Seeker of Truth

परमार्थ-प्रश्नोत्तरी

प्रश्न—श्रीकृष्ण तथा अन्य अवतारोंकी भक्तिसे मुक्ति मिल सकती है या नहीं और मुक्तिके लिये ज्ञान तथा निर्गुण-निराकारकी उपासनाके अतिरिक्त अन्य क्या साधन हैं?

उत्तर—हाँ, श्रीकृष्णादि अवतारोंकी भक्तिसे मुक्ति मिल सकती है। ज्ञानके अतिरिक्त मुक्ति प्राप्त करनेके दो साधन और हैं। सगुण परमात्माकी उपासना और निष्काम कर्म। इन्हींको लक्ष्य करके भगवान् ने गीतामें कहा है—

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥
(३। ३)

‘हे निष्पाप अर्जुन! इस लोकमें दो प्रकारकी निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है, ज्ञानियोंकी ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्काम कर्मयोगसे।’

यहाँ कर्मयोगमें निष्काम कर्म और भक्ति (सगुणोपासना) दोनों ही अन्तर्गत हैं। सगुणोपासनासे प्रसन्न होकर भगवान् अपनी कृपासे भक्तोंको तत्त्वज्ञान दे देते हैं जिसके द्वारा मनुष्य भगवत्तत्त्वमें प्रवेश कर जाता है—

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०। १०)

‘उन निरन्तर मेरे ध्यानमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ कि जिससे वे मेरेको ही प्राप्त होते हैं।’

यद्यपि वेद-शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है कि ‘ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:’ अर्थात् ज्ञानके बिना मुक्ति नहीं होती, तथापि भगवान् की कृपासे भक्तको वह ज्ञान सहजहीमें प्राप्त हो जाता है, जैसा कि ऊपर कहा गया है।

इसलिये भक्तिसे मुक्ति मिल सकती है, यह माननेमें कोई आपत्ति नहीं है। भक्त तो ऐसा मानते हैं कि मुक्ति भगवान् के अनन्य प्रेमियोंके चरणोंमें लोटती है यानी उनके चरणोंकी सेवासे मिल सकती है। किंतु वे उसकी ओर भूलकर भी नहीं ताकते, उसकी इच्छा करना तो दूर रहा। भोग और मुक्तिकी स्पृहाको भक्तोंने पिशाची बताया है—

‘भुक्तिमुक्तिस्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते।’

फिर वे उसकी इच्छा क्यों करने लगे?

स्वामी विवेकानन्दने यह कहा है कि भक्ति करनेसे भगवान् ज्ञान देते हैं तब मुक्ति होती है, यह ठीक ही है। परन्तु भक्ति करनेवालोंको भगवान् ज्ञान ही देते हैं, यह बात नहीं है। प्रेम चाहनेवालेको वे प्रेमदान देते हैं और जो उनसे कुछ भी नहीं चाहता उसके तो वे ऋणी बन जाते हैं। भगवान् के प्रेमी भक्त मुक्तिकी अपेक्षा भगवान् के समीप रहना अधिक पसंद करते हैं!

मुक्ति दो प्रकारकी होती है—(१) धाम-मुक्ति अर्थात् साकार भगवान् के धामकी प्राप्ति और (२) कैवल्य-मुक्ति अर्थात् निर्गुण-निराकार ब्रह्ममें लय हो जाना अथवा भगवत्तत्त्वमें प्रवेश कर जाना। इनमेंसे दूसरे प्रकारकी मुक्ति तो ज्ञानसे ही होती है। भक्ति करनेवालोंको भी यह मुक्ति ‘ददामि बुद्धियोगं तम्’ इस वाक्यके अनुसार भगवत्प्रसादसे ज्ञान प्राप्ति होकर होती है। ‘ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:’ इत्यादि वचन इसी मुक्तिको लक्ष्यमें रखकर कहे गये हैं। पहली अर्थात् धाम-मुक्ति जिसके सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य—इस प्रकार चार भेद शास्त्रोंमें कहे गये हैं—यह भेदभावकी मुक्ति प्रेमा भक्तिसे ही मिलती है। ज्ञान अर्थात् अभेदोपासनासे नहीं मिलती। अभेदोपासनासे ब्रह्ममें लय हो जानेवाली मुक्ति ही मिलती है। भेदरूपसे भगवान् की भक्ति करनेवाला यदि चाहे तो उसे भगवान् की कृपासे कैवल्य-मुक्ति भी मिल सकती है, किंतु अभेदोपासना करनेवालोंको धाम-मुक्ति नहीं मिल सकती। यही भक्तिकी विशेषता है।

