझना चाहिये और इस परिमित आयुके हिसाबसे तो हमारे पास बहुत ही स्वल्प समय बचता है। इसलिये हमें सचेत होकर जल्दी अपना काम बना लेना चाहिये। हमें चाहिये कि हम अपनी आयुके बचे हुए समयको इस प्रकार काममें लायें कि शीघ्र ही उसे सुधारकर अपने जीवनको उन्नत बना सकें।

इसके लिये एक ऐसी कीमती बात बतलायी जाती है, जिसे सभी वर्गके मनुष्य कर सकते हैं और जो सुगम-से-सुगम है। इसमें न तो अधिक बुद्धिकी आवश्यकता है और न अधिक परिश्रमकी ही। निर्गुण-निराकारकी उपासनाको समझनेके लिये तीव्र बुद्धिकी आवश्यकता पड़ती है, किंतु इसमें नहीं। और यह इतनी सुगम होनेपर भी सर्वोत्तम महान् फल देनेवाली है। यह है ईश्वरकी अनन्यभक्ति। यह तो अंधे मनुष्यको लकड़ी पकड़ाकर ले जाने और उसे पार कर देनेके समान बड़ा ही सरल, सीधा और निश्चित मार्ग है। भगवद्भक्तिका यह मार्ग इतना सुगम, निष्कण्टक और अन्धकाररहित है कि इसमें कहीं भी ठोकर खाने या गिरनेका भय नहीं। श्रीमद्भागवतमें कहा है—

ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये।
अंज: पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्॥
यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित्।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥
(११। २। ३४-३५)

‘राजन्! अज्ञ मनुष्योंको भी शीघ्र ही निश्चयपूर्वक परमात्माकी प्राप्ति करा देनेके लिये जो उपाय भगवान् ने बतलाये हैं, उन्हें ही तुम भगवत्सम्बन्धी धर्म जानो, जिनका आश्रय लेकर मनुष्य कहीं भी प्रमादमें नहीं पड़ता। यदि वह आँखें मूँदकर दौड़ता हुआ उस मार्गपर चले, तो भी न तो कहीं फिसलता है और न कहीं गिरता ही है।’

जिस प्रकार सूरदासजीको रास्ता बतानेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं आ गये थे, इसी तरह वे भक्तिका आश्रय लेनेवालोंको आगे-आगे रास्ता बतलानेके लिये आ जाते हैं। जब सूरदासजी बेलके काँटोंसे आँखें फोड़कर जंगल-जंगलमें भगवान् के दर्शनकी लालसासे घूम रहे थे, उस समय भगवान् ने बालकके रूपमें आकर उनको अपने हाथसे मिठाई दी। उस दुर्लभ प्रसादको पाकर सूरदासजीका हृदय आनन्दातिरेकसे छलकने लगा। उनके पूछनेपर बालक साधारण परिचय देकर चला गया। एक दिन जब वह फिर आया, तब वृन्दावन ले चलनेकी बात हुई। वह सूरदासजीकी लाठी पकड़कर उन्हें मार्ग दिखानेके लिये आगे-आगे चलने लगा। सूरदासजीने उसका हाथ पकड़ लिया। भगवान् के हाथका स्पर्श होते ही उनके शरीरमें प्रेमानन्दकी बिजली-सी दौड़ गयी। वे समझ गये कि ये साक्षात् भगवान् ही हैं। उन्होंने भगवान् का हाथ और भी जोरसे पकड़ा; पर भगवान् ने झटका देकर छुड़ा लिया। उस समय सूरदासजीने उनसे कहा—

हाथ छुड़ाये जात हौ निबल जानि कै मोहि।
हिरदै तें जब जाहुगे मरद बदौंगो तोहि॥

‘प्राणधन! तुम मुझे निर्बल जान हाथ छुड़ाकर जा रहे हो, इसमें तुम्हारी कोई बहादुरी नहीं। तुम्हारा पौरुष तो मैं तब जानूँ, जब तुम मेरे हृदयसे चले जाओ।’

कितना आत्मबल है! प्रेमकी सुदृढ़ रस्सीसे जिन्होंने अपने हृदयेश्वरको बाँध रखा है, उनके हृदयसे भगवान् कैसे जा सकते हैं! उनकी भक्ति और प्रेमको देखकर भगवान् उनके सामने प्रकट हो गये और अपना साक्षात् दर्शन देकर उन्हें कृतार्थ कर दिया।

भगवान् का सहारा लेकर चलनेवालोंके लिये कितना सुगम निश्चित उपाय है! भगवान् स्वयं गीतामें कहते हैं—

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(१२। ७)

‘हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ।’

इतना ही नहीं, उस अनन्य भक्तके योगक्षेमका दायित्व भी भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं। वे कहते हैं—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)

‘जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।’

अब प्रश्न यह होता है कि इस अनन्य चिन्तनका उपाय क्या है। इसके लिये बहुत सुगम और सर्वोत्कृष्ट उपाय है—सर्वत्र भगवद्बुद्धि।

भगवान् ने कहा है—

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष ‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’ इस प्रकार मुझको भजता है; वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’

श्रीरामचरितमानसमें श्रीरघुनाथजीने हनुमान् जीसे कहा है—

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥

‘जिसकी यह बुद्धि कभी नहीं हटती—सदा अटल रहती है कि यह जो कुछ भी चर-अचररूप संसार है, सब सर्वलोकमहेश्वर भगवान् श्रीहरि ही हैं और मैं उनका दास हूँ, वही अनन्य भक्त है।’

श्रीभगवान् के वचनोंपर विश्वास करके इस भावको समझना चाहिये। जिस तरह आँखोंपर हरे रंगका चश्मा लगा लेनेसे मनुष्यको सब कुछ वैसा ही—हरे रंगका ही दीखने लग जाता है, इसी तरह जो अपने हृदयनेत्रोंपर हरिरूपका चश्मा लगा लेता है, उसे सर्वत्र हरिभगवान् ही दीखने लग जाते हैं। अभिप्राय यह कि अपने हृदयके भावोंको हरिमय बना लेना चाहिये। ऐसा हो जानेपर फिर बाहरसे दूसरी चीज दीखनेपर भी उसके अन्तरमें हरि ही दीखने लगेंगे। जैसे मिट्टीके बने पदार्थ—घड़ा, सकोरा, दीया आदि सब तत्त्वत: एक मिट्टी ही हैं और लौहके बने हुए चाकू, कैंची, तलवार आदि अनेकों पदार्थ लौह ही हैं, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत्—समस्त सांसारिक पदार्थ—तत्त्वत: एक हरिभगवान् ही हैं। यही वास्तविक सिद्धान्त है। इसे समझकर प्रयत्न करनेपर शीघ्र ही ऐसा भाव हो सकता है।

अनिच्छा या परेच्छासे जो भी चेष्टा-क्रिया हो, उसे भगवान् की लीला समझे; क्योंकि जो कुछ भी पदार्थ है, वह भगवान् हैं; अत: उनसे जो चेष्टा होती है, वह भगवान् की ही लीला है। इस प्रकारका भाव हो जाय तो परम शान्ति प्राप्त हो जाय। केवल इस प्रकारका भाव बनानेकी आवश्यकता है। आप चाहे कोई काम करें, कुछ भी आपत्ति नहीं; परंतु हृदयमें उपर्युक्त भाव होना चाहिये। इसमें आपका एक भी पैसा खर्च नहीं होता; करनेमें भी कोई परिश्रम नहीं, वरं बड़ी ही सुगमता है और यदि आपमें किसी प्रकारका कोई दोष भी विद्यमान हो तो इस भावमें इतनी शक्ति है कि यह उसे भी जलाकर भस्म कर देगा। केवल आपकी बुद्धिमें यह पवित्रतम भाव हर समय जाग्रत् रहना चाहिये कि ‘यह सब कुछ तत्त्वत: एक हरि ही हैं तथा उनसे जो चेष्टा हो रही है, वह उनकी लीला है।’

जिस प्रकार सुनार सोनेके अनेक तरहके गहने बनाता है, किंतु गहनोंके नाना प्रकार बनाते समय भी उसकी बुद्धिमें वह सब एक सोना ही रहता है तथा गहनोंको घुटालीमें डालकर गलाते समय भी उसकी उन गहनोंमें एक स्वर्ण-बुद्धि ही रहती है, उसी तरह अपने भी ‘सब एक भगवान् ही हैं’—यह भाव हरदम बना रहना चाहिये। अभी जो हमारी बुद्धिमें संसारका नानाभाव धँसा हुआ है, वह न होकर उसके बदलेमें एक भगवद्भाव होना चाहिये।

ऊपर यह कहा गया कि ‘समय बहुत थोड़ा रहा है’—इस बातको सुनकर घबराना नहीं चाहिये। जो समय बचा है, उसीमें हमारा कल्याण हो सकता है। आप कहें कि क्या जिनकी आयुमें एक-दो दिन ही अवशिष्ट हैं, उनका भी उद्धार हो सकता है, तो यह तो बहुत है; एक-दो घंटे जीनेवालेका भी कल्याण हो सकता है। भागवतकार कहते हैं—

किं प्रमत्तस्य बहुभि: परोक्षैर्हायनैरिह।
वरं मुहूर्तं विदितं घटेत श्रेयसे यत:॥
खट्वांगो नाम राजर्षिर्ज्ञात्वेयत्तामिहायुष:।
मुहूर्तात्सर्वमुत्सृज्य गतवानभयं हरिम्॥
(२। १। १२-१३)

‘प्रमत्त—भगवान् से विमुख और विषयासक्त रहकर संसारमें बहुत वर्षोंतक जीनेसे भी क्या लाभ? हमें तो जिससे कल्याणकी प्राप्ति हो, ऐसा (भगवद्भक्तियुक्त) एक मुहूर्तका जीवन भी अच्छा प्रतीत होता है। खट्वांग नामके राजर्षिको जब अपनी आयुका अन्त विदित हुआ, तब वे एक ही मुहूर्तमें सर्वस्व यहीं छोड़कर अभय देनेवाले श्रीहरिको प्राप्त हो गये।’

किसी कविने भी कहा है—

जीवन थोड़ा ही भला, जो हरि-सुमरन होय।
लाख बरसका जीवना लेखे धरै न कोय॥

बस, इसके लिये एक ही शर्त है—श्रीभगवान् को कभी मत छोड़ो। उन्हें हर समय याद रखो। भगवान् ने गीतामें कहा है—‘मच्चित्त: सततं भव’ (१८। ५७)—‘निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो।’

जो हर समय भगवान् को याद रखता है, उसे भगवान् कैसे छोड़ सकते हैं? सदा भगवच्चिन्तन करनेवालोंको अन्तकालमें भी भगवान् की स्मृति रहेगी ही और अन्तकालमें स्मृति बनी रहेगी तो कल्याण हो जायगा, इसमें कोई भी शंका नहीं है। स्वयं भगवान् कहते हैं—

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)

‘जो पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है—इसमें कुछ भी संशय नहीं है।’

आप कहें कि निरन्तर स्मरण होता नहीं, तो इसका हेतु यही है कि श्रद्धाकी कमीके कारण निरन्तर स्मरणके रहस्य और प्रभावको आप नहीं जानते। नदीमें डूबनेवाले किसी आदमीको यदि नौकाका रस्सा पकड़में आ जाय तो फिर वह किसीके कहनेपर भी उसे छोड़ सकता है? कभी नहीं। वैसे ही यदि भगवान् पर आपको विश्वास हो तो क्या आप भगवान् को छोड़ सकते हैं? यह संसार समुद्र है। इसमें भगवान् के चरण ही सुदृढ़ नौका हैं। जो मनुष्य मनसे भगवच्चरण-कमलोंको भक्तिपूर्वक पकड़ लेता है, वह बिना किसी परिश्रमके ही पार हो सकता है। उन सर्वशक्तिमान् भगवान् के चरणोंको मनसे पकड़ना और हर समय उनको याद रखना ही उनकी शरण लेना है; इसीका नाम भक्ति है।

यदि कहें कि निरन्तर उनका चिन्तन होना कठिन है, तो यह बात नहीं है। केवल आपने इसे कठिन मान रखा है, इसीसे आपको यह कठिन प्रतीत हो रहा है। आप इसके असली तत्त्व और रहस्यको अभी समझे नहीं; यदि तत्त्व और रहस्यको समझ जाते तो कभी उन्हें छोड़ ही नहीं सकते। यदि आप यह समझ जाते कि जहाँ भगवच्चिन्तन छूटा कि समुद्रमें डूबे, तो फिर आपसे भूल नहीं हो सकती। डूबनेवाला व्यक्ति इस तत्त्वको जानता है कि नौकासे ही उसकी रक्षा सम्भव है; अत: वह उसे एक बार पकड़ लेनेपर फिर छोड़ता ही नहीं।

यदि कहें कि हम तो पापी हैं, हमारा उद्धार इतना शीघ्र कैसे हो सकता है, तो इसके लिये भी डरनेकी कोई बात नहीं है। भगवान् ने स्वयं कहा है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)

‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।’

जो प्राणपणसे साधनमें लग जाता है, कभी भी जी नहीं चुराता, अकर्मण्य नहीं होता—कमकसपना नहीं करता, उसके लिये कहीं कोई बाधा नहीं आती। जिसे एकमात्र भगवान् पर ही विश्वास है, जिसकी बुद्धिमें यह निश्चय हो गया है कि भगवान् से ही मेरा उद्धार होगा एवं दृढ़ विश्वासपूर्वक भगवान् के ही शरण हो गया है, उसके पास चाहे कितना ही कम समय हो और वह चाहे कैसा भी पापी हो, भक्तिका इतना प्रभाव है कि वह उसे तार ही देती है।

यदि कहें कि जिनमें ज्ञान नहीं है तथा जो मूर्ख हैं, उनका भी कल्याण हो सकता है क्या, तो हम कहेंगे, निश्चय हो सकता है। श्रीभगवान् ने बतलाया है—

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०। १०)

‘उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३। २५)

‘परंतु इनसे दूसरे, अर्थात् जो मन्द बुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवण-परायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरको नि:सन्देह तर जाते हैं।’

भाव यह कि कोई कैसा भी अज्ञानी या मूर्ख क्यों न हो, यदि वह ईश्वरकी अनन्यभक्ति करने लगे या ज्ञानी महात्माके पास जाकर उनसे जो भी कुछ सुननेको मिले, उसे ही स्वयं करने लग जाय तो वह भी परमपदको पा सकता है। मूर्ख है तो भी चिन्ता न करे, उसे महात्मा अथवा स्वयं भगवान् ही ज्ञान प्रदान कर सकते हैं। चाहे पापी हो, मूर्ख हो, समय कम हो, तब भी भगवान् की कृपासे कल्याण हो सकता है। केवल एक काम हमें करना होगा। ‘भगवान् हैं’—ऐसे दृढ़ विश्वासपूर्वक उठते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते सोते-जागते—हर समय हम भगवान् को याद रखें। आप कहें कि रात्रिमें सोते हुए तो स्मरण नहीं रहता, तो यदि आपका स्मरणका अभ्यास दिनमें बराबर चलता रहेगा तो रात्रिमें भी वही होगा; क्योंकि जो काम दिनमें किया जाता है, वही रात्रिमें स्वप्नमें याद आया करता है। रात्रिमें भी स्मरण होता रहे, इसके लिये एक सरल उपाय है। सोनेके समय चाहे लेटे हुए ही इसे करें। दस-पंद्रह मिनट पहलेसे संसारके संकल्पोंके प्रवाहको हटाकर भगवान् के नामरूपका स्मरण करते हुए तथा उनकी लीलाओंका मनन करते हुए ही सोयें। इससे रात्रिमें भी भगवत्स्मरण बना रह सकता है। अभिप्राय यह है कि हर समय भगवान् को याद रखें; उन्हें किसी समय भी न भुलावें। यदि त्रिलोकीका राज्य भी प्राप्त होता हो तो उसे भी अत्यन्त नगण्य समझकर छोड़ दें, किंतु भगवान् के चिन्तनको कभी न छोड़ें। जो कभी भी भगवान् को नहीं भुलाता, जिसके एकमात्र भगवान् ही परम प्रिय और सर्वस्व हैं, वही धन्य है। श्रीमद्भागवतमें कहा है—

त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठ-
स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविन्दा-
ल्लवनिमिषार्धमपि य: स वैष्णवाग्रॺ:॥
विसृजति हृदयं न यस्य साक्षा-
द्धरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाश: ।
प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्म:
स भवति भागवतप्रधान उक्त:॥
(११। २। ५३, ५५)

‘त्रिभुवनके राज्य-वैभवके लिये भी जिसका भगवच्चिन्तन नहीं छूट सकता, जो भगवान् में ही मन लगाये रखनेवाले देवता आदि द्वारा खोज करनेयोग्य भगवच्चरणारविन्दोंसे आधे पलके लिये भी विचलित नहीं होता, वह भगवद्भक्तोंमें अग्रगण्य है। जो विवश होकर अपना नाम उच्चारण करनेवालेके भी सम्पूर्ण पाप-समूहको ध्वंस कर देते हैं, वे साक्षात् परम ब्रह्म परमेश्वर जिसके हृदयको इसलिये कभी नहीं छोड़ पाते कि उनके चरणकमल प्रेमकी रस्सीसे बँधे हैं, वही भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ कहा गया है।’

ईश्वरने हमको विवेक, बुद्धि और ज्ञान इसलिये दिया है कि उन्हें हम काममें लायें। बुद्धिमान् पुरुष वही है, जो अपने समयको विवेकपूर्वक उत्तम-से-उत्तम कार्यमें लगाता है, एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताता। वह जिस कामके लिये आया है, पहले उसी कामको करता है; वह कभी नुकसानका काम नहीं करता, सदा नफेका काम ही करता है और जो अधिक-से-अधिक कीमती होता है, वही काम करता है; वही समझदार समझा जाता है।

जैसे किसी एक आदमीको जमींदारसे एक खानका एक सालके लिये ठेका मिला। उस खानमें पत्थर, कोयला तथा बहुमूल्य हीरा-पन्ना भरा हुआ है। अब ठेकेदार चाहे उसमेंसे हीरा-पन्ना निकाले, अथवा पत्थर-कोयला ही; या कुछ भी न निकाले अथवा उलटे उसपर अपने घरका कूड़ा-कर्कट ही डाले यह सब उसकी इच्छापर निर्भर है। जमींदारकी ओरसे तो उसे पूरा अधिकार है। परंतु समझदार आदमी वही है, जो उसमेंसे बहुमूल्य हीरे-पन्ने-रत्न निकालता है। वह तो मूर्ख है, जो कोयला-पत्थर निकालता है और वह उससे भी ज्यादा मूर्ख है, जो उसमेंसे कुछ भी नहीं निकालता, केवल फुलवाड़ी लगाता है। तथा वह तो उससे भी महान् मूर्ख है, जो उलटे उसपर कूड़ा-कर्कट डालता है। इसी प्रकार भगवान् ने यह शरीररूपी क्षेत्र (खेत) हमें दिया है। जो इसके तत्त्वको समझ गया, वह तो इससे बढ़िया-बढ़िया काम लेता है। नवधा भक्तिके नाना प्रकारके अंग ही नाना प्रकारके रत्न हैं, जो इससे उनका उपार्जन करता है, वह चतुर है। जो इसे संसारी स्त्री-पुत्र, धन आदि पदार्थोंके बटोरनेमें लगाता है, वह पत्थर-कोयला निकालनेवालेके समान मूर्ख है। इसे केवल सँवारने-सजानेमें ही समय बितानेवाला फुलवाड़ी लगानेवालेके समान उससे भी ज्यादा मूर्ख है; तथा वह तो कूड़ा-कर्कट डालनेवालेके समान और भी महान् मूर्ख है, जो अपने समयको झूठ, कपट, चोरी,व्यभिचार इत्यादि पापोंके बटोरने और लोगोंकी निन्दा करनेमें बिताता है। समझदार आदमीको चाहिये कि वह समय रहते ही अपना काम बना ले। शरीर तो नाशवान् है; जितने दिनका ठेका मिला है, उतने ही दिन रहेगा—जितने श्वास हैं, उतने ही आयेंगे; इसलिये प्राण रहते-रहते ही इससे जितना ऊँचे-से-ऊँचा काम ले लिया जाय, वही सर्वोत्कृष्ट है। नहीं तो समय बीत जानेपर फिर पछतानेके सिवा और कुछ हाथ नहीं लगनेका।

श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥

हमें विचार करना चाहिये कि यह शरीर क्यों मिला है। यह हमें मिला है—भगवान् को पानेके लिये। हमलोगोंका अभी जिस काममें समय बीतता है, वह प्राय: व्यर्थ बीतता है। जो काम केवल शरीर और इन्द्रियोंसे होता है, उसकी कोई विशेष कीमत नहीं। जो काम मनसे होता है, वही दामी है। हमें देखना चाहिये कि हमारा मन क्या कर रहा है। आप क्रियासे तो पूजा करने बैठे हों, पर आपका मन यदि संसारके चक्कर लगा रहा है तो यह कीमती नहीं। किसी कविने कहा है—

माला तो करमें फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमरन नाहिं॥

अत: बुद्धिसे विचारना चाहिये। विचारकर देखेंगे तो आपको पता लगेगा कि हमारा मन भजनमें एक आना भी नहीं लगता तथा स्वार्थमें दो-तीन आना लगता है और बाकी बारह आना तो व्यर्थ ही जाता है—यानी आलस्य, प्रमाद, भोग, पाप और व्यर्थ-चिन्तनमें ही जाता है, जिससे न इस लोकमें कोई लाभ है और न परलोकमें ही; बल्कि उलटे महान् हानि-ही-हानि है। इसलिये मनुष्यको विवेकपूर्वक विचार करके अपना सुधार करना चाहिये। यदि आप इसे न करेंगे तो दूसरा कौन करेगा? यह आपका खास काम है और यह आपके किये ही होगा, दूसरेके द्वारा यह नहीं किया जा सकता। आप चाहें कि आपकी आत्माके उद्धारका काम धनसे, नौकरसे, मित्रसे या घरवालोंसे करा लिया जायगा तो यह कभी नहीं होनेका; यह तो आपको ही करना पड़ेगा। अत: सब काम छोड़कर सर्वप्रथम यही काम करना उचित है। साथ ही यह भी ध्यान रहे कि आत्म-उद्धाररूप यह कार्य अन्य किसी भी योनिमें सिद्ध होनेवाला नहीं है। अन्य सब तो भोग-योनियाँ हैं। जब कभी होगा तो इस मानवयोनिमें ही होगा और यह मानव-जीवन दुबारा फिर कब मिलेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। अन्य संसारी कार्योंमें तो यदि कुछ बाकी भी रह जायगा तो आपके उत्तराधिकारी उसे पूरा कर लेंगे या कोई नहीं भी करेगा तो उससे आपकी कुछ भी हानि नहीं है; किंतु साधनमें यदि कमी रह गयी तो उसकी पूर्ति कोई भी नहीं कर सकता। आत्मोद्धारमें थोड़ा-सा भी काम बाकी रह जायगा तो आपके लिये महान् हानि है! आपने संसारी कामोंको अज्ञानवश ही जरूरी समझ रखा है, यह आपकी महान् भूल है। यहाँका कोई भी पदार्थ आपके साथ नहीं जानेका। पहले भी कहींसे इनको आप साथ नहीं लाये थे और जाते समय भी कोई साथ नहीं जायगा। मरनेके बाद सब यहीं रह जाते हैं; केवल पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच प्राण, मन और बुद्धि—ये सत्रह तत्त्व आपके साथ जायँगे। जो साथ जानेवाले हैं, उन्हें ही अच्छे बनायें। इनमें उत्तम-उत्तम गुण और आचरणरूप पदार्थ भर लेने चाहिये, जिससे यहीं काम बन जाय। यदि किसी कारणसे किंचित् कमी भी रह गयी तो योगभ्रष्ट होकर दूसरे जन्ममें उद्धार हो जायगा। इसलिये हमें इनमें दैवी सम्पदाके ही गुण और आचरण भरने चाहिये। आसुरी सम्पदाके अवगुण भरना तो कूड़ा-कर्कट इकट्ठा करना है। जो भी बुरा भाव और बुरा कर्म है, उसे तो निकाल देना चाहिये। जैसे किसी स्त्रीको देखकर हमारे मनमें बुरा भाव होता है तो उसे निकालकर नेत्रोंमें अंजन लगा लेना चाहिये। अंजन क्या है? उसे माता, बहिन या लड़कीके रूपमें समझना ही अंजन लगाकर देखना है। इसी प्रकार कान, वाणी आदि सभीको भगवान् के नाम, रूप और गुणोंके श्रवण-कीर्तनसे पवित्र बनाना चाहिये तथा हृदयमें भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला और भक्तोंके चरित्र आदि उत्तम वस्तुओंको भरना चाहिये। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा कल्याण सम्भव नहीं। किसी कविने कहा है—

जाकी पूँजी साँस है, छिन आवै छिन जाय।
ताको ऐसो चाहिये, रहै राम लौ लाय॥

इस पूँजीसे सर्वोत्तम लाभ उठाना चाहिये। यह मनुष्य-शरीर ही खेत यानी कर्मभूमि है, अन्य सब योनियाँ तो ऊसर भूमि हैं। इसमें चाहे आप मेवा पैदा कर लें, चाहे बबूल। मेवा क्या है?

श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
(श्रीमद्भा० ७। ५। २३)

‘भगवान् विष्णुके नाम, रूप, गुण और प्रभावादिका श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान् की चरणसेवा, पूजन और वन्दन एवं भगवान् में दासभाव, सखाभाव और अपनेको समर्पण कर देना—यह नौ प्रकारकी भक्ति है।’

यह नौ प्रकारकी भक्ति ही मेवा है। भक्तिके इन नौ प्रकारके अंगोंमेंसे एक भी कर लें तो भगवान् मिल जायँ; फिर जिसमें ये सभी हों, उसका तो कहना ही क्या है! वह तो बहुत ही उत्तम है।

केवल श्रवणभक्तिसे राजा परीक्षित् तथा धुन्धुकारी आदि; कीर्तनसे नारदजी, तुलसीदासजी, सूरदासजी, गौरांग महाप्रभु आदि; स्मरणसे ध्रुव आदि; पादसेवनसे लक्ष्मी, भरत, केवट आदि; पूजनसे पृथु, द्रौपदी, गजेन्द्र, भीलनी, रन्तिदेव आदि; नमस्कारसे अक्रूर आदि; दास्यभावसे हनुमान् आदि; सख्यभावसे सुग्रीव, अर्जुन आदि एवं आत्मनिवेदनसे बलि आदि भगवान् को प्राप्त हो गये हैं।

अतएव हमें इन सब बातोंपर विचार करके कटिबद्ध होकर जल्दी-से-जल्दी उस कामको बना लेना चाहिये, जिसके लिये हमें यह मानव-देह प्राप्त हुआ है। भागवतकार चेतावनी देते हुए कहते हैं—

लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते
मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीर:।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-
न्नि:श्रेयसाय विषय: खलु सर्वत: स्यात्॥
(११। ९। २९)

‘यह मनुष्य-देह अनित्य होनेपर भी परम पुरुषार्थका साधन है। अत: अनेक जन्मोंके अनन्तर इस दुर्लभ नर-देहको पाकर बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि जबतक यह पुन: मृत्युके चंगुलमें न फँसे, तबतक शीघ्र ही अपने कल्याणके लिये प्रयत्न कर ले; क्योंकि विषय तो सभी योनियोंमें प्राप्त होते हैं (इनका संग्रह करनेमें इस अमूल्य अवसरको कदापि न खोये)।’


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur