Seeker of Truth

पारमार्थिक दृष्टिसे मनुष्योंकी विभिन्न श्रेणियाँ

श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा है—

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:॥
(४। ४०)

‘विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थसे भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्यके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।’

भगवान् के उपर्युक्त वचनसे ऐसा प्रतीत होता है कि विवेक एवं श्रद्धासे रहित संशयी पुरुष ही परमार्थके मार्गमें सबसे नीचे है; क्योंकि उपर्युक्त श्लोकके अनुसार वे परमार्थके मार्गसे भ्रष्ट हो जाते हैं, उसपर चल ही नहीं पाते। जो मार्गपर ही नहीं हैं, उनके लक्ष्य स्थानतक पहुँचनेकी तो सम्भावना ही कैसे हो सकती है। ऐसे पुरुषोंके लिये भगवान् ने यहाँतक कह दिया है कि उनकी इस लोकमें भी उन्नति नहीं होती, फिर परलोककी तो बात ही क्या है; और वे सब प्रकारके सुखोंसे वंचित रहते हैं।

जिसमें हरेक विषयको स्वतन्त्ररूपसे सोचने और उसका विवेचन करनेकी सामर्थ्य है और जिसकी वेद-शास्त्र एवं महापुरुषोंके वचनोंमें श्रद्धा है, वह तो इनकी सहायतासे अर्जुनकी भाँति अपने संशयका सर्वथा नाश करके कर्तव्यपरायण हो सकता है और अन्तमें कृतकृत्य होकर मनुष्यजन्मको सफल बना सकता है। तथा जिसमें स्वयं विवेचन करनेकी शक्ति नहीं है, ऐसा अज्ञ मनुष्य भी श्रद्धालु होनेपर अपनी श्रद्धाके कारण महापुरुषोंके कथनानुसार संशयरहित होकर साधनपरायण हो सकता है और उन महापुरुषोंकी कृपासे उसका भी कल्याण हो सकता है (गीता १३। २५), किन्तु इसके विपरीत जो विवेक एवं श्रद्धा—दोनोंसे शून्य हैं तथा साथ-साथ संशयग्रस्त भी हैं, उनका उद्धार होना कठिन है; क्योंकि ऐसे लोगोंका संशय कौन दूर करे और जबतक उनकी बुद्धिमें संशय विद्यमान है, तबतक वे लौकिक अथवा पारमार्थिक किसी भी साधनमें तत्परतापूर्वक नहीं लग सकते। उन्हें पद-पदपर शंका बनी रहती है, वे किसी एक अडिग निश्चयपर नहीं पहुँच सकते। इसलिये भगवान् ने ऐसे लोगोंके लिये कहा है कि उनका न तो यह लोक बनता है, न परलोक और वे सब प्रकारके सुखोंसे वंचित रहते हैं। अज्ञताके कारण वे वेद-शास्त्र एवं महापुरुषोंके वचनोंको तथा उनके बतलाये हुए साधनोंको ठीक-ठीक समझ नहीं पाते और जो कुछ उनकी समझमें आता है, उसमें विश्वास न होनेके कारण वे उसे काममें नहीं ला सकते। इस प्रकार न तो अपने कर्तव्यका निश्चय कर पाते हैं और न उसका पालन ही कर सकते हैं। अत: वे अपने मनुष्य-जीवनको व्यर्थ ही खो बैठते हैं और उससे हो सकनेवाले परम लाभसे सर्वथा वंचित रह जाते हैं।

