Seeker of Truth

परमानन्दकी खेती

‘भैया, इतनी दूर कैसे आये?’ स्वागत करनेके बाद पंजाबमें रहनेवाले मित्रने पूछा। राजपूतानासे पंजाब आनेका कोई कारण विशेष अवश्य होगा, उसने समझ लिया था।

‘मेरे यहाँ अकाल पड़ा हुआ है। लोग दाने-दानेके लिये तरस रहे हैं और कितने ही क्षुधासे तड़प-तड़पकर प्राण छोड़ रहे हैं। व्याकुल होकर मैं परिवारसहित आपके पास आ गया।’ राजपूतानाके वैश्यने अपने मित्रसे सच्ची बात बता दी। अपने मित्रके पास अन्नका ढेर देखकर वह मन-ही-मन प्रसन्न भी हो रहा था।

‘आप यहाँ आ गये, बड़ा अच्छा किया। आपहीका घर है, आनन्दपूर्वक रहिये।’ वैश्यके मित्रने बड़े प्रेमसे उत्तरमें कहा।

‘आपके यहाँ तो अन्नराशिके ढेर-के-ढेर लगे हैं, पर हमारे देशमें तो अन्न किसी भाग्यशालीको ही मिलता है; वहाँ तो एक-एक दानेके लिये चील्ह-कौओंकी तरह छीना-झपटी हो रही है। आपके यहाँ सहस्रों मन एकत्र गल्लेको देखकर मेरे जी-में-जी आ गया।’ वैश्यने स्थिति स्पष्ट की।

‘यहाँ तो भगवत्कृपासे अन्नका अभाव नहीं है। इसमें आश्चर्यकी कोई बात भी नहीं है, यहाँ तो कोई भी आवे, उसके लिये अन्नकी कमी नहीं है। आप तो हमारे मित्र हैं, यहाँ तो सब कुछ आपहीका है। यहाँ आकर आपने बड़ा अच्छा किया।’ मित्र बोला। वह चतुर और अनुभवी किसान था।

‘आपकी सभी वस्तुएँ हमारी हैं, इसमें तो सन्देह नहीं है, पर मैं जानना चाहता हूँ कि इतनी अन्नराशि आपके पास आयी कहाँसे?’ वैश्यने चकित होकर पूछा।

‘हमारे यहाँ बराबर खेती होती रहती है। उसीका यह प्रताप है।’ किसान मित्रने वैश्य-बन्धुका समाधान करना चाहा। ‘आप भी खेती करने लगें तो आपके पास भी अन्नके ढेर लग जायँगे।’

‘बड़ी सुन्दर बात है, कृषिके कार्यमें मैं भी जुट जाऊँगा, पर इसका अनुभव मुझे नहीं है। मेरे पास एक सहस्र रुपये हैं। इतनेसे खेती आरम्भ हो सकती है क्या?’ वैश्यने पूछा।

‘एक हजारकी पूँजी कम नहीं है। इतने रुपयेसे खेतीका काम आप बड़ी सुन्दरतासे आरम्भ कर सकते हैं। मेरा पूरा सहयोग रहेगा ही।’ किसानने सहानुभूतिपूर्ण शब्दोंमें अपने वैश्य मित्रसे कहा।

‘मुझे तो इसका कोई ज्ञान नहीं है। आप जैसा उचित समझें, करें।’ अपनी समस्त पूँजी किसानके हाथमें समर्पित करते हुए वैश्यने जवाब दिया।

‘देखिये, ये सब गेहूँ तो मिट्टीमें मिल गये। गेहूँका एक-एक दाना फूटकर नष्ट हो गया’—अत्यन्त निराश होकर वैश्यने कहा। उसने अपने पंजाबी किसान मित्रके किसी काममें बाधा नहीं दी थी। किसानने मित्रकी पूँजीसे बीजादिका प्रबन्ध करवाकर हल चलवा दिया था। बीज बो दिये गये थे। पर, अनुभवहीन वैश्य यह सब देखकर चिन्तित हो रहा था। दो-तीन दिन भी नहीं बीतने पाये कि वह खेतमें जाकर खोदकर गेहूँके दाने देखने लगा। उसे बहुत-से बीज अंकुरित दीखे, इसपर उसने समझा कि मेरे सारे रुपये मिट्टीमें मिल गये। अत्यन्त दु:खी होकर उसने अपने मित्रसे उपर्युक्त बात कही।

‘आपके खेतमें अंकुर निकलने शुरू हो गये हैं। आप कोई चिन्ता न करें। बीजके लक्षण अच्छे हैं। आपको पता नहीं है।’ किसान मित्रने वैश्यको आश्वासन दिया।

‘मुझे तो धन और श्रमका व्यय करनेपर भी कोई लाभ होता नहीं दीखता। मैं तो बहुत चिन्तित हो गया हूँ।’ वैश्यने मनकी व्यथा-कथा स्पष्टत: व्यक्त कर दी।

‘प्रारम्भमें ऐसा ही होता है। आप निश्चिन्त रहें। आपकी खेती बड़ी सुन्दर हो रही है।’ किसान मित्रने बड़े प्रेमसे उत्तर दिया।

वैश्य चुप था। इसके अतिरिक्त उसका वश ही क्या था?

‘मेरे खेतमें तो सर्वत्र घास-ही-घास दीख रही है। मुझे तो बड़ी हानि हुई। मेरा सारा रुपया व्यर्थ गया।’ वैश्यने थोड़े ही दिनोंमें फिर किसानसे कहा। एक-एक बित्तेके गेहूँके पौधोंको उसने घास समझ लिया था।

घबराया हुआ किसान स्वयं खेतपर गया, पर वहाँ खेती देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई।

‘अरे! आपका खेत तो आस-पासके सभी खेतोंसे बढ़कर है’ किसानने हतोत्साह मित्रका भ्रम निवारण किया, ‘आप समझ लें कि अब गेहूँका विशाल ढेर आपके पास एकत्र होनेही वाला है। पर इस बातका ध्यान अवश्य रखें कि ये पौधे सूखने न पावें। इन सुकुमार पौधोंका जीवन पानी है। इसकी व्यवस्था आप शीघ्र कर लें। इनकी सिंचाईके लिये आप शीघ्र ही एक कुँआ खुदा लें। साथ ही खेतको चारों ओर काँटोंकी बाड़ लगाकर रूँध दें, नहीं तो पशु आकर इसे चर जायँगे। खेतकी रखवाली आपको सावधानीसे करनी होगी।’

‘आपकी प्रत्येक आज्ञाका मैं शब्दश: पालन करूँगा।’ वैश्यने कहा और वैसा ही किया। कुँआ खुदवाकर खूब सिंचाई की। भगवत्कृपासे बीच-बीचमें बादल-दलने भी जल-वर्षण किया। पौधे बढ़ने लगे।

‘पौधोंके बीच-बीचमें जो घासें उग आयी हैं, उन एक-एक घासोंका निरान कर डालिये। ये गेहूँकी वृद्धिके बाधक हैं’—एक दिन खेतपर आकर किसानने वैश्यको प्रेमभरे शब्दोंमें आदेश दिया।

‘एक घास भी खेतमें नहीं रह पायेगी।’ वैश्यने तुरंत उत्साहपूर्ण शब्दोंमें उत्तर दिया।

‘गेहूँके दाने तो हो गये, पर ये तो सब-के-सब कच्चे ही हुए हैं’—माथेका पसीना पोंछते हुए वैश्यने किसान बन्धुसे कहा। वह खेतसे दौड़ता आया था और जोरोंसे हाँफ रहा था। उसने अपने किसान मित्रके आदेशानुसार अपने खेतमें घासका कोई चिह्न भी अवशिष्ट नहीं रहने दिया था। उसका परिश्रम अतुलनीय था। गेहूँमें फल भी लगे थे, पर इतने दिनोंके बाद उसने देखा तो सब-के-सब फल कच्चे ही थे। खेतीके ज्ञानसे शून्य होनेके कारण वह गरीब घबरा गया था। उसने समझा रुपयेके साथ-साथ मेरी एँड़ी-चोटीका पसीना भी व्यर्थ सिद्ध हो रहा है। उसने दो-तीन फलियाँ भी किसानके सामने रख दीं, जिन्हें वह साथ ही लेता आया था।

‘आपके गेहूँके दाने तो बड़े पुष्ट हैं। ये अब जल्दी ही पक जायँगे। अब इसमें विलम्ब नहीं होगा। आप घबरायें नहीं। किसी प्रकारका विचार भी न करें। आपके घरमें गेहूँ और भूसेके पहाड़ लग जायँगे।’ प्रसन्नताभरे शब्दोंमें किसानने वैश्यसे कहा। ‘पर ऐसे समय पक्षी आ-आकर काकली—मीठी-मीठी बोली सुनाते हैं और सब दाने खा जाया करते हैं, अत: खेतीकी खूब रक्षा करनी होगी। पक्षियोंसे रक्षा किये बिना पक्षी सारे खेतका नाश कर डालेंगे।’

‘मैं आपका कृतज्ञ हूँ। मेरे आनन्दकी सीमा नहीं है। मेरे पास गेहूँका विशाल ढेर लग गया है’—वैश्यने आनन्दभरे शब्दोंमें किसान मित्रके प्रति आभार प्रदर्शित किया।

‘यह सब भगवान् की कृपा और आपके श्रमका फल है। आप पक्षियोंके कलरवपर ध्यान न देकर उन्हें उड़ानेमें ही लगे रहते थे। आपने बड़ी तत्परतासे कृषि की थी।’ किसानने वैश्यबन्धुको ही यश दिया।

वैश्य नतमस्तक हो गया। उसकी आकृतिपर आनन्द हँस रहा था।

यह कहानी एक दृष्टान्तरूपसे कही गयी है। इसे परमार्थ विषयमें इस प्रकार घटाना चाहिये कि सच्चे सुखकी प्राप्तिके लिये साधन करनेवाले जिज्ञासुको यहाँ अकालपीड़ित वैश्य समझना चाहिये। साधककी सांसारिक कष्टोंकी ज्वालासे उत्पन्न सच्चे सुखकी अभिलाषाको अकालपीड़ित वैश्यके भूखकी ज्वालाके कारण अन्नकी आवश्यकता समझनी चाहिये। महात्माको पंजाबमें रहनेवाला वैश्यका किसान मित्र समझना चाहिये। वैश्यका जो राजपूतानासे अपने मित्रके पास पंजाब जाना है, यही साधकका अपने घरसे महात्माके आश्रममें महात्माके पास जाना है। मित्रके पास जाकर वैश्यका जो अपने कष्टकी बात कहना है, यही जिज्ञासु साधकका महात्माको अपना दु:ख निवेदन करना है। वैश्य भाईका जो अपनी सम्पूर्ण पूँजी मित्रको सौंप देना है, यही साधकका अपने मानव-जीवनका अवशेष समय महात्माके चरणोंमें समर्पित करना है। मित्रके कहे अनुसार जो धनका खर्च करना है, यही महात्माके आज्ञानुसार समयका सदुपयोग करना है। किसान मित्रका जो जमीन और बीजका प्रबन्ध करवा देना है, इसको महात्माका समयको सदुपयोगमें लानेकी शिक्षा देना समझना चाहिये। खेतीके लिये जो अपने सुखका त्याग करना है, इसको परम आनन्दकी प्राप्तिके लिये वर्तमान सांसारिक सुखका त्याग करना समझना चाहिये। बीजका जो खेतमें बो देना है इसको महात्माके द्वारा प्राप्त साधनके बीजमन्त्रका हृदयमें धारण करना समझना चाहिये। खेती करनेसे खेतमें बीजोंका अंकुर फूटनेपर बेसमझीके कारण दु:ख और निराशाका अनुभव होनेको साधनकालमें होनेवाली निराशा और तज्जनित क्लेश समझना चाहिये। वैश्यका भ्रमसे गेहूँके छोटे पौधोंको जो घास समझना है, यही साधनकालमें साधनकी उन्नति होनेपर भी साधनमें परिश्रम अधिक होनेके कारण उसे भ्रमसे साधन न समझकर व्यर्थ समझना है। मन और इन्द्रियोंके संयमको बाड़ समझनी चाहिये। अध्यात्मविषयको सांसारिक स्वार्थी मनुष्योंके सम्पर्कमें खर्च नहीं करना ही पशुओंसे खेतको बचाना है। भगवान् के गुण-प्रभावसहित रूपकी स्मृति और सत्संग-स्वाध्यायको खेतको कुँआ खोदकर सींचते रहना समझना चाहिये। अपने-आप सत्संग प्राप्त होने और ध्यानका अभ्यास चलनेको ईश्वर-कृपासे समयपर स्वत: वर्षा हो जाना समझना चाहिये। दुर्गुणों और दुराचारोंको अपने हृदयसे हटाते रहना यहाँ गेहूँके अतिरिक्त अन्य घास-फूसका निरान करना है। परमात्माके ध्यानकी जमावटको यहाँ गेहूँका फलना तथा स्वार्थी मनुष्योंके द्वारा की जानेवाली साधककी स्तुति-कीर्तिको यहाँ गेहूँको खानेके लिये आनेवाले पक्षियोंकी काकली समझना चाहिये। साधन परिपक्व होनेके लिये स्तुति-कीर्ति तथा स्तुति-कीर्ति करनेवालोंकी अवहेलना करनेको यहाँ खेतीकी रक्षाके लिये पक्षियोंको हटा देना समझना चाहिये एवं सम्पूर्ण दु:खोंका अभाव होकर परमानन्दस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति हो जानेको गेहूँके पक जानेपर उसका ढेर लग जाना समझना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur