Seeker of Truth

साधनकी तीव्रता

जिस प्रकार श्वासकी गति निरन्तर चलती रहती है, उसमें कभी विराम नहीं होता, उसी प्रकार भगवत्प्राप्तिके लिये साधन भी तैलधारावत् सदा-सर्वदा चलते रहना चाहिये। जिस व्यक्तिके द्वारा निरन्तर भजन-ध्यान होता रहता है, उसके कल्याणमें किसी भी प्रकारके सन्देहकी गुंजाइश नहीं है; क्योंकि गीतामें स्वयं भगवान् इसका समर्थन करते हुए कहते हैं—

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(८। ६)

‘हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरका त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भावसे भावित रहा है।’ मनुष्य सदा जिस भावका चिन्तन करता है, अन्तकालमें भी प्राय: उसीका स्मरण होता है।

इतना ही नहीं, निरन्तर चिन्तन करनेवाले साधकके लिये तो भगवान् अपनी प्राप्ति बड़ी सहज बताते हैं—

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)

‘हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’

इस उपर्युक्त श्लोकके पहले दो श्लोकोंमें भगवान् इन्द्रिय, मन और प्राणके निरोधका साधन बतला चुके हैं, उसे बहुत कठिन कहा जा सकता है, उसे योगी ही कर सकते हैं। परन्तु निरन्तर भगवच्चिन्तन तो प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। भगवान् ने कहा है।

‘तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’
(गीता८। ७)

अवश्य ही इसमें तत्परताकी बड़ी आवश्यकता है। तत्पर होकर करनेपर भी यदि जीवनकालमें भगवत्प्राप्ति नहीं हुई तो अन्तकालमें तो नि:सन्देह हो ही जाती है।

तन, मन और वचन तीनोंसे साधन होना चाहिये। शरीरसे सेवा, मनसे भगवान् का ध्यान और जिह्वासे भगवन्नामका जप करे। कोई भी कार्य सांसारिक स्वार्थके लिये न करके कर्तव्य समझकर करे। जिस-जिस कालमें भगवत्स्मृति हो, उस-उस समय भगवान् की अत्यन्त कृपा समझे और आनन्दमें गद्‍गद हो जाय। जिस क्षणमें भगवान् की विस्मृति हो जाय, उसके लिये बड़ा भारी पश्चात्ताप करे कि इस समय यदि मेरी मृत्यु हो जाती तो न मालूम क्या दुर्दशा होती।

सभी बातोंमें हमें अपना सुधार करना चाहिये। हम मन्दिरमें जायँ तो हमें मूर्तिमें बहुत श्रेष्ठ भाव करना चाहिये। आस-पासकी सजावटसे भगवद्विग्रहको श्रेष्ठ समझे। बाहरी पूजासे भी मानसिक पूजाका अधिक महत्त्व है। बस, हृदय-आकाशमें या बाह्य-आकाशमें मानसिक मूर्तिकी स्थापना करके मानसिक सामग्रीद्वारा उनकी सेवा-पूजा करता रहे। यह कार्य हर समय चलता रहे और इसीमें मस्त रहे। भगवान् के दया, क्षमा, शान्ति, समता आदि दिव्य गुणोंको बार-बार याद करे।

भगवान् के प्रेम, प्रभाव और चरित्रोंका चिन्तन करे। प्रेमी तो उनके समान कोई है ही नहीं। रही प्रभावकी बात, सो जो-जो भी विभूति, कान्ति और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको भगवान् के ही तेजका अंशमात्र समझना चाहिये (गीता १०। ४१)। इस प्रकार सभी वस्तुओंमें उनका प्रभाव देख-देखकर उनकी स्तुति, प्रार्थना एवं ध्यान करना चाहिये। इनमें ध्यानका महत्त्व सबसे अधिक है। जब भगवान् के समान भी कोई नहीं, तो उनसे श्रेष्ठ तो हो ही कैसे सकता है? इस आशयके भावोंद्वारा उनकी स्तुति करे। प्रार्थनामें यह भाव रखे कि आपका मधुर चिन्तन एवं ध्यान निरन्तर होता रहे; सदा आपकी लीलाका दर्शन होता रहे। लीलामें यह बात समझनेकी है कि हम जो रामलीला देखते हैं वह तो बाहरकी लीला है। इसी प्रकार हमें रामचरितमानसके आदिसे अन्ततककी लीलाओंको चुन लेना चाहिये और उनका चिन्तन एवं मनके द्वारा दर्शन करना चाहिये। उन सुन्दर स्थलोंकी चौपाइयोंको कण्ठस्थ कर लें, जिनसे लीला-चिन्तन-दर्शनमें बड़ी सहायता मिले। यह ध्यान करनेका एवं मनको सुगमतापूर्वक भगवान् में लगानेका बड़ा सुन्दर सहज तरीका है। मनुष्यका बहुत-सा समय व्यर्थ चिन्तनमें बीतता रहता है; परन्तु इस साधनमें संलग्न हो जानेपर मनको मनन और चिन्तन करनेका बड़ा सुन्दर कार्य मिल जाता है। यही इस साधनकी सबसे बड़ी विशेषता है।

इस प्रकारके कार्योंमें मनको खूब व्यस्त रखे। अन्य चिन्तनके लिये उसे तनिक भी अवकाश न दे। कभी रामायण, कभी गीता तो कभी भागवत—इनका मनन करता ही रहे। दिनभरके अन्य व्यर्थ कार्योंसे मुँह मोड़कर ऐसे ही कामोंमें लगे रहना चाहिये।

साधनमें ढिलाई लानेवाली, साधनकी चाल तेज न होने देनेवाली बड़ी बाधा है विषयोंकी आसक्ति। अत: सावधान होकर संसारके पदार्थोंमें जो आसक्ति है उसे सर्वथा हटा देना चाहिये। संसार और उनके पदार्थोंको नाशवान्, क्षणभंगुर एवं दु:खदायी समझकर उनसे मनको हटाकर वैराग्य करे। मनको वश करनेके लिये अभ्यास और वैराग्य ही मुख्य साधन हैं। कोई कहे कि सब लोग इस प्रकारके साधन नहीं करना चाहते, सो दूसरोंकी ओर न देखकर हमें तो करना ही चाहिये।

साधकको एक बात और जान लेनी चाहिये कि मनुष्यकी प्रकृति स्वाभाविक ही पतनकी ओर प्रवाहित होती रहती है। इसीलिये कोई आसुरी-सम्पदाका प्रचार करना चाहे तो तुरंत होने लगता है; परन्तु दैवी-सम्पदाका सुन्दर सात्त्विक प्रचार करनेमें बड़ी-बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है। इसे समझकर सदा सावधान रहना चाहिये और एक मिनट भी व्यर्थ नहीं खोना चाहिये। निकम्मा नहीं रहना चाहिये। निकम्मा रहनेपर ही प्रमाद, आलस्य आदि दुर्गुण आ घेरते हैं। अत: जबतक मन संसारके संकल्पोंसे रहित होकर परमात्मामें नहीं लग जाता, तबतक बड़ा भारी खतरा है।

भगवन्नामकी खेती करनी चाहिये। भगवान् का नाम बीज है, जिसे हृदयके खेतमें बो देना चाहिये। चित्तकी वृत्ति जल है। चित्तवृत्तिरूपी जल संसार-सागरकी ओर प्रवाहित हो रहा है, इसे उधरसे रोककर धानके खेतकी तरह इस खेतको सींचना है। ज्यों-ज्यों उधरका प्रवाह रोककर इधर प्रवाहित किया जायगा, त्यों-ही-त्यों खेत हरा-भरा होने लगेगा। धानका खेत अधिक जल चाहता है। उसे जलसे सींचना बंद कर दिया जाय तो खेत सूख जाता है। परन्तु इसमें यह विशेषता है कि यह सूखता नहीं। तथापि सींचनेका काम कभी बंद न करे। हर समय सींचता ही रहे। यही काम सबसे बढ़कर है और जब इससे बढ़कर अन्य कोई कार्य नहीं तब फिर किसे किया जाय, इसे ही करता रहे।

इस प्रकार सींचते-सींचते जब नन्हें-नन्हें धानके पौधे बड़े होकर उनमें बालें निकल आवें अर्थात् जब भगवद्भजन, सत्संग, ध्यान, वैराग्य आदिमें रुचि होने लगे, तब मान-बड़ाई आदि पक्षियोंसे सावधानीके साथ खेतकी रक्षा करनी चाहिये। इस समय अत्यधिक सावधानीकी आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो कि हम पक्षियोंके सुन्दर मधुर गानको सुनकर अपनेको भूल जायँ और वे पकती हुई खेतीको नष्ट-भ्रष्ट कर डालें।

साधनकी तेजीके लिये निष्कामभाव बड़े महत्त्वकी वस्तु है। निष्कामभाव होनेपर जल्दी लाभ होता है। हमलोगोंमें स्वार्थकी मात्रा बहुत बढ़ गयी है, इसीसे साधन तीव्र नहीं हो रहा है। हरेक बातमें और पद-पदपर स्वार्थकी भावना काम करती रहती है। पाँच व्यक्तियोंके लिये बाजारसे चीज आयी तो बढ़िया हम ले लें। बँटवारा हो तो बढ़िया मुझे मिले। रेलमें बैठें तो अधिक सुविधा हमें प्राप्त हो। बातें तो ऊँची-ऊँची बनायी जाती हैं, परन्तु गिद्धकी तरह दृष्टि रहती है नीचेकी ओर गंदी वस्तुओंपर। इससे बहुत बड़ा पतन है। अत: स्वार्थ-दृष्टिका त्याग करके लोकसेवाकी दृष्टिसे निष्कामभावपूर्वक संसारके काम किये जायँ तो अत्यधिक लाभ हो।

निर्धन मनुष्यको यह नहीं समझना चाहिये कि स्वार्थका त्याग तो धनवान् ही कर सकते हैं, वह नहीं कर सकता। यदि ऐसी बात होती तब तो धनवानोंको ही भगवत्प्राप्ति होती। परन्तु बात तो अधिकांशमें इसके विपरीत है। जिनके पास जितना अधिक धन है, वे उतने ही अधिक स्वार्थी हैं। अत: सभीको उपर्युक्त बातोंपर ध्यान रखकर अपने साधनको सुधारते हुए उसकी चालको खूब तेज करना चाहिये इससे शीघ्र कल्याण हो सकता है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur