पशु-धन
आज भारतवर्षकी जैसी दुर्दशा है, उसे देखकर विचारवान् पुरुषमात्र प्राय: दहल उठेंगे; भारतवर्षकी वह पुरानी सभ्यता, उसकी शिक्षाप्रणाली और उसका बल-बुद्धि, तेज आदिसे भरा हुआ जीवन आज कहाँ है? जिस भारतवर्षसे अन्य समस्त देशोंके सहस्रों नर-नारी शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन उन्नत बनाते थे, आज उसका वह अलौकिक गौरव कहाँ है? आज तो वह सर्वथा बलहीन, विद्याहीन, बुद्धिहीन, गौरवहीन और धनहीन होकर पराधीन हो गया है। इस अवनतिका कारण क्या है? विचार करनेसे अनेकों कारण जान पड़ते हैं। उन्हीं कारणोंमेंसे पशुओंका ह्रास भी एक प्रधान कारण है। इसी विषयपर कुछ लिखनेका प्रयत्न किया जा रहा है।
पूर्वकालमें इस देशमें पशुओंकी कितनी अधिकता थी, यदि इस बातपर पूर्णरूपसे विचार किया जाय तथा उनकी संख्याका हिसाब लगाया जाय तो बहुत-से लोग उस संख्याको असम्भव-सा समझेंगे। किन्तु यह ऐतिहासिक और प्रामाणिक बात है। वाल्मीकीय रामायणके अयोध्याकाण्डमें कथा आती है कि भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके पास त्रिजट नामका एक ब्राह्मण आया और उसने उनसे धनकी याचना की। महाराजने उससे कहा कि ‘मेरे पास बहुत-सी गौएँ हैं, आप अपने हाथसे एक डंडा फेंकिये, वह डंडा जहाँ जाकर गिरे, यहाँसे वहाँतक जितनी गौएँ खड़ी हो सकें, आप ले जाइये।’ विचार करनेसे पता चलता है कि जहाँ विनोदरूपमें एक याचकको इस प्रकार हजारों गौएँ दानमें दी जा सकती हैं, वहाँ दान देनेवालेके पास कितनी गौएँ हो सकती हैं? भागवतमें राजा नृगका इतिहास बहुत ही प्रसिद्ध है, वे हजारों गौओंका दान प्रतिदिन किया करते थे। केवल पाँच हजार वर्ष पहलेकी बात है कि नन्द-उपनन्द आदि गोपोंके पास लाख-लाख गौएँ रहा करती थीं, यह बात भी भागवतमें ही है। महाभारतके विराटपर्वसे भी यह पता चलता है कि राजा विराटके पास करीब लाख गौएँ थीं, जिनका हरण करनेके लिये कौरवोंकी विशाल सेनाने दो भागोंमें विभक्त होकर विराटनगरपर चढ़ाई की थी।
उस समय जिस प्रकार गौओंकी अधिकता थी, उसी प्रकार अन्य पशुओंकी भी बहुलता थी। घोड़े, हाथी आदि पशुओंकी संख्याका अनुमान लगाइये, एक अक्षौहिणी सेनामें इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (२१,८७०) हाथी, पैंसठ हजार छ: सौ दस (६५,६१०) घुड़सवारोंके घोड़े और सतासी हजार चार सौ अस्सी (८७,४८०) रथोंके घोड़े होते हैं। ऐसी तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर जरासन्धने सत्रह बार भगवान् श्रीकृष्णपर चढ़ाई की थी एवं प्रतिबार भगवान् ने सबका विनाश कर दिया था। महाभारतके उद्योगपर्वमें कौरवोंकी ओरसे ग्यारह अक्षौहिणी और पाण्डवोंकी ओरसे सात अक्षौहिणी सेना कुरुक्षेत्रके मैदानमें इकट्ठी हुई थी, ऐसा उल्लेख मिलता है। उनमें केवल ग्यारह मनुष्य ही शेष बचे थे, बाकी सब-की-सब सेना मारी गयी थी। इस प्रकारके बड़े-बड़े संहार होते रहनेपर भी करोड़ों पशु वर्तमान थे। किन्तु बड़े दु:खके साथ लिखना पड़ता है कि आज उस अनुपातसे विचार करनेपर रुपयेमें एक आना भी पशुओंकी संख्या नहीं रही है।
देश, जाति, धर्म, समाज, व्यापार तथा स्वास्थ्यकी रक्षा और वृद्धिमें पशु-धन एक मुख्य हेतु माना गया है। आर्थिक दृष्टिसे पशु-धनका होना सबके लिये गौरवकी बात समझी गयी है। खासकर वैश्यजातिके लिये तो यह केवल आर्थिक महत्त्व ही नहीं रखता, बल्कि पशुपालन उनके धर्मका एक मुख्य अंग भी है। मनुस्मृतिमें कहा है—
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥
(१। १०)
अर्थात् ‘वैश्योंका धर्म पशुओंका पालन करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद-शास्त्रोंको पढ़ना, व्यापार, व्याज और कृषिद्वारा जीविका चलाना है।’
यहाँ यह बात भी ध्यानमें रखनेकी है कि कृषिकर्म करनेवाले सभी मनुष्य वैश्योंके ही तुल्य हैं। अत: उन सबके लिये भी पशुपालन धर्मका एक मुख्य अंग हो जाता है किन्तु आज भारतवर्षमें बहुत ही कम वैश्य और कृषिकर्म करनेवाले लोग ऐसे हैं जो आर्थिक और धार्मिक दृष्टिसे इतना महत्त्व रखनेवाली वस्तुकी ओर यथोचित ध्यान देते हों। वैश्य और किसान पशुओंकी सहायतासे खेत जोतकर उपजाये हुए अन्नसे सम्बन्ध रखते हैं, उनकी नस-नसमें पशुओंके परिश्रमसे उत्पन्न हुए अन्नका रक्त दौड़ता है। किन्तु मूक पशुओंकी दशा सुधरे, उनकी वृद्धि हो, वे पुष्ट हों, इस बातकी ओर उनका ध्यान बहुत ही कम रहता है।
सब पशुओंकी उन्नतिकी बात तो दूर रही, पशुओंमें सर्वश्रेष्ठ गौएँ जिनका महत्त्व शास्त्रोंमें धर्मकी दृष्टिसे भी बहुत अधिक बतलाया गया है और जिसका आदर्श स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने व्रजमें गौओंको चराकर दिखलाया है तथा जिसे वैश्योंके लिये धर्मका प्रधान अंग बतलाया है (गीता १८। ४४)। जो देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य आदि सबको अपने दूध-दहीके द्वारा तृप्त करनेवाली हैं, आज उनकी कितनी उपेक्षा हो रही है, यह देखकर चित्तमें खेद हुए बिना नहीं रह सकता। प्रतिवर्ष लाखोंकी संख्यामें गौओंका ह्रास होता चला जा रहा है तथापि हिंदू-जनता उनकी रक्षासे इस प्रकार उपराम-सी हो रही है, मानो उसे इस बातकी खबर ही नहीं है। इसका भयानक परिणाम यह हो रहा है कि मनुष्य-जीवनके लिये धर्म और स्वास्थ्य दोनोंकी दृष्टिसे अत्यन्त आवश्यक माने हुए दूध, घी, दही आदिका सर्वसाधारणके लिये प्राप्त होना कठिन होता जा रहा है। दूध, दहीके अभावसे भारतीय सन्तानका स्वास्थ्य किस प्रकार गिरता जा रहा है, यह तो धर्मको न माननेवाले भी प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। जहाँ कुछ दिन पहले इसी देशमें पवित्र दूध पैसे सेर, पवित्र घी तीन-चार आने सेर मिलता था, वहाँ आज (सं० २०००) पवित्र दूध दो आने सेर और पवित्र घी एक रुपये सेर भी सब जगह सर्वसाधारणको नहीं मिल पाता है। यदि समय रहते भारतवासी सावधान नहीं होंगे, इसी तरह गोधनकी उपेक्षा करते रहेंगे तथा गौओंके बढ़ते हुए ह्रासको रोकनेकी चेष्टा नहीं करेंगे तो भविष्य और भी भयानक हो सकता है। उस समय कोई उपाय करना भी कठिन हो जायगा; इसलिये विचारवान् मनुष्योंको चाहिये कि वे पहलेसे ही सावधान हो जायँ। खासकर प्रत्येक हिंदूके लिये तो इस समय यह एक प्रधान कर्तव्य हो गया है कि वे इस ओर ध्यान दें और सब प्रकारसे गौओंकी रक्षाके लिये चेष्टा करें।
गौओंका ह्रास होनेमें निम्नलिखित कारण मुख्य हैं—
१-(क) जनताके अंदर प्रतिदिन धर्म और ईश्वरका भय कम होता जा रहा है। अत: कम दूध देनेवाली और दूध न देनेवाली गौओंको कसाईके हाथ बेचनेमें अधिकांश हिंदू-जनता भय नहीं करती।
(ख) बहुत-से निर्दय किसान दूध न देनेवाली गौओंको अपने घरसे निकाल देते हैं। वे मारी-मारी फिरती हैं और अन्तमें मवेशीखानेमें पहुँचायी जाकर कसाईके हाथमें पड़ जाती हैं।
२- प्रतिवर्ष सूखे और ताजे मांसके लिये तथा चमड़ेके लिये लाखों जीवित गौओंकी हत्या की जाती है।
३- बहुत-से धनके लोभी हीनवृत्तिवाले मनुष्य अधिक दूध देनेवाली गौओंको खरीदकर उनके बछड़ोंको तो निरर्थक समझकर कसाईके हाथ बेच देते हैं और फूँकेके द्वारा उन गौओंको विवश करके उनका सारा दूध निकाल लेते हैं। परिणाम यह होता है कि कुछ ही दिनोंमें वे गौएँ निकम्मी हो जाती हैं और उस समय वे उन्हें भी कसाईके हाथ बेच डालते हैं।
४- साँड़ अच्छे न मिलनेके कारण गौओंकी नस्ल बिगड़ती जाती है, उनसे अच्छी सन्तान उत्पन्न नहीं हो सकती। उनके बच्चे बहुत ही कम आयुवाले, कमजोर और दुबले-पतले होते हैं।
५- गौओंके निमित्त छोड़ी हुई गोचरभूमिको जमींदार और किसान आदि लोभवश जोतते जाते हैं। अत: चारेके अभावमें प्रतिवर्ष हजारों गौएँ मर जाती हैं।
६- मांस खानेवाले मनुष्योंके लिये और बाढ़, महामारी, अकाल आदि दैवी कोपके कारण प्रतिवर्ष लाखोंकी संख्यामें गौएँ नष्ट हो जाती हैं।
इस ह्रासको रोकनेके लिये निम्नलिखित उपाय काममें लाये जा सकते हैं—
१- धार्मिक पुरुषोंको चाहिये कि पत्र और व्याख्यानादिद्वारा लोगोंमें धार्मिक भाव उत्पन्न करें, जिससे धार्मिक भावोंकी वृद्धि होकर लोगोंमें गौओंके प्रति दयाका संचार हो और वे लोग गौओंको कसाईके हाथ न बेचें तथा दूध न देनेवाली गौओंकी उपेक्षा भी न करें।
२- पशुओंके अभावसे देशकी दुर्दशा दिखलाकर सरकारके पास अपील करते हुए, जो प्रतिवर्ष हजारों टन मांस विदेशमें भेजनेके लिये गौओंकी हत्या की जाती है, उसे बंद कराना चाहिये।
३- मांस खानेवाले भारतवासियोंको मांसकी अपेक्षा दूध-घीमें अधिक लाभ दिखलाकर तथा गौओंके ह्राससे देशका पतन अनिवार्य है, यह समझाकर प्रेमपूर्वक शान्तिसे मांस खानेसे रोकना चाहिये।
४- अतिशय तत्परताके साथ फूँकेकी प्रथा (जो कि कानूनके भी सर्वथा विरुद्ध है)-को ग्राम-ग्राममें चेष्टा करके सरकारके द्वारा बंद कराना चाहिये।
५- प्रत्येक ग्राममें अच्छी नस्लकी गौओंकी वृद्धि हो, इसके लिये धनिक एवं गोशालाध्यक्षोंको अच्छी नस्लके साँड़ोंको पालना चाहिये अथवा सरकारसे अच्छी नस्लके साँड़ोंका प्रबन्ध करवाना चाहिये।
६- सरकार, धनिक, जमींदार, किसान आदिसे प्रार्थना करके सभी ग्रामोंमें गोचरभूमि छुड़वानेकी चेष्टा करनी चाहिये।
७- जहाँ बाढ़, भूकम्प, अकाल आदि दैवी कोपसे चारेके अभावके कारण गौएँ मरती हों, वहाँ तन, मन, धन लगाकर उनके चारे आदिका प्रबन्ध करके उनको मृत्युके मुखसे बचानेके लिये यथेष्ट परिश्रम करना चाहिये।
८- प्रत्येक किसान और गृहस्थको अपने-अपने घरोंमें यथाशक्ति कम-से-कम एक या दो गौओंको अवश्य पालना चाहिये।
९- पूर्णरूपसे आन्दोलन करके ऐसे कानून बनवाने चाहिये, जिनसे गोवध कतई बंद हो जाय।
विचारवानोंको उचित है कि उपर्युक्त उपायोंको काममें लाते हुए यथाशक्ति गौओंकी रक्षा करें। अर्जुनने तो केवल गोरक्षाके लिये बारह वर्षका वनवास स्वीकार किया था, इस समय यदि उतना न हो सके तो जितनी बन सके उतनी चेष्टा तो तन, मन, धनसे करनी ही चाहिये।