प्रेमसे ही परमात्मा मिल सकते हैं
मनुष्य स्वभावसे ही दु:खोंके प्रति वैराग्य और आनन्दके प्रति प्रेमका भाव रखता है। संसारमें कोई भी मनुष्य ऐसी इच्छा नहीं करता कि मुझे दु:ख मिले या सुख न मिले। परन्तु भूलसे वह दु:खोंसे भरी वस्तुओंमें सुख समझकर उनमें फँस जाता है। पारधी पक्षियोंको पकड़नेके लिये दाने बिखेरता है। मूर्ख पक्षी उन्हें अपने फँसनेका सामान न समझकर उनमें सुख मान लेते हैं। अग्निको रमणीय और सुखरूप समझकर पतंग उसमें गिरकर जल मरते हैं, इसी प्रकार हमलोग भी प्रकृतिके फैलाये हुए इस जालको सुखरूप समझकर उसमें फँस जाते हैं। जैसे कोई समझदार पखेरू दूसरोंको फँसे हुए समझकर दानोंके मोहसे जालमें नहीं फँसता, इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी इन भोगोंमें नहीं फँसते। परन्तु अज्ञानी फँसकर बारम्बार दु:ख भोगते हैं। सिंह-व्याघ्रादि पशु उतने दु:खदायी नहीं हैं जितने ये स्त्री, पुत्र, धन, मान, शरीरादि विषयोंकी आसक्ति दु:खदायिनी हैं। ये मोहसे रमणीय मालूम होते हैं परन्तु परिणाममें दु:खसे भरे हुए हैं।
इन पदार्थोंमें कोई भी स्थायी नहीं है। जो स्थायी नहीं, वह अन्तमें छूटते समय दु:ख देनेवाला होता है। इनके सेवनमें भी सुख नहीं है। एक बार मीठा अच्छा मालूम होता है, ज्यादा खाइये अरुचि हो जायगी। इसी तरह स्त्री आदि पदार्थ भी अरुचिकर प्रतीत होने लगते हैं। धनमें भी सुख नहीं है। मान लीजिये एक आदमीके पास लाखों रुपये हो गये, उसने मकान, मोटरें खरीदकर खूब मौज उड़ायी। भाग्यवश धन नष्ट हो गया। मौजका सारा सामान जाता रहा। अब पहली बातें याद आते ही दारुण दु:ख होता है। दूसरे धनियोंको जाते-आते और मौज करते देखकर उसका चित्त जलने लगता है, इसी प्रकार स्त्री-सम्भोगादिसे धातुक्षीण वगैरहकी बीमारियाँ होनेपर महान् क्लेश हो जाता है। सोचता है, बीमारी अच्छी हो जानेपर फिर ऐसा नहीं करूँगा, परन्तु मोहवश फिर भी उसी रास्तेपर चलता है, इसी प्रकार परलोकके भोग भी दु:खरूप ही हैं। धन कमानेमें, उसकी रक्षा करनेमें, लगाने, लग जाने और छूट जानेमें क्लेश होता है। धन पैदा करनेमें अन्याय भी होता है। मन रोकता है पर फिर लोभकी वृत्ति दबाती है कि एक बार ऐसा कर लें, फिर नहीं करेंगे। दुविधा मच जाती है। हृदयमें युद्ध ठन जाता है। सात्त्विकी और तामसी वृत्तियाँ आपसमें लड़ने लगती हैं, बड़ी बुरी अवस्था होती है। अन्तमें जैसे बिल्ली कबूतरको दबा लेती है उसी प्रकार तामसी वृत्ति उसे दबा लेती है। बहुत थोड़े मनुष्य इससे बचते हैं। धन इकट्ठा कर लेनेके बाद उसकी रक्षा करनेमें बड़ा परिश्रम होता है। हाथसे किसीको दिया जाता नहीं, यों करते-करते मृत्यु उपस्थित हो जाती है तब सोचता है कि ‘हाय! मैंने क्या किया? व्यर्थ ही रुपये कमाये, अब छोड़ने पड़ते हैं।’ इस तरह दु:खसागरमें गोते लगाता हुआ ही मर जाता है। तात्पर्य यह है कि संसारके सभी भोग शहद लिपटे हुए विषके समान हैं। ये केवल देखनेमात्रके रमणीय और इनमें केवल माननेमात्रका ही सुख है। यह केवल मृगतृष्णा है, इसमें कहीं भी आनन्दका लेश नहीं है, फिर इससे प्रेम करना मूर्खता नहीं तो और क्या है? सच्चा सुख तो एक परमात्मामें है। वही परम आनन्दस्वरूप है—यही सन्त, महात्मा और शास्त्रोंका कथन है। इस सुखके सामने त्रैलोक्यका राज्य भी तुच्छ है। श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा है—
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(६। २२)
‘जिस लाभको पाकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और भगवत्प्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित हुआ योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता।’
इस आनन्दके प्राप्त होनेपर शरीरके यदि टुकड़े-टुकड़े भी कर दिये जायँ तो भी वह विचलित नहीं होता। घर-द्वार सबका सर्वनाश हो जाय तो भी उसके आनन्दमें किसी प्रकारकी कमी नहीं होती, वह तो उस परमात्माको प्राप्तकर स्वयं ही परमानन्दरूप हो गया है। उसे किसी वस्तुकी कोई आवश्यकता नहीं।
यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके।
(गीता २। ४६)
जैसे सब ओरसे जल प्राप्त होनेपर कुएँकी आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार उस ब्रह्मानन्दकी प्राप्ति हो जानेपर किसी भी वस्तुकी अपेक्षा नहीं रहती। इस प्रकारका अतुल आनन्द प्रेमसे मिल सकता है। अतएव स्त्री-पुत्र, धन-मानादि अनर्थकारक दु:खदायी पदार्थोंसे प्रेम हटाकर उस आनन्दमयसे प्रेम करना चाहिये, जिससे उस अखण्ड एकरस परमानन्दकी प्राप्ति हो। इस विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि संसारसे वैराग्य और परमात्मासे प्रेम करनेमें ही कल्याण है।
प्रेमका स्वरूप क्या है?
वास्तवमें प्रेमका स्वरूप अनिर्वचनीय है। कुछ कहा नहीं जा सकता, परन्तु उसका कुछ अनुमान किया जाता है। प्रेम होनेपर प्रेम करनेके लिये कहा नहीं जाता! लोभीको यह कहना नहीं पड़ता कि तुम रुपयोंसे प्रेम करो। कभी बाप-दादेने भी पारस आँखसे नहीं देखा, परन्तु लोभीको पारस बड़ा प्यारा है। नाम सुनते ही मुख खिल उठता है। इसी प्रकार भगवान् में प्रेम होनेपर उसका नाम सुनते ही परम आनन्द होता है। लोभीको धनकी और कामीको जैसे सुन्दर स्त्रियोंकी बातें अच्छी लगती हैं, इसी प्रकार भगवत्प्रेमीको भगवान् की बातें प्राणप्यारी लगती हैं। जैसे अपने प्रेमी मित्रका नाम सुनते ही उस तरफ ध्यान चला जाता है और उसकी बातें सुहावनी लगती हैं वैसे ही भगवत्प्रेमीको भगवान् की बातें सुहाती हैं। प्रेम और मोहमें बड़ा अन्तर है। प्रेम विशुद्ध है, मोह कामनासे कलंकित है। मोहमें स्वार्थ है, वह छूट सकता है; प्रेम स्वार्थरहित और नित्य है। बालकका मातामें एक मोह होता है जिससे वह माताके पास तो रहना चाहता है, परन्तु उसके आज्ञानुसार काम करनेके लिये तैयार नहीं रहता। प्रेममें ऐसा नहीं होता। वहाँ तो अपने प्रेमास्पदको कैसे सुख पहुँचे, कैसे उसका कोई प्रिय कार्य मैं कर सकूँ, इसी बातकी खोजमें प्रेमी रहता है। परन्तु ऐसे बहुत कम लोग होते हैं। भगवान् और उनके भक्तोंमें ही ऐसे भाव प्राय: पाये जाते हैं।
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
उमा राम सम हित जग माहीं।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
भगवान् राम मित्रताके लक्षण बतलाते हुए सुग्रीवसे कहते हैं—
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
भगवान् ने इसको यों ही निबाहा। सीताके विरह-दु:खको सहनकर पहले सुग्रीवके दारुण दु:खको दूर किया।
शुद्ध प्रेम केवल सत्-जनोंमें ही होता है, संसारमें मोह और काम ही अधिक है। भाई या स्त्री बड़ा प्रेम करते हैं, ऐसा मालूम होता है, परन्तु उसमें भी मोह रहता है। यदि ऐसा न होता तो उसके मनके अनुसार उनके आचरण होते, जिस बातमें वह सुखी होता है उसी बातको वह मानते और करते, वह खद्दर पहनता और उसे अच्छा समझता है तो उसके पुत्र, भाई या उसकी स्त्री भी खद्दर ही पहनती। पर ऐसा बहुत कम होता है। कारण यही है कि प्रेम कम है, मोह या काम अधिक है। इससे उनके आचरण अपने इच्छानुकूल होते हैं। ऐसी स्त्री पतिसे अपने सुखके लिये ही प्रेम करती है, पतिके सुखके लिये नहीं। इसका नाम प्रेम नहीं है। भगवान् में ऐसा मोह होना भी उत्तम है परन्तु प्रेम कुछ और ही वस्तु है। प्रेममें भी यदि विशुद्ध भाव हो तो उसका कहना ही क्या है? वास्तवमें साधकके लिये यह प्रेम सुगम है। रुपयेके प्रेमसे इसमें कम परिश्रम है। क्योंकि रुपयेमें केवल हम प्रेम करते हैं, रुपया जड होनेसे हमसे प्रेम नहीं कर सकता। परन्तु भगवान् तो जड नहीं हैं, परम प्रेमी हैं, हम जितना प्रेम करते हैं उससे कहीं अधिक वह हमसे करते हैं। अतएव इसमें शीघ्रतासे सिद्धि होती है, इसी प्रकार महात्माओंका प्रेम भी हमारे ही हितके लिये होता है। हम यदि एक बार प्रेम करना चाहते हैं तो वे चार बार करते हैं। इसमें उनका कोई स्वार्थ नहीं रहता।
माताके प्रेममें भी मोह और काम रहता है। श्राद्ध, पिण्ड और सेवा आदिका स्वार्थ रहता है। कुछमें केवल मोह रहता है। जैसे एक बुढ़ियाके नाती है, वह उसपर बहुत अधिक स्नेह रखती है, उसे कोई फलकी आशा नहीं है, क्योंकि नातीके बड़े होनेतक वह मर जायगी, इस बातको वह जानती है, इसी प्रकार किसी माताके एक दुराचारी, कुटिल, माता, पिता और परिवारको सतानेवाला कुपुत्र है। उसने चोरी की, वह जेल गया, माता उसके लिये रोती है, उससे कोई भी सुखकी आशा नहीं, तो भी उसे छुड़ानेका उपाय करती है, इसीलिये कि पुत्रमें उसका मोह है। प्रेम इससे विलक्षण है। परमात्मामें स्वार्थरहित अनन्यप्रेम होनेसे ही परम लाभ होता है। प्रेम है, है भी निष्काम, परन्तु थोड़ा है तो उससे भगवत्प्राप्ति शीघ्र नहीं होती। विशुद्ध और अनन्य प्रेम ही भगवत्प्राप्तिका मूल्य है। स्त्री-पुत्र आदि भोग-पदार्थ या स्वर्ग-सुखके लिये जो प्रेम है वह प्रेम भगवान् से नहीं, जिन भोगोंके लिये है, उनसे है। यद्यपि मुक्तिके लिये प्रेम होना अच्छा है, पर सर्वोच्च प्रेम वह है, जो केवल प्रेमके लिये होता है और उसीका नाम विशुद्ध प्रेम है। किसी सन्त और सत्संगियोंका पारस्परिक प्रेम भी बिलकुल नि:स्वार्थ नहीं कहा जा सकता, नि:स्वार्थ होता तो सन्त यह क्यों चाहता कि सत्संगमें अधिक आदमी आवें और ठीक समयपर आवें। इससे पता लगता है कि कुछ स्वार्थ है, अवश्य ही वह स्वार्थ उत्तम है। सत्संगियोंमें भी कई तरहके स्वार्थ होते हैं। कोई धनके लिये आते हैं, कोई भजन-ध्यान अधिक बढ़नेकी आशासे आते हैं, कोई मानके लिये आते हैं तो कोई यही समझते हैं कि कुछ-न-कुछ लाभ तो होगा ही। इस तरह स्वार्थ रहता है। यदि सत्संगियोंकी इच्छाके विरुद्ध कुछ कहा जाय तो वे सुनते ही नहीं। लापरवाही कर जाते हैं। यदि सन्त किसी हेतुसे कोई अपने स्वार्थकी बात कहने लगे तो सम्भवत: दो-चार बार तो लोग सुन लेते हैं पर अन्तमें घृणा हो जाती है। भक्तिके प्रचारमें भी यदि प्रचारकका स्वार्थ दृष्टिगोचर हो जाय तो लोग उसे तुरन्त छोड़ देते हैं। सन्तके द्वारा अकस्मात् ली हुई परीक्षामें तो शायद ही कोई उत्तीर्ण हो, या तो लोग उसे पागल समझ बैठें या स्वार्थी और अन्तमें उसे छोड़ ही दें। एक दृष्टान्त है—
किसी गाँवमें दो साधक थे, वे रोज गाँवसे रोटी माँग लाया करते और गाँवसे बाहर किसी वृक्षके नीचे बैठकर उन्हें एक वक्त खा लेते और वहीं रात-दिन भजन-ध्यानमें मस्त रहते। उनके भजनकी मस्तीको देखकर लोग उनके पास आने-जाने लगे, गाँवमें उनकी कीर्ति फैल गयी। राजातक बात पहुँची। राजाने भी दर्शन करनेका विचार किया। लोगोंने आकर उन दोनोंसे कहा कि आज आपका दर्शन करने महाराजा स्वयं पधारते हैं। उन दोनोंने सोचा कि यह तो बड़ी विपत्ति आयी। साधक कहीं मान-बड़ाई पाने लगे और यदि उनमें उसका मन लग जाय तो उसके गिरनेमें देर नहीं लगती। यह विचारकर उन लोगोंने राजाकी सवारी दूरसे देखकर ही रोटियोंपर आपसमें लड़ना शुरू कर दिया। इतनेमें राजाकी सवारी वहाँ आ पहुँची। उन लोगोंको पतली-मोटी और एक-एक, आधी-आधी रोटियोंके लिये लड़ते देखकर राजाने अपने मनमें समझ लिया कि यहाँ कोई सार नहीं है। राजा वहाँसे लौट गया। स्वार्थके बनावटी दृश्यसे भी जब प्रेम दूर भागता है तब असली स्वार्थमें तो प्रेमका रहना असम्भवही-सा है। इसलिये परमात्मासे स्वार्थरहित प्रेम ही करना चाहिये। सच्चे अनन्य विशुद्ध प्रेमके समान दूसरी वस्तु जगत् में कोई भी नहीं है, परमेश्वर इसीसे मिलते हैं वही उसकी कीमत है। जब यह प्रेम जागृत होता है, तब फिर उसे सिवा भगवान् के और कोई वस्तु अच्छी ही नहीं लगती। हमलोग भगवान् की पूजा करते हैं, वे ग्रहण नहीं करते। क्या कारण है? प्रेम नहीं है। प्रेम हो तो वे अवश्य ग्रहण करें। गीतामें भगवान् ने श्रीमुखसे कहा है—
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(९। २६)
भगवान् हमारे फल-फूल और पत्तोंके भूखे नहीं हैं, वे भूखे हैं प्रेमके। वे ढूँढ़ते हैं दुनियामें किसी सच्चे प्रेमीको। सच्चा प्रेमी वही है जो भगवान् के लिये अपनी खाल खिंचवाता हुआ भी रोम-रोमसे स्वाभाविक प्रसन्नता झलका सकता है। जिन वस्तुओंको वह अपनी समझता है, उन्हें भगवान् स्वीकार कर लेते हैं तो उसे बड़ी प्रसन्नता होती है। वह समझता है कि इनसे मेरा अहंकार चला गया। बात भी ठीक है, जिस चीजको मनुष्य अपनी समझता है उसे कोई-कोई श्रेष्ठ पुरुष भी स्वीकार नहीं करता, तब भगवान् तो कैसे करने लगे? जब भगवान् ने हमारी दी हुई वस्तु स्वीकार कर ली तो अहंकार गया। वास्तवमें तो सभी कुछ भगवान् का है, हमने भूलसे अपना समझ रखा है। यही भाव तो हटाना है। जिस दिन वस्तुओंसहित भगवान् ने हमें अपना लिया, उस दिन समझ लो कि भगवान् हमारे हो गये!
जब भगवान् में विशुद्ध प्रेम हो जाता है तब फिर संसारमें किसीसे भी भय या प्रेम नहीं रहता और न वह किसी अपमानकी ही परवा करता है। जिस तरह जोरकी बाढ़में गंगातीरके सब वृक्ष बह जाते हैं इसी प्रकार प्रेमकी प्रबल धारामें मान, अपमानादि सब बह जाते हैं। जैसे ध्यानमें स्थित योगीकी वृत्ति भगवान् के सामने बहती है, इसी प्रकार प्रेमधारा भी भगवदभिमुखी बहने लगती है। इस अवस्थाका आनन्द वर्णनातीत है। इसमें अहंकारसे उत्पन्न होनेवाले लज्जा, भय, मान आदि सब दोष दूर हो जाते हैं, सारे द्वन्द्व मिट जाते हैं, प्रेमी एक शवके समान हो जाता है। भगवान् भी हर समय ऐसे प्रेमीके अधीन रहते हैं। जो भगवान् को अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है, भगवान् भी उसे अपना सब कुछ सौंप देते हैं। प्रेम बढ़नेपर शरीरमें रोमांच होता है, पूर्णिमाके चन्द्रमाको देखकर जैसे समुद्र उछलने लगता है, उसी तरह भगवान् के मोहन-मुखकमलको देखकर प्रेमी भक्तके हृदयमें भी आनन्दकी लहरें उछालें मारने लगती हैं। उसके हृदयमें प्रेमका समुद्र उमड़ता है जो उसमें समाता नहीं, कण्ठावरोध हो जाता है, वाणी गद्गद हो जाती है, नेत्र और नासिकासे प्रेम धारारूपसे बहने लगता है और अन्तमें भृकुटि तथा ब्रह्माण्डतक पहुँचकर उस प्रेमीको बेहोश कर देता है। उसकी अवस्था अचल प्रतिमाके समान हो जाती है।
जब भगवान् के लिये व्याकुलता होती है तब भगवान् भी भक्तके लिये व्याकुल हो उठते हैं। सीता अशोकवाटिकामें रामके लिये विलाप करती है तो राम भी सीताके लिये व्याकुल होकर उसे वन-वनमें खोजते हैं!
यदि आज हम भगवती रुक्मिणी या द्रौपदीकी तरह व्याकुल हों तो भगवान् भी उसी तरह व्याकुल होकर हमें दर्शन देनेके लिये अवश्य पधारेंगे। भगवान् विधिसे प्रसन्न नहीं होते हैं, उन्हें चाहिये प्रेम! प्रेममें नियमकी आवश्यकता नहीं। नियम है तो प्रेम उच्च नहीं है। प्रेममें नीति-मानादिका सर्वथा स्वाभाविक ही अभाव होता है। नियम तोड़ने नहीं पड़ते, टूट जाते हैं। इसी अवस्थामें सच्चा प्रेम खिलता है। यहाँ स्वाँग नहीं होता। भक्त प्रेमरूप होकर भगवान् में अभिन्नरूपसे मिल जाता है। यही विशुद्ध प्रेम है, भगवान् का यही सच्चा स्वरूप है। भाग्यवती गोपियोंमें यही सच्चा प्रेम था। उनके प्रेमको देखकर जड जीव भी पिघल जाते थे तब मनुष्योंकी तो बात ही क्या है? उस प्रेम-विह्वलतासे सनी हुई वायु ही प्रेमका प्रवाह बहा देती है। जिस जगह प्रेमी विचरता है वहाँकी सभी वस्तुएँ प्रेममय बन जाती हैं। प्रेमीके द्वारा स्पर्श की हुई जगह तथा उसके चरणोंको छू जानेवाली धूलि भी प्रेमस्वरूप बन जाती है। इस रहस्यको भगवत्प्रेमी ही जानते हैं, ऐसा प्रेम सिवा भगवान् के और किसी दूसरेमें नहीं हो सकता। जिस प्रेमको सुनकर श्रीउद्धव प्रेमके प्रवाहमें बह गये थे, यदि उसे हम सुनें तो हमारी भी वही दशा हो, पर वह सुननेको मिले कहाँ? स्वाँगमें वह बात नहीं हो सकती! वास्तवमें हो, तभी हो सकती है।
जब एक सुन्दर स्त्रीके कटाक्षोंसे घायल मनुष्यको जगत् भरमें स्त्री-ही-स्त्री दीखती है और वह उसीमें बड़ा आनन्द मानता और पागल हुआ घूमता है, जो एक अत्यन्त तुच्छ बात है, तो फिर जिसको उस परमानन्दस्वरूप परमात्मा श्यामसुन्दरके कटाक्षबाण लगे होंगे, उसकी क्या दशा होती होगी? वह किस आनन्दमें मतवाला होगा? उसे जगत् में क्या दीखता होगा? यह बात न तो कल्पनामें आ सकती है और न कोई इसके साथ तुलना करनेलायक पदार्थ ही दीखता है। यदि इसे धूलिकण और उसे पृथ्वी या इसे दर्पणका सूर्य और उसे सच्चा सूर्य कहें तो भी उचित नहीं होता। जैसे बर्फकी पुतली समुद्रकी गहराई नापकर नहीं बतला सकती, वैसे ही इस आनन्दका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। वास्तवमें वह भगवत्प्रेमी बर्फकी पुतलीकी भाँति भगवत्स्वरूप ही हो जाता है। उससे भगवत् के स्वरूपके वर्णनकी आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि वह भगवान् से अलग रह नहीं जाता और दूसरा कोई बतला नहीं सकता। यद्यपि परमेश्वरकी प्राप्तिके बाद भी प्रेमीका पूर्वदेह हमलोगोंके दृष्टिगोचर होता है, पर वह है प्रेमरूप ही। वह जिस तरफ जाता है उधर ही प्रेमकी वर्षा करता है। वर्षाकी भाँति उसकी दृष्टि ही लोगोंको प्रेमसुधासे भिगो देती है। ऐसे पुरुषोंके भी दर्शन कठिन हैं, फिर भगवान् के दर्शनका तो कहना ही क्या है? परन्तु प्रेम होनेसे उसका प्राप्त होना भी बहुत सहज है। भगवान् दयामय हैं। वे यदि हमारे कर्मोंकी ओर देखें तो हमारा निस्तार कठिन है, परन्तु वे ऐसा नहीं करते। वे प्रेमके बदलेमें अपनेको बेच डालते हैं। इस बातको जो जान लेता है वह तो उनके शरणागत हो उन्हें प्राप्त ही कर लेता है।
भगवान् श्रीरामके प्रेममें मत्त भरत जब चित्रकूट जा रहे थे, तब उनके प्रेमको देखकर जड चेतन और चेतन जडरूप हो गये। जब भरतके दर्शनमात्रसे जड चेतन और चेतन जड हो चले, तब स्वयं भरतकी क्या दशा हुई थी सो तो भरत ही जानें। इस प्रकारका स्वार्थहीन प्रेम ही शुद्ध, अलौकिक और उज्ज्वल प्रेम कहलाता है। इसमें न मलिनता है और न व्यभिचार है। यह तो देदीप्यमान प्रकाश है, सूर्यकी तरह नहीं, परन्तु परम ज्ञानमयी निर्मल ज्योतिसे युक्त है। अमृतसे भी अधिक अमर करनेवाला और स्वादिष्ट है। इसी सच्चे आनन्दके सत्य स्वरूपके लिये हमें प्रयत्न करना चाहिये। क्षणिक सुखरूप भोगोंसे, जो वास्तवमें दु:ख ही है, वैराग्य करना और उस प्रेममय परमात्मामें मन लगाकर उससे प्रेम करना चाहिये। जिस दिन हमारे प्रेमका अविच्छिन्न स्वरूप होगा, उसी दिन परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी। अतएव यदि पाठक-पाठिकागण इस बातपर विश्वास करते हों और उन्हें परमेश्वर-प्राप्तिके साधनमें तत्पर होनेसे प्राप्त होनेकी पूरी आशा हो तो सच्चे दिलसे इन अनित्य, दु:खरूप भ्रान्तिमात्रसे प्रतीत होनेवाले सांसारिक भोगोंको मनसे त्याग, इनसे वृत्तियाँ हटाकर उस शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमात्मामें अनन्यप्रेमभावसे लगानेमें तत्पर होना चाहिये। परमात्माको प्राप्त करनेके लिये प्रेम ही प्रधान उपाय है।