पद्मपुराणकी महिमा
शास्त्रोंमें पुराणोंकी बड़ी महिमा है। उन्हें साक्षात् श्रीहरिका रूप बतलाया गया है। जिस प्रकार भगवान् श्रीहरि सम्पूर्ण जगत् को प्रकाश प्रदान करनेके लिये सूर्यका विग्रह धारण करके जगत् में विचर रहे हैं, उसी प्रकार वे सबके हृदयमें प्रकाश करनेके लिये इस जगत् में पुराणोंका रूप धारण करके मनुष्योंके हृदयमें विचर रहे हैं। अत: पुराण परम पवित्र हैं।१
१.यथा सूर्यवपुर्भूत्वा प्रकाशाय चरेद्धरि:।
सर्वेषां जगतामेव हरिरालोकहेतवे॥
तथैवान्त:प्रकाशाय पुराणावयवो हरि:।
विचरेदिह भूतेषु पुराणं पावनं परम्॥
(पद्म० स्वर्ग० ६२। ६०-६१)
जिस प्रकार त्रैवर्णिकोंके लिये वेदोंका स्वाध्याय नित्य करनेकी विधि है, उसी प्रकार पुराणोंका श्रवण भी सबको नित्य करना चाहिये—
‘पुराणं शृणुयान्नित्यम्’ (पद्म० स्वर्ग० ६२। ५८)। पुराणोंमें अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष—चारोंका बहुत ही सुन्दर निरूपण हुआ है और चारोंका एक-दूसरेके साथ क्या सम्बन्ध है—इसे भी भलीभाँति समझाया गया है। श्रीमद्भागवतमें लिखा है—
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृत:॥
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिर्लाभो जीवेत यावता।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभि:॥
(१। २। ९-१०)
‘धर्म तो अपवर्ग (मोक्ष या भगवत्प्राप्ति) का साधक है। धन प्राप्त कर लेना ही उसका प्रयोजन नहीं है। धनका भी अन्तिम साध्य है धर्म, न कि भोगोंका संग्रह। यदि धनसे लौकिक भोगकी ही प्राप्ति हुई तो यह लाभकी बात नहीं मानी गयी है। भोग-संग्रहका भी प्रयोजन सदा इन्द्रियोंको तृप्त करते रहना ही नहीं है; अपितु जितनेसे जीवन-निर्वाह हो सके, उतना ही आवश्यक है। जीवके जीवनका भी मुख्य प्रयोजन भगवत्तत्त्वको जाननेकी सच्ची अभिलाषा ही है, न कि यज्ञादि कर्मोंद्वारा प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि सुखोंकी प्राप्ति।
यह तत्त्व-जिज्ञासा पुराणोंके श्रवणसे भलीभाँति जगायी जा सकती है। इतना ही नहीं, सारे साधनोंका फल है—भगवान् की प्रसन्नता प्राप्त करना। यह भगवत्प्रीति भी पुराणोंके श्रवणसे सहजमें ही प्राप्त की जा सकती है। पद्मपुराणमें लिखा है—
तस्माद्यदि हरे: प्रीतेरुत्पादे धीयते मति:।
श्रोतव्यमनिशं पुम्भि: पुराणं कृष्णरूपिण:॥
(पद्म०, स्वर्ग० ६२। ६२)
‘इसलिये यदि भगवान् को प्रसन्न करनेमें अपनी बुद्धिको लगाना हो तो सभी मनुष्योंको निरन्तर श्रीकृष्णरूपधारी भगवान् के स्वरूपभूत पुराणोंका श्रवण करना चाहिये।’ इसीलिये पुराणोंका हमारे यहाँ इतना आदर रहा है।
वेदोंकी भाँति पुराण भी हमारे यहाँ अनादि माने गये हैं, उनका रचयिता कोई नहीं है। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी भी उनका स्मरण ही करते हैं। पद्मपुराणमें लिखा है—
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्।
(पद्म०, सृष्टि० १। ४५)
इनका विस्तार सौ करोड़ (एक अरब) श्लोकोंका माना गया है—‘शतकोटिप्रविस्तरम्।’ उसी प्रसंगमें यह भी कहा गया है कि समयके परिवर्तनसे जब मनुष्यकी आयु कम हो जाती है और इतने बड़े पुराणोंका श्रवण और पठन एक जीवनमें मनुष्योंके लिये असम्भव हो जाता है, तब उनका संक्षेप करनेके लिये स्वयं सर्वव्यापी हिरण्यगर्भ भगवान् ही प्रत्येक द्वापरयुगमें व्यासरूपसे अवतीर्ण होते हैं और उन्हें अठारह भागोंमें बाँटकर चार लाख श्लोकोंमें सीमित कर देते हैं। पुराणोंका यह संक्षिप्त संस्करण ही भूलोकमें प्रकाशित होता है। कहते हैं स्वर्गादि लोकोंमें आज भी एक अरब श्लोकोंका विस्तृत पुराण विद्यमान है।२
२.कालेनाग्रहणंदृष्ट्वापुराणस्यतदा विभु:।
व्यासरूपस्तदा ब्रह्मा संग्रहार्थंयुगे युगे॥
चतुर्लक्षप्रमाणेन द्वापरे द्वापरे जगौ।
तदाष्टादशधा कृत्वा भूलोकेऽस्मिन् प्रकाशितम्॥
अद्यापि देवलोकेषु शतकोटिप्रविस्तरम्।
(पद्म० सृष्टि० १। ५१—५३)
इस प्रकार भगवान् वेदव्यास भी पुराणोंके रचयिता नहीं, अपितु संक्षेपक अथवा संग्राहक ही सिद्ध होते हैं। इसीलिये पुराणोंको ‘पंचम वेद’ कहा गया है—‘इतिहासपुराणं पंचमं वेदानां वेदम्’ (छान्दोग्योपनिषद् ७।१।२)। उपर्युक्त उपनिषद्वाक्यके अनुसार यद्यपि इतिहास-पुराण दोनोंको ही ‘पंचम वेद’ की गौरवपूर्ण उपाधि दी गयी है, फिर भी वाल्मीकीय रामायण और महाभारत, जिनकी इतिहास संज्ञा है, क्रमश: महर्षि वाल्मीकि तथा वेदव्यासद्वारा प्रणीत होनेके कारण पुराणोंकी अपेक्षा अर्वाचीन ही हैं। इस प्रकार पुराणोंकी पुराणता सर्वापेक्षया प्राचीनता सुतरां सिद्ध हो जाती है। इसीलिये वेदोंके बाद पुराणोंका ही हमारे यहाँ सबसे अधिक सम्मान है; बल्कि कहीं-कहीं तो उन्हें वेदोंसे भी अधिक गौरव दिया गया है। पद्मपुराणमें ही लिखा है—
यो विद्याच्चतुरो वेदान् सांगोपनिषदो द्विज:।
पुराणं च विजानाति य: स तस्माद्विचक्षण:॥
(सृष्टि० २। ५०-५१)
‘जो ब्राह्मण अंगों एवं उपनिषदोंसहित चारों वेदोंका ज्ञान रखता है, उससे भी बड़ा विद्वान् वह है, जो पुराणोंका विशेष ज्ञाता है।’
यहाँ श्रद्धालुओंके मनमें स्वाभाविक ही यह शंका हो सकती है कि उपर्युक्त श्लोकोंमें वेदोंकी अपेक्षा भी पुराणोंके ज्ञानको श्रेष्ठ क्यों बतलाया है। इस शंकाका दो प्रकारसे समाधान किया जा सकता है। पहली बात तो यह है कि उपर्युक्त श्लोकके ‘विद्यात्’ और ‘विजानाति’—इन दो क्रियापदोंपर विचार करनेसे यह शंका निर्मूल हो जाती है। बात यह है कि ऊपरके वचनमें वेदोंके सामान्य ज्ञानकी अपेक्षा पुराणोंके विशिष्ट ज्ञानका वैशिष्टॺ बताया गया है, न कि वेदोंके सामान्य ज्ञानकी अपेक्षा पुराणोंके सामान्य ज्ञानका अथवा वेदोंके विशिष्ट ज्ञानकी अपेक्षा पुराणोंके विशिष्ट ज्ञानका। पुराणोंमें जो कुछ है, वह वेदोंका ही तो विस्तार—विशदीकरण है। ऐसी दशामें पुराणोंका विशिष्ट ज्ञान वेदोंका ही विशिष्ट ज्ञान है और वेदोंका विशिष्ट ज्ञान वेदोंके सामान्य ज्ञानसे ऊँचा होना ही चाहिये। दूसरी बात यह है कि जो बात वेदोंमें सूत्ररूपसे कही गयी है, वही पुराणोंमें विस्तारसे वर्णित है। उदाहरणके लिये परम तत्त्वके निर्गुण-निराकार रूपका तो वेदों (उपनिषदों)-में विशद वर्णन मिलता है, परन्तु सगुण-साकार तत्त्वका बहुत ही संक्षेपमें कहीं-कहीं वर्णन मिलता है। ऐसी दशामें जहाँ पुराणोंके विशिष्ट ज्ञाताको सगुण-निर्गुण दोनों तत्त्वोंका विशिष्ट ज्ञान होगा, वेदोंके सामान्य ज्ञाताको प्राय: निर्गुण-निराकारका ही सामान्य ज्ञान होगा। इस प्रकार उपर्युक्त श्लोककी संगति भलीभाँति बैठ जाती है और पुराणोंकी जो महिमा शास्त्रोंमें वर्णित है, वह अच्छी तरह समझमें आ जाती है। अस्तु,
पुराणोंमें पद्मपुराणका स्थान भी बहुत ऊँचा है। इसे श्रीभगवान् के पुराणरूप विग्रहका हृदयस्थानीय माना गया है—‘हृदयं पद्मसंज्ञकम्’ (पद्म० स्वर्ग० ६२। २)। वैष्णवोंका तो यह सर्वस्व ही है। इसमें भगवान् विष्णुका माहात्म्य विशेषरूपसे वर्णित होनेके कारण ही यह वैष्णवोंको अधिक प्रिय है। परन्तु पद्मपुराणके अनुसार सर्वोपरि देवता भगवान् विष्णु होनेपर भी उनका ब्रह्माजी तथा भगवान् शंकरके साथ अभेद प्रतिपादित हुआ है। उसके अनुसार स्वयं भगवान् विष्णु ही ब्रह्मा होकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं तथा जबतक कल्पकी स्थिति बनी रहती है, तबतक वे भगवान् विष्णु ही युग-युगमें अवतार धारण करके समूची सृष्टिकी रक्षा करते हैं। पुन: कल्पका अन्त होनेपर वे ही अपना तमोलीलात्मक रुद्ररूप प्रकट करते हैं और अत्यन्त भयानक आकार धारण करके सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार करते हैं। इस प्रकार सब भूतोंका नाश करके संसारको एकार्णवके जलमें निमग्नकर वे सर्वरूपधारी भगवान् स्वयं शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं। पुन: जागनेपर महासर्गके आदिमें ब्रह्माका रूप धारण करके वे जीवोंके पूर्वकर्मानुसार फिर नये सिरेसे संसारकी सृष्टि करने लगते हैं। इस तरह एक ही भगवान् जनार्दन सृष्टि, पालन और संहार करनेके कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव नाम धारण करते हैं।१
१-सृष्टिस्थित्यन्तकरणाद् ब्रह्माविष्णुशिवात्मक:।
स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दन:॥
(पद्म०, सृष्टि० २। ११४)
पद्मपुराणमें तो भगवान् श्रीकृष्णके यहाँतक वचन हैं—‘सूर्य, शिव, गणेश, विष्णु और शक्तिके उपासक सभी मुझको ही प्राप्त होते हैं। जैसे वर्षाका जल सब ओरसे समुद्रमें ही जाता है, वैसे ही इन पाँचों रूपोंके उपासक मेरे ही पास आते हैं। वस्तुत: मैं एक ही हूँ। लीलाके अनुसार विभिन्न नाम धारणकर पाँच रूपोंमें प्रकट हूँ। जैसे एक ही देवदत्त नामक व्यक्ति पुत्र-पिता आदि अनेक नामोंसे पुकारा जाता है, वैसे ही लोग मुझको भिन्न-भिन्न नामोंसे पुकारते हैं।’२
२-सौराश्च शैवा गाणेशा वैष्णवा: शक्तिपूजका:।
मामेव प्राप्नुवन्तीह वर्षाप: सागरं यथा॥
एकोऽहं पंचधा जात: क्रीडया नामभि: किल।
देवदत्तो यथा कश्चित् पुत्राद्याह्वाननामभि:॥
(पद्म०, उत्तर० ९०। ६३-६४)
ऐसी ही बातें अन्यान्य पुराणोंमें भी पायी जाती हैं। वैष्णवपुराणोंमें भगवान् विष्णु एवं ब्रह्माको शंकरसे अभिन्न माना गया है। अतएव जो लोग पुराणोंमें साम्प्रदायिकताकी गन्ध पाते हैं, वे वास्तवमें भूल करते हैं—यही प्रमाणित होता है।
पद्मपुराणमें भगवान् विष्णुके माहात्म्यके साथ-साथ भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्णके अवतार-चरित्रों तथा उनके परात्पर रूपका भी विशदरूपसे वर्णन हुआ है। पातालखण्डमें भगवान् श्रीरामके अश्वमेध यज्ञकी कथाका तो बहुत ही विस्तृत और अद्भुत वर्णन है। इतना ही नहीं, उसमें श्रीधाम श्रीअयोध्या और श्रीवृन्दावनका माहात्म्य, श्रीराधा-कृष्ण एवं उनके पार्षदोंका वर्णन, वैष्णवोंकी द्वादशशुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, भगवत्सेवा-अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, तुलसी-वृक्ष तथा भगवन्नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान् के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान् की विशेष आराधनाका वर्णन, मन्त्रचिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन, दीक्षा-विधि, निर्गुण एवं सगुण-ध्यानका वर्णन, भगवद्भक्तिके लक्षण, वैशाख-मासमें माधव-पूजनकी महिमा, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका माहात्म्य, अश्वत्थकी महिमा, भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान, पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासोंमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन, बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा, गंगाकी महिमा, त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा, गोपीचन्दनके तिलककी महिमा, जन्माष्टमीव्रतकी महिमा, सभी महीनोंकी एकादशियोंके नाम तथा माहात्म्य, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति-कथा और महिमाका वर्णन, भगवद्भक्तिकी श्रेष्ठता, वैष्णवोंके लक्षण और महिमा, भगवान् विष्णुके दसों अवतारोंकी कथा, श्रीनृसिंहचतुर्दशीके व्रतकी महिमा, श्रीमद्भगवद्गीताके अठारहों अध्यायोंका अलग-अलग माहात्म्य, श्रीमद्भागवतका माहात्म्य तथा श्रीमद्भागवतके सप्ताह-पारायणकी विधि, नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमा आदि-आदि ऐसे अनेकों विषयोंका समावेश हुआ है, जो वैष्णवोंके लिये बड़े ही महत्त्वके हैं। इसीलिये वैष्णवोंमें पद्मपुराणका विशेष समादर है।
इनके अतिरिक्त सृष्टि-क्रमका वर्णन, युग आदिका काल-मान, ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी सन्तान-परम्पराका वर्णन, देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन, मरुद्गणोंकी उत्पत्ति तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन, पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन, पितरों तथा श्राद्धके विभिन्न अंगोंका वर्णन, श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन, विविध श्राद्धोंकी विधि, चन्द्रमाकी उत्पत्ति, पुष्कर आदि विविध तीर्थोंकी महिमा तथा उन तीर्थोंमें वास करनेवालोंके द्वारा पालनीय नियम आश्रम-धर्मका निरूपण, अन्न-दान एवं दम आदि धर्मोंकी प्रशंसा, नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि, तालाबोंकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि, सत्संगकी महिमा, उत्तम ब्राह्मण तथा गायत्री-मन्त्रकी महिमा, अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, ब्राह्मणोंके जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गो-दानका फल, द्विजोचित आचार तथा शिष्टाचारका वर्णन, पितृ-भक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णु-भक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें पाँच आख्यान, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल, सत्य-भाषणकी महिमा, पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पौंसले चलाने, गोचर-भूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य, रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा, श्रीगंगाजीकी उत्पत्ति, गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल, मनुष्य-योनिमें उत्पन्न हुए दैत्य एवं देवताओंके लक्षण, भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य, भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल, विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन, ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा एवं पापियोंकी मृत्युका वर्णन, नैमित्तिक तथा आभ्युदयिक दानोंका वर्णन, देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म-मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दु:खरूपताका वर्णन, पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन, नरक और स्वर्गमें जानेवाले पुरुषोंका वर्णन, ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम, ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म, स्नातक एवं गृहस्थके धर्मोंका वर्णन, गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान-धर्मका वर्णन, वानप्रस्थ एवं संन्यास-आश्रमके धर्मोंका वर्णन, संन्यासीके नियम, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्मादिके दु:ख तथा हरिभजनकी आवश्यकता, तीर्थ-यात्राकी विधि, माघ, वैशाख तथा कार्तिक मासोंका माहात्म्य, यमराजकी आराधना, गृहस्थाश्रमकी प्रशंसा, दीपावली-कृत्य, गोवर्धन-पूजा तथा यम-द्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन, वैराग्यसे भगवद्भजनमें प्रवृत्ति आदि-आदि अनेकों सर्वोपयोगी तथा सबके लिये ज्ञातव्य एवं धारण करने योग्य विषयोंका वर्णन हुआ है, जिनके कारण पद्मपुराण आस्तिक हिंदूमात्रके लिये परम आदरकी वस्तु है।