ऐसे संशयात्मा पुरुषोंकी अपेक्षा भी वे पुरुष नीचे हैं, जो झूठ, कपट, चोरी, हिंसा तथा व्यभिचार आदि पापोंमें लगे हुए हैं। बुद्धिहीन, अश्रद्धालु, संशयी पुरुष भले ही इस लोक एवं परलोकसे तथा भोग-सुखोंसे भ्रष्ट हो जाते हैं; किन्तु यदि वे पापमें प्रवृत्त नहीं होते तो कम-से-कम नरकमें तो नहीं जाते। अज्ञ पुरुष जैसे धर्माधर्मके विचारसे शून्य होते हैं, उसी प्रकार पाप करनेकी कलासे भी अपरिचित रहते हैं, और श्रद्धालु होनेपर तो श्रद्धा उन्हें पापसे बचाती रहती है। इसी प्रकार जो श्रद्धारहित होनेपर भी विवेक सम्पन्न हैं, वे भी विवेक-बलसे पापोंसे बचे रहते हैं। विवेकहीन अश्रद्धालु संशयात्मा भी जिस प्रकार धर्मके विषयमें संदेहयुक्त रहते हैं, उसी प्रकार पापमें भी उनकी निश्चयपूर्वक प्रवृत्ति नहीं होती। किन्तु जिनका निश्चय पापपूर्ण है, जो बुद्धिमान् होकर भी अपनी बुद्धिका नये-नये पापोंके बटोरनेमें ही प्रयोग करते हैं तथा जिनकी पापोंमें ही श्रद्धा है अर्थात् जिनकी यह धारणा है कि पाप किये बिना संसारके व्यवहार चल ही नहीं सकते, पापी मनुष्य ही संसारमें फलते-फूलते हैं तथा पापसे ही धन और सांसारिक सुख-प्राप्त होते हैं, ऐसे पापनिश्चयी पुरुषोंको तो बार-बार नरकोंकी ही प्राप्ति होती है। काम, क्रोध और लोभ ही पापके मूल हैं और इन तीनोंको भगवान् ने नरकके द्वार बताया है (गीता १६।२१)। इन तीनों तमोद्वारोंसे भलीभाँति मुक्त होनेपर ही मनुष्य कल्याण मार्गमें अग्रसर होकर परमगति प्राप्त कर सकते हैं (गीता १६। २२)। फिर जो रात-दिन पापोंमें ही रचे-पचे रहते हैं वे तो कल्याण मार्गमें प्रवृत्त ही कैसे हो सकते हैं। ऐसे पापाचारी एवं पापपरायण पुरुषोंके लिये तो भगवान् सदा कालरूप होकर दण्ड धारण किये रहते हैं और उन्हें बार-बार आसुरी योनियोंमें डालते हैं; और बार-बार आसुरी योनियोंमें गिरकर वे अन्तमें अत्यन्त अधोगतिको प्राप्त होते हैं (गीता १६। १९-२०)।

पापियोंमें भी सबसे बड़े पापी नास्तिक अर्थात् वेद-शास्त्र, धर्म, ईश्वर, पाप-पुण्य, परलोक एवं पुनर्जन्म आदिको न मानकर उनका विरोध करनेवाले हैं। पापियोंका भी यदि वे नास्तिक नहीं हैं तो कभी-न-कभी भगवान् अथवा उनके भक्तोंकी, संतोंकी अहैतुकी दयासे उद्धार हो सकता है। भगवान् तो पापहारी एवं पतितपावन प्रसिद्ध ही हैं। अबतक उनके जनोंके हाथों न जाने कितने अनगिनत पापियोंका उद्धार हो चुका है। बड़े-से-बड़ा पापी भी यदि भगवान् के शरण हो जाता है तो तत्काल उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। रामचरितमानसमें भगवान् के वाक्य हैं—‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥’ भगवान् के शरण हो जानेपर जीवके एक-दो जन्मोंके नहीं, करोड़ों जन्मोंके पाप उसी क्षण वैसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे सूर्यके सामने आते ही अन्धकार-राशि नष्ट हो जाती है अथवा अग्निका स्पर्श पाते ही रूईका बड़े-से-बड़ा ढेर तुरन्त भस्म हो जाता है। ऐसे पापियोंके लिये गीतामें भगवान् की समाश्वासन वाणी है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
(९।३०-३१)

‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है (अर्थात् मेरी शरणमें चला आता है) तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है।’

यही नहीं, ज्ञानके प्रकरणमें भी भगवान् कहते हैं—

अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥
(गीता ४। ३६)

‘यदि तू अन्य सब पापियोंसे भी अधिक पाप करनेवाला है; तो भी तू ज्ञानरूप नौकाद्वारा निस्सन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभाँति तर जायगा।’

उपर्युक्त वचनोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि महान्-से-महान् पापीका भी उद्धार सम्भव है।

परन्तु ईश्वरविरोधी नास्तिकोंका उद्धार होना बहुत ही कठिन है। जो उद्धार चाहते ही नहीं, बल्कि जिनका उद्धारमें विश्वास ही नहीं है, उनका उद्धार कैसे हो; क्योंकि वे तो एक प्रकारसे परमात्माके राज्यके विद्रोही हैं। इस बातको समझनेके लिये आगेकी पंक्तियोंपर ध्यान देना चाहिये। जो सरकारी कानूनको नहीं मानते अर्थात् चोरी-डकैती आदि करते हैं, वे राज्यके द्वारा दण्डनीय होते हैं। परन्तु चोर-डाकुओंसे भी अधिक सरकारके अप्रिय वे हैं, जो विद्रोही हैं—सरकारको हटाना चाहते हैं। बस, इसी तरह भगवान् के दरबारमें भी पापीकी अपेक्षा भी अधिक नीच वे हैं, जो ईश्वरको तथा धर्मको मटियामेट कर देना चाहते हैं। वास्तवमें न तो ईश्वरकी सत्ता किसीके मिटाये मिट सकती है और न ईश्वरका कानून ही। यदि ईश्वर मिटें तो ईश्वरका कानून मिटे, क्योंकि वह कानून तो ईश्वरके साथ ही है। ईश्वरका कानून कहें या धर्म कहें, दोनों एक ही वस्तु है। यहाँ धर्मसे हमारा तात्पर्य ईश्वरके चलाये धर्मसे है। अत: यह निश्चय है कि ईश्वर और उसका चलाया हुआ धर्म—दोनों कभी मिट नहीं सकते; क्योंकि वे सनातन हैं।

ईश्वरका चलाया हुआ धर्म ईश्वरसे अभिन्न है—इस बातको गीतामें स्वयं भगवान् ने अपने श्रीमुखसे स्वीकार किया है, वे कहते हैं—

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥
(१४। २७)

‘क्योंकि उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्य धर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ।’

शाश्वत धर्म ही सनातन धर्म है। सच्चिदानन्दघन ब्रह्म, अमृत और ऐकान्तिक—अक्षय सुख तो एक ही वस्तु है। यद्यपि धर्मका सम्बन्ध आचरणसे होनेके कारण, वह इनसे कुछ विलक्षण है, फिर भी उसे भगवान् ने अपने ही आश्रयपर टिका हुआ—अपना ही स्वरूप बतलाया है। धर्म ईश्वरकी ही कला अथवा शक्ति है और शक्ति शक्तिमान् से अभिन्न होती है। इसी बातको लक्ष्यमें रखकर ऊपर यह कहा गया है कि ईश्वर और ईश्वरका बनाया हुआ कानून अथवा धर्म साथ-साथ रहते हैं और इसीलिये यह कहा गया है कि ईश्वर और धर्मका कभी विनाश नहीं हो सकता, चाहे उनकी मान्यता भले ही कम हो जाय।

इसपर यह प्रश्न हो सकता है कि यदि कोई व्यक्ति ईश्वरको गाली दे कि ‘तेरा सत्यानाश हो’ तो क्या इस प्रकारकी गालियाँ सुनकर आस्तिकोंको नाराज नहीं होना चाहिये? यहाँ विचार करनेका विषय यह है कि क्या इस प्रकार कहनेसे ईश्वरका विनाश हो सकता है? नहीं, कदापि नहीं। यदि कोई हमारे पिताको गाली दे कि ‘तुम्हारा खोज मिट जाय’ तो क्या इससे उनका विनाश हो जाता है? मृत्यु तो दूर रही, इससे उनका बाल भी बाँका नहीं होता। हाँ, यह बात हमें अप्रिय अवश्य लगती है। बस, इसी प्रकार ईश्वरको गाली देनेसे, ईश्वरका बहिष्कार करनेसे उसकी सत्ता नहीं मिटती, उसका बहिष्कार नहीं होता। हाँ, यह बात हमें खटकती अवश्य है। संसारभरके मनुष्य एकत्र होकर सर्वसम्मतिसे चाहे ईश्वरको असिद्ध कर दें, परन्तु उनके ऐसा करनेसे क्या ईश्वर असिद्ध हो सकते हैं? वे तो उनकी इस चेष्टाको देखकर मन-ही-मन हँसेंगे और सोचेंगे कि ये लोग कितने नादान हैं जो मुझे अन्यथा सिद्ध करनेके प्रयत्नमें भी नहीं चूकते। ऐसे लोग यह नहीं समझते कि उनका अपना अस्तित्व किसके आधारपर है। अस्तु,

अब हमें यह देखना है कि चोरी, हिंसा और व्यभिचार आदि दुष्कर्मोंमें लगे हुए महान् पापियोंसे भी ईश्वरविरोधी नास्तिक कैसे नीचे हैं। बात यह है कि जो ईश्वरको और उसके कानूनको, पाप-पुण्यको तथा पुनर्जन्म एवं परलोक आदिको नहीं मानेगा, वह पापसे कभी बच नहीं सकता, उससे चोरी आदि पाप अपने-आप होंगे। यदि इसपर कोई यह कहे कि हम ऐसे मनुष्योंको जानते हैं, जो ईश्वरको तो नहीं मानते परन्तु पाप नहीं करते, तो हम उनसे यह कहेंगे कि उनकी यह बात सर्वथा भ्रमपूर्ण है। उन्हें यह सोचना चाहिये कि यदि ईश्वर, धर्म और परलोक आदि कुछ भी नहीं हैं तो पुण्य और पापकी परिभाषा ही क्या रह जायगी? फिर सद्गुण और सदाचार किस आधारपर टिकेंगे? तथा मनुष्य दुर्गुण और दुराचारसे किस कारण बचा रह सकेगा? पाप-पुण्यका दण्ड—पारितोषिक तो तभी सिद्ध होगा, जब ईश्वरका बनाया कानून माना जायगा। चाहे आज कोई भले ही पापसे बचा हुआ हो, पर कल वह अवश्यपाप करनेपर उतारू हो जायगा; क्योंकि पापसे रोकनेवाली किसी सत्ताको वह मानता ही नहीं। जो लोग इस प्रकार ईश्वर और धर्मकी सत्ताको मिटानेपर तुले हुए हैं, आगे चलकर वे ही पापके प्रचारमें सहायक होंगे। इसीलिये पाप करनेवालोंकी अपेक्षा भी वे अधिक नीच हैं। जैसे गीता पढ़नेवालोंकी अपेक्षा उसका प्रचार करनेवाले श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार पाप करनेवालोंकी अपेक्षा पापका प्रचार करनेवाले अधिक पापी हैं।

