साधनसम्बन्धी प्रश्नोत्तर
कुछ भाइयोंने साधनके सम्बन्धमें कई प्रश्न किये हैं, उनको जो उत्तर दिये गये, वे सभीके लिये उपयोगी होनेसे प्रश्नोत्तरके रूपमें यहाँ दिये जा रहे हैं—
प्रश्न—हमलोग शयनके समय, मनमें जो एक सांसारिक वातावरणका प्रवाह चल पड़ता है, उसे हटाकर भगवान् के गुण, प्रभाव और लीलाके सहित उनके स्वरूपका चिन्तन करनेका ध्येय बनाते हैं; किंतु प्रथम तो शयनके समय उसकी स्मृति ही नहीं होती और यदि कभी होती है तो वही पूर्वका प्रवाह बलात् चल पड़ता है, यह क्यों होता है और इसके सुधारका क्या उपाय है?
उत्तर—यह संसारका चिन्तन करनेका जन्म-जन्मान्तरका अभ्यास है तथा सांसारिक पदार्थोंमें आसक्ति होनेके कारण उनमें प्रीति हो रही है। यही कारण है कि प्रयत्न करनेपर भी बलात् बार-बार संसारके चिन्तनका ही प्रवाह बन जाता है। जैसे सायंकालके समय मनुष्य बार-बार यह निश्चय कर लेता है कि सुबह चार बजे उठकर शौच-स्नान नित्यकर्म करना है; पर प्रथम तो चार बजे नींद नहीं टूटती और यदि टूट जाती है तो उठनेका मन नहीं करता, आलस्य और आसक्तिके कारण लेटनेमें ही मन रहता है; क्योंकि उसमें सुखबुद्धि है; किंतु शौच-स्नान, नित्यकर्म प्रात:काल करनेकी सब प्रकारसे बहुत लाभकी चीज है तथा स्वास्थ्य और साधन दोनोंके लिये अत्यन्त लाभप्रद है, ऐसा विवेक और बुद्धिके द्वारा विचारपूर्वक दृढ़ निश्चय करके लोग जल्दी उठ जाते हैं; इसी प्रकार शयनके समयमें विचारद्वारा मनको समझाया जाय और बुद्धिके निश्चयपर जोर डाला जाय कि यह संसारका चिन्तन हानिकर है और भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीलाका चिन्तन बहुत लाभदायक है तथा बार-बार प्रयत्न किया जाय तो यह शयन-समयका अभ्यास भी सुधर सकता है।
प्रश्न—प्रात: और सायंकाल सन्ध्या-गायत्री, पूजा-पाठ, जप-ध्यान और स्वाध्याय आदि नित्यकर्म करते समय आलस्य और चित्तकी चंचलताके कारण उस खास साधनके समय भी हम उच्चकोटिका साधन नहीं कर पाते। यदि उपर्युक्त साधनका सुधार किया जाय तो वह हजारोंगुना अधिक लाभप्रद हो सकता है, ऐसा हम पढ़ते, सुनते और समझते हैं तथा चेष्टा भी करते हैं, तब भी सुधार नहीं होता। इसमें क्या हेतु है और इसके सुधरनेका क्या उपाय है?
उत्तर—ईश्वरमें अनन्य श्रद्धा-प्रेमकी और तीव्र अभ्यासकी कमी तथा विषय-भोगोंकी आसक्ति ही उच्चकोटिका साधन न होनेमें प्रधान कारण है।
भगवन्नाम और गायत्रीजपके विषयमें शास्त्रोंमें ऐसा बतलाया है कि उच्चारण करके किये हुए जपकी अपेक्षा उपांशु दसगुना श्रेष्ठ है और उपांशुसे मानसिक दसगुना श्रेष्ठ है।*
* मनुजीने कहा है—
विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणै:।
उपांशु: स्याच्छतगुण: साहस्रो मानस: स्मृत:॥
(२। ८५)
‘दर्शपौर्णमासादि विधियज्ञोंसे साधारण जोर-जोरसे किया जानेवाला जपयज्ञ दसगुना श्रेष्ठ है, उपांशु (होठ और जिह्वाके हिलनेपर भी दूसरेको सुनायी न पड़े—इस प्रकार किया जानेवाला) जप सौगुना श्रेष्ठ है तथा मानसजप हजारगुना श्रेष्ठ है।’
इस प्रकारका जप श्रद्धा-प्रेमपूर्वक अर्थसहित निष्कामभावसे किया जाय तो वह अनन्तगुना श्रेष्ठ हो जाता है। इसी प्रकार सन्ध्या-वन्दन, पूजा-पाठ, स्वाध्याय आदि सारा नित्यकर्म उसके तत्त्व-रहस्यको समझते हुए श्रद्धा-प्रेमपूर्वक अर्थसहित निष्कामभावसे किया जाय तो हमारा सभी नित्यकर्म अनन्तगुना हो सकता है। इसलिये इस विषयमें हमको दृढ़ विश्वास करके विवेक और विचारके द्वारा उसके तत्त्व-रहस्यको समझकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक वैराग्ययुक्त चित्तसे बड़े जोरके साथ निष्कामभावसे तीव्र अभ्यास करना चाहिये तथा साधन उच्चकोटिका बने, इसके लिये परमेश्वरसे स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये; क्योंकि साधारण प्रयत्नसे इसका सुधार होना सम्भव नहीं।
प्रश्न—कल्याणकामी पुरुष चलते, उठते-बैठते, खाते-पीते—सभी समय निरन्तर भगवान् का स्मरण रखते हुए ही सब काम करना चाहता है तथा कुछ चेष्टा भी करता है पर ऐसा बनता नहीं, इसका क्या कारण है? तथा इसके लिये क्या उपाय करना चाहिये?
उत्तर—परमेश्वरमें श्रद्धा-प्रेम और साधनके अभ्यासकी कमी ही इसका प्रधान कारण है। यदि ईश्वरमें श्रद्धा-प्रेम करके तीव्र अभ्यास किया जाय तो यह दोष सहज ही दूर हो सकता है। जैसे नटनीका रुपयोंमें प्रेम है, इसलिये वह बाँसपर चढ़कर एक बाँससे दूसरे बाँसपर जानेके लिये उनके बीचमें बँधे हुए रस्सेपर गाती-बजाती हुई चलती है, किंतु उसका निरन्तर अपने पैरोंमें ध्यान रहता है; क्योंकि यदि निरन्तर पैरोंमें ध्यान न रहे तो उसका रस्सेपरसे गिर पड़ना सम्भव है। इस प्रकार नटनीका जितना प्रेम रुपयोंमें है, उतना भी प्रेम हमारा भगवान् में हो तो ईश्वरका निरन्तर स्मरण रहते हुए कोई भी काम होनेमें बाधा नहीं आ सकती। अत: इससे यही सिद्ध होता है कि हमारे श्रद्धा-प्रेम और अभ्यासकी कमी है। नटनी भी अभ्यास करते-करते बहुत समयके बाद उपर्युक्त सफलता प्राप्त करती है, एक दिनमें नहीं। इसलिये जैसे नटनी निरन्तर अपने पैरोंमें ध्यान रखती है, वैसे ही हम निरन्तर परमेश्वरका स्मरण रखें और जैसे नटनी गाती-बजाती है, वैसे ही हम संसारका सब काम करें तो हम भी अपने कार्यमें सफल हो सकते हैं।
दूसरी बात यह है कि यह काम यदि असम्भव होता तो भगवान् कभी गीतामें यह नहीं कहते कि—
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
(८। ७)
‘इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।’
इससे यह सिद्ध होता है कि यह असम्भव नहीं है। अत: नटनीकी तरह हमलोगोंको भी श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निरन्तर अभ्यास करनेके लिये तत्पर होना चाहिये।
प्रश्न—हमलोग बहुत बार तो संसारका ऐसा व्यर्थ चिन्तन करते रहते हैं कि जिसमें न तो स्वार्थकी सिद्धि है और न परमार्थकी ही। इस बातको समझते हुए और उस व्यर्थ चिन्तनके त्यागका प्रयत्न करनेपर भी उसे छोड़ नहीं सकते, इसका क्या कारण है और इसके लिये क्या उपाय करना चाहिये?
उत्तर—अज्ञानके कारण संसारके पदार्थोंमें मनको सुख प्रतीत होता है तथा उनके चिन्तनकी अनादिकालसे आदत पड़ी हुई है, इसीसे उनमें आसक्ति हो गयी है और इसके विपरीत, ईश्वरमें श्रद्धा-प्रेमकी कमी है तथा उनके चिन्तनका जोरदार अभ्यास भी नहीं है; यही कारण है जो कि प्रयत्न करनेपर भी हमलोग इस कार्यमें सफल नहीं होते।
अत: संसारके पदार्थोंको क्षणभंगुर, नाशवान्, दु:खरूप और महान् हानिकर समझकर उनसे तीव्र वैराग्य करना चाहिये तथा परम शान्ति और परम आनन्दस्वरूप परमात्माके नित्य-निरन्तर स्मरणका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक दृढ़ अभ्यास करना चाहिये एवं इस अभ्यासके सिद्ध होनेके लिये भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये। इस प्रकार करनेसे संसारके व्यर्थ चिन्तनकी आदत छूटकर हम कृतकार्य हो सकते हैं।
प्रश्न—हमलोग समझते हैं कि सेलटैक्स और इन्कमटैक्सकी चोरी करना, चोरबाजारी करना, घूस लेना तथा और भी अनेक तरहसे झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी करके धन पैदा करना इस लोक और परलोकमें सब प्रकारसे भयानक है, फिर भी ये हमसे छूटते नहीं, इसका क्या कारण है?
उत्तर—धनमें और धनसे मिलनेवाले सुखमें आसक्ति है, इसी कारण ये दोष नहीं छूटते। इसके सिवा लोग इनको बुरा कहते ही हैं, वास्तवमें समझते नहीं। कोई भी मनुष्य जान-बूझकर अपने-आपका नुकसान नहीं कर सकता। वास्तवमें जब हम समझ लेंगे कि धन क्षणिक और नाशवान् है, इसके साथ हमारा जो सम्बन्ध है, वह क्षणिक है और परलोकमें तो वस्तुत: इसके साथ सम्बन्ध ही नहीं है; तथा यह किसी भी प्रकार हमारे साथ जानेकी वस्तु नहीं, अत: इसके संग्रहके लिये हम जो नाना प्रकारके पाप करते हैं, उनका दण्ड हमलोगोंको अवश्य ही मिलेगा, उससे यह लोक नष्ट होगा, इतना ही नहीं, परलोक भी महान् दु:खदायी और भयदायक हो जायगा। ऐसा निश्चय और विश्वास होनेपर फिर हमसे कोई भी पाप नहीं बन सकते।
प्रश्न—हम यह समझते हैं कि परस्त्रीका दर्शन, भाषण, चिन्तन, एकान्तवास शारीरिक और धार्मिक सभी दृष्टियोंसे सर्वथा भयानक है; इसमें लज्जा, मान, धर्म और शरीरकी प्रत्यक्ष हानि है, अत: इस लोक और परलोकमें महान् हानिकर है, ऐसा विवेक-विचारसे समझते हुए भी हम अपने मन-इन्द्रियोंको उस पापसे रोक नहीं सकते, इसका क्या कारण है?
उत्तर—अज्ञानके कारण उनमें सुख-बुद्धि हो रही है, इसीलिये उनमें आसक्ति है। इसी कारण हम मन-इन्द्रियोंको उस पापसे रोक नहीं सकते। अत: मनको पुन: बार-बार समझाना चाहिये कि यह सब क्षणभंगुर, नाशवान्, दु:खरूप, अपवित्र, घृणित, पापमय और त्याज्य है। इस प्रकार समझाकर नित्य-विज्ञानानन्दघन परमेश्वरमें प्रीति होनेके लिये उनके नामका जप, स्वरूपका चिन्तन तथा स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये। ऐसा करनेपर भगवत्कृपासे अन्त:करणकी शुद्धि होकर यानी अज्ञानके कारण होनेवाली सुखबुद्धि और आसक्तिका नाश होकर विषयोंमें तीव्र वैराग्य और भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता है, फिर उस पुरुषसे कामविषयक दोष भी नहीं बन सकते। श्रीतुलसीदासजीने कहा है—
बसहिं भगति मनि जेहि उर माहीं।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं॥
प्रश्न—मान, बड़ाई और पूजा-प्रतिष्ठा आदि परमात्माकी प्राप्तिमें महान् बाधक हैं, यह बात शास्त्रोंमें पढ़ते हैं, अच्छे पुरुषोंसे सुनते हैं, विवेकसे समझते हैं तथा विचारके द्वारा इनको हटानेकी चेष्टा भी की जाती है, फिर भी ये दोष नहीं हटते और प्राप्त होनेपर जबरन् उनमें फँसावट हो जाती है, इसका क्या कारण है और इनको हटानेका उपाय क्या है?
उत्तर—ये दोष परमात्माकी प्राप्तिमें महान् बाधक हैं, ऐसी न तो वास्तवमें हमलोगोंकी समझ ही है और न हमारा इनको हटानेका प्रबल प्रयत्न ही है। इन दोषोंके न हटनेमें प्रधान कारण है देहके नाम, रूप आदिमें अभिमान, जो कि सर्वथा अज्ञानमूलक है। देहका ही मान और पूजा-सत्कार होता है तथा देहके नामको लेकर ही कीर्ति होती है, अत: देहको आत्मा माननेके कारण ही देहकी मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठाको मनुष्य अपनी ही मान लेता है और इस अज्ञानके कारण ही उनमें सुखबुद्धि होकर आसक्ति हो जाती है। इसलिये साधारण विवेक और प्रयत्नके द्वारा ये दोष दूर होने संभव नहीं हैं। इस देहाभिमानको हटानेके लिये विचारपूर्वक सत्-शास्त्रोंका स्वाध्याय और सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये। इस प्रकार करनेसे जब परमात्माका यथार्थ ज्ञान होकर देहाभिमानका नाश हो जायगा, तब उपर्युक्त सारे दोष अपने-आप ही मिट जायँगे।
प्रश्न—शास्त्रोंने और महापुरुषोंने व्यक्तिगत स्वार्थको बहुत बुरा बतलाया है तथा विचारके द्वारा हम भी बुरा समझते हैं; किंतु शरीरके आराम और भोगोंमें प्रत्यक्ष सुख प्रतीत होनेके कारण हम इसका सर्वथा त्याग नहीं कर पाते। हमलोगोंकी स्वाभाविक ही स्वार्थमें सुखबुद्धि होनेके कारण दूसरोंका अनिष्ट करके भी अपने स्वार्थसाधनकी प्रवृत्ति हो जाती है, इसका क्या कारण है तथा इसको दूर करनेका उपाय क्या है?
उत्तर—इसमें भी अज्ञानमूलक देहाभिमान और आसक्ति ही प्रधान कारण है। इसी कारण अपने देहमें अहंबुद्धि और दूसरोंमें पर-बुद्धि होती है और इसीसे अपनेमें राग और दूसरोंमें द्वेषबुद्धि हो जाती है। यह राग-द्वेष ही समस्त दोषोंकी जड़ है और इसीके कारण हम व्यक्तिगत स्वार्थका त्याग नहीं कर पाते। इस अज्ञानमूलक देहाभिमानको और राग-द्वेषको दूर करनेके लिये सत्-शास्त्रोंका विचार, सत्पुरुषोंका संग और निष्कामभावसे जगज्जनार्दनकी सेवा करते हुए परमेश्वरकी ऐकान्तिक भक्ति एवं स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये। इस प्रकार करनेपर भगवत्कृपासे उपर्युक्त राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि सम्पूर्ण दोषोंका मूलसहित अत्यन्त अभाव होकर सबमें समबुद्धि हो जाती है, जो कि परम कल्याणदायिनी है।
प्रश्न—यदि कोई कह दे कि शायद इस भोजनमें विष मिला है तो फिर उसमें विष मिला हो चाहे न मिला हो, पर संदेह हो जानेपर हम उसको किसी भी हालतमें खाना नहीं चाहते; किंतु संसारके विषयभोगोंके विषयमें हम बार-बार सुनते हैं कि ये विषके तुल्य हैं, शास्त्रोंमें भी पढ़ते हैं और महापुरुषोंसे भी सुनते हैं, फिर भी उनका त्याग नहीं कर सकते, इसका क्या कारण है?
उत्तर—अज्ञानके कारण सदासे विषयोंमें प्रत्यक्ष सुख प्रतीत हो रहा है, इससे उनमें आसक्ति है। जिस प्रकार रोगीको वैद्य समझा देता है कि यह कुपथ्य है, इसका सेवन नहीं करना चाहिये। पर वह आसक्तिवश कुपथ्यको छोड़ नहीं सकता, वैसे ही मनुष्य आसक्तिके कारण विषयोंका त्याग नहीं कर सकता। दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार विषका कुपरिणाम तुरंत हो जाता है, उसी प्रकार विषयोंके सेवनका कुपरिणाम तुरंत न होकर विलम्बसे होता है, इसलिये उनके विषयुक्त होने-न-होनेमें संदेह रहता है। इसी कारण बार-बार सुननेपर भी उनका त्याग होना कठिन-सा हो रहा है; किंतु विवेक और विचारसे दृढ़ निश्चयपूर्वक मनको बार-बार समझानेसे तथा विरक्त महापुरुषोंके संगके प्रभावसे विषयोंसे वैराग्य होकर उनका त्याग हो सकता है।
प्रश्न—जब कि विषयोंके सेवनकी अनादिकालसे आदत पड़ी हुई है तो ऐसी हालतमें उनका त्याग कैसे हो सकता है?
उत्तर—जैसे एक या दो सालका बच्चा टट्टी-पेशाबमें हाथ दे देता है और वही हाथ अज्ञानके कारण मुँहमें भी डाल लेता है; किंतु समझदार पुरुष उस पदार्थमें उसे दोष दिखलाकर, उसे बार-बार बुरा बतलाकर उससे घृणा कराते हैं और उसके लिये निषेध करते रहते हैं, इससे विवेक होनेपर उस बालककी यह लड़कपनकी आदत भी दूर हो जाती है। इसी प्रकार विषयोंको बुरी दृष्टिसे देखनेवाले विरक्त पुरुषोंके बार-बार समझाने तथा निषेध करनेपर उनके प्रभावसे उन विषयोंमें वैराग्य होकर उनका त्याग हो सकता है।
प्रश्न—झूठ, कपट, चोरी, हिंसा, व्यभिचार, मांस-भक्षण, मद्य और मादक वस्तुका पान, जुआ आदि दुराचार और काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मत्सर, ममता-अहंकार, राग-द्वेष, अज्ञान आदि दुर्गुण सर्वथा हानिकर और त्याज्य हैं तथा यज्ञ, दान, तप, सेवा, तीर्थ, व्रत, उपवास, परोपकार आदि सदाचार और क्षमा, दया, सन्तोष, समता, शान्ति, धीरता, गम्भीरता, शूरवीरता, ज्ञान, वैराग्य, श्रद्धा, प्रेम आदि उत्तम गुण (सद्गुण) सर्वथा लाभप्रद और सेवन करनेयोग्य हैं। इस प्रकार शास्त्र और महापुरुष कहते हैं तथा विचारसे हम भी ऐसा ही मानते हैं और दुर्गुण-दुराचारके त्यागके लिये तथा सद्गुण-सदाचारके ग्रहणके लिये प्रयत्न भी करते हैं, किंतु सफल नहीं होते, इसका क्या कारण है तथा इसके लिये क्या करना चाहिये?
उत्तर—ईश्वर, शास्त्र, महापुरुष, परलोक, अपनी आत्मा तथा शुभ-अशुभ कर्मोंके फलमें विश्वासकी कमीके कारण ही हमारी मान्यता संदेहपूर्ण और कमजोर है तथा हमारा प्रयत्न भी शिथिल है। यही कारण है जो कि हम त्यागनेयोग्य वस्तुओंको त्याग नहीं सकते और ग्रहण करनेयोग्यको ग्रहण नहीं कर सकते। वास्तवमें हम यदि त्यागनेयोग्यको अत्यन्त हानिकर समझ लें तो हमसे न तो कोई भी बुराई हो सकती है और न हमारे हृदयमें कोई बुरा भाव ही टिक सकता है। इसी प्रकार वास्तवमें यदि हम ग्रहण करनेयोग्यको अत्यन्त लाभप्रद मान लें तो फिर सद्गुणको और सद्भावको ग्रहण किये बिना हम कैसे रह सकते हैं?
अत: ईश्वर, शास्त्र और महापुरुषोंके वचनोंमें, परलोकमें, अपने आत्मामें तथा शुभ-अशुभ कर्मोंके फलमें पूर्ण विश्वास करना चाहिये। मरनेके बाद देहके नाश होनेसे आत्माका कभी नाश नहीं होता ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ (गीता २। २०) एवं किये हुए कर्मोंका फल अवश्यमेव ही होता है, ऐसा दृढ़ विश्वास होनेपर हमारे प्रयत्नकी शिथिलता दूर होकर साधन तीव्र हो सकता है; किंतु ऐसा दृढ़ विश्वास सत्-शास्त्र और सत्पुरुषोंका संग करनेसे, उनकी कृपासे अन्त:करण शुद्ध होनेपर ही होता है। इसलिये अन्त:करणके मल, विक्षेप, आवरण आदि सारे दोषोंके नाशके लिये सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये और उनकी आज्ञाके अनुसार भगवान् के अनन्यशरण होकर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर भगवान् का भजन-ध्यान, स्तुति-प्रार्थना आदि करते हुए उनकी एकनिष्ठ भक्ति करनी चाहिये। इस प्रकार करनेसे हममें स्वाभाविक ही सदाचार-सद्गुण आ सकते हैं और शीघ्र ही हम परम आनन्द और परम शान्तिस्वरूप विज्ञानानन्दघन परमात्माको प्राप्त हो सकते हैं। भगवान् ने गीतामें भी कहा है—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(९। ३०-३१)
‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।’
प्रश्न—ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, न्यायकारी, सर्वेश्वर, परम दयालु और सबके परम सुहृद् हैं—यह सब शास्त्र और महापुरुष कहते हैं तथा विचारके द्वारा हम भी मानते हैं; फिर भी हमलोगोंके द्वारा उन नित्य-ज्ञान-आनन्दस्वरूप परमात्मामें प्रेम और उनकी आज्ञाके पालन न होनेमें क्या हेतु है?
उत्तर—उन परमात्मामें श्रद्धाकी कमी ही प्रधान कारण है। इसी कारण हम संशययुक्त होकर ईश्वरके अस्तित्वको भी कथनमात्र ही मानते हैं। जब हम ईश्वरका अस्तित्व ही शंकारहित और पूर्णतया नहीं मानते तब फिर उनके उपर्युक्त गुणोंमें विश्वास होनेकी तो बात ही क्या है! किंतु जो ईश्वरके अस्तित्वको मानते हैं और उनके गुणोंमें विश्वास करते हैं, वे उनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकते। जब कि मनुष्य किसी एक साधारण राजाके राज्यमें निवास करता हुआ राज-सत्ताको माननेके कारण राज्यके कर्मचारियोंके सामने भी उनके विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकता; बल्कि अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये राजाको प्रसन्न करनेकी ही सारी चेष्टा करता है; फिर भला बताइये, ईश्वरको सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, न्यायकारी और सर्वेश्वर समझनेवाला पुरुष उनके देखते हुए उनके कानूनके विरुद्ध झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि कर ही कैसे सकता है? बल्कि वह तो उनको परम प्रसन्न करनेके लिये उनकी आज्ञाका सदा-सर्वदा हँस-हँसकर पालन ही करता रहता है।
शास्त्र ही उन परमात्माका कानून है। शास्त्रके अनुकूल चलना ही उनके कानूनके अनुकूल चलना है तथा शास्त्रके विपरीत आचरण करना ही उनके विरुद्ध आचरण करना है। इस प्रकार उन परमात्मा और उनके कानूनके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषसे कभी किंचिन्मात्र भी शास्त्रविरुद्ध कर्म नहीं हो सकते। परमात्माके उपर्युक्त सम्पूर्ण गुणोंका रहस्य जाननेपर तो उसकी परमात्माके सिवा अन्य किसीसे प्रीति हो ही कैसे सकती है? वह तो परमात्माका अनन्य भक्त और धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, समता, शान्ति आदि अनन्त गुणोंका भण्डार बन जाता है।
अत: उन परमात्माके तत्त्व-रहस्यको जाननेके लिये तथा उनमें परम श्रद्धा और प्रेम होनेके लिये हमलोगोंको उन्हें हर समय याद रखते हुए उनकी आज्ञाका पालन करना, उनसे प्रार्थना करना एवं उनमें श्रद्धा-प्रेम रखनेवाले महापुरुषोंका संग करना चाहिये।