प्रेम-साधन
व्रजराज भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम होनेमें ही इस जीवनकी सार्थकता है। जिस बड़भागीने इस दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम-पीयूषका पान कर लिया, उसका जन्म सफल हो जाता है। उसकी युग-युगकी, जन्म-जन्मोंकी विषय-पिपासा बुझ जाती, शान्त हो जाती है। भवतापसे सन्तप्त प्राणी भगवत्प्रेमकी पावन मन्दाकिनीमें निमज्जन करके ही पूर्ण शान्ति प्राप्त कर सकता है। यही वह परम रस है। जिसे पीकर मनुष्य सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है।१
१-यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति॥
(नारदभक्तिसूत्र ४)
जिस प्रेमके प्राप्त होनेपर मनुष्य न तो किसी भी वस्तुकी इच्छा करता है, न शोक करता है, न द्वेष करता है, न किसी भी वस्तुमें आसक्त होता है और न (विषयभोगोंकी प्राप्तिमें) उसे उत्साह होता है।२
२-यत्प्राप्य न किंचिद् वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति॥
(नारदभक्तिसूत्र ५)
प्रेम साधन भी है और साधनोंका फल (साध्य) भी।३
३-साधन सिद्धि राम पग नेहू।
(रा० च० मा०२।२८९।८)
परमात्माकी ही भाँति प्रेमका स्वरूप भी अनिर्वचनीय है, गूँगेके स्वादकी तरह यह वाणीका विषय नहीं होता।४
४-अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्, मूकास्वादनवत् ।
(नारदभक्तिसूत्र ५१, ५२)
इसीलिये प्रेमका स्वरूप अलौकिक बतलाया गया है; क्योंकि वह लोकसे सर्वथा विलक्षण है। लौकिक प्रेम भोग-कामनाओं और दुर्वासनाओंसे वासित होनेके कारण शुद्ध नहीं होता। जहाँ वासनाका आधिपत्य है वह प्रेम नहीं, आसक्तिमूलक मोह है। इसके अलावे लौकिक प्रेमके आलम्बन क्षणिक एवं नाशवान् होते हैं; अत: वह भगवत्प्रेमके सामने हेय ही है। भगवत्प्रेम भी यदि किसी कामनासे किया जाय तो वह सकाम कहलाता है। सकाम प्रेममें दिव्यता, अनन्यता एवं विशुद्धताका अभाव होता है। कामना लौकिक वस्तुके लिये ही होती है, अत: लौकिकताका सम्मिश्रण हो जानेसे उसकी दिव्यता नष्ट हो जाती है तथा उक्त कामनामें वह प्रेम बँट जाता है, इसलिये उसमें एकनिष्ठता एवं अनन्यता नहीं रह जाती। इसी प्रकार कामनासे मिश्रित या दूषित हो जानेसे वह प्रेम विशुद्ध नहीं रह पाता। दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेम तो तीनों गुणोंसे अतीत और कामनाओंसे रहित होता है, वह प्रतिक्षण बढ़ता है, कभी घटता नहीं, वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म होता है, उसे वाणीद्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता, वह तो अनुभवकी वस्तु है।१
१-गुणरहितं कामनावर्जितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्॥
(नारदभक्तिसूत्र ५४)
हेतु या कामना ही प्रेमका दूषण है, निर्हैतुक अथवा निष्काम प्रेममें कामनाकी गन्ध भी नहीं है, इसलिये यह शुद्ध है। अपने अभिन्न प्रियतम परमात्मा श्रीकृष्णके सिवा और कोई इस प्रेमका लक्ष्य नहीं है, इसलिये यह अनन्य है तथा ऊपर कहे अनुसार लोकसे सर्वथा विलक्षण होनेके कारण यह प्रेम दिव्य है।
इस प्रेमको पाकर प्रेमी सदा आनन्दमें मस्त रहता है। संसारकी चिन्ताएँ उसका स्पर्श भी नहीं कर सकतीं, उसकी दृष्टिमें प्रेमके सिवा और कुछ रह ही नहीं जाता। वह तो प्रेमको ही देखता, प्रेमको ही सुनता और प्रेमका ही वर्णन तथा चिन्तन करता है। उसके मन, प्राण और आत्मा प्रेमकी ही गंगामें अनवरत अवगाहन करते रहते हैं। वह अपने सब धर्म और आचरण प्रेममय श्रीकृष्णको ही अर्पण कर देता है। उनकी पलभरके लिये भी याद भूलनेपर वह अत्यन्त व्याकुल—बहुत ही बेचैन हो जाता है।२
२-नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति॥
(नारदभक्तिसूत्र १९)
वह सर्वत्र प्रेममय भगवान् को ही देखता है, सब कुछ भगवान् में ही देखता है; ऐसी दृष्टि रखनेवालेकी नजरसे भगवान् अलग नहीं हो सकते तथा वह भी भगवान् से अलग नहीं हो सकता।
इस प्रकार दोनोंका नित्य ऐक्य—शाश्वत संयोग बना रहता है। भगवान् ऐसे भक्तका लोकोत्तर अनुराग देख अपनी महेश्वरता भूल जाते और मुग्ध होकर अपने प्राणप्रिय भक्तको निहारते रहते हैं, उसके साथ उसीके अनुरूप बनकर उसकी इच्छाके अनुकूल विग्रह धारण कर खेलते, नृत्य करते, गाते, बजाते और आनन्दित होते रहते हैं।
प्रेमी भक्त मिलन और विछोहकी चिन्तासे भी परे होता है। उसे तो केवल प्रेम करना है, वह भी प्रेमके लिये। वह प्रेमतत्त्वज्ञ प्रियतम स्वयं ही मिले बिना नहीं रह सकता। उसे गरज होगी तो स्वयं ही आवेगा, भक्त क्यों मिलनेके लिये परेशान हो? तथा वह विछोहसे भी क्यों डरे? उसे अपने लिये तो सुख या आनन्दकी चाह है नहीं; वह तो सब कुछ उस प्रियतमके ही सुखके लिये करता है। उसे यदि मिलनमें सुख मिलता हो तो स्वयं ही आकर मिले। विछोहसे दु:ख होता हो तो कभी यहाँसे दूर न जाय। वह तो प्रेमका लोभी है, प्रेम होगा तो अपने-आप दौड़ा आवेगा, न होगा तो बुलानेसे भी नहीं आवेगा। इसीलिये जो निष्काम प्रेमी होते हैं, वे भगवान् को बुलाते भी नहीं। वास्तवमें न तो भगवान् को दर्शन देनेके लिये बुलानेकी आवश्यकता है, न रोकनेकी। बिना किसी कामना या हेतुके ही भगवान् में केवल प्रेम बढ़ाना आवश्यक है। अहंकारसे दूर रहकर संयोग-वियोगकी चिन्तासे बेपरवाह होकर, उत्तरोत्तर प्रेम बढ़ता रहे—इसीके लिये, सारा प्रयत्न—सम्पूर्ण चेष्टा होनी उचित है। प्रह्लादने कभी प्रार्थना नहीं की कि ‘मुझे दर्शन दो।’ सब कुछ भगवान् ने अपने-आप ही किया।
भगवत्प्रेमीका पूजन, खाना, पीना, रोना, गाना आदि सब भगवत्प्रीत्यर्थ होना चाहिये। प्रेमीका प्रेममय भगवान् के सिवा और कोई लक्ष्य न हो। दर्शन-मिलन आदि तो आनुषंगिक फल हैं, अपने-आप प्राप्त होंगे। इस प्रेमकी पूर्णता उस दिव्य, अनन्य एवं विशुद्ध प्रेममें ही है, जहाँ प्रेम, प्रेमी और प्रियतमकी एकता होती है।
ऐसा प्रेमी उस दिव्य प्रेमका साक्षात् स्वरूप होता है। उसकी वाणी प्रेमसे ओत-प्रोत तथा शरीर और मन प्रेमरसमें सराबोर होते हैं। उसका रोम-रोम प्रेमानन्दसे थिरकता दिखायी देता है। उसके साथ सम्भाषण, उसका चिन्तन तथा उसके निकट गमन करनेसे अपने अंदर प्रेमके परमाणु आते हैं, उसका स्पर्श पाकर नीरस हृदयमें भी प्रेमका संचार होता है। बड़े-बड़े नास्तिक भी उसके सम्पर्कमें आनेपर सब कुछ भूलकर प्रेमदीवाने बन सकते हैं। उसके अनन्य अनुराग या अलौकिक भावोद्रेकको ठीक-ठीक हृदयंगम करानेके लिये उपयुक्त शब्द नहीं है। समझानेके लिये उसके भावको चाहे जो भी भाव कह दिया जाय; वास्तवमें वह सब भावोंसे ऊपर उठा होता है।
सख्यभावसे भी इस दिव्य प्रेमकी तुलना नहीं हो सकती। यह सख्यसे भी ऊँचा भाव है। सख्यभावके उदाहरण अर्जुन माने जाते हैं; परन्तु अर्जुनमें भी इस दिव्य अलौकिक भावकी तो कमी ही दीख पड़ती है। वे भगवान् का विराट् रूप देखकर भयभीत होते हैं। भगवान् के साथ किया हुआ सख्य—समानताका व्यवहार उन्हें महान् अपराध जान पड़ता है; और उसके लिये वे बारम्बार क्षमा-याचना करते देखे जाते हैं—
‘तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्’॥
(गीता ११। ४२)
‘पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु:
प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥’
(गीता ११। ४४)
और भगवान् भी उन्हें ‘मा ते व्यथा मा च विमूढभाव:’ (गीता ११। ४९) आदि कहकर आश्वासन देते हैं।
दास्यभावसे भी उस अनन्यप्रेमीका भाव अत्यन्त उत्कृष्ट है। दास्यभावमें ऊँच-नीच, स्वामि-सेवककी दृष्टि है, पर यहाँ तो पूर्ण समता है, न कोई सेवक है न स्वामी। भक्त भगवान् की प्रेम-गंगामें निमज्जन करके प्रसन्न होता है, तो भगवान् भी वैसे ही प्रेममें मग्न हो जाते हैं।
वात्सल्यभावसे भी इस दिव्य अनन्यभावका स्थान ऊँचा है। वहाँ उस लोकोत्तर साम्यका दर्शन नहीं होता, जो कि यहाँ सहज ही अनुभवमें आता है। उसमें छोटे-बड़े, पिता-पुत्र आदि भाव रहते हैं, किन्तु यहाँ न कोई छोटा है न बड़ा; न कोई माता-पिता, न कोई किसीका पुत्र। सब एक समान हैं।
माधुर्यभावसे भी यह अद्भुत प्रेमभाव विलक्षण है। माधुर्यभावके भी दो स्वरूप हैं—स्वकीयाभाव और परकीयाभाव। परम श्रेष्ठ सतीशिरोमणि पतिव्रता नारीका अपने प्रियतम पतिके प्रति जो भाव होता है, वही स्वकीयाभाव है तथा परस्त्रीका परपुरुषमें जो गुप्त प्रेम होता है, उसी भावसे जो भगवान् के दिव्य स्वरूपमें उच्च श्रेणीका प्रेम हो, उसे परकीयाभाव कहते हैं। उपर्युक्त प्रेमी इन सभी भावोंसे ऊपर उठा होता है। भगवान् के साथ उसका एक क्षणके लिये भी कभी वियोग नहीं होता। भगवान् उसके अधीन होते हैं, उसके हाथों बिके रहते हैं। उसका साथ छोड़कर कहीं जाते ही नहीं। वह अनन्यप्रेमी भक्त पूर्ण प्रेममय हुआ रहता है। भगवान् से वह भिन्न नहीं, भगवान् उससे भिन्न नहीं। इस अवस्थामें न भय है न संकोच; मान, आदर और सत्कारका भी यहाँ कुछ खयाल नहीं रहता। बड़े-छोटेका कोई लिहाज नहीं किया जाता। उन (भक्त और भगवान्)-में न कोई उत्तम है न मध्यम। दोनों समान हैं।
पतिव्रता पतिको नारायण मानती है और अपनेको उनकी दासी। यह भाव बड़ा ही उत्तम परम कल्याणकारी है। फिर भी इसमें बड़े-छोटेका दर्जा तो है ही। परन्तु उपर्युक्त दिव्य प्रेममें बड़े-छोटेकी कोई श्रेणी नहीं है। वहाँ दोनोंकी एक स्थिति—समान अवस्था है।
परकीयाभावमें भी दूसरोंसे भय है, छिपाव है, पर यहाँ इस दिव्य प्रेममें न भय है न छिपाव; फिर संकोचकी तो बात ही क्या है। भगवान् के गुण और प्रभावसे प्रभावित होकर ही परकीयाका मन उनकी ओर आकृष्ट होता है, जहाँ अपनेसे अन्यत्र श्रेष्ठताका अनुभव है, वहाँ अपनेमें न्यूनताका भी भाव है ही। अत: वहाँ भी निर्भीकता एवं पूर्ण समानता नहीं है। परन्तु अनन्य और विशुद्ध प्रेममें गुण और प्रभावकी विस्मृति है, स्मृति होनेपर भी उनका कोई मूल्य नहीं है। यहाँ तो दोनोंमें अनिर्वचनीय ऐक्य है। वहाँ सर्वशक्तिमान् और सर्वान्तर्यामी कहकर स्तवन नहीं किया जाता। स्तुतिकी अवस्था तो बहुत पहले ही समाप्त हो जाती है। अब तो कौन सर्वशक्तिमान् और कहाँका सर्वेश्वर! दोनों एक हैं, समान हैं, दोनों ही दोनोंके प्रेमी और प्रियतम हैं; इनमें परस्पर हेतुरहित सहज प्रेम होता है। इस स्थितिमें प्रेम, प्रेमी और प्रेमास्पदमें भेद नहीं रहता। भक्ति, भक्त और भगवन्त—सब एक हो जाते हैं। किसी भावुक भक्तके निम्नांकित वचनसे भी इसी भावकी पुष्टि हुई है—
त्रिधाप्येकं सदागम्यं गम्यमेकप्रभेदने।
प्रेम प्रेमी प्रेमपात्रं त्रितयं प्रणतोऽस्म्यहम्॥
‘प्रेम, प्रेमी और प्रेमपात्र (प्रियतम)—ये देखनेमें तीन होनेपर भी वास्तवमें एक हैं। इनका तत्त्व सदा सबकी समझमें नहीं आता। इन्हें एक रूप ही जानना चाहिये। मैं इन तीनोंको, जो वस्तुत: एक हैं, प्रणाम करता हूँ।’
ऐसे अनन्यप्रेमीकी दृष्टिमें सर्वत्र और सदा ही दिव्य प्रेमकी अखण्ड ज्योति जगमगाती रहती है। वह सम्पूर्ण जगत् पर समानरूपसे प्रेमामृतकी वर्षा करता है। उसकी दृष्टिमें कोई घृणा या द्वेषका पात्र नहीं है। उसके लिये सर्वत्र ही प्रेमका महासागर लहराता रहता है।
ज्ञानमार्गसे चलनेवाले महात्मा अद्वैत—अभेदरूपसे ब्रह्मको प्राप्त होते हैं, ‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति।’ ‘ब्रह्म होता हुआ ही वह ब्रह्मको प्राप्त होता है।’ पर यहाँ तो इस दिव्य प्रेम-संसारकी अनुभूति निराली ही है। यहाँ न द्वैत है न अद्वैत! दोनोंसे विलक्षण स्थिति है। प्रेमी और प्रियतमका नित्य-नूतन प्रेम उत्तरोत्तर बढ़ता है, ‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ (नारदभक्तिसूत्र ५४)-की स्थितिमें पुष्ट होता है। बढ़ते-बढ़ते यह असीम—अनन्त हो जाता है। भक्त और भगवान् दोनों एक-दूसरेसे इतने मिल जाते हैं कि उनमें द्वैतका-सा भान ही नहीं होता। इनके दिव्यभावको वाणीद्वारा व्यक्त करना असम्भव है। यहाँ प्रेमके सिवा कुछ रहता ही नहीं। इन प्रेमियोंका मिलन भी बड़ा ही विलक्षण—अत्यन्त अलौकिक होता है। यहाँ अद्वैत होते हुए भी द्वैत है और द्वैत होते हुए भी अद्वैत। हमारे दोनों हाथ परस्पर मिलकर सटकर एक हो जाते हैं, उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो। इस प्रकार यहाँ न भेद है, न अभेद।
गंगा और समुद्र मिलकर एक-से हो जाते हैं, किन्तु भगवान् और अनन्यप्रेमी भक्तका दिव्य मिलन इनसे भी विलक्षण और उत्कृष्ट है। वह अलौकिक एवं अनिर्वचनीय अवस्था है। भेद-अभेदसे परेकी फलरूपा स्थिति है। यह मिलन नित्य है।
यहाँ वस्त्र, आभूषण या आयुधका व्यवधान भी वाञ्छनीय नहीं है। वस्त्रका व्यवधान लज्जा-निवारणके लिये अपेक्षित होता है, लज्जा दूसरेसे होती है। यहाँ तो प्रेमी और प्रियतम एकप्राण हो चुके हैं। भला अपनेसे भी कोई लज्जा करता है? बंद एकान्त कमरेमें यदि अपने सिवा कोई दूसरा न हो तो लज्जानिवारणके लिये वस्त्रकी आवश्यकता नहीं होती। इस दिव्य मिलनमें द्वैतभाव मिट चुका है, दूसरोंकी ही दृष्टिमें भेद प्रतीत होता है। इस मिलनमें तो आभूषण भी दूषण जान पड़ते हैं—यहाँ परस्पर मान-सम्मान, आदर-सत्कारका भी कोई व्यवहार नहीं है। जहाँ पूर्णरूपसे प्रेम है, वहाँ आदर-सत्कार तो एक विघ्न है। क्या कोई स्वयं ही अपना आदर करता है। यह स्थिति गोपियोंके प्रेमका फल है।
इस स्थितिमें शोक, मोह और भय आदिका नामोनिशान भी नहीं रहता—यहाँ तो देखनेमात्रकी भिन्नता होते हुए भी वास्तवमें पूर्ण एकत्व है। अनन्य प्रेमीका ऊपरी व्यवहार चाहे जैसा हो, भीतरसे वह एकनिष्ठ है, भगवन्मय है, इसीलिये वह भगवान् में नित्य स्थित है। गीतामें भगवान् ने कहा है—
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥
(६। ३१)
‘जो पुरुष एकीभावमें स्थित होकर सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मरूपसे स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेवको भजता है वह योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है; क्योंकि उसके अनुभवमें मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं।’
यह द्वैत-अद्वैत, भेद-अभेदसे विलक्षण अनिर्वचनीय स्थिति है। व्रजराज भगवान् श्रीकृष्णके इस अनन्य प्रेमको प्राप्त करना ही मानवमात्रका वास्तविक लक्ष्य होना चाहिये; क्योंकि इसीकी प्राप्तिमें जन्म और जीवनकी सार्थकता है।