प्रश्न—श्रीकृष्णादि अवतार-विग्रह मायिक हैं अथवा अमायिक? उनका महत्त्व निर्गुण-निराकार ब्रह्मके समान ही है अथवा कुछ न्यूनाधिक?

उत्तर—भगवान् के अवतार-विग्रह मायाके दिव्य स्वरूपसे प्रकट होनेके कारण मायिक होनेपर भी अमायिक ही हैं। इसीलिये उस मायाको योगमाया अथवा भगवान् की लीला इत्यादि नामोंसे निर्दिष्ट किया गया है। अब रही परमात्माके निर्गुण और सगुण स्वरूपके तारतम्यकी बात, सो निर्गुण ब्रह्मके स्वरूपका तो वर्णन ही नहीं हो सकता, वह तो मन, वाणी और बुद्धिसे अगोचर, अनिर्वचनीय है—

‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’
‘न तत्र बुद्धिर्गच्छति न वाग्गच्छति...’

जो कुछ वर्णन होता है वह सगुण परमात्माका ही होता है। सगुण ब्रह्मके दो भेद हैं—साकार और निराकार। प्रभुके जितने भी विशेषण पाये जाते हैं सभी उनके आभूषण रूप हैं, सभी उनके स्वरूपको सजानेवाले हैं, उनकी ओर जीवको आकर्षण करनेवाले हैं। यद्यपि वास्तवमें उनके स्वरूपका वर्णन हो ही नहीं सकता, फिर भी जो कुछ किया जाता है सभी कल्याणकारक है। इसलिये प्रभुके निराकार और साकार दोनों ही विशेषण अतिशय महत्त्ववाले हैं, किसको छोटा और किसको बड़ा कहा जाय? दोनों ही विशेषणोंसे विशिष्ट जो धर्मी है वह एक है, आवश्यकतानुसार नटकी भाँति अपनी योगमायासे स्वरूप बदलता रहता है। प्रधान वस्तु धर्मी है और वह एक ही है।

प्रश्न—गीताप्रेसकी टीकामें श्रीमद्भगवद्गीताके ७ वें अध्यायके २४ वें श्लोककी व्याख्यासे यह ध्वनि निकलती है कि साकार विग्रह मायिक है, असली स्वरूप नहीं है?

उत्तर—यहाँ मायिक शब्दका तात्पर्य क्या है—यह भलीभाँति हृदयंगम कर लेना चाहिये। माया कहते हैं ईश्वरकी प्रकृति अथवा शक्तिको और वह शक्ति शक्तिमान् अर्थात् ईश्वरसे भिन्न नहीं है। जैसे अग्नि अपनी दाहिका शक्तिसे भिन्न नहीं है। ईश्वर अपनी शक्तिसे ही प्रकट होते हैं और अपनी शक्तिसे ही अन्तर्हित हो जाते हैं अर्थात् छिप जाते हैं। यही उनकी लीला है और वह अत्यन्त रहस्यमयी है। यही भगवान् की ज्ञानमयी विशुद्ध दिव्य माया है और वह अलौकिक है, इसलिये भगवान् की लीलासे आविर्भूत हुए साकार विग्रहको नकली नहीं मानना चाहिये।

प्रश्न—‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ इस भगवद्वाक्यका उपर्युक्त सिद्धान्तसे विरोध पड़ता है?

उत्तर—विरोध नहीं है। उक्त श्लोकसे तो उलटे इस सिद्धान्तकी पुष्टि होती है, ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ का यह अर्थ नहीं है कि ब्रह्म मेरे आधारपर स्थित है, अर्थात् मैं आधार हूँ और ब्रह्म आधेय है। सगुण-साकार और निर्गुण-निराकार कोई दो तत्त्व नहीं हैं कि उनमें आधाराधेयभाव अथवा व्याप्य-व्यापकभाव-सम्बन्ध घट सके। दोनों एक ही तत्त्वके दो स्वरूप हैं। स्वरूपगत भेद होते हुए भी वस्तुत: एक ही है और इसी एकतामें उपर्युक्त श्लोकका तात्पर्य है। ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ का अर्थ यही है कि जिसे ब्रह्म कहते हैं वह मैं ही हूँ। मुझमें और ब्रह्ममें कोई भेद नहीं है।

प्रश्न—शिव और विष्णुको मोह क्यों हुआ?

उत्तर—शैवपुराणोंमें विष्णु और वैष्णवपुराणोंमें शिवके मोहका जो वर्णन मिलता है उसके भी रहस्यको समझना चाहिये। भगवान् के भिन्न-भिन्न साकार विग्रहोंकी महत्ता सिद्ध करनेके लिये ही भिन्न-भिन्न पुराणोंकी सृष्टि हुई है। भगवान् के सभी विग्रह महत्त्ववाले हैं और भिन्न होते हुए भी वस्तुत: एक ही हैं। सभी पुराणोंमें ग्रन्थकारका लक्ष्य तत्तदिष्टके रूपमें ब्रह्मकी ओर ही है। शिवपुराणके शिव, विष्णुपुराणके विष्णु और ब्रह्मवैवर्त तथा भागवतपुराणके कृष्ण एक ही हैं अर्थात् शुद्ध विज्ञानानन्द ब्रह्म ही हैं। वही ब्रह्मा, विष्णु और शिवके रूपमें प्रकट होकर संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारका कार्य करते हैं। यह सब उनकी लीला है। लीलासे की हुई उनकी क्रियाओंमें दोष नहीं है, भूलसे दोष-सा प्रतीत होता है। क्योंकि ईश्वरकी लीलाओंका रहस्य प्रत्येक साधारण बुद्धिवाले मनुष्यके लिये दुर्विज्ञेय है। वास्तवमें उन्हें मोह नहीं हुआ।

प्रश्न—श्रीमद्भगवद्गीतामें जहाँ-जहाँ अहम्, माम्, मम, मे, मया,मयि इत्यादि उत्तम पुरुषके प्रयोग आये हैं वे सब आत्माके वाचक हैं, भगवान् श्रीकृष्णके नहीं।

उत्तर—यह युक्तिसंगत नहीं है। ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:’ इत्यादि श्लोकोंमें आये हुए, अहम्, माम्, मम, मे, मया, मयि आदिका यह अभिप्राय समझना चाहिये कि सबका आत्मा मैं ही हूँ अर्थात् मैं जो श्रीकृष्णरूपसे तुम्हारे सामने खड़ा हूँ वही निराकाररूपसे सबमें व्याप्त हूँ—सबके हृदयमें स्थित हूँ (गीता १५। १५; १८। ६१)। यहाँ आत्माकी प्रधानता नहीं अपितु परमात्मा श्रीकृष्णकी प्रधानता है। आपके कथनानुसार आत्माकी प्रधानता कदापि इष्ट नहीं है।

प्रश्न—परमात्माका सर्वोत्कृष्ट साकार विग्रह कौन-सा है?

उत्तर—इस सम्बन्धमें सिद्धान्त तो यह है कि भगवान् के सभी विग्रह दिव्य एवं श्रेष्ठ हैं, किन्तु आप यदि चतुर्भुजरूपको श्रेष्ठ मानें तो मान सकते हैं इसमें कोई आपत्ति नहीं है। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिये कि भगवान् श्रीकृष्णके द्विभुज श्यामसुन्दर रूपका उपासक उसी रूपको सर्वोत्तम मान सकता है। जिसके लिये शास्त्रानुकूल जो रूप रुचिकर हो और जिसको वह सर्वश्रेष्ठ मानकर उपासना करता है उसके लिये वही सबसे बढ़कर है। शास्त्रोंमें जहाँ जिस रूपका प्रसंग होता है, भक्तोंकी श्रद्धा और रुचि बढ़ानेके लिये वहाँ उसीको बड़प्पन दिया जाता है। यह नियम युक्तिसंगत है और एकांगी उपासनाके लिये इसकी आवश्यकता है।

प्रश्न—भगवान् का चतुर्भुजरूप देखनेके लिये दिव्यचक्षुकी आवश्यकता है। द्विभुजरूपके लिये उसकी जरूरत नहीं?

उत्तर—भगवान् के दिव्य चतुर्भुजरूपके दर्शन उनकी दयासे इन चक्षुओंसे भी हो सकते हैं। बालक ध्रुवको इन्हीं नेत्रोंसे भगवान् के दर्शन हुए थे। चतुर्भुजरूपका ही क्यों, भगवान् के सभी दिव्य विग्रहोंके दर्शन उनकी दयासे चर्मदृष्टिसे भी हो सकते हैं। हाँ, जिस चर्मदृष्टिसे भगवान् के दर्शन होते हैं उसको भी पवित्र होनेके नाते हम दिव्य कह सकते हैं।

प्रश्न—अनधिकारियोंको भी दर्शन हो सकते हैं या नहीं? दर्शन होनेपर भी क्या पाप रह सकते हैं?

उत्तर—जिस समय भगवान् पृथ्वीपर अवतार लेते हैं उस समय अधिकारी, अनधिकारी जो कोई भी उनके सम्मुख अथवा सम्पर्कमें आ जाते हैं उन सबको भगवान् के दर्शन अनायास ही हो जाते हैं; किन्तु भगवान् को बिना पहचाने, उनके तत्त्वको बिना समझे जो उनके दर्शन होते हैं वे विशेष मूल्यवान् नहीं कहे जा सकते और न वे मुक्तिदायक ही होते हैं। दर्शन हो जानेपर भी प्रभुको पहचाननेसे ही मनुष्यके सारे पाप छूटते हैं और तभी वह परमपदका अधिकारी बनता है। गीतामें भी भगवान् ने कहा है—

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
(४। ९)

‘हे अर्जुन! मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्वसे जानता है, वह शरीरको त्याग कर फिर जन्मको नहीं प्राप्त होता है, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।’

भगवान् श्रीराम-कृष्णादिरूपसे जिस समय पृथ्वीपर विराजते थे उस समय जिन लोगोंको उनके दर्शन हुए वे सभी धन्य थे, किन्तु उनमेंसे सभी मुक्त हो गये हों, यह बात नहीं कही जा सकती; क्योंकि वे सभी भगवान् को भगवान् के रूपमें नहीं देखते थे।

प्रश्न—भगवद्दर्शनके बाद जो दशा ध्रुवकी हुई वह उन राक्षसों आदिकी क्यों नहीं होती थी जो भगवान् के सम्मुख आकर उनसे लोहा लेते थे?

उत्तर—वे राक्षसादि भगवान् के सम्मुख आनेपर भी उन्हें भगवान् के रूपमें पहचानते नहीं थे, इसीसे भगवद्दर्शन होनेपर भी उनकी ध्रुवकी-सी दशा नहीं होती थी। हाँ, जो लोग भगवान् के हाथसे मारे जाते थे वे उन्हें न पहचाननेपर भी मुक्त हो जाते थे। यह भगवान् की विशेष दयालुता है। पारसका दृष्टान्त इसीमें घटाना चाहिये। जैसे पारसके स्पर्शसे लोहा भी सोना हो जाता है उसी प्रकार भगवान् के हाथसे जिनकी मृत्यु होती थी वे महान्-से-महान् पापी होनेपर भी अथवा भगवान् को भगवान् न जाननेपर भी मुक्त हो जाते थे। जैसे विष देनेवाली पूतनाको भी भगवान् ने उत्तम गति दी। यह तो दयामय प्रभुकी अतिशय दयालुता एवं अनुपम उदारताका ही परिचायक है। मरते समय जिस किसी भावसे भी भगवान् का स्पर्श हो जानेपर जीवकी मुक्ति हो जाती है, यह भगवान् का विशेष कानून है और इसके अंदर उनकी अतिशय दया भरी हुई है। अन्त समयमें भगवान् के नाम-स्मरणसे ही जब मनुष्यका कल्याण हो जाता है तब उनके साक्षात् दर्शन अथवा स्पर्श हो जानेपर यदि किसीकी मुक्ति हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?

भगवान् की शरण होने पर तो पापी-से-पापी भी शाश्वत सुखके अधिकारी हो जाते हैं। वास्तवमें पारसका दृष्टान्त भी भगवान् के महत्त्वको समझानेके लिये पर्याप्त नहीं है; क्योंकि पारसके साथ लोहेका स्पर्श होनेसे ही वह सोना बनाता है, दर्शनमात्रसे नहीं—किन्तु भगवान् को भगवान् के रूपमें देखनेसे तो मनुष्य कल्याणका भाजन हो जाता है। इसके अतिरिक्त पारस तो लोहेको सोना ही बनाता है, पारस नहीं बना सकता, किन्तु भगवान् को भगवान् के रूपमें देख लेनेपर मनुष्य भगवद्रूप ही हो जाता है। वह दूसरोंको भी भगवद्रूप बना सकता है।

भगवान् के संग क्रीडा करनेवाले गोपबालक और गोपबालाएँ तो परम अधिकारी हो गयीं। गीध और शबरीको भी उन्होंने योगिदुर्लभ गति दे दी; रीछ और वानरोंको भी उन्होंने जगत्पावन बना दिया और उनके हाथसे मरे हुए असंख्य राक्षस एवं आततायी सहजहीमें मुक्त हो गये। भगवान् श्रीरामके सम्बन्धमें श्रीरामायणादि ग्रन्थोंमें लेख मिलता है कि परमधामको पधारते समय वे सारे अयोध्यावासियोंको—मनुष्योंको ही नहीं अपितु पशु, पक्षी आदि असंख्य जीवोंको भी अपने लोकमें ले गये।

प्रश्न—नर-ऋषिके अवतार दैवी-सम्पदासे विभूषित भक्तश्रेष्ठ अर्जुनकी गीतोपदेशसे पूर्व भगवान् के साथ खाने-पीने, सोने और उठने-बैठनेपर भी क्या मुक्ति नहीं हुई?

उत्तर—अर्जुन तो वास्तवमें एक प्रकारसे मुक्त ही थे। उनके अंदर जो कुछ यत्किंचित् कमी थी वह भी लोककल्याणकारी ही हुई, क्योंकि उसकी पूर्तिके बहाने भगवान् ने गीताके अनुपम ज्ञानका जगत् को उपदेश दिया।

प्रश्न—भगवान् के किस साकार-विग्रहकी पूजा स्वयं भगवान् की पूजा है?

उत्तर—भगवान् के राम, कृष्ण, विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्यादि सभी साकार-विग्रहोंकी पूजा साक्षात् भगवान् की ही पूजा है तथा आर्षग्रन्थोंमें जिन देवताओंको ईश्वरका दर्जा दिया गया है, उनकी ईश्वरभावसे की गयी पूजा स्वयं भगवान् की ही पूजा है। वास्तवमें ये सब नाम परब्रह्म परमात्माके ही वाचक हैं, क्योंकि पुराणोंके रचयिता महर्षि वेदव्यासने भिन्न-भिन्न पुराणोंमें इन-इन देव-विग्रहोंके द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय आदिका वर्णन किया है और ये सभी धर्म सगुण ब्रह्मके हैं। यही नहीं, उन्होंने इन विग्रहोंके अंदर ब्रह्मके और-और लक्षण भी घटाये हैं। वास्तवमें जिसके अंदर ब्रह्मके पूर्ण लक्षण विद्यमान हों वही ब्रह्म है। अनेक नाम-रूपोंसे एक ही ब्रह्मकी लीला अनेक प्रकारसे बतलायी है। इसलिये प्रामाणिक आर्षग्रन्थोंमें जिनको ईश्वरत्व दिया गया है उनकी पूजा ईश्वरकी ही पूजा है। इनके अतिरिक्त सारे देवता अन्य देवता माने जाने चाहिये। उनकी पूजा भी भगवान् की पूजा है, क्योंकि उनके अंदर भी ब्रह्मकी ही सत्ता है; परन्तु भगवान् से भिन्न माननेके कारण सकामभावसे की हुई वह पूजा अविधिपूर्वक मानी गयी है।

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥
(गीता ९। २३)

‘हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धासे युक्त हुए जो सकामी भक्त दूसरे देवताओंको पूजते हैं, वे भी मेरेको ही पूजते हैं, किन्तु उनका वह पूजना अविधिपूर्वक है, अर्थात् अज्ञानपूर्वक है।’

प्रश्न—स्त्रीके लिये पतिकी, शिष्यके लिये गुरुकी, पुत्रके लिये माता-पिताकी सेवा भक्ति भी क्या मोक्षदायक हो सकती है?

उत्तर—अवश्य हो सकती है जबकि वह ईश्वरकी आज्ञा मानकर ईश्वरके लिये एवं ईश्वर-बुद्धिसे की जाय। क्योंकि शास्त्र सब ईश्वरकी आज्ञा है और ईश्वर मानकर की हुई सेवाभक्ति ईश्वरकी ही भक्ति समझी जाती है।

प्रश्न—चराचर प्राणियोंको ईश्वर मानकर उनकी सेवा करना अर्थात् विश्वरूप भगवान् की पूजा करना उत्तम है अथवा मूर्तिपूजा?

उत्तर—चराचर विश्वको ईश्वरका स्वरूप मानकर उसकी पूजा करना और उनकी पार्थिव अथवा मानसिक मूर्तिकी भगवद्भावसे पूजा-अर्चा करना दोनों ही उत्तम हैं। श्रद्धा और भक्तिसे की जानेवाली दोनों प्रकारकी पूजा एक ही फलको देनेवाली है। जिसकी जैसी रुचि हो वह दोनोंमेंसे किसी प्रकारकी पूजा कर सकता है। यदि वह दोनों ही प्रकारकी पूजा एक साथ करे तो और भी उत्तम है!

प्रश्न—क्या ब्रह्महत्यादिकी अपेक्षा भी झूठ बोलनेमें अधिक पाप है?

उत्तर—यह बात नहीं है। झूठकी पापोंमें गणना है और ब्रह्महत्या आदिको शास्त्रोंमें महापातक बतलाया है। इसलिये झूठको ब्रह्महत्यादिकी अपेक्षा बड़ा पाप नहीं कह सकते। हाँ, अन्य पापोंकी (महापातकोंकी नहीं) अपेक्षा झूठ बोलनेमें अधिक पाप माना गया है, क्योंकि झूठ एक प्रकारसे प्राय: सब पापोंकी जड़ है। झूठसे और-और भी पाप मनुष्य करने लगता है। इसीलिये झूठको और-और पापोंसे अधिक बताया गया है।

प्रश्न—आजकल लोग सत्यको विशेष आदर नहीं देते और कामिनी-कांचन तथा अभिमानके त्यागियोंमें भी असत्यका सर्वथा अभाव नहीं पाया जाता?

उत्तर—इतने अंशकी उनके अंदर कमी ही माननी चाहिये। इस प्रकारके त्यागियोंमें प्रथम तो असत्यका दोष जान-बूझकर घटना ही नहीं चाहिये। क्योंकि राग-द्वेषके वश ही मनुष्य प्राय: झूठ बोलता है और ऐसे निरभिमानी पुरुषोंमें राग-द्वेषादि नहीं होने चाहिये; और यदि किसी अंशमें उनके अंदर ये दोष घटते हैं तो इतने अंशमें उनके लिये लांछन ही है और उनके त्यागके महत्त्वको घटानेवाले हैं। यदि वे लोग सत्यको जितना आदर देना चाहिये उतना नहीं देते तो यह उनकी भूल ही है। इसके अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? सत्य परमात्माका स्वरूप है। केवल सत्यके आश्रयसे मनुष्य मोक्षका अधिकारी बन सकता है। सत्य अमृत है; सत्य सब गुणोंकी खानि है और यही सनातन धर्म है। अतएव—

सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्म: सनातन:॥
(मनु० ४। १३८)

‘सत्य और प्रिय बोले, किन्तु सत्य होनेपर भी अप्रिय न बोले यानी मौन रहे और प्रिय होनेपर भी झूठ न बोले—यह सनातन धर्म है।’

प्रश्न—क्या कायिक तपकी अपेक्षा वाचिक, मानसिक तप विशेष मूल्यवान् हैं?

उत्तर—श्रीमद्भगवद्गीतामें तपके कायिक, वाचिक और मानसिक—इस प्रकार तीन विभाग किये गये हैं। वे उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं अर्थात् कायिककी अपेक्षा वाचिक श्रेष्ठ है और मानसिक वाचिकसे भी श्रेष्ठ है, क्योंकि इनके आचरणका उत्तरोत्तर अधिक महत्त्व है। किन्तु तीनों ही परस्पर सम्बद्ध एवं एक-दूसरेके सहायक हैं। इसलिये किसीको भी अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। कायिक और वाचिक तप, मानसिक तपमें सहायक हैं और मनोनिग्रह हो जानेपर शरीर और इन्द्रियोंका निग्रह अपने-आप हो जाता है, क्योंकि मन इन सबका राजा है। भगवान् ने तीनों ही प्रकारके सात्त्विक तपको पावन करनेवाला एवं अवश्य कर्तव्य बताया है। इसलिये भगवान् की आज्ञा समझकर भगवान् की प्राप्तिके लिये निष्कामभावसे तीनों प्रकारके ही तपका साधन करना चाहिये।

प्रश्न—क्या भगवान् का अनन्य-चित्तसे नित्य-निरन्तर स्मरण अन्य सब साधनोंसे श्रेष्ठ है?

उत्तर—इसकी श्रेष्ठता तो सर्वप्रमाणसिद्ध है ही। नित्य-निरन्तर अनन्य-चित्त होकर स्मरण करनेवालेके लिये भगवान् ने अपनेको सुलभ बताया है और अर्जुनको स्पष्टरूपसे यह आज्ञा दी है कि तू मुझे सर्वकालमें स्मरण करता हुआ ही युद्ध कर, यह नहीं कि सर्वकालमें युद्ध करता हुआ मुझे स्मरण कर, क्योंकि युद्ध तो सर्वकालमें हो नहीं सकता और स्मरण सर्वकालमें—खाते, पीते, उठते, बैठते, बात करते हो सकता है। इस प्रकार सब साधनोंमें स्मरणकी प्रधानता तो स्वयं भगवान् ने जगह-जगह बतलायी है। यज्ञ, दान, तप आदि वर्णाश्रमोचित कर्तव्य कर्म भी भगवत्स्मरण करते हुए ही होने चाहिये। यदि भगवत्स्मरणके कारण इनमें किसी प्रकारकी कमी आ जाय तो इतनी आपत्तिकी बात नहीं है, किन्तु स्मरणमें भूल नहीं होनी चाहिये। क्योंकि यही सबसे बड़ा साधन है और इसीमें प्रधानरूपसे सबको तत्पर हो जाना चाहिये। इस एकके सध जानेसे सब कुछ अपने-आप सध जाते हैं और इस एककी कमी है तो सभी बातोंकी कमी है—

नाम रामको अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur