प्राचीन तथा आधुनिक संस्कृति
जगत् स्वभावत: परिवर्तनशील है। ‘जगत्’ और उसका पर्याय ‘संसार’ दोनों ही शब्द गतिवाचक हैं। ‘जगत्’ का अर्थ ही है गतिशील—जो सदा चलता रहे, कभी स्थिर न रहे। ‘संसार’ का अर्थ भी चलना ही है। परिवर्तन ही संसारका स्वरूप है। एक आत्मा ही अचल, अविनाशी एवं स्थिर है; आत्माके अतिरिक्त सब कुछ चल, विनाशी एवं परिवर्तनशील है। जगत् प्रवाहरूपसे अनादि है। अनादिकालसे इसका रूप बदलता आया है। उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश—ये छ: विकार सदा इसके साथ लगे रहते हैं। भारतीय संस्कृति भी समयके फेरसे क्रमश: उन्नति और अवनतिको प्राप्त होती रहती है। एक समय था जब कि हमारा भारतवर्ष सभ्य देशोंका सिरमौर बना हुआ था। विद्या-बुद्धि, कलाकौशल, धनबल-जनबल तथा ज्ञान-विज्ञान आदिमें सबसे बढ़ा-चढ़ा था। लौकिक एवं पारलौकिक सभी प्रकारकी विद्याओंका यह उद्गमस्थान था। यहींसे ज्ञान-सूर्यका उदय होकर समस्त देशोंमें उसका प्रकाश फैला था। इसीलिये मनु महाराजने कहा है—
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:॥
(२। २०)
‘इस देश (भारतवर्ष)-में उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंसे अखिल भूमण्डलके मनुष्य अपने-अपने आचारकी शिक्षा ग्रहण करें।’
जिस समय योरोप एवं अमेरिका आदि देशोंमें रहनेवाली सभ्य जातियोंके पूर्वज अर्द्धनग्न अवस्थामें जंगलोंमें वन्य पशुओंकी भाँति रहते थे, उस समय यह देश सभ्यताके उच्चतम शिखरपर आरूढ़ था। भारतीय संस्कृतिका प्रचार दूर-दूरतक हुआ था। उसके चिह्न अब भी अमेरिकातकमें मिलते हैं। बौद्धकालीन सभ्यताके चिह्न तो प्रचुर संख्यामें अफगानिस्तान आदि देशोंमें तथा भारतके समीपवर्ती द्वीपोंमें पाये जाते हैं। चीन और जापानके राष्ट्रोंमें तो स्पष्ट ही बौद्ध संस्कृतिका प्रभाव लक्षित होता है। अप्रत्यक्षरूपसे तो भारतीय संस्कृतिका प्रभाव सभी देशों और सभी राष्ट्रोंपर अमिटरूपसे पड़ा है। परन्तु सबका समय एक-सा नहीं रहता। जिस संस्कृतिकी भारतेतर देशोंपर भी गहरी छाप पड़ी, वही संस्कृति आज समयके फेरसे पाश्चात्य संस्कृतिके प्रभावमें आकर अपना स्वरूप खो देना चाहती है। चारों ओरसे उसपर विजातीय संस्कृतियोंके आक्रमण हो रहे हैं। परन्तु युगके प्रभावसे इस संस्कृतिका चाहे कितना ही ह्रास क्यों न हो जाय, इसका लोप नहीं हो सकता; क्योंकि इसकी भित्ति अत्यन्त सुदृढ़ है। भारतीय संस्कृतिका आधार उसकी आध्यात्मिकता है। यही कारण है कि जहाँ ग्रीस, रोम, बेबीलोन, मिश्र आदि देशोंकी सभ्यता आज केवल स्मृतिका विषय रह गयी है, भारतीय सभ्यता इतने विजातीय आक्रमण होनेपर भी आज उसी प्रकार अपना सिर ऊँचा किये खड़ी है। इस युगमें भी, जबकि हम भारतवासी सदियोंसे दासताकी बेड़ियोंसे जकड़े हुए हैं, हमारी सभ्यता संसारके लिये आदरका विषय बनी हुई है। इस युगके बड़े-बड़े दार्शनिक तथा विचारक हमारी सभ्यताके कायल हैं और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। यही नहीं, इस घोर अशान्तिके युगमें, जबकि सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है शान्ति चाहनेवाले योरोपनिवासी भारतकी ओर ही आँख उठाये हुए हैं और आशा करते हैं कि उन्हें यहींसे विश्वशान्ति और विश्वप्रेमका सन्देश प्राप्त हो सकता है। यहाँके प्राचीन तथा अर्वाचीन आध्यात्मिक साहित्यको वहाँके लोग बड़े चावसे पढ़ते हैं और यहाँके प्रमुख व्यक्तियोंका बड़ा सम्मान करते हैं। आज हम उसी भारतीय ऋषियोंद्वारा प्रवर्तित प्राचीन आर्यसभ्यता तथा वर्तमान भोगप्रधान पाश्चात्य संस्कृतिकी तुलनामें कुछ विचार करेंगे।
यह ऊपर निवेदन किया जा चुका है कि भारतीय संस्कृतिका आधार उसकी आध्यात्मिकता है। यहाँ ऐहिक तथा पारलौकिक सभी विषयोंपर आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे ही विचार किया जाता है। यहाँका धर्म, यहाँका आचार-व्यवहार, यहाँकी राजनीति, यहाँकी समाजनीति, यहाँकी युद्धनीति, यहाँकी समाज-व्यवस्था, यहाँकी शिक्षापद्धति, यहाँकी शासनपद्धति, यहाँका रहन-सहन तथा वेष-भूषा, यहाँका आहार-विहार, सब कुछ आध्यात्मिक भित्तिपर स्थित है। आजका शिक्षित संसार विश्वबन्धुत्वके आदर्शको सबसे ऊँचा मानता है। विश्वके सभी राष्ट्र, सभी जातियाँ तथा सभी मनुष्य आपसमें भाई-भाईकी तरह प्रेमपूर्वक रहें—यही उनकी उच्चतम कल्पना है। परन्तु भारतीय आदर्श इससे कहीं ऊँचा है। भाई-भाईमें भी कलह हो सकता है और होता है। संसारमें श्रीराम और भरत-जैसे भाई तो विरले ही होते हैं। श्रीराम और भरत-जैसा भ्रातृप्रेम तो जगत् के इतिहासमें अन्यत्र कहीं देखनेको नहीं मिलता। ऐसी स्थितिमें बन्धुत्वका आदर्श प्रेमकी परमावधि नहीं माना जा सकता। भारतीय संस्कृति मनुष्यमात्रमें ही नहीं, प्राणिमात्रमें— यहाँतक कि वृक्ष आदि स्थावर जीवोंमें भी आत्मबुद्धि करनेका उपदेश देती है। वह हमें यह सिखलाती है कि जीवमात्रको अपनी आत्मा समझो। कलह अथवा द्वेष दूसरेके साथ ही सम्भव है। अपने प्रति किसीका द्वेष, घृणा अथवा वैर नहीं हो सकता। अपना अहित कोई नहीं करना चाहेगा। अपनेसे सबका स्वाभाविक ही प्रेम होता है। इस अद्वैत-दृष्टिकी शिक्षा हमें भारतीय संस्कृतिसे प्राप्त होती है।
इसी प्रकार आजकी सबसे ऊँची शिक्षा मनुष्यमात्रके प्रति प्रेम करना है। परन्तु भारतीय संस्कृति हमें मनुष्यमात्रके प्रति ही नहीं, अपितु, जीवमात्रके प्रति प्रेम करनेको कहती है। गीतामें जहाँ-जहाँ दूसरोंका हित करनेकी बात आयी है, वहाँ-वहाँ ‘सर्वभूतहिते रता:’ (५। २५; १२।४) पदका ही प्रयोग हुआ है। किसी जंगम (चर) प्राणीको कष्ट पहुँचानेकी बात तो दूर रही, पेड़-पौधोंको भी काटनेकी हमारे शास्त्रोंने मनाही की है। जहाँ मूक प्राणियोंकी हिंसा आजकल सभी देशों और सभी राष्ट्रोंमें वैध मानी गयी है, वहाँ हमारे यहाँ अनावश्यक एक पत्तेको अथवा एक तिनकेको तोड़नेकी भी आज्ञा नहीं दी गयी है, एक दँतुअन तोड़नेके लिये भी शास्त्रोंने वृक्षसे प्रार्थना करनेकी आवश्यकता बतलायी है। यहाँतक कि स्नान आदिमें आवश्यकतासे अधिक जल गिरानेका भी शास्त्रोंमें निषेध किया गया है। भोजनके लिये भी पके हुए अनाज और फलको ही ग्रहण करनेकी शास्त्रोंने आज्ञा दी है। वनस्पतियोंमें जल देनेका शास्त्रोंने बड़ा माहात्म्य बतलाया है। अतिथिसेवा, देवताओं, पितरों और ऋषियोंकी सेवा—यहाँतक कि सारे भूत-प्राणियोंकी सेवा गृहस्थके लिये अनिवार्य मानी गयी है। शरीरसे किसी प्राणीको कष्ट पहुँचानेकी तो बात ही क्या, मन तथा वाणीके द्वारा भी किसीको कष्ट पहुँचाना हिंसाके अन्तर्गत ही माना गया है। शास्त्रोंका इस सम्बन्धमें यही आदेश है कि दूसरोंके प्रति हमें वैसा बर्ताव कदापि नहीं करना चाहिये, जिसे हम अपने लिये पसंद न करें—‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।’ हमारे पूर्वज ऋषियोंने प्राणिमात्रके लिये यही प्रार्थना की है—
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्॥
‘सब प्राणी सुखी हों, सब नीरोग हों, सभी कल्याणके भागी बनें, कोई भी दु:खी न हो।’
संसारके प्रति इससे ऊँची भावना और क्या हो सकती है? ‘सब लोग जियें, सब लोग सुखी हों, सब लोग फूलें-फलें’—भारतीय संस्कृतिका सदासे यही सिद्धान्त-वाक्य रहा है। यही कारण है कि भारतवासियोंने शक्ति रहते भी कभी दूसरे देशोंपर अन्याय आक्रमण नहीं किया। धार्मिक सहिष्णुताका भाव तो भारतीयोंका सदासे आदर्श रहा है। उन्होंने तलवारके जोरपर कभी विधर्मियोंको अपने धर्ममें लानेकी चेष्टा नहीं की। धर्मके मामलोंमें उन्होंने दूसरोंके अत्याचार सहे, परन्तु स्वयं दूसरोंपर अत्याचार नहीं किये। विधर्मियोंको उन्होंने सदा आश्रय दिया और इस प्रकार अपनी आतिथेयताका परिचय दिया। आज इन सिद्धान्तोंको यदि संसार अंशत: भी मानने लगे तो व्यर्थके झगड़ों और रक्तपातसे बच जाय और सर्वत्र सुख-शान्ति तथा प्रेमका साम्राज्य हो जाय।
अब रही ज्ञानकी बात, सो लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकारके ज्ञानमें हमारे देशने पूर्वकालमें बहुत बड़ी उन्नति की थी। हमारा ऋग्वेद संसारका सबसे प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है। वेदोंमें लौकिक एवं पारलौकिक सब प्रकारका ज्ञान भरा है। काव्य-साहित्य, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद (गानविद्या), दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र, शिल्पविद्या, स्थापत्यकला, चित्रकला, तक्षणकला, पशुपालन, कृषिविज्ञान, राजनीति आदि सभी विषयोंमें हमारे देशने आश्चर्यजनक उन्नति की थी, जिसका सारा संसार आजतक लोहा मानता है। अध्यात्मविद्या और परलोकविद्यामें तो इस देशकी समता आजतक किसी देशने की ही नहीं और भविष्यमें भी कोई कर सकेगा, इसमें सन्देह है। परलोकके सम्बन्धमें जो बातें हमारे शास्त्रोंमें बतलायी गयी हैं, उनका खण्डन आजतक कोई नहीं कर सका है। खण्डन करना तो दूर रहा, वहाँतक कोई पहुँच ही नहीं पाया है। यहाँके पूर्वजन्म-सिद्धान्तको आज संसारके बड़े-बड़े वैज्ञानिक मानने लगे हैं। हमारे उपनिषदोंमें तथा भगवद्गीता आदि ग्रन्थोंमें जो तत्त्वज्ञान भरा है, उसकी सारा जगत् मुक्तकण्ठसे प्रशंसा कर रहा है। हमारे वेदान्तका सिद्धान्त तो ज्ञानकी परमावधिको सूचित करता है। उससे ऊँचे ज्ञानकी संसार कल्पना भी नहीं कर सकता। हमारे पूर्वज ऋषियोंने तपस्या, संयम, सद्गुण, सदाचार, भगवद्भक्ति एवं योगके बलसे जिस सर्वलोक-विस्मापक तत्त्वज्ञानका अर्जन किया, उसके मुकाबलेमें पाश्चात्य जगत् का ऊँचे-से-ऊँचा भौतिक ज्ञान समुद्रके मुकाबलेमें एक बूँदके समान भी नहीं है। पाश्चात्य विज्ञानकी समाप्ति स्थूल पंचभूतोंके ज्ञानमें ही हो जाती है। पंचभूतोंके आगे जाना तो दूर रहा, पंचभूतोंका भी पूरा-पूरा ज्ञान अभी पाश्चात्य वैज्ञानिकोंको नहीं हो पाया है। स्थूल पंचभूतोंके परे इन्द्रिय हैं, इन्द्रियोंके परे सूक्ष्म पंचभूत अथवा तन्मात्र हैं, उनके परे मन है, मनके परे बुद्धि है, बुद्धिके परे महत्तत्त्व है, महत्तत्त्वके परे अव्याकृत माया है और अव्याकृत मायाके परे परमात्मतत्त्व है, उस परमात्मतत्त्वसे परे कुछ भी नहीं है, वही परमावधि है।*
* इन्द्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् पर:॥
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर:।
पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गति:॥
(कठ० १। ३। १०-११)
जिस परमात्मतत्त्वका ज्ञान हमारे शास्त्रोंमें भरा पड़ा है, इसीको उलटे क्रमसे कहें तो यों कह सकते हैं कि परमात्माके एक अंशमें माया है, मायाके एक अंशमें महत्तत्त्व है, महत्तत्त्वके एक अंशमें बुद्धि है, बुद्धिके एक अंशमें मन है, मनके किसी अंशमें सूक्ष्मभूत हैं, सूक्ष्मभूतोंके किसी अंशमें इन्द्रियाँ हैं और इन्द्रियोंके किसी अंशमें स्थूल भूत हैं। परमात्मा अथवा मूलप्रकृति (अव्याकृत माया)-के ज्ञानकी बात तो दूर रही, आधुनिक वैज्ञानिकोंको इन्द्रिय, मन तथा बुद्धिके तत्त्वका भी ज्ञान नहीं है। केवल आकाशादि स्थूल भूतोंके तत्त्वका आंशिक ज्ञान सदियोंके अथक परिश्रमके बाद आजके वैज्ञानिक प्राप्त कर पाये हैं। अत: हमें विचार करना चाहिये कि परमात्माके तत्त्वज्ञानके सामने इस भौतिक ज्ञानका क्या मूल्य है, जिसके चकाचौंधसे आज हम मोहित हो रहे हैं। यह सारा जगत् जब परमात्माकी मायाके एक अंशमें स्थित है, तब उस जगत् का सारा ज्ञान स्वाभाविक ही परमात्मज्ञानके एक अंशमें आ जाता है। गीताके दसवें अध्यायमें अपनी सारी विभूतियोंका वर्णन करके उसके उपसंहारमें भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनसे यही कहते हैं—
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
(१०। ४२)
‘अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जाननेसे तेरा क्या प्रयोजन है? मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपनी योगशक्तिके एक अंशमात्रसे धारण करके स्थित हूँ। [इसलिये बहुत-सी बातोंको जाननेके झंझटमें न पड़कर एक मुझको ही तत्त्वसे जान।]’
उस एकके जान लेनेसे सब कुछ अपने-आप जाना जाता है—‘तेन ज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति।’ बड़े खेदका विषय है कि आज हम उस सर्वश्रेष्ठ ज्ञानको भुलाकर भौतिक ज्ञानके पीछे पागल हो रहे हैं और त्रिकालदर्शी महर्षियोंके रहस्यमय तात्त्विक उपदेशकी अवहेलना कर पाश्चात्य विचारकोंका अन्धानुकरण करनेपर उतारू हो रहे हैं।
पाश्चात्योंके संसर्गसे तथा पाश्चात्य शिक्षाके प्रभावसे आज बहुत-सी अवांछनीय बातें हमारे समाजमें प्रवेश कर हमारी संस्कृतिका मूलोच्छेद कर रही हैं। पाश्चात्योंकी देखा-देखी हम अपने युवक-युवतियोंको सहशिक्षा देकर उनके चरित्रनाशमें सहायक बन रहे हैं। ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि:’ (छान्दोग्य० ७। २६। २) ‘आहारकी शुद्धिसे अन्त:करणकी शुद्धि होती है’ —इस सिद्धान्तको भुलाकर हमलोग खान-पानके विषयमें बिलकुल स्वतन्त्र होकर भ्रष्ट होते जा रहे हैं। शौचाचारकी ओर हमारा तनिक भी ध्यान नहीं रह गया है। मादक द्रव्योंका क्रमश: अधिकाधिक प्रचार हो रहा है। चाय-तंबाकू तथा गाँजा-भाँग और बीड़ी-सिगरेट आदिकी तो बात ही क्या है, औषधके रूपमें तथा शौकिया तौरपर भी मदिराका सेवन बढ़ रहा है। मछली, मांस, अण्डे आदिका व्यवहार भी होटलोंके द्वारा सभ्य-समाजमें खुल्लमखुल्ला होने लगा है। इन सब बातोंसे शौचाचार तो नष्ट हो ही रहा है, साथ-ही-साथ सदाचारका भी नाश हो रहा है।’ व्यभिचारकी वृद्धि हो रही है और उसके सम्बन्धमें पापबुद्धि क्रमश: नष्ट हो रही है। (अर्थात् व्यभिचारको अधिकांश लोग अब पाप भी नहीं मान रहे हैं।) शरीर और घरोंकी सजावटमें तथा आमोद-प्रमोदमें रुपया पानीकी तरह बहाया जा रहा है। खर्चीलापन बढ़ रहा है। गंदे साहित्य एवं गंदे चित्रपटोंका प्रचार क्रमश: बढ़ रहा है, जिससे हमारे युवक-युवतियोंके चरित्रपर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इन सब बातोंसे हमारे धन, धर्म, स्वास्थ्य, आयु, बल, बुद्धि, लोक, परलोकका नाश हो रहा है और हमलोग क्रमश: पतनकी ओर अग्रसर हो रहे हैं, अपने ही हाथों अपना सर्वनाश कर रहे हैं। झूठ, कपट, चोरी और हिंसा आदि पापोंकी बड़ी तेजीसे वृद्धि हो रही है। इसलिये समाजके कर्णधारोंको चाहिये कि वे इन बुराइयोंसे समाजको बचावें और प्राचीन संस्कृतिकी रक्षा करें।
प्राचीन संस्कृतिकी ओर जब हम दृष्टि डालते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक संस्कृतिमें और उसमें महान् अन्तर है। दोनोंके दृष्टिकोणमें अन्तर है। आधुनिक संस्कृतिका उद्देश्य है—खाना-पीना, मौज करना, शरीरको अधिक-से-अधिक आराम देना, अधिक-से-अधिक भोग भोगना, जिस किसी प्रकारसे हो, वर्तमान जीवनको सुखी बनाना। इसके आगे उसकी दृष्टि नहीं जाती। इसके विपरीत प्राचीन संस्कृतिका लक्ष्य था—जल्दी-से-जल्दी परमात्माकी प्राप्ति करना, चिरशान्ति एवं शाश्वत सुखको प्राप्त करना। इसीलिये जहाँ आधुनिक संस्कृतिमें भोगकी प्रधानता है, प्राचीन संस्कृतिमें त्याग-वैराग्य एवं तपकी प्रधानता थी। जिसमें त्यागकी मात्रा जितनी अधिक होती थी, उसका उतना ही अधिक मान होता था। इसीलिये ब्राह्मणों तथा साधु-महात्माओंका सबसे अधिक आदर होता था; क्योंकि वे लोग त्यागकी मूर्ति होते थे। उनके जीवनमें सादगी बहुत अधिक थी, खर्चीलापन नहीं था। खान-पान, पहनावा, बोलचाल तथा व्यवहार—सब कुछ सादा और पवित्र होता था। चौबीस वर्षकी अवस्थातक वे लोग ब्रह्मचर्यसे रहकर गुरुसेवा तथा विद्याभ्यास करते थे। उतने समयतक वे लोग शृंगार तथा विलासितासे बिलकुल दूर रहते थे। उनका खर्च बहुत परिमित होता था। इसीलिये उन्हें धनके लिये धनिकोंकी गुलामी नहीं करनी पड़ती थी। छल-कपट वे जानते ही न थे। वनमें रहकर कन्द-मूल-फलसे अपना जीवन-निर्वाह करते थे। वे लोग स्वावलम्बी एवं कष्टसहिष्णु होते थे। इसीलिये उन्हें नौकरोंकी आवश्यकता नहीं होती थी। वे अपना काम अपने हाथसे करते थे। उनके त्याग और वैराग्यका इतना प्रभाव था कि बड़े-बड़े राजालोग उनकी चरणधूलिको मस्तकमें लगाकर अपनेको पवित्र मानते थे। उनमेंसे कई ऐसे थे, जिनके पास हजारों विद्यार्थी रहते थे। वे लोग कुलपति कहलाते थे। उनके आश्रम एक-एक विश्वविद्यालय होते थे। परन्तु इसके लिये उन्हें बड़ी-बड़ी इमारतोंकी—लाखों-करोड़ों रुपये संचय करनेकी आवश्यकता नहीं होती थी। वे वृक्षोंके नीचे बैठकर अपने छात्रोंको पढ़ाया करते थे और घास-फूस तथा पत्तोंकी झोपड़ियाँ बनाकर उनमें रहते थे। उन्हें सब प्रकारकी आवश्यक सामग्री वनोंसे ही मिल जाया करती थी। इसलिये उन्हें पैसेकी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। स्वाद, शौक, ऐश-आरामकी उनमें गन्धतक नहीं थी। खेल-तमाशे तथा किसी भी प्रकारकी मादक वस्तुको वे पास भी नहीं फटकने देते थे। राजा-महाराजाओंतकपर उनका शासन चलता था, परन्तु उनपर किसीका शासन नहीं था, उनके पास था ही क्या, जिसको लेकर कोई उनपर शासन करने जाता। वे सारे भूतोंको अभयदान देकर विचरते थे। प्राणिमात्रका हित करना ही उनका एकमात्र व्रत था। इसीलिये उनके आश्रमोंमें हिंसक जन्तु भी हिंसक-वृत्ति छोड़कर सामान्य जीवोंकी तरह रहते थे। क्षमा, दया, शान्ति, सरलता आदि सद्गुण तथा यज्ञ, दान, तप, परोपकार, सत्यभाषण, दीन-दु:खियोंकी सेवा तथा ईश्वरोपासना आदि सदाचार ही उनकी सम्पत्ति थी। इसीको गीतामें दैवी सम्पत्तिके नामसे कहा गया है।
वर्तमान समयमें इससे बिलकुल विपरीत स्थिति दृष्टिगोचर हो रही है। छल-कपट, झूठ तथा कलाकौशलके द्वारा तथा विविध प्रकारके यन्त्रों एवं गैसों आदिका आविष्कार करके स्वल्पातिस्वल्प समयमें अधिक-से-अधिक जीवोंकी हिंसा करनेकी सामर्थ्य प्राप्त करना ही वर्तमान समयमें उन्नतिका प्रधान लक्षण माना जाता है। बड़े-बड़े राष्ट्रोंका छोटे-छोटे राष्ट्रोंको—सबलोंका दुर्बलोंको हड़प जाना ही आजकलका परम पुरुषार्थ है। इसीका नाम आसुरी सम्पदा है। आज संसारमें सर्वत्र इसीका साम्राज्य देखनेमें आता है।
ऊपरके वर्णनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्राचीन संस्कृतिमें दैवी सम्पदाकी प्रधानता थी और वर्तमान संस्कृतिमें आसुरी सम्पदाका प्राधान्य है। यही दोनों सभ्यताओंमें अन्तर है। इनमेंसे एक ऊँचे उठानेवाली और दूसरी नीचे गिरानेवाली है। प्रत्येक कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि वह पहलीका संग्रह तथा दूसरीका त्याग करे। दैवी सम्पत्ति ही असली धन है। लौकिक धन तो मरनेके बाद यहीं रह जाता है। किन्तु यह धन ऐसा है जिसका शरीरके नाश होनेपर भी नाश नहीं होता। इसीको मानव-धर्म भी कहते हैं। इसीसे सच्चे सुखकी प्राप्ति होती है। यदि साधनकी शिथिलताके कारण इसी जन्ममें उस सुखकी प्राप्ति नहीं हुई तो दूसरे जन्ममें हो जाती है और इस प्रकार मनुष्य उस सच्चे सुखका अधिकारी बन जाता है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि लौकिक धन शरीरके साथ यहीं रह जाता है और दैवी धन परलोकमें भी जीवका साथ नहीं छोड़ता, इसमें क्या कारण है? बात यह है कि मृत्यु हो जानेपर मनुष्यका शरीर तो यहीं रह जाता है किन्तु इन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा प्राण उसके साथ ही जाते हैं; क्योंकि उनका अस्तित्व मुर्देमें नहीं देखा जाता। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस धनका समावेश इन्द्रिय, मन तथा बुद्धिमें हो सकता है वही धन परलोकमें जीवके साथ जा सकता है। सद्गुण और सदाचार ही ऐसा धन है जिसका समावेश इन्द्रिय, मन और बुद्धिमें होता है। अत: यही धन जीवके साथ जाता है, बाकी धन यहीं पड़ा रह जाता है। विद्या, विवेक एवं शुभ निश्चय बुद्धिमें रहते हैं। इन्द्रियोंद्वारा जो उत्तम क्रियाएँ की जाती हैं, वे संस्काररूपसे मनमें संचित रहती हैं और उत्तम गुण तो स्वरूपसे ही मनमें रहते हैं। इन सबकी प्राप्ति ईश्वरभक्तिसे सुलभ हो जाती है, अत: ईश्वरभक्ति ही कल्याणका मुख्य साधन है। मनुष्यजन्म पाकर जीवनमें इसीका अभ्यास करना चाहिये। यही भारतीय संस्कृतिका मूल मन्त्र है।