Seeker of Truth

प्रश्नोत्तर

दो सज्जनोंने श्रीभगवान् एवं श्रीमद्भगवद्गीताके सम्बन्धमें कुछ प्रश्न किये हैं। प्रश्न सार्वजनिक हैं और ऐसे प्रश्न अनेकों पुरुषोंके मनमें उठते होंगे। इसलिये उनका उत्तर यहाँ दिया जाता है।

पहले सज्जनके—

(१) प्रश्न—

(क) मैं चाहता हूँ मेरा भगवान् से प्रेम हो जाय।

(ख) मुझे उनके समान प्रेमी और सुहृद् अन्य कोई न

जान पड़े और—

(ग) मैं उनके लिये सच्चे दिलसे रोऊँ, परन्तु ऐसा होता

नहीं, इसका क्या कारण है?

उत्तर—

(क) भगवान् में प्रेम न होनेका प्रधान कारण श्रद्धाकी कमी है। यद्यपि भगवान् में प्रेम होनेकी चाहना ही प्रेमकी प्राप्तिका एक प्रधान उपाय है परन्तु यह चाहना बहुत ही उत्कट होनी चाहिये। ऐसी उत्कट इच्छा होनेका उपाय श्रद्धाकी अतिशयता ही है। भगवान् के प्रभाव और गुणोंको जाननेसे भगवान् क्या हैं और उनके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है, इसके रहस्यको तत्त्वसे समझनेसे श्रद्धा होकर प्रेम हो सकता है।

वास्तवमें सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ भगवान् विज्ञानानन्दरूपसे सर्वत्र विराजमान हैं; अंश और अंशीरूपसे उनके साथ प्राणी-मात्रका अटूट सम्बन्ध है तथा उनसे बढ़कर हमारा कोई भी सुहृद् नहीं है। इस बातको समझ लेनेपर भगवान् का वियोग असह्य हो जाता है। जैसे छोटे बालकका माता-पितामें स्वाभाविक प्रेम होता है, अंशी होनेके नाते वैसा ही स्वभावसिद्ध अनिवार्य प्रेम हमारा परमेश्वरमें होना चाहिये। यदि नहीं होता तो यह बात सिद्ध होती है कि हमलोगोंने इस विषयको यथार्थ समझा नहीं। यही बात गुण और प्रभावके विषयमें है। जब परिमित गुण-प्रभाववाले मनुष्योंके गुण-प्रभाव जान लेनेपर उनमें भी प्रेम हो जाता है, तब जिनमें प्रेम, दया, शान्ति, सुहृदता, वत्सलता आदि गुण और बुद्धि, बल, ज्ञान, ऐश्वर्य आदि प्रभाव अपरिमित हैं, उन अपने अंशी यानी स्वामी परमात्मामें स्वाभाविक ही अनन्य प्रेम न होना इसी बातको प्रमाणित करता है कि हम उन्हें तत्त्वसे जानते नहीं।

(ख) वास्तवमें भगवान् के समान प्रेमी, सुहृद् अन्य कोई भी नहीं है परन्तु ऐसा मालूम नहीं होता; इसका कारण यह है कि साधारण लोगोंकी दृष्टिसे तो भगवान् अदृश्य हैं और भगवान् को जाननेवाले लोगोंसे हमारा पूरा परिचय या प्रेम नहीं है। इसलिये यदि हम यह समझना चाहते हों कि एक परमेश्वर ही सबसे बढ़कर प्रेमी और सुहृद् हैं तो उनके प्रेम, प्रभाव और तत्त्वको जाननेवाले पुरुषोंका श्रद्धा और प्रेमपूर्वक संग करके उनके बतलाये हुए मार्गपर चलनेकी चेष्टा करनी चाहिये। यदि ऐसे पुरुषोंसे परिचय न हो या उनका मिलना और पहचानना कठिन हो तो महान् पुरुषोंकी जीवनी, उनके द्वारा रचित ग्रन्थ एवं ऐसे सत्-शास्त्रोंका अध्ययन-मनन करना चाहिये जिनमें भगवान् के गुण, प्रेम, प्रभाव और तत्त्वकी विशेष आलोचना की गयी हो।

(ग) भगवान् के लिये सच्चे दिलसे रोना न आनेमें दो कारण हैं—श्रद्धाकी कमी और पूर्वसंचित पाप। भगवान् अदृश्य होनेके कारण उनमें और उनके गुण-प्रभाव आदिमें पूरा विश्वास नहीं होता, यह बात निश्चयरूपसे मनमें नहीं जँचती कि वे सब जगह सदा-सर्वदा मौजूद हैं और हमारी करुण पुकार तत्काल सुनते और उसपर दयार्द्र-हृदयसे ध्यान देते हैं। इसके लिये पूर्वोक्त उपायसे श्रद्धा बढ़ानी चाहिये और संचित पापोंके नाशके लिये निष्काम प्रेमभावसे भगवान् की आज्ञाका पालन और भजन-ध्यान करना चाहिये।

(२) प्रश्न—मनको जीतनेमें अशक्तिका अनुभव क्यों होता है?

उत्तर—इसमें चार कारण हैं—

(क) जीवात्मा अपने सामर्थ्यको भूला हुआ है।

(ख) साधारण चेष्टा करके बार-बार विफल होनेसे निराशा-सी हो गयी है।

(ग) मनको स्वतन्त्रता दे रखी है। और—

(घ) विषयोंमें आसक्ति है।

जैसे कोई समर्थ पिता स्नेहासक्तिवश बालकको स्वतन्त्रता दे देता है जिससे बालककी आदत बिगड़ जाती है और वह उद्दण्ड होकर मनमाना आचरण करने लगता है, परन्तु वही पिता जब बालककी स्वतन्त्रता छीनकर अपनी शक्तिका बड़ी सावधानीके साथ पूरा प्रयोग करता है और साम, दाम आदि नीतिसे उसे वशमें करनेकी चेष्टा करता है तब सम्भवत: वह बिगड़ा हुआ बालक पुन: ठीक रास्तेपर आ जाता है, बस यही दशा मनकी है; मन स्वतन्त्र होकर उद्दण्ड हो गया है। अतएव मनुष्यको उचित है कि वह अपनी सामर्थ्यकी ओर ध्यान देकर साम, दाम आदि नीतिके द्वारा मनकी बुरी आदतोंको दूरकर उसकी उद्दण्डताका नाश करके उसे ठीक राहपर लानेके लिये तीव्र अभ्यास करे। बालक तो शायद पिताके शक्तिप्रयोग करनेपर भी उद्दण्डता छोड़कर ठीक राहपर न भी आवे परन्तु मनके लिये तो दूसरा आश्रय ही नहीं है। उसे तो बाध्य होकर ठीक रास्तेपर आना ही पड़ेगा। सम्भव है कि पहले-पहले कुछ निष्फलता-सी हो परन्तु उत्साह कम न होने देना चाहिये। निष्फल होनेपर भी पूर्ण उत्साहसे पुनः पुनः प्रयत्न करना चाहिये। उत्साही पुरुष निश्चय ही मनको अपने वशमें कर लेते हैं। यह याद रखना चाहिये कि आत्माके सामने मनकी शक्ति अत्यन्त तुच्छ है। आत्मा मनकी अपेक्षा सब प्रकार श्रेष्ठ और बलवान् है। भगवान् कहते हैं—

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥
(गीता ३। ४२)

अर्थात् (इस शरीरसे तो) इन्द्रियोंको परे (श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म)कहते हैं, इन्द्रियोंसे परे मन है और मनसे परे बुद्धि है और जो बुद्धिसे (भी) अत्यन्त परे है वह (आत्मा) है। इसीलिये भगवान् मनको जीतकर आत्माको हानि पहुँचानेवाले आसक्तिरूप कामको मारनेका आदेश करते हैं—

एवं बुद्धे: परं बुद्‍ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥
(गीता ३। ४३)

अर्थात् इस प्रकार बुद्धिसे परे यानी सूक्ष्म तथा सब प्रकार बलवान् और श्रेष्ठ अपने आत्माको जानकर, बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करके हे महाबाहो! (अपनी शक्तिको समझकर इस) दुर्जय कामरूप शत्रुको मार!

(३) प्रश्न—विषयोंके त्याग करनेमें असमर्थता क्यों मालूम होती है?

उत्तर—विषयोंके भोगमें प्रथम क्षणिक सुख और आरामका प्रत्यक्ष प्रतीत होना और उसके परिणाममें होनेवाला दु:ख प्रत्यक्ष न होकर दूर होनेके कारण उसमें पूरा विश्वास न होना, (यानी कौन जानता है आगे चलकर कब क्या दु:ख होगा, अभी तो प्रत्यक्ष सुख है ऐसी धारणा) यही विषयोंके त्यागमें असमर्थता-सी प्रतीत होनेका कारण है। वास्तवमें तो विषयोंमें सुख है ही नहीं, क्योंकि विषयोंसे उत्पन्न होनेवाला सुख क्षणिक, भोगकालमें सदा एक-सा न रहकर सतत बदलनेवाला तथा नाशवान् है। सुखका मिथ्या आभास ही अज्ञानके कारण मनुष्यको सुखमय प्रतीत होता है। जैसे सूर्यका प्रतिबिम्ब जलके अंदर सूर्य-सा दिखायी देता है परन्तु वास्तवमें वह सूर्य नहीं है, इसी प्रकार उन आनन्दघन परमात्माके केवल किसी एक अंशमात्रका, विषयोंमें प्रतीत होनेवाला प्रतिबिम्ब वस्तुत: सुख नहीं है। इस रहस्यके समझमें आते ही विषय-त्यागमें प्रतीत होनेवाली असमर्थता नष्ट हो जाती है फिर स्वाभाविक ही विषयोंका त्याग हो जाता है। विचार करना चाहिये कि जो वस्तु वास्तवमें सत् होती है उसका कभी अभाव नहीं होता और जिसका आदि-अन्तमें अभाव है वह वस्तु वास्तवमें सत् नहीं है। ऐसी वस्तुका मध्यमें भी अभाव ही समझना चाहिये, जैसे स्वप्नका संसार। इसी तत्त्वको समझकर ज्ञानीजन नाशवान् दु:खपूर्ण क्षणिक विषयोंमें आसक्त नहीं होते। श्रीभगवान् कहते हैं—

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५। २२)

अर्थात् ‘(ये) जो इन्द्रिय और विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं वे (यद्यपि अज्ञानी विषयी पुरुषोंको सुखस्वरूप भासते हैं तो भी) नि:सन्देह दु:खके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले यानी अनित्य हैं (इसलिये) हे अर्जुन! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।’

अतएव विषयोंके त्याग करनेके लिये बारंबार उनमें दु:ख और दोष-दृष्टि करके उनसे मनको हटाना चाहिये!

(४) प्रश्न—भगवान् में श्रद्धा क्रमश: घटनेका क्या कारण है?

उत्तर—इसमें कई कारण हैं, जैसे—

(क) अज्ञानवश संसारके विषयोंमें आसक्ति होना।

(ख) विषयोंका तथा विषयासक्त पुरुषोंका संसर्ग।

(ग) सच्छास्त्र और सत्पुरुषोंके संगकी कमी।

(घ) निष्कामभावसे भगवान् के नाम-जप और स्वरूपके

ध्यानका उचित अभ्यास न होना।

(ङ) मुख्यत: भगवान् के गुण, प्रेम, प्रभाव और

तत्त्वको न जानना।

असलमें तत्त्वको जानकर निष्कामभावसे होनेवाली वास्तविक श्रद्धाके घटनेका तो कोई कारण ही नहीं है। वह तो साधनको प्रबल बनाती है और उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। परन्तु अज्ञानपूर्वक किसी कामनाके हेतुसे होनेवाली श्रद्धा घट भी सकती है। इसके लिये विषयोंका, विषयासक्त पुरुषोंका एवं आसक्ति तथा कामनाओंका यथासाध्य त्यागकर निष्कामभावसे यथासाध्य सच्छास्त्र और सत्पुरुषोंमें श्रद्धा, प्रेमसे उनका संग एवं सतत भजन-ध्यानका अभ्यास विशेषरूपसे करना चाहिये। ऐसा करनेसे अन्त:करण शुद्ध होनेसे वह भगवान् का तत्त्व जान लेता है तब श्रद्धा वास्तविक होती है और फिर उसके घटनेकी कोई सम्भावना नहीं रहती।

(५) प्रश्न—अपनेको यन्त्र और भगवान् को यन्त्री किस प्रकार समझा जाय?

उत्तर—ईश्वरकी दया और महापुरुषोंके संगसे ही भगवान् को यन्त्री और अपनेको यन्त्र समझा जा सकता है। यदि कहा जाय कि ईश्वरकी दया तो सबपर सदा ही समानभावसे अपार है ही फिर ऐसा क्यों नहीं समझा जाता? इसका समाधान यह है कि अवश्य ही ईश्वरकी सब लोगोंपर अपार दया है, परन्तु इस बातको लोग मानते नहीं, इसी कारण दया उनके लिये फलती नहीं। ईश्वरकी नित्य अपार दयाका मनुष्यको पद-पदपर अनुभव करना चाहिये। ईश्वरकी दयाका रहस्य समझमें आ जानेपर उसी क्षण मनुष्य अपने-आपको सम्पूर्णरूपसे उन यन्त्री भगवान् के प्रति समर्पण कर देता है। यानी सब प्रकारसे वह श्रीभगवान् के शरण होकर अपनेको सदाके लिये उन्हें सौंप देता है। वह फिर ऐसा किये बिना रह ही नहीं सकता।

(६) प्रश्न—भगवान् के सच्चे भक्तोंके दर्शन और उनकी पहचान किस प्रकार हो?

उत्तर—सच्चे भक्तोंके दर्शन होनेमें हेतु पूर्वकृत पुण्यसंचय, ईश्वरकी दया, उनके भक्तोंकी दया और ऐसे महात्मा भक्त पुरुषोंमें श्रद्धा और प्रेमका होना ही है। भक्तके मिलनेपर भी उनको पहचानना बहुत कठिन है। वास्तवमें ईश्वरकी दया और भक्तोंकी दयासे ही भक्तकी पहचान हो सकती है। क्योंकि साधारण पुरुष अपनी बुद्धिसे भक्तोंको यथार्थरूपमें नहीं पहचान सकता। यद्यपि श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १२ में श्लोक १३ से २० तक भक्तोंके लक्षणोंका वर्णन है, परन्तु उन लक्षणोंसे यथार्थ निर्णय करके भक्तको पहचानना साधारण बुद्धिका काम नहीं है। हाँ, जिनके दर्शन, भाषण, स्पर्श और चिन्तन आदिसे अवगुणों और दुराचारोंका क्रमश: नाश और सद्गुण, सदाचार एवं ईश्वर-भक्तिकी क्रमश: वृद्धि हो, साधारणतया उन्हींको ईश्वरके यथार्थ भक्त समझना चाहिये।

दूसरे सज्जनके—

(१) प्रश्न—

(क) गीता अध्याय ९ श्लोक २३ के अनुसार जब

सात्त्विक देवोंकी पूजा भी भगवान् की अविधिपूर्वक पूजा है तो फिर विधिपूर्वक कौन-सी है और उसका क्या स्वरूप है?

(ख) वे अन्य देवता कौन-से हैं?

(ग) ‘माम्’ शब्दसे यहाँ भगवान् श्रीकृष्णका आदेश केवल श्रीकृष्णस्वरूपकी पूजासे ही है अथवा श्रीराम,नारायण या निर्गुण ब्रह्मकी पूजा भी इसके अनुसार हो सकती है?

उत्तर—

(क) भगवान् ने यहाँ अन्य देवताओंकी सकाम पूजाको ही देवताओंके लिये विधिपूर्वक होते हुए भी अपने लिये अविधिपूर्वक बतलाया है, क्योंकि उन देवताओंद्वारा जो फल मिलता है वह तो श्रीभगवान् का ही विधान किया हुआ होता है। ‘मयैव विहितान् हि तान्’ और फल उनको अन्तवन्त प्राप्त होता है इसलिये अन्य देवताओंकी सकामोपासना करनेवाला श्रीभगवान् के प्रभावको नहीं जानता है। परन्तु फल और आसक्तिको छोड़कर भगवान् की आज्ञा मानकर निष्कामभावसे देव-पूजा करना भगवान् की ही पूजा है। इसीको भगवान् अपनी सात्त्विक और विधिपूर्वक पूजा बताते हैं।

(ख) अन्य देवताओंसे श्रीभगवान् का उद्देश्य शास्त्रोक्त देवताओंसे है जिनमें मुख्यत: ३३ हैं—आठ वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, इन्द्र और प्रजापति। इसके सिवा विश्वेदेवा देवता, अश्विनीकुमार, मरुद्गण आदि और भी बहुत-से शास्त्रोक्त देव हैं। इनमेंसे जिस किसी देवताको परात्पर ब्रह्म मानकर साधक पूजा करता है, उससे भिन्न सारे ही देवता उस साधकके लिये अन्य देवता समझे जाने चाहिये।

(ग) ‘माम्’ शब्दसे यथार्थत: इस प्रसंगमें तो भगवान् ने अर्जुनको अपने श्रीकृष्णस्वरूपका ही आदेश दिया है, परन्तु श्रीकृष्ण भगवान् राम, विष्णु आदि स्वरूपोंसे और निर्गुण ब्रह्मसे भिन्न न होनेके कारण सभीका समझना चाहिये।

(२) प्रश्न—

(क) वेदान्त-मतमें अनन्यताका भाव ‘वासुदेव: सर्वमिति’ और ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ के अनुसार एक ब्रह्मके सिवा अन्यकी सत्ता ही स्वीकार न कर सर्वत्र परमात्मा-ही-परमात्मा देखना समझमें आता है परन्तु साथ ही द्वैत-मतके ‘जीव की ईस समान ’ इत्यादि वचनोंसे जीव-ईश्वरका भेद प्रतीत होता है, अत: अनन्यता किसे कहते हैं?

(ख) शिव या विष्णुके उपासकोंको एक-दूसरेके इष्टके प्रति मैत्री, उदासीनता या द्वेष कैसा भाव रखना चाहिये? पार्वतीके ये वचन—

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥

—से तो शैवकी विष्णुके प्रति पूर्ण उदासीनता प्रकट होती है। ऐसे ही और भी प्रसंग देखनेमें आते हैं।

(ग) गीता अध्याय १७।१४ में ‘देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्’ को शारीरिक तप कहा है। यहाँ कौन-सी देवपूजा अभिप्रेत है, नित्य अथवा नैमित्तिक? इस देवपूजाका स्वरूप क्या है?

(घ) गीताके अनुसार जिस ज्ञानद्वारा एकसे दूसरेमें भेद प्रतीत होता है, वह राजसी ज्ञान है, सात्त्विक नहीं। तो क्या द्वैतमतानुयायियोंका अनन्यभाव राजसी ज्ञानका समर्थक नहीं है?

उत्तर—

(क) वेदान्तके मतानुसार उनका अनन्यताका भाव ठीक ही है और जीव-ईश्वरका भेद माननेवाले द्वैतानुयायियोंका कहना भी युक्तियुक्त ही है। परन्तु अर्जुनके प्रति गीतामें जहाँ-जहाँ अनन्य शब्द आया है, वह प्राय: भेदकी दृष्टिसे ही प्रतीत होता है। भेदोपासनाके अनुसार अनन्यताका स्वरूप केवल एक अपने स्वामीको ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझकर श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निष्कामभावसे निरन्तर उनका स्मरण करना ही है।

(ख) शैव और वैष्णव सबको अपने-अपने इष्टके प्रति अनन्यभाव रखते हुए एक-दूसरेके प्रति उदासीनता या द्वेष-भाव न रखकर अपने इष्टदेवकी आज्ञा समझकर पूज्य-भाव ही रखना चाहिये। भगवान् श्रीरामने अपने भक्तोंको शंकर-भजनकी आज्ञा दी है। जैसे—

औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥

इसलिये अपने स्वामीकी आज्ञा मानकर उनमें पूज्यभाव रखना चाहिये। पार्वतीका कहना उस जगह श्रीशिवजीसे विवाहके प्रसंगमें है। वैसे प्रसंगमें वही कहना उचित है।

(ग) गीता अध्याय १७।१४ के अनुसार देव-पूजासे शास्त्रानुसार यथाशक्ति नित्य और नैमित्तिक प्राप्त देवताओंकी सभी पूजाएँ शास्त्रकी विधिके अनुसार षोडशोपचारसे करनी चाहिये।

(घ) गीताका राजस ज्ञान सब भूतोंमें पृथक्-पृथक् भाव देखनेका निर्देश करता है, परन्तु ईश्वरको पृथक् मानकर जो उपासना की जाती है उसको राजस नहीं कहता, क्योंकि* श्रीभगवान् ने स्वयं आज्ञा दी है—

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥
(गीता ९। १५)

* यहाँ साधक ईश्वरको एकदेशीय न मानकर सर्वव्यापक समझता है और उन्हें सब भूतोंमें व्यापक देखता हुआ ही उनकी एकदेशमें पूजा करता है; केवल अपनेको उनसे पृथक् मानता है।

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने तो इसकी विशेष प्रशंसा की है—

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur