Seeker of Truth

परमात्माकी प्राप्तिके उपाय

अद्वैत-सिद्धान्तकी प्राचीन और अर्वाचीन प्रणालीके अनुसार अन्त:करणके मल, विक्षेप और आवरण—ये तीन दोष माने गये हैं। उनमें मल-दोषके नाशका उपाय कर्मयोग अर्थात् निष्कामभावसे यज्ञ, दान, तप, सेवा, पूजा आदि कर्मोंका करना बतलाया गया है। इससे मल-दोषका नाश होकर अन्त:करणकी शुद्धि हो जाती है। कितने ही सज्जन भगवन्नाम-जपको ही तत्काल अन्त:करणकी शुद्धिका मुख्य कारण बतलाते हैं। वास्तवमें ये दोनों ही बातें ठीक हैं। अन्त:करण शुद्ध होनेके बाद विक्षेप-दोषके नाशके लिये परमात्माका ध्यान तथा आवरण-दोषके नाशके लिये सत्पुरुषोंका संग और सत्-शास्त्रोंका अनुशीलन ही प्रधान उपाय बतलाया गया है। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रथम निष्काम कर्म, उसके बाद उपासना और फिर सत्पुरुषोंका संग करके तत्त्वज्ञानको प्राप्त करना ही मनुष्यका कर्तव्य है।

अद्वैत-सिद्धान्तके अनुसार मनुष्यको मुक्तिका अधिकारी बननेके लिये साधन-चतुष्टयका अनुष्ठान करना चाहिये। साधन-चतुष्टय यह है—(१) सत् और असत् वस्तुका विवेक,१ (२) इस लोक और परलोकके सांसारिक सम्पूर्ण विषय-भोगोंसे तीव्र वैराग्य,२ (३) शम आदि षट् सम्पत्ति—(क) शम—मनका निग्रह,३ (ख) दम—इन्द्रियोंका संयम,४ (ग) उपरति—मन और इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको विषयोंसे हटाकर उनसे रहित यानी निर्विषय बना देना,५ (घ) तितिक्षा—शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंको सहन करना,६ (ङ) श्रद्धा—ईश्वर, शास्त्र, महापुरुष और परलोकमें प्रत्यक्षके सदृश भक्तिपूर्वक विश्वास, (च) समाधान—मन और बुद्धिको परमात्मामें पूर्णतया लगा देना;७ तथा (४) मुमुक्षुता—मुक्तिकी उत्कट अभिलाषा८।

१.नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥

(गीता २।१६)

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥

(गीता ५।२२)

२.अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।

.......................................................॥

(गीता ६।३५)

३.तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥

(गीता ३।४१)

४.न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥

(गीता १५।३)

५.मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥

(गीता २।१४)

६.श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

(गीता ४।३९)

७.मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धं निवेशय।

.......................................................॥

(गीता १२।८)

८.अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥

...................................................................॥

(गीता १२।९)

साधन-चतुष्टय सम्पन्न होनेपर जिज्ञासुको श्रवण, मनन और निदिध्यासनके द्वारा परमात्म-साक्षात्कार करना चाहिये। विनीतभावसे तत्त्वदर्शी महापुरुषोंके पास जाकर परमात्माकी तत्त्वज्ञानविषयक बातोंको सुनना श्रवण है९, तथा शास्त्रके अभ्यास और महापुरुषोंके द्वारा समझे हुए परमात्मतत्त्वका यानी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके स्वरूपका नित्य-निरन्तर चिन्तन करना मनन है१० एवं परमात्माके ध्यानमें तन्मय होना निदिध्यासन है११। इस प्रकार साधन करनेसे साधकको परमात्माका साक्षात्कार हो जाता है। निर्गुण-निराकाररूप सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माको अभेदरूपसे प्राप्त कर लेना ही परमात्माका साक्षात्कार करना है१२।

९.तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥

(गीता ४।३४)

१०.ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥

(गीता१२।३-४)

११.शनै: शनैरुपरमेद् बुद्‍ध्या धृतिगृहीतया।

आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥

(गीता ६।२५)

१२.योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य:।

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥

(गीता ५।२४)

उपर्युक्त तीनों साधनोंमेंसे एकका सम्यक् प्रकारसे अनुष्ठान करनेपर ही परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है, फिर क्रमश: तीनोंको करनेसे हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है!

यह प्राचीन और अर्वाचीन विद्वानोंकी मान्यता है और यह बहुत ही उत्तम है, किंतु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि इतना मात्र ही है अर्थात् यही एक प्रणाली है, दूसरी नहीं। इसके अतिरिक्त केवल निष्काम कर्मसे और केवल उपासना यानी ईश्वरकी भक्तिसे भी मनुष्य सहज ही परमात्माको प्राप्त कर सकता है; तथा इस कलिकालमें तो योग और ज्ञानकी अपेक्षा भी ईश्वरकी भक्तिका मार्ग सर्वसाधारणके लिये अधिक सुगम और सुलभ है।

भगवान् ने गीतामें कर्मयोग (निष्काम कर्म) से स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी प्राप्ति जगह-जगह बतलायी है। भगवान् कहते हैं—

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण:।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम्॥
(२। ५१)

‘क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले फलको त्यागकर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो निर्विकार परम पदको प्राप्त हो जाते हैं।’

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुष:॥
(३। १९)

‘इसलिये तू निरन्तर आसक्तिसे रहित होकर सदा कर्तव्यकर्मको भलीभाँति करता रह। क्योंकि आसक्तिसे रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।’

युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥
(५। १२)

‘कर्मयोगी कर्मोंके फलका त्याग करके भगवत्प्राप्तिरूप शान्तिको प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामनाकी प्रेरणासे फलमें आसक्त होकर बँधता है।’

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्‍ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
(१२। १२)

‘(मर्मको न जानकर किये हुए) अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञानसे मुझ परमेश्वरके स्वरूपका ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है।’

इसके सिवा जिस प्रकार ज्ञानयोगको परमात्माकी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताया है, उसी प्रकार कर्मयोगको भी परमात्माकी प्राप्तिका स्वतन्त्र साधन बताया है। भगवान् कहते हैं—

सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥
यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति॥
(५। ४-५)

‘संन्यास और कर्मयोगको मूर्खलोग पृथक्-पृथक् फल देनेवाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनोंमेंसे एकमें भी सम्यक् प्रकारसे स्थित पुरुष दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त होता है। ज्ञानयोगियोंद्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंद्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।’

निष्कामभावसे कर्मयोगका साधन करते-करते अन्त:करणकी शुद्धि होकर अपने-आप ही उसे परमात्माका यथार्थ ज्ञान हो जाता है, उसके लिये किसी अन्य साधनकी आवश्यकता नहीं है। भगवान् कहते हैं—

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति॥
(गीता ४। ३८)

‘इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला नि:सन्देह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञानको कितने ही कालसे कर्मयोगके द्वारा शुद्धान्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है।’

जब निष्कामभावसे कर्म करनेसे ही मनुष्य परमपदको प्राप्त हो जाता है तब फिर भगवान् की भक्ति करनेवाला पुरुष भगवान् की कृपासे परमपदको प्राप्त हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है! गीता, रामायण, भागवत, महाभारत आदि समस्त शास्त्र स्थान-स्थानपर इसकी घोषणा कर रहे हैं। स्वयं भगवान् ने गीतामें जगह-जगह केवल अपनी भक्तिसे परम गतिकी प्राप्ति बतलायी है—

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(७। १४)

‘यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस मायाका उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।’

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(८। १४)

‘हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।’

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
(९। ३४)

‘मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।’

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०। ९-१०)

‘निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं, उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
(११। ५४)

‘हे परंतप अर्जुन! अनन्यभक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।’

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(१२। ७)

‘हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ।’

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(१८। ६२)

‘हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परम शान्तिको तथा सनातन परम धामको प्राप्त होगा।’

श्रीरामचरितमानसमें काकभुशुण्डिजी कहते हैं—

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि॥
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥

तथा—

विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥

‘मैं आपसे भलीभाँति निश्चय किया हुआ सिद्धान्त कहता हूँ—मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्रीहरिका भजन करते हैं, वे अत्यन्त दुस्तर संसार-सागरको [सहज ही] पार कर जाते हैं।’

महाभारतके अनुशासनपर्वमें विष्णुसहस्रनाम बतलाते हुए भीष्मजी कहते हैं—

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायण:।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्॥
(वि० स० १३०)

‘जिस मनुष्यने भगवान् वासुदेवका आश्रय लिया है और जो उन्हींके परायण है, उसका अन्त:करण सर्वथा शुद्ध हो जाता है एवं वह सनातन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।’

श्रीमद्भागवतमें भगवान् श्रीकृष्ण भक्त उद्धवसे कहते हैं—

भक्त्योद्धवानपायिन्या सर्वलोकमहेश्वरम्।
सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्म कारणं मोपयाति स:॥
(११। १८। ४५)

‘हे उद्धव! मेरी कभी न घटनेवाली भक्तिसे वह मेरा भक्त सम्पूर्ण लोकोंके महान् ईश्वर, सबकी उत्पत्ति और प्रलयके अधिष्ठान तथा कारणस्वरूप मुझ ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।’

सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा।
स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति॥
(११। २०। ३३)

‘मेरा भक्त स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु यदि चाहे तो उसे वह सब कुछ मेरे भक्तियोगके प्रभावसे अनायास ही प्राप्त हो जाती है।’

एवमेतान् मयाऽऽदिष्टाननुतिष्ठन्ति मे पथ:।
क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद् ब्रह्म परमं विदु:॥
(११। २०। ३७)

‘इस प्रकार जो लोग मेरे द्वारा (इस अध्यायमें) बतलाये हुए भक्तिके मार्गोंका आश्रय लेते हैं, वे परम कल्याणस्वरूप मेरे धामको प्राप्त होते हैं; क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्वको जान लेते हैं।’

इस प्रकार शास्त्रोंमें अनेकों श्लोक हैं किंतु लेखका कलेवर बढ़ जायगा, यह सोचकर विस्तार नहीं किया गया।

यहाँ कहनेका अभिप्राय यह है कि निष्काम कर्म और भक्तियोग—दोनों स्वतन्त्र भी साधन हैं तथा पहले कर्मयोग, फिर उपासना और फिर ज्ञान—यह भी क्रम है। एवं ये तीनों पृथक्-पृथक् रूपसे स्वतन्त्रतापूर्वक भी परमात्माकी प्राप्ति करानेमें समर्थ हैं; इसीको भगवान् ने गीताके १३ वें अध्यायके २४ वें श्लोकमें स्पष्ट किया है—

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥

‘(उस परमात्माको) कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं।’

इसके अतिरिक्त, भगवान् ने अपनी प्राप्तिके लिये गीताके चौथे अध्यायके २४ वें श्लोकसे २९ वें श्लोकतक यज्ञके नामसे और भी बहुत-से उपाय बतलाये हैं। महर्षि पतंजलिने भी योगदर्शनमें परमात्माकी प्राप्तिके अनेकों साधन बतलाये हैं। मनुष्यको उपर्युक्त साधनोंमेंसे कोई भी एक साधन अपने आत्माके कल्याणके लिये तत्परतासे करना चाहिये। सभी साधनोंका फल है परमात्माका ‘यथार्थ ज्ञान’ और यथार्थ ज्ञानका फल है ‘परमात्माकी प्राप्ति’।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur