Seeker of Truth

परमात्माके ज्ञानसे परम शान्ति

परमात्मा समस्त भूतोंकी आत्मा हैं, सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी हैं; इसलिये सबकी सेवा भगवान् की ही सेवा है, इस बातके समझ लेनेपर मनुष्य परमात्माको यथार्थरूपसे जानकर परमात्माको प्राप्त हो सकता है परन्तु ध्यान रखना चाहिये कि जो इस प्रकार परमात्माको जानता है वह पुरुष किसी भी सेवा करनेयोग्य पुरुषकी सेवा करता हुआ, पूजनेयोग्यकी पूजा करता हुआ उस सेवा-पूजाको भगवान् की ही सेवा-पूजा समझता है और उसे उसी आनन्द और शान्तिका अनुभव होता रहता है जो भगवान् की सेवा-पूजासे हुआ करता है। राजा रन्तिदेवकी भाँति वह इस बातको अच्छी तरह समझता है कि एक भगवान् ही अनेक रूपोंमें प्रकट होकर अपने प्यारे प्रेमीके प्रेमपूर्वक किये हुए दान, यज्ञ, सेवा और पूजन आदिको ग्रहण करते हैं।

महाराज रन्तिदेव राजा नरके पौत्र और राजा संकृतिके पुत्र थे। इनकी महिमा स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। एक बार सारी सम्पत्तिका सम्पूर्णतया दान करके राजा रन्तिदेव निर्धन होकर सपरिवार भूखके मारे कृश हो गये। उन्हें लगातार अड़तालीस दिनतक अन्नकी तो बात ही क्या, जलतक पीनेको न मिला। सारा परिवार आहारके अभावमें कष्ट पाने लगा। धर्मात्मा राजाका कृश शरीर भूख-प्यासके मारे काँपने लगा। उनचासवें दिन उन्हें घीसहित खीर, हलुआ और जल प्राप्त हुआ। राजा परिवारसमेत भोजन करना ही चाहते थे कि उसी समय एक अतिथि ब्राह्मण आ गये। सबमें हरिके दर्शन करनेवाले राजाने श्रद्धा और सत्कारपूर्वक ब्राह्मणदेवताको भोजन दे दिया। ब्राह्मण भोजन करके चले गये। राजा बचे हुए अन्नको अपने परिवारमें बाँटकर भोजन करनेका विचार कर रहे थे कि इतनेमें एक शूद्र अतिथि आ पहुँचा। रन्तिदेवने भगवान् हरिका स्मरण करके बचे हुए अन्नमेंसे उस अतिथिको भी भोजन करा दिया। भोजन करके शूद्र अतिथि गया ही था कि एक और अतिथि अपने कुत्तोंसहित आया और बोला—‘राजन्! मैं और मेरे ये कुत्ते भूखे हैं। हमलोगोंको भोजन दीजिये।’ राजाने उसका भी सम्मान किया और आदरपूर्वक बचा हुआ अन्न उसको और उसके कुत्तोंको खिला दिया। अब केवल एक मनुष्यकी प्यास बुझ सके इतना जल ही बच रहा था। राजा उसे पीना ही चाहते थे कि अकस्मात् एक चाण्डाल आया और दीनस्वरसे पुकारने लगा—‘महाराज! मैं बहुत ही थका हुआ हूँ, मुझ नीचको पीनेके लिये थोड़ा जल दीजिये।’ उसके करुणाभरे शब्द सुनकर और उसे थका हुआ देखकर राजाको बड़ी दया आयी और स्वयं प्यासके मारे मृतप्राय रहते हुए भी उन्होंने वह जल उसको दे दिया। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव ही राजा रन्तिदेवके धर्मकी परीक्षा लेनेके लिये मायाके द्वारा ब्राह्मणादिका वेष बनाकर आये थे। राजाका धैर्य और उदारता देखकर तीनों बहुत ही सन्तुष्ट हुए और उन्होंने अपने निज स्वरूपसे राजाको दर्शन दिये। महाराज रन्तिदेवने साक्षात् परमात्मस्वरूप उन तीनोंको प्रणाम किया और उनके इतने अधिक सन्तुष्ट होनेपर भी उनसे राजाने कोई वरदान नहीं माँगा। राजाने आसक्ति और स्पृहाका त्याग करके मनको केवल भगवान् वासुदेवमें लगा दिया। इस प्रकार भगवान् में तन्मय हो जानेके कारण त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम)-मयी माया उनके निकट स्वप्नके समान अन्तर्हित हो गयी। रन्तिदेवके संगके प्रभावसे उनके परिवारके सब लोग नारायणपरायण होकर योगियोंकी परम गतिको प्राप्त हो गये।

भगवान् सर्वशक्तिमान् हैं, सर्वज्ञ एवं क्षर और अक्षर दोनोंसे अत्यन्तश्रेष्ठ हैं। ईश्वरोंके भी महान् ईश्वर हैं और अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंके स्वामी हैं। उनसे बढ़कर संसारमें कोई भी नहीं है। जब इस प्रकारसे मनुष्य समझ जाता है तो फिर वह भगवान् को ही भजता है, क्योंकि भगवान् स्वयं कहते हैं—

यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५। १९)

‘हे भारत! इस प्रकार तत्त्वसे जो ज्ञानी पुरुष मुझको पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।’

यह बात लोकमें भी प्रसिद्ध है कि मनुष्य अपनी बुद्धिमें जिस वस्तुको सबसे बढ़कर समझता है उसीको ग्रहण करता है। मान लीजिये कोई एक राजाधिराज अपने मनके अनुकूल चलनेवाले एक अत्यन्त प्रेमी गरीब सेवकको उसके कार्यसे प्रसन्न होकर कुछ देना चाहता है। उसके यहाँ एक ओर कोयले, कंकड़, पत्थर आदिके ढेर लगे हैं, दूसरी ओर ताँबा, लोहा, पीतल आदि धातुओंके ढेर हैं, कहीं चाँदी और रुपयोंकी राशि है, कहीं सोना और सोनेकी मोहरें जमा हैं और कहीं बहुत-से हीरे, पन्ने, नीलम, माणिक आदि बहुमूल्य रत्न रखे हैं। वह राजा कहता है कि इनमेंसे जो भी चीज तुम्हें पसंद हो, अभी सबेरेसे लेकर शामतक जितनी ले जा सको ढोकर ले जा सकते हो। आप विचारकर बताइये कि जरा भी समझदार आदमी क्या हीरे-माणिक आदि रत्नोंको छोड़कर कंकड़, पत्थर ढोनेमें अपने समयका एक क्षण भी बितावेगा? कभी नहीं! फिर भला, भगवान् के तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और गुणोंको जाननेवाला भगवान् का भक्त, भजन-ध्यानादि बहुमूल्य रत्नोंको छोड़कर संसारके विषयरूप कंकड़-पत्थरोंमें अपना एक क्षण भी क्यों नष्ट करेगा? यदि वह आनन्दमय परमात्माको छोड़कर संसारके नाशवान् विषयभोगोंके सेवनमें अपने जीवनका अमूल्य समय लगाता है तो समझना चाहिये कि उसने सर्वशक्तिमान् सर्वेश्वर परमात्माके महान् प्रभाव और रहस्यको समझा ही नहीं।

दीनबन्धु, पतितपावन, सर्वज्ञ परमात्मा समस्त गुणोंके सागर हैं। कृपा और प्रेमकी तो वे साक्षात् मूर्ति ही हैं। इस प्रकारके परमात्माके गुणोंके तत्त्वको जाननेवाला पुरुष निर्भय हो जाता है। उसके आनन्द और शान्तिका पार नहीं रहता। इसपर यदि कोई कहे कि जब ऐसी बात है कि भगवान् प्रेम और कृपाकी मूर्ति हैं तो उनकी अपार और अपरिमित कृपा सभीके ऊपर होनी चाहिये और यदि है तो फिर हमको सुख और शान्ति क्यों नहीं मिलती? इसका उत्तर यह है कि प्रभु निश्चय ही अपार और असीम कृपाके सागर हैं और उनकी वह कृपा सभीपर है, परन्तु सच्ची बात तो यह है कि हमलोग ऐसा विश्वास ही नहीं करते! प्रभुकी समस्त जीवोंपर इतनी दया है कि जिसका हम अनुमान भी नहीं कर सकते। हमलोग जितनी दयाका अनुमान करते हैं, उससे अत्यन्त ही अधिक और अपार दया सभी जीवोंपर है किन्तु उस अनन्त दयाके तत्त्व और प्रभावको न जाननेके कारण हम इस बातपर विश्वास नहीं करते और इसी कारण उस नित्य और अपार दयाके फलस्वरूप सुख और शान्तिसे वंचित रह जाते हैं। यद्यपि भगवान् की दया सामान्यभावसे सभी जीवोंपर है परन्तु मुक्तिका खास अधिकारी होनेके कारण मनुष्य उस दयाका विशेष पात्र है। मनुष्योंमें भी वही विशेष अधिकारी है जो उस दयाके रहस्य और प्रभावको जाननेवाला है। जैसे सूर्यका प्रकाश समभावसे सर्वत्र होनेपर भी उज्ज्वल होनेके कारण काँच उसका विशेष पात्र है, क्योंकि वह सूर्यका प्रतिबिम्ब भी ग्रहण कर लेता है और काँचोंमें भी सूर्यमुखी काँच तो सूर्यकी शक्तिको लेकर वस्त्रादि पदार्थोंको जला भी डालता है। इसी प्रकार सब जीवोंपर प्रभुकी दया समानभावसे रहते हुए भी जो मनुष्य उस दयाके तत्त्व और प्रभावको विशेषरूपसे जानते हैं वे तो उस दयाके द्वारा समस्त पाप-तापोंको सहज ही भस्म कर डालते हैं। ज्यों-ही-ज्यों प्रभुकी दयाके तत्त्व और प्रभावको मनुष्य अधिक-से-अधिक जानता चला जाता है, त्यों-ही-त्यों उसके दु:ख, दुर्गुण और पापोंका नाश होता चला जाता है और फलत: वह निर्भय और निश्चिन्त होकर परम शान्ति और परमानन्दको प्राप्त हो जाता है।

मान लीजिये एक धर्मात्मा और ज्ञानी राजा थे। अपनी प्रजापर उनकी स्वाभाविक ही बड़ी भारी दया थी, किन्तु सब लोग इस बातको नहीं जानते थे। वे अपने मन्त्रिमण्डल और गुप्तचरोंद्वारा अपनी असहाय और दीन-दु:खी प्रजाकी हर समय खबर रखा करते थे और सबको यथायोग्य सहायता पहुँचाया करते थे। उनकी राजधानीमें एक क्षत्रिय बालक रहता था, जो बहुत ही सुशील, सदाचारी, बुद्धिमान् और चतुर था तथा राजामें उसकी भक्ति थी। उसके माता-पिता उसे छोटी अवस्थामें ही छोड़कर चल बसे थे। उस बालकने अपने माता-पितासे सुनकर पहलेसे ही यह समझ रखा था कि हमारे राजा बड़े ही दयालु और अनाथरक्षक हैं। इसलिये जब माता-पिता मरे तब उसे जितनी चिन्ता होनी चाहिये थी, उतनी नहीं हुई। वह समझता था कि दयालु राजा आप ही मेरी व्यवस्था कर देंगे। वह बालक स्कूलमें पढ़ता था। उसके सहपाठियोंने उसे अनाथ होनेपर भी निश्चिन्त देखकर पूछा कि ‘तुम्हारे माता-पिता तो मर गये, अब तुम्हारा निर्वाह कैसे होगा?’ लड़केने उत्तर दिया कि हमारे राजा बड़े दयालु हैं, वे स्वयं ही सारी व्यवस्था कर देंगे। यह बात गुप्तचरोंके द्वारा राजाके कानतक पहुँची। राजाने मन्त्रियोंके द्वारा उसका पता लगाया। मन्त्रियोंने कहा कि ‘वह बालक बड़ा ही सुन्दर, सुशील, सदाचारी, धर्मात्मा, बुद्धिमान् और राजभक्त है। उसके माता-पिता मर गये हैं, इसलिये इस समय वह सर्वथा अनाथ हो गया है। अब उसे केवल आपका ही एकमात्र भरोसा है।’ राजाने पूछा कि ‘उसके लिये क्या प्रबन्ध किया जाय?’ मन्त्रियोंने कहा ‘जो सरकारकी इच्छा।’ राजाने उसके खान-पान और विद्याध्ययनके लिये प्रबन्ध करनेकी और रहनेके लिये मकान बनवा देनेकी आज्ञा दे दी। राजाकी इस उदारतासे मन्त्रीलोग बहुत प्रसन्न हुए। यह बात जब उस बालकके कानोंतक पहुँची तो उसके आनन्दका पार ही नहीं रहा। उसकी भक्ति राजामें और भी बढ़ गयी; साथ ही विश्वास भी दूना-चौगुना हो गया।

एक दिन जब वह लड़का स्कूलमें पढ़ रहा था तो उसके किसी प्रेमी सहपाठीने आकर दु:खी मनसे कहा कि ‘भैया! तुमसे ऐसा क्या अपराध हो गया है जो राजाके सिपाही तुम्हारी झोंपड़ी तुड़वा रहे हैं?’ बालकने बहुत प्रसन्नतासे उत्तर दिया कि ‘भाई! राजाकी मुझपर बड़ी भारी दया है। सम्भव है वे झोपड़ीको तुड़वाकर मेरे लिये अच्छा मकान बनवा दें।’ यह बात भी गुप्तचरोंद्वारा राजातक पहुँची। राजाका प्रेम लड़केके प्रति और भी बढ़ गया। एक दिन राजाने अपने मन्त्रियोंसे पूछा कि ‘आपलोग जानते हैं, मैं अब वृद्ध हो चला हूँ। मेरे कोई पुत्र नहीं है, इसलिये अब युवराजपद किसे दिया जाय?’ मन्त्रियोंने कहा, ‘जिसे सरकार योग्य समझें।’ राजाने कहा कि ‘मैंने तो उस अनाथ क्षत्रिय बालकको, जिसकी आपलोग सदा प्रशंसा करते रहे हैं, इस पदके योग्य समझा है। आपलोगोंकी क्या सम्मति है?’ बस इतना कहनेकी देर थी, तमाम मन्त्रियोंने एक स्वरसे कहा—‘हाँ, सरकार, बड़ी अच्छी बात है। वह कुमार बहुत ही सुन्दर, सुशील, सच्चरित्र, बुद्धिमान्, राजभक्त और धर्मात्मा है। वह सब प्रकारसे युवराजपदके योग्य है। हमलोगोंने भी उसीको इस पदके योग्य समझा है।’ सबकी बात सुनकर राजाने उसे युवराज बनाना निश्चित कर लिया। यह बात राज्यके उच्च पदाधिकारियोंको भी विदित हो गयी। एक दिन कुछ बड़े-बड़े अफसर उस बालकके घर गये। बालकने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। अफसर बोले, ‘आपपर महाराजा साहबकी बहुत भारी कृपा है।’ क्षत्रिय कुमारने कहा—‘मैं इस बातको भलीभाँति जानता हूँ कि सरकारकी मुझपर बड़ी भारी कृपा है, तभी तो उन्होंने मेरे भोजन, वस्त्र, पठन-पाठन और जमीन-मकानका सब प्रबन्ध कर दिया है।’ अफसर बोले—‘इतना ही नहीं, आपपर महाराजा साहबकी बहुत भारी कृपा है, इतनी कृपा है कि जिसे आप कल्पनामें भी नहीं ला सकते।’ लड़का कहने लगा—‘क्या महाराजा साहबने मेरे विवाहका खर्च देना भी मंजूर कर लिया?’ अफसरोंने कहा—‘विवाह तो मामूली बात है, महाराजा साहबकी तो आपपर बहुत भारी दया है।’ बालकने कहा—‘क्या महाराजा साहब मुझे दो-चार गाँव देना चाहते हैं?’ अफसर बोल उठे—‘यह भी कुछ नहीं।’ बालकने पूछा—‘बतलाइये न क्या महाराजा साहबने दस-बीस गाँवोंकी जागीर देनेका निश्चय किया है?’ अफसर बोले—‘सरकारकी आपपर इससे भी बहुत अधिक दया है।’ बालकने कहा—‘मैं तो इसके आगे कुछ नहीं जानता, आप ही बताइये कि क्या बात है?’ अफसरोंने कहा—‘क्या कहें हम सभी लोग सदा अपने ऊपर आपकी कृपा चाहते हैं।’ बालकने कहा—‘ऐसा न कहिये, मैं तो आप सबका सेवक हूँ, आपलोगोंकी कृपासे ही महाराजकी मुझपर कृपा हुई है; महाराजा साहबकी विशेष दयाकी बात बतलाइये।’ अफसरोंने कहा कि हमने तो आपको बता दिया कि हमलोग सदा आपकी कृपा चाहते हैं। क्या आप हमारे कथनका अर्थ नहीं समझे?’ कुमारने कहा—‘कृपा करके स्पष्ट बतलाइये।’

वह बेचारा अनाथ बालक यह कल्पना भी कैसे करता कि महाराजा साहब मुझे अपने राज्यका उत्तराधिकारी बनाकर युवराजपदतक दे सकते हैं।

अफसर बोल उठे—‘श्रीमान् ने आपको युवराज बनाया है।’ सुनते ही बालक आश्चर्यमें भरकर बोल उठा—‘युवराज बनाया है?’ अफसरोंने कहा—‘जी हाँ! युवराज बनाया है।’ अब बालकके आनन्दका पार नहीं रहा, वह आनन्दमुग्ध हो गया।

यह तो दृष्टान्त है। इसे दार्ष्टान्तमें इस प्रकार घटाना चाहिये। यहाँ भगवान् राजा हैं, साधक क्षत्रिय बालक है। भगवद्भक्ति ही राजभक्ति है, साधकका ‘योगक्षेम’ ही खान-पान-मकान आदि व्यवस्था है। भगवत्प्राप्त पुरुष ही मन्त्री हैं। दैवी सम्पदाप्राप्त मुमुक्षु पुरुष ऊँचे अफसर हैं और भक्तशिरोमणि कारक-पुरुषोंका सर्वोच्च पद ही युवराजपद है।

इस प्रकार जो साधक परमपिता परमात्माकी असीम दयाका अनुभव कर उसके प्रत्येक विधानमें पद-पदपर आह्लादित होता रहता है, वह इस अविनाशी युवराजपदका अधिकारी बन जाता है।

इसलिये हमलोगोंको उचित है कि परम शान्ति और परमानन्दकी प्राप्तिके लिये उन सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान्, परम दयालु और सबके सुहृद् परमेश्वरको उनके स्वरूप, प्रभाव और गुणोंके सहित जाननेकी चेष्टा करें। भगवान् श्रीकृष्णने गीतामें कहा है—

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(५।२९)

‘मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपोंका भोगनेवाला, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्त्वसे जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।’

प्रश्न—‘यज्ञ’ और ‘तप’ से क्या समझना चाहिये, भगवान् उनके भोक्ता कैसे हैं और उनको भोक्ता जाननेसे मनुष्यको शान्ति कैसे मिलती है?

उत्तर—अहिंसा, सत्य आदि धर्मों (यम-नियमों)-का पालन, देवता, ब्राह्मण, माता-पिता आदि गुरुजनोंका सेवन-पूजन, दीन-दु:खी, गरीब और पीड़ित जीवोंकी स्नेह और आदरयुक्त सेवा और उनके दु:खनाशके लिये किये जानेवाले उपयुक्त साधन एवं यज्ञ, दान आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, सभीका समावेश ‘यज्ञ’ और ‘तप’ शब्दोंमें समझना चाहिये। भगवान् सबके आत्मा हैं (१०।२०); अतएव देवता, ब्राह्मण, दीन-दु:खी आदिके रूपमें स्थित होकर भगवान् ही समस्त सेवा-पूजादि ग्रहण कर रहे हैं। इसलिये वस्तुत: वे ही समस्त यज्ञ और तपोंके भोक्ता हैं (९। २४)। भगवान् के तत्त्व और प्रभावको न जाननेके कारण ही मनुष्य जिनकी सेवा-पूजा करते हैं, उन देव-मनुष्यादिको ही यज्ञ और सेवा आदिके भोक्ता समझते हैं, इसीसे वे अल्प और विनाशी फलके भागी होते हैं (७। २३) और उनको यथार्थ शान्ति नहीं मिलती। परन्तु जो पुरुष भगवान् के तत्त्व और प्रभावको जानता है, वह सबके अंदर आत्मरूपसे विराजित भगवान् को ही देखता है। इस प्रकार प्राणिमात्रमें भगवद्बुद्धि हो जानेके कारण जब वह उनकी सेवा करता है, तब उसे यही अनुभव होता है कि मैं देव-ब्राह्मण या दीन-दु:खी आदिके रूपमें अपने परम पूजनीय, परम प्रेमास्पद सर्वव्यापी श्रीभगवान् की ही सेवा कर रहा हूँ। मनुष्य जिसको कुछ भी श्रेष्ठ या सम्मान्य समझता है, जिसमें थोड़ी भी श्रद्धाभक्ति होती है, जिसके प्रति कुछ भी आन्तरिक सच्चा प्रेम होता है, उसकी सेवामें उसको बड़ा भारी आनन्द और विलक्षण शान्ति मिलती है। क्या पितृभक्त पुत्र, स्नेहमयी माता और प्रेमप्रतिमा पत्नी अपने पिता, पुत्र और पतिकी सेवा करनेमें कभी थकते हैं? क्या सच्चे शिष्य या अनुयायी मनुष्य अपने श्रद्धेय गुरु या पथदर्शक महात्माकी सेवासे किसी भी कारणसे हटना चाहते हैं? जो पुरुष या स्त्री जिनके लिये गौरव, प्रभाव या प्रेमके पात्र होते हैं, उनकी सेवाके लिये उनके अंदर क्षण-क्षणमें नयी-नयी उत्साह-लहरी उत्पन्न होती है; ऐसा मन होता है कि इनकी जितनी सेवा की जाय उतनी ही थोड़ी है! वे इस सेवासे यह नहीं समझते कि हम इनका उपकार कर रहे हैं; उनके मनमें इस सेवासे अभिमान नहीं उत्पन्न होता, वरं ऐसी सेवाका अवसर पाकर वे अपना सौभाग्य समझते हैं और जितनी ही सेवा बनती है, उनमें उतनी ही विनयशीलता और सच्ची नम्रता बढ़ती है। वे अहसान तो क्या करें, उन्हें पद-पदपर यह डर रहता है कि कहीं हम इस सौभाग्यसे वंचित न हो जायँ। ये ऐसा इसीलिये करते हैं कि इससे उन्हें अपने चित्तमें अपूर्व शान्तिका अनुभव होता है; परन्तु यह शान्ति उन्हें सेवासे हटा नहीं देती, क्योंकि उनका चित्त निरन्तर आनन्दातिरेकसे छलकता रहता है और वे इस आनन्दसे न अघाकर उत्तरोत्तर अधिक-से-अधिक सेवा ही करना चाहते हैं। जब सांसारिक गौरव, प्रभाव और प्रेममें सेवा इतनी सच्ची, इतनी लगनभरी और इतनी शान्तिप्रद होती है, तब भगवान् का जो भक्त सबके रूपमें अखिल जगत् के परमपूज्य, देवाधिदेव, सर्वशक्तिमान्, परम गौरव तथा अचिन्त्य प्रभावके नित्य धाम अपने परम प्रियतम भगवान् को पहचानकर अपनी विशुद्ध सेवावृत्तिको हृदयके सच्चे विश्वास और अविरल प्रेमकी निरन्तर उन्हींकी ओर बहनेवाली पवित्र और सुधामयी मधुर धारामें पूर्णतया डुबा-डुबाकर उनकी पूजा करता है, तब उसे कितना और कैसा अलौकिक आनन्द तथा कितनी और कैसी अपूर्व दिव्य शान्ति मिलती होगी—इस बातको कोई नहीं बतला सकता। जिनको भगवत्कृपासे ऐसा सौभाग्य प्राप्त होता है, वे ही वस्तुत: इसका अनुभव कर सकते हैं।

प्रश्न—भगवान् को ‘सर्वलोकमहेश्वर’ समझना क्या है और ऐसा समझनेवालेको कैसे शान्ति मिलती है?

उत्तर—इन्द्र, वरुण, कुबेर, यमराज आदि जितने भी लोकपाल हैं तथा विभिन्न ब्रह्माण्डोंमें अपने-अपने ब्रह्माण्डका नियन्त्रण करनेवाले जितने भी ईश्वर हैं, भगवान् उन सभीके स्वामी और महान् ईश्वर हैं। इसीसे श्रुतिमें कहा है—‘तमीश्वराणां परमं महेश्वरम्’ ‘उन ईश्वरोंके भी परम महेश्वरको’ (श्वे० उ० ६। ७)। अपनी अनिर्वचनीय मायाशक्तिके द्वारा भगवान् अपनी लीलासे ही सम्पूर्ण अनन्त कोटि ब्रह्माण्डोंकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हुए सबको यथायोग्य नियन्त्रणमें रखते हैं और ऐसा करते हुए भी वे सबसे ऊपर ही रहते हैं। इस प्रकार भगवान् को सर्वशक्तिमान्, सर्वनियन्ता, सर्वाध्यक्ष और सर्वेश्वरेश्वर समझना ही उन्हें ‘सर्वलोकमहेश्वर’ समझना है। इस प्रकार समझनेवाला भक्त भगवान् के महान् प्रभाव और रहस्यसे अभिज्ञ होनेके कारण क्षणभर भी उन्हें नहीं भूल सकता। वह सर्वथा निर्भय और निश्चिन्त होकर उनका अनन्य चिन्तन करता है। शान्तिमें विघ्न डालनेवाले काम-क्रोधादि शत्रु उसके पास भी नहीं फटकते। उसकी दृष्टिमें भगवान् से बढ़कर कोई भी नहीं होता। इसलिये वह उनके चिन्तनमें संलग्न होकर नित्य-निरन्तर परम शान्ति और आनन्दके महान् समुद्र भगवान् के ध्यानमें ही डूबा रहता है।

प्रश्न—भगवान् सब प्राणियोंके सुहृद् किस प्रकार हैं और उनको सुहृद् जाननेसे शान्ति कैसे मिलती है?

उत्तर—सम्पूर्ण जगत् में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो भगवान् को न प्राप्त हो और जिसके लिये भगवान् का कहीं किसीसे कुछ भी स्वार्थका सम्बन्ध हो। भगवान् तो सदा-सर्वदा सभी प्रकारसे पूर्णकाम हैं (३। २२); तथापि दयामयस्वरूप होनेके कारण वे स्वाभाविक ही सबपर अनुग्रह करके सबके हितकी व्यवस्था करते हैं और बार-बार अवतीर्ण होकर नाना प्रकारके ऐसे विचित्र चरित्र करते हैं, जिन्हें गा-गाकर ही लोग तर जाते हैं। उनकी प्रत्येक क्रियामें जगत् का हित भरा रहता है। भगवान् जिनको मारते या दण्ड देते हैं उनपर भी दया ही करते हैं, उनका कोई भी विधान दया और प्रेमसे रहित नहीं होता। इसीलिये भगवान् सब भूतोंके सुहृद् हैं। लोग इस रहस्यको नहीं समझते, इसीसे वे लौकिक दृष्टिसे इष्ट-अनिष्टकी प्राप्तिमें सुखी-दु:खी होते रहते हैं और इसीसे उन्हें शान्ति नहीं मिलती। जो पुरुष इस बातको जान लेता है और विश्वास कर लेता है कि ‘भगवान् मेरे अहैतुक प्रेमी हैं, वे जो कुछ भी करते हैं, मेरे मंगलके लिये ही करते हैं। वह प्रत्येक अवस्थामें जो कुछ भी होता है, उसको दयामय परमेश्वरका प्रेम और दयासे ओत-प्रोत मंगलविधान समझकर सदा ही प्रसन्न रहता है।’ इसलिये उसे अटल शान्ति मिल जाती है। उसकी शान्तिमें किसी प्रकारकी भी बाधा उपस्थित होनेका कोई कारण ही नहीं रह जाता। संसारमें यदि किसी साधारण मनुष्यके प्रति, किसी शक्तिशाली उच्चपदस्थ अधिकारी या राजा-महाराजाका सुहृद्भाव हो जाता है और वह मनुष्य यदि इस बातको जान लेता है कि अमुक श्रेष्ठ शक्तिसम्पन्न पुरुष मेरा यथार्थ हित चाहते हैं और मेरी रक्षा करनेको प्रस्तुत हैं तो—यद्यपि उच्चपदस्थ अधिकारी या राजा-महाराजा सर्वथा स्वार्थरहित भी नहीं होते, सर्वशक्तिमान् भी नहीं होते और सबके स्वामी भी नहीं होते तथापि—वह अपनेको बहुत भाग्यवान् समझकर एक प्रकारसे निर्भय और निश्चिन्त होकर आनन्दमें मग्न हो जाता है, फिर यदि सर्वशक्तिमान्, सर्वलोकमहेश्वर, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी, सर्वदर्शी, अनन्त अचिन्त्य गुणोंके समुद्र, परमप्रेमी परमेश्वर अपनेको हमारा सुहृद् बतलावें और हम इस बातपर विश्वास करके उन्हें सुहृद् मान लें तो हमें कितना अलौकिक आनन्द और कैसी अपूर्व शान्ति मिलेगी? इसका अनुमान लगाना भी कठिन है।

प्रश्न—इस प्रकार जो भगवान् को यज्ञ-तपोंके भोक्ता, समस्त लोकोंके महेश्वर और समस्त प्राणियोंके सुहृद्—इन तीनों लक्षणोंसे युक्त जानता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है या इनमेंसे किसी एकसे युक्त समझनेवालेको भी शान्ति मिल जाती है?

उत्तर—भगवान् को इनमेंसे किसी एक लक्षणसे युक्त समझनेवालेको भी शान्ति मिल जाती है, फिर तीनों लक्षणोंसे युक्त समझनेवालेकी तो बात ही क्या है? क्योंकि जो किसी एक लक्षणको भी भलीभाँति समझ लेता है, वह अनन्यभावसे भजन किये बिना रह ही नहीं सकता। भजनके प्रभावसे उसपर भगवत्कृपा बरसने लगती है और भगवत्कृपासे वह अत्यन्त ही शीघ्र भगवान् के स्वरूप, प्रभाव, तत्त्व तथा गुणोंको समझकर पूर्ण शान्तिको प्राप्त हो जाता है। अहा! उस समय कितना आनन्द और कैसी शान्ति प्राप्त होती होगी, जब मनुष्य यह जानता होगा कि ‘सम्पूर्ण देवताओं और महर्षियोंसे पूजित भगवान्, जो समस्त यज्ञ-तपोंके एकमात्र भोक्ता हैं और सम्पूर्ण ईश्वरोंके तथा अखिल ब्रह्माण्डोंके परम महेश्वर हैं, मेरे परमप्रेमी मित्र हैं! कहाँ क्षुद्रतम और नगण्य मैं और कहाँ अपनी अनन्त अचिन्त्य महिमामें नित्यस्थित महान् महेश्वर भगवान्! अहा! मुझसे अधिक सौभाग्यवान् और कौन होगा?’ और उस समय वह हृदयकी किस अपूर्व कृतज्ञताको लेकर, किस पवित्र भाव-धारासे सिक्त होकर, किस आनन्दार्णवमें डूबकर भगवान् के पावन चरणोंमें सदाके लिये लोट पड़ता होगा!

प्रश्न—भगवान् सब यज्ञ और तपोंके भोक्ता, सब लोकोंके महेश्वर और सब प्राणियोंके परम सुहृद् हैं—इस बातको समझनेका क्या उपाय है? किस साधनसे मनुष्य इस प्रकार भगवान् के स्वरूप, प्रभाव, तत्त्व और गुणोंको भलीभाँति समझकर उनका अनन्य भक्त हो सकता है?

उत्तर—श्रद्धा और प्रेमके साथ महापुरुषोंका संग, सत्-शास्त्रोंका श्रवण-मनन और भगवान् की शरण होकर अत्यन्त उत्सुकताके साथ उनसे प्रार्थना करनेपर उनकी दयासे मनुष्य भगवान् के इन प्रभाव और गुणोंको समझकर उनका अनन्य भक्त हो सकता है।

प्रश्न—यहाँ ‘माम्’ पदसे भगवान् ने अपने किस स्वरूपका लक्ष्य कराया है?

उत्तर—जो परमेश्वर अज, अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वर होते हुए भी समय-समयपर अपनी प्रकृतिको स्वीकार करके लीला करनेके लिये योगमायासे संसारमें अवतीर्ण होते हैं और जो श्रीकृष्णरूपमें अवतीर्ण होकर अर्जुनको उपदेश दे रहे हैं, उन्हीं निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार और अव्यक्त-व्यक्तस्वरूप, सर्वरूप, परब्रह्म परमात्मा, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी, सर्वाधार और सर्वलोकमहेश्वर समग्र परमेश्वरको लक्ष्य करके ‘माम्’ पदका प्रयोग किया गया है।

उपर्युक्त श्लोकमें ‘भोक्तारं यज्ञतपसाम्’ यह विशेषण परमात्मा ही सबके आत्मा हैं इस भावका वाचक होनेसे उनके सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामीस्वरूपका निर्देश करता है। ‘सर्वलोकमहेश्वरम्’ यह विशेषण परमात्मा ही सबके स्वामी हैं इस भावका द्योतक होनेसे उनकी सर्वशक्तिमत्ता, सर्वैश्वर्य और अपरिमित प्रभावको बतलाता है और ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ यह विशेषण परमात्मा बिना ही कारण सब भूतोंके परम हितैषी हैं, इस भावका बोधक होनेके कारण उनकी अपार और अपरिमित दया, प्रेम आदि श्रेष्ठ गुणोंका प्रकाशक है।

ऐसे दयासिन्धु भगवान् की शरण होकर उनके गुण, प्रभाव और रहस्यको तत्त्वसे जानने एवं उन्हें प्राप्त करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये—

‘हे नाथ! आप दयासागर, सर्वान्तर्यामी, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हैं, आपकी किंचित् दयासे ही सम्पूर्ण संसारका एक क्षणमें उद्धार हो सकता है, फिर हम-जैसे तुच्छ जीवोंकी तो बात ही क्या है? इसलिये हम आपको साष्टांग प्रणाम करके सविनय प्रार्थना करते हैं कि हे दयासिन्धो! हमपर दयाकी दृष्टि कीजिये जिससे हमलोग आपको यथार्थरूपसे जान सकें। यद्यपि आपकी सबपर अपार दया है किन्तु उसका रहस्य न जाननेके कारण हम सब उस दयासे वंचित हो रहे हैं, अतएव ऐसी कृपा कीजिये जिससे हमलोग आपकी दयाके रहस्यको समझ सकें। यदि आप केवल दयासागर ही होते और अन्तर्यामी न होते तो हमारी आन्तरिक पीड़ाको नहीं पहचानते; किन्तु आप तो सबके हृदयमें विराजमान सर्वान्तर्यामी भी हैं, इसलिये आपके वियोगमें हमारी जो दुर्दशा हो रही है उसे भी आप जानते हैं। आप दयासागर और सर्वान्तर्यामी होकर भी यदि सर्वेश्वर और सर्वसामर्थ्यवान् नहीं होते तो हम आपसे अपने कल्याणके लिये प्रार्थना नहीं करते परन्तु आप तो सर्वलोकमहेश्वर और सर्वशक्तिमान् हैं, इसलिये हमारे-जैसे तुच्छ जीवोंका इस मृत्युरूप संसार-सागरसे उद्धार करना आपके लिये अत्यन्त साधारण बात है।

हम तो आपसे यही चाहते हैं कि आपमें ही हमारा अनन्य प्रेम हो, हमारे हृदयमें निरन्तर आपका ही चिन्तन बना रहे और आपसे कभी वियोग न हो। आप ऐसे सुहृद् हैं कि केवल भक्तोंका ही नहीं परन्तु पतित और मूर्खोंका भी उद्धार करते हैं। आपके पतितपावन, पातकीतारण आदि नाम प्रसिद्ध ही हैं, इसलिये ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और सदाचारसे हीन हम-जैसे मूढ़ और पतितोंका उद्धार करना आपका परम कर्तव्य है।’

एकान्तमें बैठकर इस प्रकार सच्चे हृदयसे करुणाभावसे गद्‍गद होकर उपर्युक्त भावोंके अनुसार किसी भी भाषामें प्रभुसे प्रार्थना करनेपर भगवत्कृपासे गुण, प्रभाव और तत्त्वसहित भगवान् को जानकर मनुष्य परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur