Seeker of Truth

समाधियोग

कितने ही मित्र पातंजलयोगदर्शनके अनुसार समाधिविषयक लेखके लिये मुझे प्रेरणा कर रहे हैं। उन लोगोंका आग्रह देखकर मेरी भी लिखनेकी प्रवृत्ति होती है, परन्तु मैंने इसका सम्पादन किया नहीं। समाधिका विषय बड़ा दुर्गम और गहन है। महर्षि पतंजलिजीका समाधिके विषयमें क्या सिद्धान्त था, यह बात भाष्य आदि टीकाओंको देखनेपर भी अच्छी प्रकारसे समझमें नहीं आती। पातंजलयोगके अनुसार योगका भलीभाँति सम्पादन करनेवाले योगी भी संसारमें बहुत ही कम होते हैं। इस विषयके तत्त्वज्ञ योगीसे मेरी तो भेंट भी नहीं हुई। ऐसी परिस्थितिमें समाधिके विषयमें न तो मुझमें लिखनेकी योग्यता ही है और न मेरा अधिकार ही है। तथापि अपने मनके विनोदके लिये पातंजलयोगदर्शनके आधारपर, समाधिविषयक अपने भावोंको पाठकोंकी सेवामें निवेदन करता हूँ। अतएव पाठकगण मेरी त्रुटियोंके लिये क्षमा करेंगे।

पातंजलयोगदर्शनके अनुसार समाधिके मुख्यतया दो भेद हैं—१-सम्प्रज्ञात और २-असम्प्रज्ञात।

असम्प्रज्ञातकी अपेक्षा सम्प्रज्ञात बहिरंग है।

तदपि बहिरंगं निर्बीजस्य।
(योग० ३।८)

वह (संयमरूप) सम्प्रज्ञात समाधि भी निर्बीज समाधिकी अपेक्षा बहिरंग ही है। इस असम्प्रज्ञातयोगको ही निर्बीज समाधि, कैवल्य चितिशक्तिरूप स्वरूपप्रतिष्ठा* आदि नामोंसे पातंजलयोगदर्शनमें कहा है और उस योगीकी सदाके लिये अपने चिन्मय स्वरूपमें स्थिति हो जाती है तथा उसका किसीके साथ सम्बन्ध नहीं रहता। इसलिये उसको चितिशक्तिरूप स्वरूपप्रतिष्ठा कहते हैं। उस अवस्थामें संसारके बीजका अत्यन्त अभाव है। इसलिये यह निर्बीज समाधिके नामसे प्रसिद्ध है।**

* पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसव: कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति। (४।३४)

** तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:। (१।५१)

सम्प्रज्ञातयोगके मुख्य चार भेद हैं।

वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञात:।
(१।१७)

वितर्कके सम्बन्धसे जो समाधि होती है उसका नाम ‘वितर्कानुगम’, विचारके सम्बन्धसे होनेवालीका नाम ‘विचारानुगम’, आनन्दके सम्बन्धसे होनेवालीका ‘आनन्दानुगम’ और अस्मिताके सम्बन्धसे होनेवाली समाधिका नाम ‘अस्मितानुगम’ है।

(१) आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी—ये पाँच स्थूलभूत और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—ये पाँच स्थूलविषय, इन पदार्थोंमें होनेवाली समाधिका नाम ‘वितर्कानुगम’ समाधि है। इसमें केवल पांचभौतिक स्थूल शरीर एवं सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदिसहित यह स्थूल ब्रह्माण्ड- अन्तर्गत है। इस वितर्कानुगम समाधिके दो भेद हैं—१-सवितर्क और २-निर्वितर्क।

(१) सवितर्क

तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पै: संकीर्णा सवितर्का समापत्ति:।
(१।४२)

ग्राह्य अर्थात् ग्रहण करनेयोग्य उन स्थूल पदार्थोंमें शब्द, अर्थ, ज्ञानके विकल्पोंसे संयुक्त, समापत्तिका नाम ‘सवितर्क’ समाधि है। जैसे कोई सूर्यमें समाधि लगाता है, तो उसमें सूर्यका नाम, सूर्यका रूप और सूर्यका ज्ञान—वह तीनों प्रकारकी कल्पना रहती है***, इसलिये इसे सवितर्क समाधि कहते हैं, यह ‘सविकल्प’ है।

*** जिस पदार्थमें योगी समाधि लगाता है, उस पदार्थके वाचक या नामको तो शब्द, तथा वाच्य यानी स्वरूपको अर्थ और जिससे शब्द-अर्थके सम्बन्धका बोध होता है, उसको ज्ञान कहते हैं। जैसे सूर्य यह शब्द तो सूर्यदेवका वाचक है, सारे विश्वको प्रकाशित करनेवाला आकाशमें जो सूर्यमण्डल दीख पड़ता है, वह सूर्य शब्दका वाच्य है और उस मण्डलको देखकर यह सूर्य है—ऐसा जो बोध होता है, उसका नाम ज्ञान है।

(२) निर्वितर्क

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का।
(१।४३)

स्मृतिके परिशुद्ध होनेपर अर्थात् शब्द और ज्ञानके विकल्पोंसे चित्तवृत्तिके भलीभाँति रहित होनेपर, जिसमें साधकको अपने स्वरूपके ज्ञानका अभाव-सा होकर, केवल अर्थ यानी ध्येयमात्रकी ही प्रतीति रहती है, उसका नाम ‘निर्वितर्क’ समापत्ति अर्थात् समाधि है। जैसे सूर्यका ध्यान करनेवाला पुरुष मानो अपना ज्ञान भूलकर तद्रूपताको प्राप्त हो जाता है और उसे केवल सूर्यका स्वरूपमात्र ही प्रतीत होता है, उसका नाम निर्वितर्क समाधि है। इसमें विकल्पोंका अभाव होनेके कारण इसे निर्विकल्प भी कहते हैं।

(२) शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि सूक्ष्म तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, अहंकार और मूलप्रकृति एवं दस इन्द्रियाँ, इनमें होनेवाली समाधिका नाम ‘विचारानुगम’ समाधि है। कोई-कोई इन्द्रियोंमें होनेवाली समाधिको आनन्दानुगम समाधि मानते हैं, परन्तु ऐसा मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता; क्योंकि महर्षि पतंजलि कहते हैं—

एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता।
(१।४४)

इस सवितर्क और निर्वितर्कके भेदके अनुसार ही सूक्ष्म विषयवाली, सविचार और निर्विचार समाधिकी व्याख्या समझनी चाहिये। सूक्ष्म विषयकी मर्यादा स्थूल पंचभूतोंको और स्थूल विषयोंको बाद देकर मूलप्रकृतिपर्यन्त बतलायी है। इससे सूक्ष्म विषयकी व्याख्याके अन्तर्गत ही इन्द्रियाँ और मन, बुद्धि आदि आ जाते हैं—

सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम्।
(१। ४५)

तथा सूक्ष्मविषयताकी सीमा अलिंग यानी मूलप्रकृतितक है। मूलप्रकृतितक होनेसे दृश्यका सारा सूक्ष्मविषय, ‘विचारानुगम’ समाधिके अन्तर्गत आ जाता है।

इस विचारानुगम समाधिके भी दो भेद हैं।

१-सविचार, २-निर्विचार।

(१) सविचार—स्थूल पदार्थोंको छोड़कर शेष मूल प्रकृतिपर्यन्त सम्पूर्ण ग्रहण और ग्राह्योंमें नाम (शब्द), रूप (अर्थ), ज्ञानके विकल्पोंसे संयुक्त समापत्ति अर्थात् समाधिका नाम सविचार समाधि है। तीनों प्रकारके विकल्पोंसे युक्त होनेके कारण इस सविचार समाधिको सविकल्प भी कहते हैं

ध्यानमें तो ध्याता, ध्यान, ध्येयकी त्रिपुटी रहती है और इस सवितर्क और सविचार समापत्तिमें केवल ध्येयविषयक ही शब्द, अर्थ, ज्ञानसे मिला हुआ विकल्प रहता है तथा समाधिमें केवल ध्येयका स्वरूपमात्र ही रह जाता है। इसलिये यह समापत्ति, ध्यानसे उत्तर एवं समाधिकी पूर्वावस्था है, अतएव इसको भी समाधि ही समझना चाहिये।

(२) निर्विचार—जिसमें उपर्युक्त स्थूल पदार्थोंको छोड़कर शेष मूलप्रकृतिपर्यन्त सम्पूर्ण ग्रहण और ग्राह्योंमें स्मृतिके परिशुद्ध होनेपर अर्थात् शब्द, अर्थ और ज्ञानके विकल्पोंसे चित्तवृत्तिके भलीभाँति रहित होनेपर जिसमें योगीको अपने स्वरूपके ज्ञानका अभाव-सा होकर केवल अर्थमात्रकी ही प्रतीति रहती है, उसका नाम निर्विचार समाधि है। इसमें विकल्पोंका अभाव होनेके कारण इसे निर्विकल्प भी कहते हैं।

ग्रहण तेरह हैं—पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन, बुद्धि, अहंकार। ग्राह्य पदार्थोंके ग्रहण करनेमें द्वार होनेसे इन्हें ग्रहण कहा गया है।

इनके अलावा—स्थूल, सूक्ष्म समस्त जड दृश्यवर्ग ग्राह्य हैं। ये उपर्युक्त तेरह ग्रहणोंके द्वारा पकड़े जानेवाले होनेसे इन्हें ‘ग्रहाय’ कहते हैं।

उपर्युक्त विवेचनका तात्पर्य यह है कि प्रकृतिका कार्यरूप यह दृश्यमात्र जड है और इस जडमें होनेवाली समाधिका नाम ‘वितर्कानुगम’ और ‘विचारानुगम’ समाधि है।

कार्यसहित प्रकृति जो दृश्यवर्ग है, इसीका नाम बीज है; इसलिये इसको लेकर होनेवाली समाधिका नाम सबीज समाधि है।

ता एव सबीज: समाधि:।
(१।४६)

(३) अन्त:करणकी स्वच्छतासे उत्पन्न होनेवाले आह्लाद यानी प्रिय, मोद, प्रमोद आदि वृत्तियोंमें जो समाधि होती है, उसका नाम ‘आनन्दानुगम’ समाधि है। उपर्युक्त वितर्क और विचार—ये दोनों समाधियाँ तो केवल जडमें अर्थात् दृश्य-पदार्थोंमें हैं परन्तु यह केवल जडमें नहीं है। क्योंकि आनन्दकी उत्पत्ति जड और चेतनके सम्बन्धसे होती है। इस आनन्दमें आत्माकी भावना करनेसे विवेकख्याति †† द्वारा आत्म-साक्षात्कार भी हो जाता है।

†† सत्त्व और पुरुषकी ख्यातिमात्रसे तो सब पदार्थोंपर स्वामित्व और ज्ञातृत्वकी प्राप्ति होती है और उसमें वैराग्य होनेसे संशय-विपर्ययसे रहित निर्मल विवेकख्याति होती है। इसीको ‘सर्वथा विवेकख्याति’ भी कहते हैं, इससे ‘धर्ममेघ समाधि-लाभ और क्लेश-धर्मकी निवृत्ति होकर कैवल्य पदकी प्राप्ति हो जाती है।’ यह ‘धर्ममेघ समाधि’ सम्प्रज्ञात योग नहीं है। असम्प्रज्ञात योग यानी निर्बीज समाधिकी पूर्वावस्था है, क्योंकि इससे समस्त क्लेश-कर्मोंकी निवृत्ति होकर कैवल्यपदकी प्राप्ति बतलायी गयी है।

(४) चेतन द्रष्टाकी चिन्मयशक्ति एवं बुद्धिशक्ति इन दोनोंकी जो एकता-सी है उसका नाम ‘अस्मिता’ है।

दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ।
(२।६)

पुरुष और बुद्धिकी एकरूपताकी-सी प्रतीति होना ‘अस्मिता’ है††† इसलिये बुद्धिवृत्ति और पुरुषकी चेतनशक्तिकी एकताके-से स्वरूपमें जो समाधि होती है उसका नाम ‘अस्मितानुगम’ समाधि है।

††† वितर्कानुगम और विचारानुगम समाधिके जैसे सवितर्क और निर्वितर्क तथा सविचार और निर्विचार दो-दो भेद होते हैं वैसे ही आनन्द और अस्मिताके भी दो-दो भेद किये जा सकते हैं।

‘आनन्दानुगम’ तो चेतन पुरुष और बुद्धिके सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाले आनन्द—आह्लादमें होती है; किन्तु यह समाधि चेतन पुरुष और बुद्धिकी एकात्मताकी-सी स्थितिमें होती है। इस समाधिसे पुरुष और प्रकृतिका पृथक्-पृथक् रूपसे ज्ञान हो जाता है। उस तत्त्व और पुरुषके पृथक्-पृथक् ज्ञानमात्रसे समस्त पदार्थोंके स्वामित्व और ज्ञातृत्वकी प्राप्ति होती है।

सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च।
(३। ४९)

फिर इन सबमें वैराग्य होनेपर, क्लेश-कर्मके मूलभूत अविद्यारूप दोषकी निवृत्ति होकर, पुरुष ‘कैवल्य’ अवस्थाको प्राप्त हो जाता है—

तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्।
(३। ५०)

असम्प्रज्ञात योग अर्थात् निर्बीज समाधि तो संकल्पोंका अत्यन्त अभाव होनेके कारण, निर्विकल्प है ही किन्तु सम्प्रज्ञात योगमें निर्वितर्क और निर्विचार आदि सबीज समाधियाँ भी, विकल्पोंका अभाव होनेके कारण, निर्विकल्प हैं।

‘ग्रहण’ और ‘ग्राह्यों’ में तथा आनन्द और बुद्धिसहित ग्रहीतामें सम्प्रज्ञात योगको बतलाकर, अब केवल ग्रहीतामें होनेवाला असम्प्रज्ञात योग बतलाया जाता है। चेतनरूप ग्रहीताके स्वस्वरूपमें होनेवाली समाधिका नाम असम्प्रज्ञात योग है। इसमें दृश्यके अभावसे द्रष्टाकी अपने स्वरूपमें समाधि होती है।

विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्व: संस्कारशेषोऽन्य:।
(१। १८)

चित्तवृत्तियोंके अभावके अभ्याससे उत्पन्न हुई स्थिति, जिसमें केवल चित्तनिरोधके संस्कार ही शेष रहते हैं, वह अन्य है अर्थात् असम्प्रज्ञात समाधि है। इसमें चित्तकी वृत्तियोंका सर्वथा निरोध हो जाता है और चित्तनिरोधके संस्कार ही रह जाते हैं।

गुण और गुणोंके कार्यमें अत्यन्त वैराग्य होनेसे समस्त दृश्यका आलम्बन चित्तसे छूट जाता है, दृश्यसे अत्यन्त उपरामता होकर चित्तकी वृत्तियोंका निरोध होता है और क्लेशकर्मोंका नाश हो जाता है तथा क्लेशकर्मोंका नाश हो जानेसे उस योगीका चित्तके साथ अत्यन्त सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। सत्, रज, तम-गुणमयी प्रकृति उस योगीको मुक्ति देकर कृतकार्य हो जाती है। यही योगीकी कैवल्य अवस्था अथवा चितिशक्तिरूप स्वरूपप्रतिष्ठा है। इसीको निर्बीज समाधि कहते हैं।

सम्प्रज्ञात योगमें जिस पदार्थका आलम्बन किया जाता है, उस पदार्थका यथार्थ ज्ञान होकर, योगीकी भूमियोंमें वृद्धि होते-होते, शेषमें प्रकृति पुरुषतकका यथार्थ ज्ञान हो जाता है और उसमें वैराग्य होनेसे कैवल्यपदकी प्राप्ति हो जाती है। किन्तु असम्प्रज्ञात योगमें तो शुरूसे ही दृश्यके आलम्बनका त्याग किया जाता है जिससे दृश्यका अत्यन्त अभाव होकर, त्याग करनेवाला केवल चेतन पुरुष ही बच रहता है, वही उसकी कैवल्य अवस्था है। अर्थात् सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञातका प्रधान भेद यह है कि सम्प्रज्ञात योग तो किसीको ध्येय बनाकर यानी किसीका आलम्बन करके किया जाता है। यहाँ आलम्बन ही बीज है, इसलिये किसीको आलम्बन बनाकर, उसमें समाधि होती है, उसका नाम सबीज समाधि है। किन्तु असम्प्रज्ञात योगमें आलम्बनका अभाव है। आलम्बनका अभाव करते-करते, अभाव करनेवाली वृत्तियोंका भी अभाव होनेपर, जो समाधि होती है, वह असम्प्रज्ञात योग है। निरालम्ब होनेके कारण इसको निर्बीज समाधि भी कहते हैं।

ऊपर बताये हुए असम्प्रज्ञात योगकी सिद्धि दो प्रकारसे होती है। जिनमें एकका नाम ‘भव-प्रत्यय’ है और दूसरेका नाम ‘उपाय-प्रत्यय’। जो पूर्वजन्ममें विदेह और प्रकृतिलयतक पहुँच चुके थे वे ही योगभ्रष्ट पुरुष इस जन्ममें भव-प्रत्ययके अधिकारी हैं, शेष सब मनुष्य उपाय-प्रत्ययके अधिकारी हैं। उनमें भव-प्रत्यय यह है—

भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।
(१। १९)

विदेही और प्रकृतिलयोंको भव-प्रत्यय होता है!

भव नाम है जन्मका, प्रत्यय नाम है प्रतीति—प्रकट होनेका। जन्मसे ही जिसकी प्रतीति होती है अर्थात् जो जन्मसे ही सम्प्रज्ञात योग प्रकट है, उसे ‘भव-प्रत्यय’ कहते हैं। अथवा ‘भवात् प्रत्यय: भवप्रत्यय:।’ भवात् नाम जन्मसे, प्रत्यय नाम ज्ञान, जन्मसे ही है ज्ञान जिसका अर्थात् जिस सम्प्रज्ञात योगकी प्राप्तिका, उसका नाम है ‘भव-प्रत्यय’। सारांश यह है कि विदेही और प्रकृतिलय योगियोंको जन्मसे ही, सम्प्रज्ञात योगकी प्राप्तिविषयक ज्ञान है। उनको श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञाकी आवश्यकता नहीं रहती; क्योंकि इन सबका साधन उनके पूर्वजन्ममें हो चुका है।

इसलिये पूर्वजन्मके संस्कारबलसे उनको परवैराग्य होकर विराम प्रत्ययके अभ्यासपूर्वक यानी चित्तवृत्तियोंके अभावके अभ्यास अर्थात् दृश्यरूप आलम्बनके अभावके अभ्याससे असम्प्रज्ञात यानी निर्बीज समाधि हो जाती है।

भगवद्गीतामें भगवान् श्रीकृष्णने भी योगभ्रष्ट पुरुषकी गति बतलाते हुए कहा है—

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्। यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन॥ 

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:। (६।४३-४४)

और वह योगभ्रष्ट पुरुष, वहाँ उस पहले शरीरमें संग्रह किये हुए बुद्धि-संयोगको अर्थात् समत्वबुद्धियोगके संस्कारोंको अनायास ही प्राप्त हो जाता है, और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभावसे वह फिर परमात्माकी प्राप्तिरूप सिद्धिके लिये पहलेसे भी बढ़कर प्रयत्न करता है। वह श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहलेके अभ्याससे ही नि:सन्देह भगवान् की ओर आकर्षित किया जाता है।

(१) विदेही उन्हें कहते हैं, जिनका देहमें अभिमान नहींके तुल्य है। सम्प्रज्ञात योगकी जो चौथी समाधि अस्मिता है, उसमें समाधिस्थ होनेसे पुरुष और बुद्धिका पृथक्-पृथक् ज्ञान हो जाता है, उस ज्ञानसे आत्माको ज्ञाता और बुद्धिको ज्ञेयरूपसे समझकर, शरीरसे आत्माको पृथक् देखता है। तब उसको ‘विदेह’ ऐसा कहा जाता है।

(२) ‘प्रकृतिलय’ उन्हें कहते हैं जिनमें निर्विचार समाधिद्वारा प्रकृतिपर्यन्त संयम करनेकी योग्यता हो गयी है। इस प्रकारके योगियोंको अध्यात्मप्रसाद होकर ऋतम्भरा प्रज्ञाकी प्राप्ति हो जाती है।

निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसाद:।
(१। ४७)

निर्विचार समाधिमें वैशारद्य यानी प्रवीणता होनेपर, अध्यात्मप्रसाद होता है। रज, तमरूप मल और आवरणका क्षय होकर, प्रकाशस्वरूप बुद्धिका स्वच्छ प्रवाह निरन्तर बहता रहता है, इसीका नाम ‘वैशारद्य’ है। इससे प्रकृति और प्रकृतिके सारे पदार्थोंका, संशयविपर्ययरहित प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है; इसका नाम ‘अध्यात्मप्रसाद’ है। यह सम्प्रज्ञात योगकी निर्विचार समाधि है।

विदेह और प्रकृतिलय योगियोंका विषय बतलाकर अब साधारण मनुष्योंके लिये, असम्प्रज्ञात योग प्राप्त करनेके लिये ‘उपाय-प्रत्यय’ कहते हैं—

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्।
(१। २०)

जो विदेह और प्रकृतिलय नहीं हैं, उन पुरुषोंका श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक, विरामप्रत्ययके अभ्यासद्वारा असम्प्रज्ञात योग सिद्ध होता है।

श्रद्धा—योगकी प्राप्तिके लिये अभिरुचि या उत्कट इच्छाको उत्पन्न करनेवाले विश्वासका नाम श्रद्धा है। जिसका अन्त:करण जितना स्वच्छ यानी मल-दोषसे रहित होता है, उतनी ही उसमें श्रद्धा ‡‡ होती है। श्रद्धा ही कल्याणमें परम कारण है, इसलिये आत्माका कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंको श्रद्धाकी वृद्धिके लिये विशेष कोशिश करनी चाहिये।

‡‡ भगवद्गीतामें भी भगवान् कहते हैं—

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स:॥ (१७। ३)

हे भारत! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अन्त:करणके अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावालाहै, वह स्वयं ही वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा है, वैसा ही उसका स्वरूप है।

वीर्य—योगकी प्राप्तिके लिये साधनकी तत्परता उत्पन्न करनेवाले उत्साहका नाम ‘वीर्य’ है। क्योंकि श्रद्धाके अनुसार उत्साह और उत्साहके अनुसार ही साधनमें तत्परता होती है। और उस तत्परतासे मन और इन्द्रियोंके संयमकी भी सामर्थ्य हो जाती है।

स्मृति—अनुभूत विषयका न भूलना यानी उसके निरन्तर स्मरण रहनेका नाम ‘स्मृति’ है। इसलिये यहाँ अध्यात्मबुद्धिके द्वारा सूक्ष्म विषयमें जो चित्तकी एकाग्रता होकर, एकतानता है अर्थात् स्थिर स्थिति (ध्यान) है, उसको स्मृति नामसे कहा है।

समाधि—फिर उसीमें अपने स्वरूपका अभाव-सा होकर, जहाँ केवल अर्थमात्र ध्येय वस्तुका ही ज्ञान रह जाता है उसका नाम ‘समाधि’ है।

प्रज्ञा—ऋतम्भरा प्रज्ञा ही यहाँ प्रज्ञा नामसे कथित हुई है। उपर्युक्त समाधिके फलस्वरूप यह ऋतम्भरा प्रज्ञा योगीको प्राप्त होती है।

ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा।
(१।४८)

वहाँ ऋतम्भरा प्रज्ञा होती है। ऋत सत्यका नाम है। उसको धारण करनेवाली बुद्धिका नाम ऋतम्भरा है।

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्त्वात्॥
(१। ४९)

विशेष अर्थवाली होनेसे यह प्रज्ञा, श्रुत और अनुमानजन्य प्रज्ञासे अन्य विषयवाली है।

अर्थात् श्रुति, स्मृतिद्वारा सुने हुए और अपनी साधारण बुद्धिके द्वारा अनुमान किये हुए, विषयोंसे भी इस बुद्धिके द्वारा विशेष अर्थका यानी यथार्थ अर्थका अनुभव होता है।

इस ऋतम्भरा प्रज्ञाके द्वारा उत्पन्न हुए ज्ञानसे संसारके पदार्थोंमें वैराग्य और उपरति उत्पन्न होकर, उससे आत्मविषयक साधनमें आनेवाले विक्षेपोंका अभाव हो जाता है।

तज्ज: संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी।
(१।५०)

उस ऋतम्भरा प्रज्ञासे उत्पन्न ज्ञानरूप संस्कार अन्य दृश्यजन्य संस्कारोंका बाधक है।

इसलिये उपर्युक्त प्रज्ञाके संस्कारोंद्वारा विराम-प्रत्ययका अभ्यास करना चाहिये अर्थात् विषयसहित चित्तकी समस्त वृत्तियोंके विस्मरणका अभ्यास करना चाहिये। इस प्रकारका अभ्यास करते-करते दृश्यका अत्यन्त अभाव हो जाता है। दृश्यका अत्यन्ताभाव होनेपर दृश्यका अभाव करनेवाली बुद्धिवृत्तिका भी स्वयमेव निरोध हो जाता है और इसके निरोध होनेपर निर्बीज समाधि हो जाती है। # यही इस योगीकी स्वरूपमें स्थिति है या यों कहिये कि कैवल्यपदकी प्राप्ति है।

# तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीज: समाधि:। (१।५१)

उस अन्य (ऋतम्भरा प्रज्ञाजन्य) संस्कारके भी निरोध होनेपर सबके निरोध होनेसे निर्बीज (निर्विकल्प) समाधि होती है।

इनका सार निकालनेसे यही प्रतीत होता है कि अन्त:करणकी स्वच्छतासे श्रद्धा होती है। श्रद्धासे साधनमें तत्परता होती है, तत्परतासे मन और इन्द्रियोंका निरोध होकर परमात्माके स्वरूपमें निरन्तर ध्यान होता है, उस ध्यानसे परमात्माके तत्त्वका यथार्थ ज्ञान होता है। और ज्ञानसे परम शान्तिकी प्राप्ति होती है। इसीको भगवत्प्राप्ति, परमधामकी प्राप्ति आदि नामोंसे गीतामें बतलाया गया है और यहाँ इस प्रकरणमें इसीको ‘निर्बीज समाधि’ या ‘कैवल्यपद’ की प्राप्ति कहा है।

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)