ऐसे पुरुषोंसे भी गये-गुजरे वे हैं, जो धर्माचरणसे कोसों दूर रहकर भी धार्मिकोंका बाना धारण किये रहते हैं। ‘मुँहमें राम, बगलमें छुरी’—यह उक्ति इन लोगोंपर पूर्णतया चरितार्थ होती है। ईश्वरविरोधी नास्तिक तो अपनी नास्तिकताकी डोंडी पीटता है, खुल्लमखुल्ला नास्तिकताका प्रचार करता है, अतएव उसके धोखेमें कोई नहीं आ सकता। परन्तु ये धर्मध्वजी तो अपने-आपको धर्मात्मा प्रकट करके धर्मकी ओटमें पाप करते हैं और इस प्रकार जगत् को धोखा देते हैं। अतएव ये उनकी अपेक्षा भी अधिक खतरनाक होते हैं। इनके आचरणोंको देखकर लोगोंकी धर्मके प्रति आस्था हट जाती है। कहावत प्रसिद्ध है कि ‘दूधका जला हुआ छाछको भी फूँक-फूँककर पीता है।’ ऐसे लोगोंसे धोखा खाये हुए लोग सच्चे धार्मिकोंसे भी घृणा करने लगते हैं। ऐसे लोग ही जगत् में नास्तिकताका प्रचार कराते हैं। भगवान् ने गीतामें आसुरी सम्पत्तिके लक्षण बतलाते हुए सबसे पहले दम्भको ही गिनाया है (देखिये १६। ४)। शास्त्रोंमें लिखा है कि ऐसे पुरुषोंसे बात भी नहीं करनी चाहिये। उनका दर्शन भी हानिकर बताया गया है। जैसे उच्चकोटिके महापुरुषोंके दर्शन, स्पर्श और सम्भाषणसे महान् लाभ होता है, उसी प्रकार ऐसे पुरुषोंके संसर्गसे बड़ी हानि होती है। ऐसे पुरुषोंसे रास्तेमें यदि भेंट हो जाय तो उधरसे दृष्टि हटा लेनी चाहिये। इस प्रकार परमार्थके मार्गमें दम्भ सबसे बड़ा बाधक है और दाम्भिक अथवा धर्मध्वजी ही पारमार्थिक दृष्टिसे सबसे निम्नकोटिका माना जाना चाहिये।

यहाँतक उन लोगोंका वर्णन किया गया, जो परमार्थमार्गके विरोधी हैं और आत्मकल्याणसे कोसों दूर हैं। अब क्रमश: उन लोगोंके सम्बन्धमें विचार करना है, जो कल्याणके मार्गपर आरूढ़ हैं। इनमें सबसे निम्नकोटिके पुरुष वे हैं जो सकामी अर्थात् देवताओंकी उपासना एवं अन्य सभी कर्म सकामभावसे करनेवाले हैं। ये लोग यद्यपि अश्रद्धालुओं तथा यक्ष-राक्षसों एवं भूत-प्रेतादिकी पूजा करनेवालोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं—क्योंकि इनकी सकाम कर्म तथा देवताओंमें तो श्रद्धा है ही एवं कर्म और उपासनाके सिद्धान्तको तो ये लोग मानते ही हैं; फिर भी आत्मकल्याणकी ओरसे तो ये भी उदासीन-से ही होते हैं। ये लोग स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिको ही परम पुरुषार्थ मानते हैं और उनसे बढ़कर कुछ भी नहीं मानते (गीता २। ४२-४३)। परन्तु इनको मिलनेवाली वस्तु अनित्य ही होती है (गीता ७। २३)। स्वर्गादिलोक मर्त्यलोककी अपेक्षा दिव्य तथा अधिक स्थायी होनेपर भी हैं विनाशी ही। वहाँ निरतिशय सुख नहीं है और वहाँ पहुँचे हुए जीवोंको भी अवधि समाप्त हो जानेपर पुन: मर्त्यलोकमें लौट आना पड़ता है (गीता ८। १६; ९। २१)। इस प्रकार इन सकामी पुरुषोंको जन्म-मृत्युके चक्करसे छुटकारा नहीं मिलता और इनके दु:खोंका कभी अन्त नहीं होता। इसीलिये भगवान् ने स्थान-स्थानपर ऐसे लोगोंको कृपण—दीन (गीता २। ४९), अज्ञानी एवं अल्पबुद्धि (गीता ७। २०, २३) कहकर इनकी गर्हणा की है। परन्तु कामनाओंकी पूर्तिके लिये ही सही, ऐसे लोगोंके द्वारा निरन्तर शुभकर्म बनते रहनेसे क्रमश: इनका अन्त:करण शुद्ध होकर ये निष्काम धर्मकी ओर अथवा भगवान् की ओर लग जाते हैं और इस प्रकार इन्हें कल्याणका मार्ग मिल जाता है। इसीलिये ये अश्रद्धालुओंकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, यद्यपि इनकी श्रद्धा राजस होनेके कारण इन्हें सकाम कर्मोंमें ही लगाये रखती है।

सकाम-कर्मियोंकी अपेक्षा लौकिक सिद्धि प्राप्त किये हुए योगी श्रेष्ठ हैं। ये लोग लक्ष्यके कुछ समीप पहुँचकर भी सिद्धियोंके प्रलोभनमें फँसकर लक्ष्यकी ओरसे बेपरवाह हो जाते हैं और अपनेको पूर्ण मान बैठते हैं। फिर भी जब कभी ये सिद्धियोंकी असारता एवं विघ्नरूपताको हृदयंगम कर उनसे ऊपर उठनेकी चेष्टा करते हैं, तभी ये बहुत शीघ्र लक्ष्यको पा लेते हैं। इसीलिये सकाम-कर्मियोंकी अपेक्षा इन्हें श्रेष्ठ माना गया है। इनकी अपेक्षा वे श्रेष्ठ हैं, जो लौकिक अथवा पारलौकिक सुख-भोगके लिये अथवा योगसिद्धियोंके लिये सम्पूर्ण यज्ञों एवं तपोंके भोक्ता, सर्वलोकमहेश्वर भगवान् को भजते हैं। भगवान् उचित समझनेपर उनकी भोगकामना भी पूर्ण करते हैं और इस प्रकार उनके अन्त:करणको कामनाशून्य बनाकर शीघ्र ही उन्हें अपनी अनन्य भक्ति भी प्रदान करते हैं तथा उन्हें सदाके लिये कृतार्थ कर देते हैं। भगवान् ने गीतामें भी कहा है—‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ (७। २३) (मेरे भक्त अन्तमें मुझीको प्राप्त होते हैं) ऐसे सकाम भक्तोंको गीतामें अर्थार्थी भक्त कहा गया है।

अर्थार्थी भक्तोंकी अपेक्षा भगवान् के आर्त भक्त श्रेष्ठ हैं, जो किसी लौकिक अथवा पारलौकिक कामनाकी पूर्ति तो भगवान् से नहीं चाहते; किन्तु किसी प्रकारका असाधारण कष्ट आनेपर उनका धैर्य छूट जाता है और वे उस संकटसे छूटनेके लिये व्याकुल होकर भगवान् को पुकारते हैं—ठीक उसी प्रकार जैसे कोई निरीह, निर्बल शिशु किसी प्रकारका भय उपस्थित होनेपर माताको ही पुकारता है और बरबस उसीकी गोदकी ओर ताकता है। ग्राहसे पीड़ित गजराजकी पुकार और भरी सभामें वस्त्रहीन की जाती हुई राजरानी सती-साध्वी द्रौपदीका करुण आह्वान आर्त भक्तके ही उदाहरण हैं। आर्त भक्तोंमें भी वे श्रेष्ठ हैं जो बाहरी किसी शत्रु अथवा कष्टसे भयभीत नहीं होते; किन्तु काम-क्रोधादि भीतरी शत्रुओंसे घबराकर उनसे त्राण पानेके लिये ही भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं।

आर्त भक्तोंकी अपेक्षा भी भगवान् के जिज्ञासु भक्त श्रेष्ठ हैं, जो भगवान् को किसी कामनाके लिये अथवा कष्ट-निवारणके लिये न भजकर उनका तत्त्व जाननेके लिये ही उन्हें भजते हैं। इन तीनों प्रकारके भक्तोंको भगवान् ने ‘उदार’—श्रेष्ठ बतलाया है (गीता ७। १८)। भगवान् ऐसे भक्तोंके भी ऋणी बन जाते हैं। भगवान् ने द्रौपदीके सम्बन्धमें कहा था कि ‘द्रौपदीने जो असहाय होकर दूर बैठे हुए मुझ द्वारकावासीको ‘गोविन्द’ इस प्रकार पुकारा था, उसकी वह पुकार मुझे भूलती नहीं; उसका वह ऋण मुझपर बढ़ता ही जा रहा है।’*

* ऋणमतेत प्रवृद्ध हृदयान्नापसर्पति।

यद् गोविन्दति चुक्रोश कृष्णा मां दूरवासिनम्॥

(महाभारत, उद्योग. ५९। २२)

ऐसी दशामें भगवान् का अपने उन भक्तोंको ‘उदार’ कहना उचित ही है। किसीकी आर्त पुकारसे द्रवित होकर उसका उस विपत्तिसे त्राण कर देनेमें ही अपने कर्तव्यकी इतिश्री न मानकर उसका ऋण अपने ऊपर अक्षुण्ण मानना उदारताकी पराकाष्ठा है। ऐसे उदारशिरोमणि भगवान् पर विश्वास करके जो उन्हें भजना आरम्भ करते हैं क्या उनकी यह उदारता नहीं कहलायेगी? अस्तु,

जिज्ञासु भक्त यद्यपि अर्थार्थी एवं आर्त भक्तोंकी अपेक्षा अवश्य ऊँचे हैं; क्योंकि वे किसी लौकिक अथवा पारलौकिक अर्थकी सिद्धिके लिये अथवा किसी सांसारिक कष्टसे पीड़ित होकर भगवान् की शरणमें नहीं जाते, अपितु तत्त्वज्ञानरूपी परमार्थकी प्राप्तिके लिये अथवा जन्म-मृत्युरूपी महान् व्याधिसे छुटकारा पानेके लिये ही उनको भजते हैं। तत्त्वज्ञान अथवा मोक्षकी कामना अत्यन्त शुभ कामना होनेके कारण निष्कामता-जैसी ही है; परन्तु जो भगवान् से मोक्ष भी न चाहकर केवल उन्हींको चाहते हैं, ऐसे निष्काम भक्त तो जिज्ञासु भक्तोंसे भी ऊँचे हैं। ये भगवान् अथवा भगवत्प्रेमके सिवा अन्य किसी वस्तुको नहीं चाहते, श्रीमद्भागवतमें भगवान् ने अपने श्रीमुखसे कहा है—

न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत्॥
(११।१४।१४)

‘मुझे आत्मसमर्पण कर देनेवाला भक्त मुझे छोड़कर अन्य किसी वस्तुको नहीं चाहता—उसे न तो ब्रह्माका पद चाहिये, न इन्द्रासन; उसे न तो चक्रवर्ती सम्राट् बननेकी इच्छा होती है और न वह रसातलका ही स्वामी बनना चाहता है। और तो क्या, वह भोगकी बड़ी-बड़ी सिद्धियों तथा मोक्षतककी अभिलाषा नहीं करता।’

ऐसे निष्कामी अथवा भगवत्कामी भक्तसे भी वे भक्त श्रेष्ठ हैं, जो अपना कर्तव्य समझकर भगवान् से प्रेम करते हैं, उनसे चाहते कुछ भी नहीं। भगवान् के विधानसे जो कुछ होता है, उसे देखते रहते हैं; भगवान् से किसी प्रकारकी याचना अथवा प्रार्थना करनेकी आवश्यकता नहीं समझते। भगवान् की महिमा तथा उनके नाम, गुण, लीला एवं प्रभाव आदिको गाते-सुनते रहते हैं और साधनके लिये ही निरन्तर साधन-भजन करते रहते हैं, भजनके बिना वे रह ही नहीं सकते। सच्चे निष्कामी भक्त इन्हींको मानना चाहिये। इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं, जो भगवान् को प्राप्त कर चुके हैं। इन भगवत्प्राप्त महापुरुषोंकी अपेक्षा भी वे श्रेष्ठ हैं, जिन्हें भगवान् ने धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति आदिके प्रचारका तथा अपनी प्राप्ति करानेका भी विशेष अधिकार दे दिया है। इनसे भी श्रेष्ठ हैं, जिन्हें भगवान् ने अपना पूर्ण अधिकार दे दिया है। इनसे भी श्रेष्ठ वे कारक पुरुष हैं, जो परम धामसे भगवान् के भेजे हुए आते हैं और भगवान् की ही भाँति अपना लीला-कार्य पूरा करके पुन: भगवान् के पास चले जाते हैं।

कारक पुरुषोंसे भी श्रेष्ठ भगवान् के वे लीला-परिकर हैं, जो सदा भगवान् के निकट उनकी सेवामें रहते हैं, भगवान् जब अवतार लेकर इस धराधाममें पाधरते हैं, तब ये भी उनके साथ ही उनकी प्रकट लीलाओंमें सहयोग देनेके लिये अवतीर्ण होते हैं और जब भगवान् अपनी अवतार-लीला संवरण करके पुन: अपने धाममें पधार जाते हैं, तब ये भी उनके साथ ही परमधामको लौट जाते हैं। ये भगवान् से कभी अलग नहीं होते। इनसे भी बढ़कर स्वयं भगवान् हैं, जिनसे बड़ा और कोई नहीं है। संसारमें जितने भी बड़े कहलानेवाले हैं, वे सब भगवान् की ही शक्ति पाकर बड़े होते हैं। बड़प्पनकी चरम सीमा भगवान् ही हैं—‘सा काष्ठा सा परा गति:’। अत: सबको कपट छोड़कर उन्हींकी शरणमें जाना चाहिये और उन्हींका भजन-ध्यान करके उन्हींको प्राप्त करनेकी चेष्टा करनी चाहिये तथा उनकी महिमा समझनेके लिये एवं उनके भजन-ध्यानकी पुष्टिके लिये भगवत्प्राप्त महापुरुषोंका यथाशक्ति निरन्तर संग करना चाहिये। यही मनुष्य-जीवनका चरम फल है।

इस प्रकार दाम्भिकसे लेकर भगवान् तक सारी सीढ़ियोंका क्रमश: वर्णन किया गया कि कौन किसकी अपेक्षा श्रेष्ठ एवं कौन किसकी अपेक्षा नीचा है। इस भेदमें जो निरन्तर अभेद देखते हैं, संसारमें वे ही श्रेष्ठ महापुरुष हैं। गीतामें भगवान् स्वयं अपने श्रीमुखसे कहते हैं—

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥
(६। ९)

‘सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणोंमें, धर्मात्माओंमें और पापियोंमें भी समान भाव रखनेवाला अत्यन्त श्रेष्ठ है।’

प्रत्येक कल्याणकामी पुरुषको इस बातकी प्राणपणसे चेष्टा करनी चाहिये कि उसका सबमें समभाव हो जाय। इसपर यदि कोई यह प्रश्न करे कि फिर नाना प्रकारके ऊँचे-नीचे दर्जे किसके लिये हैं, तो इसका उत्तर यह है कि ये सब श्रेणियाँ उन जिज्ञासुओंके लिये कही गयी हैं, जो इन्हें पढ़-सुनकर श्रेयोमार्गपर ही आरूढ़ होनेके लिये प्रयत्न करना चाहते हैं। अन्तमें पाठकोंके लाभार्थ सीढ़ियोंके क्रमका उल्लेख करके विराम लिया जाता है। सीढ़ियाँ इस प्रकार हैं—

(१) धर्मध्वजी।

(२) ईश्वरविरोधी नास्तिक।

(३) पापी।

(४) संशयात्मा।

(५) सकामकर्मी।

(६) लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त किये हुए योगी।

(७) अर्थार्थी भक्त।

(८) आर्त भक्त।

(९) काम-क्रोधादि शत्रुओंपर विजय पानेके लिये

भगवान् को भजनेवाले आर्त भक्त।

(१०) जिज्ञासु भक्त।

(११) प्रेमी भक्त।

(१२) केवल अपना कर्तव्य मानकर ही भगवान् से

प्रेम करनेवाले निष्कामी भक्त।

(१३) भगवत्प्राप्त महापुरुष।

(१४) विशेष अधिकार प्राप्त किये हुए महापुरुष।

(१५) पूर्ण अधिकार प्राप्त महापुरुष।

(१६) कारक महापुरुष।

(१७) भगवान् के सदा समीप रहनेवाले उनके लीला-परिकर।

(१८) स्वयं भगवान्।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur