Seeker of Truth

समयका सदुपयोग

समयकी अमूल्यताके रहस्यको समझकर मनुष्यको चाहिये कि वह अपना सारा समय भगवान् के प्रभाव और रहस्यको समझते हुए श्रद्धा एवं प्रेमपूर्वक निरन्तर केवल ईश्वरके चिन्तनमें ही लगावे। यदि मनुष्य भगवच्चिन्तनका ऐसा अभ्यास करे तो उसको बहुत अल्प समयमें ही परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकारके अभ्याससे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुराचारों एवं दु:खोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है और मनुष्य अनायास ही सदाचार और सद्गुणोंसे सम्पन्न होकर परम शान्ति और परम आनन्दको प्राप्त होता है।

संसारमें चौरासी लाख जातिके अनन्त जीव शास्त्रोंमें बतलाये गये हैं। इन सबमें परमात्माकी प्राप्तिका अधिकार केवल मनुष्यको ही माना गया है। परमात्माकी असीम दयाके प्रभावसे तो अनधिकारी पशु-पक्षी तिर्यक् योनिके जीवोंको भी परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकारकी बातें इतिहासोंमें मिलती हैं। परन्तु वह अपवादरूप है, नियम नहीं। सारी सृष्टिके जीवोंकी संख्याका अनुमान करना तो वस्तुत: लड़कपन है; परन्तु मनुष्यकी साधारण बुद्धिसे इतना कहा जा सकता है कि समस्त सृष्टिके अनन्तकोटि जीवोंमें मनुष्यकी संख्या अपार समुद्रमें एक क्षुद्र तरंगके समान ही है। यदि प्रत्येक योनिको भोगते हुए ठीक क्रमसे जीवको मनुष्य-शरीर मिले तब तो अनेकों युगोंके बाद उसका मिलना सम्भव है। आचरणोंकी ओर देखनेपर भी निराशा ही होती है, आचरण तो ऐसे हैं कि उनसे शीघ्र मनुष्य-शरीर मिलनेकी आशा ही नहीं की जा सकती। जिसको मनुष्य-शरीर मिलता है उसपर ईश्वरकी महान् दया समझनी चाहिये। इसीसे श्रीरामचरितमानसमें कहा गया है—

आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥

अतएव बुद्धिमान् पुरुषोंको यह समझ रखना चाहिये कि अनन्त युगोंसे भटकते हुए अनन्तकोटि जीवोंमें जो अत्यन्त ही भाग्यशाली और मुक्तिके अधिकारी समझे जानेयोग्य जीव होते हैं उन्हींको ईश्वर यह दुर्लभ मुक्तिदायक मनुष्य-शरीर प्रदान करते हैं। ऐसे दुर्लभ और क्षणभंगुर अनित्य मनुष्य-शरीरको पाकर जो जीव शीघ्र-से-शीघ्र अपने आत्माके कल्याणके लिये तत्पर नहीं होता, उसके समान मूर्ख और कोई भी नहीं है। जब मनुष्यका शरीर मिल गया, तब यह समझ लेना चाहिये कि सामान्यभावसे मुक्तिके अधिकारी तो हम हैं ही। ऐसा न होता तो मनुष्य-शरीर ही हमें क्यों दिया जाता। दयामयकी अपार दया है जिसने हमें मुक्तिका अधिकारी बनाया। इस अधिकारको पाकर भी यदि हम उस दयामयकी दयाकी अवहेलना कर अपने समयको व्यर्थ भोग, प्रमाद, पाप और आलस्यमें बितावें तो उसे मूढ़ताके अतिरिक्त और क्या कहा जाय? आहार, निद्रा और मैथुनादि तो प्राय: सभी योनियोंमें प्राप्त होते ही रहते हैं फिर मनुष्यके शरीरको पाकर भी यदि जीव उन्हीं विषयोंमें अपना जीवन बिताता रहे तो फिर उस मनुष्यमें और पशुमें अन्तर ही क्या रह जाता है, कुतियाके साथ कुत्तेको जो सुख प्राप्त होता है, वही राजाको रानीके साथ और इन्द्रको इन्द्राणीके साथ प्राप्त होता है। पुष्पोंकी सुकोमल शय्यापर सोनेमें जो सुख विलासी मनुष्यको मिलता है, वही सुख गदहेको घूरेकी राखपर लोटनेमें मिलता है। नाना प्रकारके मेवा-मिष्टान्न खानेमें मनुष्यको जो आनन्द मिलता है, वही आनन्द कुत्ते, कौवे आदि पशु-पक्षियोंको अपने-अपने आहारमें मिलता है। ईश्वरकी दयाके फलस्वरूप दुर्लभ मनुष्य-शरीरको और ऐसी मानवी बुद्धिको पाकर भी यदि हम इन पशु-पक्षियोंकी भाँति आहार, निद्रा और मैथुनादिको ही सर्वोत्तम सुख समझकर इन्हींमें अपना समय बितावें तो वास्तवमें हमारा दर्जा इन पशु-पक्षियोंसे भी बहुत नीचा हो जाता है। क्योंकि उन बेचारोंमें तो इस प्रकार समझने और विचार करनेकी बुद्धि नहीं है। इसीलिये वे इतने दोषी नहीं हैं परन्तु मनुष्यत्वके अभिमानको रखनेवाला प्राणी यदि उन्हींकी भाँति आचरण करता है तो उसके लिये यह अत्यन्त ही शोक और लज्जाकी बात है।

याद रखना चाहिये कि मनुष्यकी आयु परिमित है और वह भी बहुत ही कम है। अधिक-से-अधिक वर्तमान समयमें सौ वर्षकी आयु मानी गयी है। वह भी आजकल सौ पीछे लगभग पाँचको भी प्राप्त नहीं होती। इस आयुका कितना अंश तो लड़कपनमें ही बीत जाता है। वृद्धावस्थामें साधन प्राय: बन ही नहीं पड़ता। जो लोग यह मानते हैं कि हम वृद्धावस्थामें साधन कर लेंगे, वे बहुत भूल करते हैं। बचा हुआ समय भी अनेक प्रकारके विघ्न-बाधाओंसे पूर्ण है। हमारे पूर्वसंचित पाप, वर्तमानकी कुसंगति और विषयासक्तिके कारण विघ्न-बाधाएँ आती ही रहती हैं। शरीर भी सदा नीरोग नहीं रहता। मनुष्यकी बुद्धि और उसके विचार भी सदा एक-से नहीं रहते। कुसंगमें बुद्धि बिगड़ ही जाती है और जगत् में प्राय: कुसंग ही अधिक होता है। आलसी, भोगी, प्रमादी, दुराचारी, अहंकारी और नास्तिक मनुष्योंका संग ही कुसंग है। फिर पता नहीं, मौत किस क्षणमें आ जाय। ऐसे घोर विघ्नोंसे बचकर इतने अल्पकालमें अपने ध्येयकी सिद्धि वही बुद्धिमान् पुरुष कर सकता है जो सब ओरसे मन हटाकर अत्यन्त तत्परताके साथ सम्पूर्णरूपसे ध्येयकी सिद्धिके प्रयत्नमें ही लग जाय। वास्तविक बुद्धिमान् वही है जो ऐसे अमूल्य समयका एक भी क्षण आलस्य और प्रमादमें न बिताकर प्रतिक्षण अपने लक्ष्यपर लगा रहता है। मनुष्यको अपनी इस आयुका एक-एक क्षण बड़ी सावधानीके साथ उसी प्रकार परम आवश्यक साधनमें लगाना चाहिये जिस प्रकार कोई अत्यन्त गरीब और आजीविकासे रहित कंजूस मनुष्य अपने थोड़े-से परिमित पैसोंको अत्यावश्यक कार्यमें ही व्यय करता है। समयकी अमूल्यताके रहस्यको जाननेवाले पुरुष कदापि समयका व्यर्थ व्यय नहीं कर सकते। अतएव हमलोगोंको चाहिये कि मृत्युके समीप पहुँचने और वृद्धावस्थाको प्राप्त होनेके पहले-पहले ही तत्परतासे प्रयत्न करके अपने ध्येयकी सिद्धि कर लें। नहीं तो पीछे बड़ा भारी पश्चात्ताप करना पड़ेगा।

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥

अभी बहुत अच्छा मौका है। क्योंकि इस घोर कलिकालमें निष्काम भावसे किया हुआ थोड़ा-सा भी भगवद्भजनरूप साधन कल्याणकारी माना गया है। तिसपर ईश्वरकी दयाका तो पार ही नहीं है। इतनेपर भी यदि हम उसकी दया, प्रेम और प्रभावके रहस्यको समझकर उसका भजन करनेके लिये कटिबद्ध न हों तो फिर कर्मोंके और समयके मत्थे दोष मढ़ना सर्वथा असंगत है। अतएव उठो, सावधान होओ और महर्षियोंद्वारा बतलाये हुए अपने परम ध्येयकी सिद्धिके लिये कमर कसकर प्रयत्नमें लग जाओ।

आजसे कल और कलसे परसों—यों उत्तरोत्तर जो आत्मोन्नतिके पथपर आगे बढ़ते हैं, वे बुद्धिमान् हैं। श्रुति, स्मृति, इतिहास और पुराणादि शास्त्रोंमें बतलायी हुई बातोंमें जो सर्वोत्तम प्रतीत हों उन्हींके आचरणमें अपना समय लगाना चाहिये। साथ ही अपनी दृष्टिमें जो शास्त्रानुमोदित लक्षणोंवाले महापुरुष हों, उनके बतलाये हुए पथपर चलना चाहिये। ऐसे महापुरुषोंके उत्तम गुण और उत्तम आचरणोंका अनुकरण करना चाहिये। यदि उत्तम पुरुषोंका समागम न मिले तो पूर्वमें होनेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंके जीवन-चरित्र पढ़कर उनके गुण और आचरणोंको आदर्श मानकर तदनुसार अपने जीवनको उत्तरोत्तर सर्वोत्कृष्ट बनाते रहना चाहिये। जबतक जीवन रहे तबतक आगे बढ़ता ही रहे। कहींपर यह न मान बैठे कि मेरी सर्वोपरि उन्नति हो गयी, इसके आगे और कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसा मानना उन्नतिके मार्गको रोक देना है। रोक देना ही नहीं, इस प्रकार मान बैठनेवाले अनेकों मनुष्य तो अपनी स्थितिसे ही गिर जाते हैं।

मानवी बुद्धिरूपी गजसे वास्तविक उन्नतिका माप हो ही नहीं सकता। वह गज उसकी सीमातक नहीं पहुँच सकता। जहाँ सीमा शेष हो जाती है, देहाभिमानका सर्वथा नाश हो जाता है, वहाँ तो इस बातको माननेवाला या कहनेवाला कोई धर्मी रह नहीं जाता कि मुझको अब कोई कर्तव्य नहीं है। और जबतक देहाभिमान है अर्थात् जबतक देहको आत्मा माननेवाला या देहका स्वामी बना हुआ कोई धर्मी है तबतक कर्तव्यका अन्त मान लेना बड़ी भारी भूल है। जबतक देहमें किसी भी रूपमें अपनी व्यवस्था करनेवाला, अपनी स्थिति समझनेवाला कोई धर्मी है तबतक उसको उत्तरोत्तर उन्नतिके प्रयत्नमें लगे रहना चाहिये। जो पुरुष परमात्माको तत्त्वसे जानकर उसे प्राप्त हो जाता है, यद्यपि उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता, तथापि लोक-उद्धारके लिये उसके द्वारा भी कर्म होते रहते हैं। अवश्य ही उसके कर्म अकर्म ही बतलाये गये हैं।

उन्नति चाहनेवाले पुरुषके लिये कर्तव्यकी समाप्ति कभी होती ही नहीं। संसारमें निषिद्ध कर्म करनेवालोंकी अपेक्षा निषिद्ध कर्म न करनेवाले उत्तम हैं, उनसे उत्तम वे हैं जो धन, पुत्र, स्त्री, मान, बड़ाई या स्वर्गादिकी कामनासे उत्तम आचरण और ईश्वरकी भक्ति करते हैं। उनसे श्रेष्ठ वे हैं जो सदाचार-पालन और ईश्वरकी भक्ति करते समय तो भगवान् से कुछ भी नहीं माँगते; परन्तु पीछे किसी संकटमें पड़नेपर उस संकटकी निवृत्तिके लिये ईश्वरसे याचना करते हैं। उनसे भी वे श्रेष्ठ हैं जो आत्मोद्धारके अतिरिक्त अन्य किसी भी बातके लिये कभी इच्छा नहीं रखते, वे तो अति श्रेष्ठ हैं जो ईश्वरके तत्त्वको जानकर बिना ही किसी हेतुके स्वाभाविक ही ईश्वरकी भक्ति और सदाचारका प्रेमपूर्वक पालन करते हैं और उन महापुरुषोंके लिये तो कुछ कहना ही नहीं बनता जो ईश्वरको प्राप्त हो चुके हैं। ईश्वरप्राप्त पुरुषोंमें भी वे सर्वोत्तम हैं जिनको ईश्वरकी ओरसे संसारमें सदाचार और भक्तिके प्रचारके लिये आदेश या अधिकार प्राप्त है। ईश्वरके यहाँसे जो इस बातका अधिकार लेकर आते हैं उन्हींको कारक पुरुष और अंशावतार भी कहते हैं। और दयामय भगवान् तो सबसे उत्तम और समस्त उत्तमताके आधार ही हैं जो जीवोंके उद्धारके लिये स्वयं समय-समयपर अवतीर्ण होकर शाश्वत धर्म और परमपावनी भक्तिका प्रचार करते हैं। अतएव मनुष्यको चाहिये कि वह सर्वोत्तम पुरुषको अपना आदर्श और ध्येय मानकर उनके आचरण और गुणोंका अनुकरण तथा उनकी आज्ञाका पालन करते हुए अपने जीवनको उत्तरोत्तर उन्नत बनानेमें ही अपना समय लगावे। इसीमें मनुष्यकी बुद्धिमत्ता है।

इस प्रकारकी सर्वोत्तम उन्नतिके लिये अर्थात् श्रीपरमात्माकी प्राप्तिके लिये श्रद्धा और प्रेमकी सबसे बढ़कर आवश्यकता है। श्रद्धा पहले होती है, तभी प्रेम होता है। सबसे उत्तम श्रद्धाके पात्र तो परमेश्वर ही हैं! दूसरे वे भी श्रद्धाके पात्र हैं जिनके संगसे हमारी परमेश्वरमें श्रद्धा होती है, जिनको परमेश्वरकी प्राप्ति हो चुकी है अथवा जो परमेश्वरकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न कर रहे हैं। परमेश्वर, साधु-महात्मा और उनके वचन, आचरण तथा गुणोंमें जो प्रत्यक्षवत् विश्वास और उच्चभाव है, उसीका नाम श्रद्धा है। जैसे एक पत्थर है और किसी महापुरुषने उसे पारस बतला दिया, तो ऐसी अवस्थामें महापुरुषमें श्रद्धालु मनुष्यको वह पत्थर उसी क्षण पारस ही दीखने लगता है। यानी हमने एक चीजको देखा है, सुना है और समझा है, उसी चीजको यदि महापुरुष दूसरी चीज (हमारे प्रत्यक्ष अनुभवसे विपरीत) बतावें, और उनके बतलाते ही हमारे मनमें और हमारी दृष्टिमें हमारी समझी हुई चीज न रहकर महापुरुषकी बतलायी हुई चीज ही प्रत्यक्ष हो जाय। यह सर्वोत्तम श्रद्धा है। चीज वैसी दीखे तो नहीं परन्तु श्रद्धाके कारण विश्वास कर लिया जाय, यह मध्यम श्रद्धा है, और महापुरुषके द्वारा बतलायी हुई बातमें विश्वास करनेकी कोशिश करना कनिष्ठ श्रद्धा है। हमें महापुरुषोंमें श्रद्धा करनी चाहिये। परन्तु आजकल प्रथम तो संसारमें परमेश्वरकी प्राप्तिवाले महापुरुष हैं ही बहुत कम। यदि कोई हैं तो उनका मिलना कठिन है और मिल जायँ भी तो उनको पहचानना अति दुर्गम है। यदि दैवयोगसे हमें महापुरुष मिल जायँ तो ईश्वरकी बड़ी कृपा समझनी चाहिये। न मिलें तो, उनके दिये हुए सदुपदेश और उनके जीवनके शुद्ध आचरणोंको आदर्श मानकर उनमें श्रद्धा करनी चाहिये। इस मार्गमें चलनेवाले साधकोंका संग भी बहुत सहायक होता है। उनमें भी यथायोग्य श्रद्धा रखनी चाहिये।

श्रद्धासे प्रेम तो आप ही हो जाता है। ईश्वरके प्रति किया हुआ प्रेम तो ईश्वरमें है ही; परन्तु ईश्वरकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ईश्वरप्राप्त पुरुषोंमें, साधकोंमें और शास्त्रोंमें जो प्रेम किया जाता है वह भी प्रकारान्तरसे ईश्वरमें ही है। अवश्य ही प्रेम स्वार्थरहित होना चाहिये। स्वार्थरहित प्रेमसे ही परमात्माकी शीघ्र प्राप्ति होती है। अपने प्रेमास्पदके गुण, स्वभाव, आचरण, नाम और स्वरूपका श्रवण, पठन और चिन्तन होते ही शरीरमें रोमांच, अश्रुपात, कम्प, कण्ठावरोध, प्रफुल्लता आदि लक्षणोंका प्रकट हो जाना प्रेमके बाहरी चिह्न हैं। संयोगमें परम प्रसन्नता, परम शान्ति और आत्मविस्मृति आदिका होना तथा वियोगमें परम व्याकुलता, अत्यन्त असहनशीलता और निरन्तर चिन्तन आदि होना प्रेमके भीतरी चिह्न हैं। प्रेमास्पदके ध्यानमें परम शान्ति और आनन्द तथा व्यवहारकालमें उसके नाम, रूप, गुण और आचरणोंका सतत स्मरण एवं उसके अनुकूल आचरण आदि प्रेमको बढ़ानेवाले हैं। इन सबके मूलमें श्रद्धा रहती है। ये श्रद्धा और प्रेम परमेश्वरके तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और गुणोंको समझनेसे होते हैं। अतएव अब हमें तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और गुणके सम्बन्धमें कुछ विचार करना चाहिये। परमात्माके तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और गुणोंका विस्तार अनन्त है और यह बड़ा ही निगूढ़ विषय है। इसलिये इसका सूक्ष्म बुद्धिसे विचार करना चाहिये।

तत्त्व

जैसे जलके परमाणु, बादल, जल और बरफ यह सब तत्त्वसे एक जल ही है, वैसे ही अनिर्वचनीय, ज्ञानस्वरूप, प्रकाशस्वरूप और मनोहर साकार विग्रह सब एक भगवान् ही है। आकाश शुद्ध निर्मल है, उसमें परमाणुरूपसे जल है, परन्तु वह न तो नेत्रोंद्वारा दीखता है और न किसी यन्त्रद्वारा ही दिखायी देता है। तथापि उसका होना विज्ञानसिद्ध है। वही जल जब बादलके रूपमें आता है तब भी जल तो नहीं दीखता परन्तु विचार करनेसे यह बात समझमें आ जाती है कि बादलमें जल है फिर हवाके संसर्गसे वह बरसने लगता है और वही जल सर्दी पाकर बरफके रूपमें आ जाता है। ऐसे ही ब्रह्म अनिर्वचनीय, अलक्ष्य, अचिन्त्य और गुणातीत है, उसके किसी एक अंशमें गुणका सम्बन्ध-सा प्रतीत होता है। अर्थात् अनन्त ब्रह्मके किसी एक अंशमें सत्त्व-रज-तम त्रिगुणमयी प्रकृति (अव्याकृत माया) स्थित है। उसी ब्रह्मके अंशको सगुण ब्रह्म कहा जाता है। इस मायाविशिष्ट ब्रह्मको ही सगुण निराकार ब्रह्म समझना चाहिये। अव्याकृत माया निराकार है, परन्तु वह है गुणमयी, इसीलिये उससे सम्बन्ध रखनेवाला ब्रह्म सगुण निराकार माना गया है। सत्-चित्-आनन्दस्वरूपसे इसी निराकार ब्रह्मकी उपासना की जाती है। गुणातीतकी उपासना नहीं बन सकती। क्योंकि गुणोंसे अतीत वस्तु किसीका विषय नहीं हो सकती। परन्तु गुणातीतके भावको लक्ष्यमें रखकर सगुण निराकारकी उपासना की जाती है। उसीका फल गुणातीत शुद्ध ब्रह्मकी प्राप्ति बतलाया गया है। वह विज्ञानानन्दघन सर्वव्यापी निराकार ब्रह्म ही अपनी इच्छासे तेजोमय प्रकाशस्वरूपमें आता है। उसको ज्योतिर्मय भी कहते हैं। सूर्य, चन्द्र आदि सम्पूर्ण ज्योतियोंका प्रकाशक होनेके कारण उसे ज्योतियोंका ज्योति कहा गया है। वही ज्योतिर्मय ब्रह्म चतुर्भुजरूपसे महाविष्णुके आकारमें दिव्य विग्रह धारण करता है। उसी चतुर्भुज महाविष्णुको सगुण-साकार ब्रह्म कहते हैं। वही महाविष्णु ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूपसे उत्पत्ति, पालन और संहारका कार्य करता है। जैसे परमाणु, बादल, जल और बर्फ तत्त्वसे विचार करनेपर एक जल ही है। इन सबको लेकर ही जलका एक समग्र रूप है। इसी प्रकार गुणातीत, सगुण-निराकार ज्योतिर्मय और सगुण-साकार सब मिलकर ही एक समग्र ब्रह्म है। इस समग्रको उपर्युक्तरूपसे जानना ही भगवान् को तत्त्वसे जानना है। परन्तु यह बात ध्यानमें रहे कि जल जैसे जड, विकारी और अनित्य है, वैसे भगवान् जड, विकारी और अनित्य नहीं है। संसारमें दूसरा कोई उसकी तुलनामें उदाहरण नहीं है, इसीलिये जलका उदाहरण समझानेके लिये दिया गया है।

मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदिके शरीर, वृक्ष, पहाड़, वनस्पति एवं सोना, चाँदी आदि धातुएँ और घट-पटादि सम्पूर्ण पार्थिव पदार्थ एक पृथ्वीके ही रूपान्तर हैं, इन सबकी उत्पत्ति मिट्टीसे होती है और अन्तमें ये सब मिट्टीमें ही जाकर समाप्त हो जाते हैं। विज्ञानके द्वारा विचार करके देखनेसे वर्तमान कालमें भी सब मिट्टी ही सिद्ध होते हैं। इस समग्रका नाम जैसे पृथ्वी है इसी प्रकार निर्गुण, सगुण, साकार आदि समग्रका नाम ही परमेश्वर है। जो साकार सगुण ब्रह्मकी उपासना करनेवाले ब्रह्मको एकदेशमात्रमें मानकर निर्गुण-निराकार और सगुण-निराकारकी निन्दा करते हैं वे ब्रह्मकी ही निन्दा करते हैं। इसी प्रकार जो निर्गुण-निराकारके उपासक निर्गुणके अतिरिक्त निराकार और साकाररूप सगुण ब्रह्मको उससे भिन्न समझकर निन्दा करते हैं वे भी उसी ब्रह्मकी निन्दा करते हैं। अतएव वे दोनों ही ब्रह्मके तत्त्वको नहीं जानते। भगवान् तो कहते हैं कि सब कुछ वासुदेव ही हैं ‘वासुदेव: सर्वमिति’ (गीता ७। १९)। भगवान् की शरण लेकर किसी भी रूपकी उपासना करनेवाले श्रद्धालु पुरुष उस समग्र ब्रह्मको जानकर उसे प्राप्त हो जाते हैं। भगवान् कहते हैं—

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥
(गीता ७। २९-३०)

‘जो मेरे शरण होकर जरा और मरणसे छूटनेके लिये यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्मको तथा सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जानते हैं। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैवके सहित तथा अधियज्ञके सहित (सबका आत्मरूप) मुझको जानते हैं वे युक्तचित्तवाले पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।’

रहस्य

ईश्वरका रहस्य अद्भुत और अलौकिक है। वह ईश्वर-कृपासे ही यत्किंचित् जाना जा सकता है। ‘रहस्य’ छिपे हुए तत्त्वको कहते हैं। रहस्य (मर्म) हर किसीको नहीं बतलाया जाता। कोई भी मनुष्य अपनी पूँजीका रहस्य पूछनेपर भी अपने परम विश्वासी और अन्तरंग प्रेमीके सिवा और किसीको नहीं बतलाता। साधु-महात्मागण भी अपनी स्थितिका हाल बिना अधिकारीके नहीं कहते। भगवान् भी अपने अधिकारी प्रिय भक्तको ही अपना रहस्य बतलाते हैं। भगवान् ने गीतामें जहाँ-जहाँपर ऐसा कहा है कि ‘यह रहस्यका विषय है,’ ‘यह गोपनीय है’, ‘यह गुह्यतम है’ या ‘सर्वगुह्यतम’ है,’ वहाँ-वहाँपर यही तत्त्व बतलाया है कि ‘मैं ही परमात्मा हूँ, मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ, तू मेरी ही भक्ति कर, मेरी ही शरण हो’ आदि। इस प्रकार अपनी वास्तविक स्थिति अपने प्रिय प्रेमीको बतला देना ही असली रहस्यका खोल देना है। जैसे गीता अध्याय ४ श्लोक १ से १४ तकमें भगवान् ने यह रहस्य समझाया है कि ‘मैं साक्षात् परमात्मा पृथ्वीका भार हरण करने, साधुओंका परित्राण करने और धर्मकी संस्थापना करनेके लिये लीलासे प्रकट होता हूँ।’ गीता अध्याय १८। ६४ में ‘मैं’ तुझे सर्वगुह्यतम रहस्य कहता हूँ’ ऐसा कहकर अगले श्लोक ६५-६६ में स्पष्ट कह दिया है कि ‘मैं’ ईश्वर हूँ, तू एकमात्र मेरी ही शरण आ जा।’

इसी प्रकार उत्तंक मुनिने जब भगवान् श्रीकृष्णको शाप देना चाहा तब आपने उनको अपना रहस्य बतलाकर शान्त किया। वहाँ यह कहा कि ‘समय-समयपर अवताररूपसे मैं ही प्रकट होता हूँ। मैं ही साक्षात् परमात्मा इस समय मनुष्यरूपमें श्रीकृष्ण-नामसे प्रकट हूँ। आप मुझको नहीं जानते, इसीलिये शाप देनेकी बात कहते हैं। आप मुझे शाप न दें। मुझपर आपके शापका कोई असर नहीं होगा और आप तपोभ्रष्ट हो जायँगे।’ फिर उत्तंकके प्रार्थना करनेपर उन्हें अपना विश्वरूप दिखलाकर आश्वासन दिया (महाभारत, अश्वमेधपर्व अध्याय ५३-५४)।

इसी तरह अन्यान्य भक्तोंको भी भगवान् ने समय-समयपर अपना रहस्य बतलाया है। जो मनुष्य गुरु, शास्त्र, संत या सत्संग आदि किसी भी साधनसे ईश्वरके रहस्यको यानी छिपे हुए परम तत्त्वको समझ जाता है वह फिर एक क्षणके लिये भी ईश्वरको नहीं भूल सकता। वह नित्य-निरन्तर ईश्वरको ही भजता है। वह जान लेता है कि ईश्वर ही सर्वोत्कृष्ट है। सर्वोत्कृष्टको छोड़कर निकृष्टको कौन बुद्धिमान् भजेगा? एक खानि है, उसमें सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, पत्थर, कोयला आदि कई चीजें हैं। जिसको जिस चीजकी इच्छा हो, वह उससे वही चीज निकाल ले सकता है। खोदने आदिका परिश्रम एक-सा ही है और समय भी समान ही लगता है। ऐसी अवस्थामें कोई मूढ़ व्यक्ति भले ही सोनेको छोड़कर पत्थर और कोयला आदि निकालने लगे। सोनेके तत्त्वको जाननेवाला बुद्धिमान् पुरुष तो एक मिनटके लिये भी दूसरी चेष्टा न करके सोना निकालनेमें ही लग जायगा। इसी प्रकार ईश्वरके तत्त्व—रहस्यको जाननेवाला पुरुष यह समझ जाता है कि ईश्वरसे बढ़कर और कोई भी वस्तु नहीं है। इसलिये वह सबसे मुँह मोड़कर केवल ईश्वरको भजनेमें ही लग जाता है। भगवान् स्वयं कहते हैं—

यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५। १९)

‘हे अर्जुन! इस प्रकार तत्त्वसे जो ज्ञानी पुरुष मुझको पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।’

वास्तवमें सारा विश्व परमेश्वरका ही स्वरूप है। किन्तु इस रहस्यको लोग जानते नहीं, इसीसे संसारके विविध रूपोंको देख-देखकर सुखी-दु:खी होते हैं। एक बहुरूपिया था, वह पुलिसके किसी बड़े अफसरका स्वाँग धरकर बाजारमें पहुँचा। एक दूकानदारका माल सड़कपर पड़ा था, बहुरूपियेने वहाँ जाकर दूकानदारको धमकाना शुरू किया कि तुमने सड़क रोक रखी है, अतएव तुमपर मुकद्दमा चलाया जायगा। दूकानदार डरकर काँपता हुआ खुशामदें करने लगा। बहुरूपियेका स्वाँग सफल हो गया। तब उसने अपना यथार्थ परिचय देकर दूकानदारसे इनाम माँगा। बस, बहुरूपिये का परिचय मिलते ही दूकानदार निर्भय होकर हँसने लगा। उसकी सारी विकलता क्षणभरमें हँसीके रूपमें बदल गयी। बहुरूपिया अब भी अफसरके वेषमें ही है, वही रूप दूकानदारको दीख रहा है परन्तु रहस्य खुल जानेसे भावमें महान् अन्तर पड़ गया। इसी प्रकार परमेश्वर अपनी योगमायासे विश्वरूप बने हुए क्षण-क्षणमें स्वाँग बदल रहे हैं और लोग उनका रहस्य न जाननेके कारण डरते और व्याकुल होते हैं। यदि हम प्रत्येक रूपमें भगवान् को पहचान लें, भगवान् का यह रहस्य हमारे लिये खुल जाय तो फिर कोई भी भय या व्याकुलता नहीं रह सकती। जैसे बहुरूपिया अपना भेद खोल देता है, वैसे ही भगवान् भी जब दया करके अपना रहस्य खोल देते हैं, तब भक्त उसी क्षण निर्भय और सुखमय बन जाता है; क्योंकि वह फिर सर्वत्र, सब समय, केवल एक आनन्दरूप भगवान् को ही देखता है।

प्रभाव

सामर्थ्य, शक्तिविशेष या तेजको प्रभाव कहते हैं। ईश्वरका प्रभाव अपरिमेय है। इसीलिये कहा जाता है कि ईश्वर असम्भवको सम्भव कर सकते हैं। समस्त संसारका उद्धार होना असम्भव-सा है; परन्तु ईश्वर चाहें तो एक ही क्षणमें कर सकते हैं। क्योंकि वे अपरिमित प्रभावशाली और सर्वशक्तिमान् हैं। उनके पूर्ण प्रभावको देव, दानव और महर्षिगण भी नहीं जानते। वे स्वयं ही अपने आपको जानते हैं। एक क्षणमें वे समस्त संसारका सृजन और संहार कर सकते हैं। श्रुति, स्मृति, गीता आदि ग्रन्थोंमें उनके प्रभावका वर्णन भरा पड़ा है। सारी शक्तियाँ उन्हींकी शक्तिका एक अंश हैं। गीतामें भगवान् कहते हैं—

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्॥
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
(१०। ४१-४२)

‘जो-जो मेरी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है उस-उसको तू मेरे तेजके अंशसे ही उत्पन्न हुई जान। अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जाननेसे तेरा क्या प्रयोजन है? मैं इस सम्पूर्ण जगत् को (अपनी योगमायाके) एक अंशमात्रसे धारण करके स्थित हूँ।’

जो मूढ़तासे किसी भी शक्तिविशेषको अपनी मान बैठता है, वह गिर जाता है। एक बार इन्द्र, अग्नि और वायु देवताओंने असुरोंपर विजय प्राप्तकर अपनी शक्तिका गर्व किया था, इसलिये उन्हें यक्षरूप ब्रह्मके सामने नीचा देखना पड़ा। यह कथा केन उपनिषद् में है।

भगवान् का वास्तविक प्रभाव भगवान् की शरण लेनेपर भगवान् की कृपासे ही जाना जा सकता है, अतएव हम सबको भगवान् की शरण होना चाहिये।

गुण

परमेश्वर गुणातीत हैं और सर्वसद्गुणोंसे पूर्ण हैं। उनके गुण अनन्त हैं, असीम हैं, शेष-शारदा आदि भी उनके गुणोंका वर्णन करनेमें असमर्थ हैं। मुझ-सरीखा साधारण मनुष्य क्या वर्णन करे। उनके गुणोंका वाणीसे वर्णन करना वैसा ही है जैसे अनन्त धनराशिके स्वामीको लखपती कहना अथवा सूर्यके साथ जुगुनूके समुदायकी उपमा देना। उस अनन्त गुणसागर प्रभुके एक गुणका भी भलीभाँति समझना और समझाना अत्यन्त ही कठिन है, फिर सब गुणोंका वर्णन तो हो ही कैसे सकता है? तथापि शास्त्रोंके आधारपर कुछ लिखा जाता है।

भगवान् परम प्रेममय हैं। सारे संसारका प्रेम एक जगह इकट्ठा किया जाय तो वह भी प्रेममय प्रभुके प्रेमसागरकी एक बूँदके समान भी शायद ही हो।

भगवान् का प्रकाश अलौकिक है। करोड़ों सूर्योंके इकट्ठे होनेपर भी शायद ही उनके प्रकाशके सदृश प्रकाश हो। समस्त संसारको एक सूर्य प्रकाशित करता है। ऐसे अनन्त कोटि ब्रह्माण्डोंके अनन्त कोटि सूर्योंको प्रकाश देनेवाले परमेश्वरके प्रकाशको समझानेका प्रयास करना खद्योतमण्डलीके प्रकाशसे सूर्यके प्रकाशको समझानेकी चेष्टाके समान ही है।

सर्वज्ञ परमात्माके ज्ञानकी तो बात ही विलक्षण है। वह ज्ञानरूप ही है। सारे संसारके जीवोंका ज्ञान एकत्र करनेपर भी उसे परमात्माके ज्ञानके एक क्षुद्र परमाणुका आभास बतलाना भी अत्युक्ति न होगा।

भगवान् की उदारताका तो कहना ही क्या है। विष देनेवाली पूतनाको भी जिसने परमगति दी, उसकी उदारताका अन्दाजा कैसे लगाया जाय?

अभय तो भगवान् का स्वरूप ही है। जिस प्रभुके रहस्य और प्रभावको जान लेनेमात्रसे अथवा जिसके नाम-स्मरणसे ही मनुष्य सदाके लिये अभय हो जाता है, उस अभयरूप भगवान् के अभय-गुणोंको कैसे समझाया जाय?

दयाके तो आप सागर ही हैं। पापी-से-पापी जीव भी यदि उनकी शरण चला जाता है तो उसे सदाके लिये पापमुक्त कर अपना अभयपद दे देते हैं। जिसको कोई नहीं अपनाता, उसे भी शरणागत होनेपर प्रभु अपना लेते हैं।

भगवान् की पवित्रताका अनुमान कौन करे? जिसके नाम-जप, गुण-गान और स्वरूप-चिन्तनसे महापापी मनुष्य भी परम पवित्र बन जाता है, इसीलिये पितामह भीष्मने ‘पवित्राणां पवित्रं यो मंगलानां च मंगलम्’ कहा था। उस भगवान् की पवित्रताका स्वरूप कैसे बतलाया जाय?

भगवान् महान् ब्रह्मचारी हैं। कामदेव तो उनके चिन्तन करनेवाले भक्तोंके पास भी नहीं आ सकता। भगवान् ने श्रीकृष्णरूपमें प्रकट होकर गोप-बालाओंके साथ निर्दोष काम-गन्ध-शून्य रासक्रीड़ा करते हुए गोप-बालाओंके द्वारा कामका मद चूर्ण करवाया था। जिसके ध्यान और चिन्तनसे ही मनुष्य ब्रह्मचारी बन जाता है, उस महान् ब्रह्मचारीके ब्रह्मचर्यकी महिमा कौन गा सकता है?

भगवान् क्षमाकी तो मूर्ति ही हैं। बिना ही कारण भृगुजीने आपके वक्ष:स्थलपर लात मार दी, उसकी ओर कुछ भी ध्यान न देते हुए आपने उनके पैर पलोटते हुए उलटे यह कहा कि ‘मेरी छाती कठोर है, कहीं आपको चोट तो नहीं लग गयी’ और उस लातके चिह्नको सदाके लिये भूषणरूपसे आपने धारण कर लिया। भरी सभामें गाली देनेवाले शिशुपालके सैकड़ों अपराधोंको क्षमा करके उसे आपने मुक्ति दे दी।

अद्वेष्टा तो आपका स्वभाव ही है। द्वेषकी आपमें गन्ध ही नहीं है। द्वेष करनेवालोंको भी आप दण्ड देकर उद्धार करते हैं। भगवान् की तो बात ही क्या है, भगवान् के भक्तोंका भी स्वाभाविक धर्म अपकार करनेवालोंका उपकार करना होता है।

सत्य तो भगवान् का स्वरूप ही है। समस्त संसारमें जो सत्ता प्रतीत होती है, उसके वही अधिष्ठान हैं। सूर्य, चन्द्र, समुद्र, पृथ्वी आदि सब जिस सत्यके आधारपर स्थित हैं वह सत्य उन भगवान् का ही स्वरूप है। समस्त संसार उन सत्यस्वरूप परमात्माके सत्यके आधारपर ही स्थित है।

भगवान् परम वैराग्यवान् हैं। गुणमय समस्त संसारको धारण करके भी आप गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं। सारा संसार जिनका कुटुम्ब है ऐसे सबका भरण-पोषण करनेवाले बहुकुटुम्बी होनेपर भी आप किसीमें आसक्त नहीं हैं। सदा सबसे निर्लेप रहते हैं।

भगवान् बड़े अमानी हैं। सम्पूर्ण लोकोंके परम माननीय होनेपर भी स्वयं सर्वथा अमानी हैं और सबको मान देते हैं। इसीसे आपके नाम हैं—‘अमानी मानद:।’

दानशीलता तो आपकी अनोखी ही है। कल्पवृक्षसे भी उसकी उपमा नहीं दी जा सकती। क्योंकि कल्पवृक्ष तो मुँहमाँगा बुरा-भला दे देता है, वह हिताहित नहीं देखता। परन्तु आप तो ऐसे हैं कि बुरी चीज तो माँगनेपर भी नहीं देते। नारदजीको विवाह नहीं करने दिया। और उचित समझनेपर, थोड़ा माँगनेवालोंको भी बहुत दे देते हैं। जैसे ध्रुवको राज्य माँगनेपर आपने मुक्ति भी दे दी।

शान्ति और आनन्द तो भगवान् का स्वरूप ही है, जिसकी शरण होनेसे मनुष्य परम शान्ति और परम आनन्दको प्राप्त हो जाता है, उसके शान्ति और आनन्दकी उपमा किसके साथ दी जाय?

भगवान् के अनन्त और अपरिमेय गुण हैं, श्रीपुष्पदन्ताचार्य कहते हैं—

असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥

‘हे परमेश्वर! यदि समुद्रकी दावात बनाकर उसमें कज्जलगिरिकी स्याही बनायी जाय और कल्पवृक्षकी शाखाको कलम बनाकर उससे पृथ्वीरूपी कागजपर स्वयं सरस्वतीदेवी सदा-सर्वदा आपके गुणोंको लिखती रहें तब भी आपके गुणोंका पार नहीं पा सकतीं।’

उपर्युक्त सब बातोंको समझकर मनुष्यको उचित है कि नित्य-निरन्तर सब प्रकारसे श्रीपरमात्माकी शरण होनेमें ही अपना अमूल्य समय लगावे। जीवनका एक क्षण भी व्यर्थ न बितावे। बस, यही समयका सदुपयोग है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur