निष्कामभावकी महत्ता
जिस प्रकार श्रीभगवान् का नित्य-निरन्तर चिन्तन संसार-सागरसे शीघ्र उद्धार करनेवाला सुगम उपाय बतलाया गया है (गीता १२। ७; ८। १४), इसी प्रकार निष्काम क्रिया भी शीघ्र उद्धार करनेवाली तथा सुगम उपाय है (गीता ५। ६) और निष्कामभावके साथ यदि भगवान् का स्मरण होता रहे तब तो फिर बात ही क्या है। वह तो सोनेमें सुगन्धकी तरह अत्यन्त महत्त्वकी चीज हो जाती है। इससे और भी शीघ्र कल्याण हो सकता है। किंतु भगवान् की स्मृतिके बिना भी यदि कोई मनुष्य फलासक्तिको त्यागकर नि:स्वार्थभावसे चेष्टा करे तो उससे भी उसका कल्याण हो सकता है, बल्कि इसे फलत्यागरहित ध्यानसे भी श्रेष्ठ बतलाया गया है। श्रीभगवान् ने गीतामें कहा है—
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
(१२। १२)
‘(मर्मको न जानकर किये हुए) अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञानसे मुझ परमेश्वरके स्वरूपका ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है।’
अत: यह कोशिश करनी चाहिये कि भगवान् को याद रखते हुए ही सारी चेष्टा निष्कामभावपूर्वक हो। यदि काम करते समय भगवान् की स्मृति न हो सके तो केवल निष्कामभावसे ही मनुष्यका कल्याण हो सकता है। इसलिये निष्कामभावको हृदयमें दृढ़तासे धारण करना चाहिये; क्योंकि निष्कामभावसे की हुई थोड़ी-सी भी चेष्टा संसार-सागरसे उद्धार कर देती है। गीतामें भगवान् कहते हैं—
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
(२। ४०)
‘इस कर्मयोगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है। बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है।’
फिर जो नित्य-निरन्तर निष्कामभावसे क्रिया करनेके ही परायण हो जाय, उसके लिये तो कहना ही क्या है!
इसलिये मनुष्यको तृष्णा, इच्छा, स्पृहा, वासना, आसक्ति, ममता और अहंता आदिका सर्वथा त्याग करके जिससे लोगोंका परम हित हो, उसी काममें अपना तन, मन, धन लगा देना चाहिये।
स्त्री, पुत्र, धन, ऐश्वर्य, मान-बड़ाई आदि अपने पास रहते हुए भी उनकी वृद्धिकी इच्छा करनेको ‘तृष्णा’ कहते हैं। जैसे किसीके पास एक लाख रुपये हैं तो वह पाँच लाख होनेकी इच्छा करता है और पाँच लाख हो जानेपर उसे दस लाखकी इच्छा होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर इच्छाकी वृद्धिका नाम ‘तृष्णा’ है। इसी तरह मान, बड़ाई, पुत्र आदि अन्य चीजोंके सम्बन्धमें समझना चाहिये। यह तृष्णा बहुत ही खराब है, मनुष्यका पतन करनेवाली है।
स्त्री, पुत्र, ऐश्वर्यकी कमीकी पूर्तिके लिये जो कामना होती है, उसका नाम ‘इच्छा’ है। जैसे किसीके पास अन्य सब चीजें तो हैं पर पुत्र नहीं है तो उसके लिये जो मनमें कामना होती है, उसे ‘इच्छा’ कहते हैं।
पदार्थोंकी कमीकी पूर्तिकी इच्छा तो नहीं होती, पर जो बहुत आवश्यकतावाली वस्तुके लिये कामना होती है, जिसके बिना निर्वाह होना कठिन है, उसका नाम ‘स्पृहा’ है। जैसे कोई मनुष्य भूखसे पीड़ित है अथवा शीतसे कष्ट पा रहा है तो उसे जो अन्न अथवा वस्त्रकी विशेष आवश्यकता है और उसकी पूर्तिकी जो इच्छा है, उसको ‘स्पृहा’ कहते हैं।
जिसके मनमें ये तृष्णा, इच्छा, स्पृहा तो नहीं हैं, पर यह बात मनमें रहती है कि और तो किसी चीजकी आवश्यकता नहीं है, पर जो वस्तुएँ प्राप्त हैं, वे बनी रहें और मेरा शरीर बना रहे, ऐसी इच्छाका नाम ‘वासना’ है।
उपर्युक्त कामनाओंमें पूर्व-पूर्वसे उत्तर-उत्तरवाली कामना सूक्ष्म और हलकी है तथा सूक्ष्म और हलकीका नाश होनेपर स्थूल और भारीका नाश उसके अन्तर्गत ही है। जिसमें उपर्युक्त तृष्णा, इच्छा, स्पृहा, वासना आदि किसी प्रकारकी भी कामना नहीं, वही निष्कामी है।
इन सम्पूर्ण कामनाओंकी जड़ आसक्ति है। शरीर, विषयभोग, स्त्री, पुत्र, धन, मकान, ऐश्वर्य, आराम, मान, कीर्ति आदिमें जो प्रीति—लगाव है, उसका नाम ‘आसक्ति’ है। शरीर और संसारके पदार्थोंमें ‘यह मेरा है’ ऐसा भाव होना ही ‘ममता’ है। इस आसक्ति और ममताका जिसमें अभाव है, वही परम विरक्त वैराग्यवान् पुरुष है। ममता और आसक्तिका मूल कारण है—अहंता। स्थूल, सूक्ष्म या कारण—किसी भी देहमें, जो कि अनात्मवस्तु है, इस प्रकार आत्माभिमान करना कि देह मैं हूँ—यह ‘अहंता’ है। इसके नाशसे सारे दोषोंका नाश हो जाता है अर्थात् समस्त दोषोंकी मूलभूत अहंताका नाश होनेपर आसक्ति, ममता आदि सभीका विनाश हो जाता है। अहंकारमूलक ये जितने भी दोष हैं, उन सबका मूल कारण है—अज्ञान (अविद्या)। वह अज्ञान हमलोगोंकी प्रत्येक क्रिया और सम्पूर्ण पदार्थोंमें पद-पदपर इतना व्यापक हो गया है कि हम उससे भूले हुए संसार-चक्रमें ही भटक रहे हैं। उस अज्ञानका नाश परमात्माके यथार्थ ज्ञानसे होता है। परमात्माका वह यथार्थ ज्ञान होता है अन्त:करणके शुद्ध होनेसे। हमलोगोंके अन्त:करण राग-द्वेष आदि दुर्गुण और झूठ, कपट, चोरी आदि दुराचाररूप मलसे मलिन हो रहे हैं। इस मलको दूर करनेका उपाय है—ईश्वरकी उपासना या निष्कामकर्म।
हमलोगोंमें स्वार्थकी अधिकता होनेके कारण प्रत्येक कार्य करते समय पद-पदपर स्वार्थका भाव जाग्रत् हो जाता है। पर कल्याण चाहनेवाले मनुष्यको ईश्वर, देवता, ऋषि, महात्मा, मनुष्य और किसी भी जंगम या स्थावर प्राणीसे अथवा जड पदार्थोंसे अपने व्यक्तिगत स्वार्थकी इच्छा कभी नहीं रखनी चाहिये। जब-जब चित्तमें स्वार्थकी भावना आवे, तभी उसको तुरंत हटाकर उसके बदले हृदयमें इस भावकी जागृति पैदा करनी चाहिये कि सबका हित किस प्रकार हो। जैसे कोई अर्थका दास लोभी मनुष्य दूकान खोलनेसे लेकर दूकान बंद करनेके समयतक प्रत्येक काम करते हुए यही इच्छा और चेष्टा करता रहता है कि रुपया कैसे मिले, धनसंग्रह कैसे हो, इसी प्रकार कल्याणकामी पुरुषको प्रत्येक क्रियामें यह भावना रखनी चाहिये कि संसारका हित कैसे हो। जो मनुष्य अपने कल्याणकी भी इच्छा न रखकर अपना कर्तव्य समझकर लोकहितके लिये अपना तन, मन, धन लगा देता है, वही असली स्वार्थत्यागी निष्कामी श्रेष्ठ पुरुष है।
किंतु दु:खकी बात है कि स्वार्थके कारण हमलोग अज्ञानसे इतने अंधे हो रहे हैं कि निष्कामभावसे दूसरोंका हित करना तो दूर रहा, बल्कि दूसरोंसे अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं और करते हैं। जितनी स्वार्थपरता इस समय देखनेमें आ रही है, उतनी तो इससे कुछ काल पूर्व भी नहीं थी। फिर द्वापर, त्रेता और सत्ययुगकी तो बात ही क्या! इस समय तो स्वार्थसिद्धिके लिये मनुष्य झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी, विश्वासघात आदि करनेसे भी बाज नहीं आते तथा अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये ईश्वर और धर्मको भी छोड़ बैठते हैं। भला, ऐसी परिस्थितिमें मनुष्यका कल्याण कैसे हो सकता है!
जो दूसरेका हक (स्वत्व) है, उसमें स्वाभाविक ही ग्लानि होनी चाहिये। पर हमारी तो ग्लानि न होकर हर प्रकारसे उसे हड़पनेकी ही चेष्टा रहती है। यह बहुत बुरी आदत है। दूसरेके हकको सदा त्याज्यबुद्धिसे देखना चाहिये। उसे ग्रहण करना तो दूर रहा, पर-स्त्रीके स्पर्शकी तरह उसके स्पर्शको भी पाप समझना चाहिये। जो मनुष्य पर-स्त्री और पर-धनका अपहरण करते हैं या उनकी इच्छा करते हैं तथा पर-अपवाद करते हैं, उनका कल्याण कहाँ, उनके लिये तो नरकमें भी ठौर नहीं है।
आजकल व्यापारमें भी इतनी धोखेबाजी बढ़ गयी है कि हमलोग दूसरेका धन हड़पनेके लिये हर समय तैयार रहते हैं। इसको हम चोरी कहें या डकैती। कई आदमी जब अपना माल बेचते हैं तो वजन आदिमें कम देना चाहते हैं। पाट, सुपारी, रूई, ऊन आदि बिक्रीकी चीजोंको जलसे भिगोकर उसे भारी बना देते हैं तथा बेचते समय हरेक वस्तुको वजन, नाप और संख्यामें हर प्रकारसे कम देनेकी ही चेष्टा करते हैं; पर माल खरीदते समय स्वयं वजन, नाप और संख्यामें अधिक-से-अधिक लेनेकी चेष्टा करते हैं एवं बेचते समय नमूना दूसरा ही दिखलाते हैं चीज दूसरी ही देते हैं। एक चीजमें दूसरी चीज मिला देते हैं—जैसे घीमें बेजिटेबल, नारियलके तैलमें किरासिन, दालमें मिट्टी इत्यादि। इस प्रकार हर तरीकेसे धोखा देकर स्वार्थ-सिद्धि करते हुए अपना परलोक बिगाड़ते हैं। कोई-कोई तो व्यापारी, सरकार, रेलवे या मिलिटरीके किसी भी मालको उठानेका अवसर पाते हैं तो धोखा देनेकी चेष्टा करते हैं। उनसे माल खरीदते तो हैं थोड़ा और उनके कर्मचारियोंसे मिलकर जितना माल खरीद करते हैं उससे बहुत अधिक माल उठा लेते हैं। यह सरासर चोरी है। यह बहुत अन्यायका काम है। इस अनर्थसे सर्वथा बचना चाहिये।
अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्यको अपनी समस्त क्रिया निष्काम- भावसे ही करनी चाहिये। ईश्वर-देवता, ऋषि-मुनि, साधु-महात्माओंका पूजा-सत्कार तथा यज्ञ-दान, जप-तप, तीर्थ-व्रत, अनुष्ठान एवं पूजनीय पुरुष और दु:खी, अनाथ, आतुर प्राणियोंकी सेवा आदि कोई भी धार्मिक कार्य हो, उसे कर्तव्य समझकर ममता, आसक्ति और अहंकारसे रहित होकर निष्कामभावसे करना चाहिये, किसी प्रकारकी कामनाकी सिद्धिके लिये या संकट-निवारणके लिये नहीं। यदि कहीं लोक-मर्यादामें बाधा आती हो तो राग-द्वेषसे रहित होकर लोक-संग्रहके लिये काम्य-कर्म कर लें तो वह सकाम नहीं है।
उपर्युक्त धार्मिक कार्योंको करनेके पूर्व ऐसी इच्छा करना कि अमुक कामनाकी सिद्धि होनेपर अमुक अनुष्ठानादि कार्य करेंगे तो उसकी अपेक्षा वह अच्छा है जो उन धार्मिक कार्योंके करनेके समय ही इच्छित कामनाका उद्देश्य रखकर करता है और उससे वह श्रेष्ठ है जो धार्मिक कार्योंको सम्पादन करनेके बाद उक्त ईश्वर, देवता, महात्मा आदिसे प्रार्थना करता है कि मेरा यह कार्य सिद्ध करें तथा उसकी अपेक्षा वह श्रेष्ठ है कि जो किसी कामनाकी सिद्धिका उद्देश्य लेकर तो नहीं करता पर कोई आपत्ति आनेपर उसके निवारणके लिये उससे कामना कर लेता है। इसकी अपेक्षा भी वह श्रेष्ठ है जो आत्माके कल्याणके लिये धार्मिक अनुष्ठानादि करता है और वह तो सबसे श्रेष्ठ है जो केवल निष्कामभावसे कर्तव्य समझकर करता है तथा बिना माँगे भी वे कोई पदार्थ दें तो लेता नहीं। हाँ, यदि केवल किसीकी प्रसन्नताके लिये राग-द्वेषसे शून्य होकर लेना पड़े तो उसमें कोई दोष नहीं है।
इसी प्रकार जड पदार्थोंसे भी कभी कोई स्वार्थसिद्धिकी कामना नहीं करनी चाहिये। जैसे बीमारीकी निवृत्तिके लिये शास्त्रविहित औषध, क्षुधाकी निवृत्तिके लिये अन्न, प्यासकी निवृत्तिके लिये जल और शीतकी निवृत्तिके लिये वस्त्र आदिका सेवन करनेमें अनुकूलता-प्रतिकूलता होनी स्वाभाविक है, पर उनमें भी राग-द्वेष और हर्ष-शोकसे शून्य होकर निष्कामभावसे ही उनका सेवन करना चाहिये। यदि कहीं अनुकूलतामें प्रीति और हर्ष तथा प्रतिकूलतामें द्वेष और शोक उत्पन्न हों तो समझना चाहिये कि उसके अंदर छिपी हुई कामना है।
किसी प्रकार भी किसीकी कभी सेवा स्वीकार नहीं करनी चाहिये; अपितु अपनेसे बने जहाँतक तन, मन, धन आदि पदार्थोंसे दूसरोंकी सेवा करना उचित है; किंतु किसीसे सेवा करानी तो कभी नहीं चाहिये। यदि रोगग्रस्त-अवस्था आदि आपत्तिकालके समय स्त्री, पुत्र, नौकर, मित्र, बन्धु-बान्धव आदिसे सेवा न करानेपर उनको दु:ख हो तो ऐसी हालतमें उनके सन्तोषके लिये कम-से-कम सेवा करा लेना भी कोई सकाम नहीं है।
लोग दहेज लेनेके समय अधिक-से-अधिक लेनेकी चेष्टा करते हैं और यदि देनेवाले इच्छानुसार दहेज नहीं देते तो उनका सम्बन्ध-त्याग कर देते हैं। एक प्रकारसे देखा जाय तो दहेज एक प्रतिग्रह ही है। उसे प्रतिग्रह समझकर अधिक-से-अधिक उसका त्याग करना चाहिये। दहेज आदि देनेकी इच्छा तो रखनी चाहिये; पर लेनेकी नहीं। जहाँ किसीसे न लेनेमें वह नाराज हो तो उसके सन्तोषके लिये कम-से-कम स्वीकार करनेमें कोई सकामता नहीं है।
इसी प्रकार किसी भी संस्था या व्यक्तिसे कभी किसी भी प्रकार कुछ भी नहीं लेना चाहिये। यदि लेना ही पड़े तो लेनेसे पूर्व, लेते समय या लेनेके बाद उसके बदलेमें जितनी चीज उससे ली हो, उससे अधिक मूल्यकी चीज किसी भी प्रकार देनेकी चेष्टा रखनी चाहिये।
पूर्वके जमानेमें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासीकी तो बात ही क्या, गृहस्थीको भी किसी चीजके लिये किसीसे याचना नहीं करनी पड़ती थी; बिना ही माँगे खर्च, विवाह आदिके अवसरोंपर मित्र, बन्धु-बान्धव, सगे-सम्बन्धी लोग आवश्यकतानुसार चीजें पहुँचा दिया करते थे और इसमें वे अपना अहोभाग्य समझते थे। यदि उनके पास कोई चीज नहीं होती तो वे दूसरे जान-पहचानवालोंसे लेकर भेज देते थे। इससे किसीको भी अपने लिये याचना नहीं करनी पड़ती थी। इसमें स्वार्थका त्याग ही प्रधान कारण है।
इसलिये हमलोग भी सबके साथ नि:स्वार्थभावसे उदारतापूर्वक त्यागका व्यवहार करें तो हमारे लिये आज भी सत्ययुग मौजूद है अर्थात् पूर्वकालकी भाँति हमारा भी काम बिना याचनाके चल सकता है। अत: हमको किसी चीजकी याचना नहीं करनी चाहिये और बिना याचना किये ही कोई दे जाय—ऐसी इच्छा या आशा भी नहीं रखनी चाहिये तथा ऐसी इच्छा न रहते हुए भी यदि कोई दे जाय तो उसको रख लेनेकी इच्छा भी कामना ही है। इस प्रकारकी कामना न रहते हुए भी कोई आग्रहपूर्वक दे जाय तो उसे स्वीकार करते समय जो चित्तमें स्वार्थको लेकर प्रसन्नता होती है, वह भी छिपी हुई कामना ही है। इसलिये भारी-से-भारी आपत्ति पड़नेपर भी अपने व्यक्तिगत स्वार्थकी सिद्धिके लिये दूसरेकी सेवा और स्वत्वको स्वीकार नहीं करना चाहिये, अपने निश्चयपर डटे रहना चाहिये। धैर्यका कभी त्याग नहीं करना चाहिये, चाहे प्राण भी क्यों न चले जायँ, फिर इज्जत और शारीरिक कष्टकी तो बात ही क्या है! किंतु हमलोगोंमें इतनी कमजोरी आ गयी कि थोड़ा-सा भी कष्ट प्राप्त होनेपर अपने निश्चयसे विचलित हो जाते हैं। कामनाकी तो बात ही क्या, साधारणसे कार्यके लिये ही याचनातक कर बैठते हैं। ऐसी हालतमें निष्काम कर्मकी सिद्धि कैसे सम्भव है!
याद रखना चाहिये कि ब्रह्मचारी और संन्यासी भिक्षाके लिये भोजनकी याचना करें तो वह याचना उनके लिये सकाम नहीं है। ब्रह्मचारी तो गुरुके लिये ही भिक्षा माँगता है और गुरु उस लायी हुई भिक्षामेंसे जो कुछ उसे दे देता है, उसे ही वह प्रसाद समझकर पा लेता है तथा संन्यासी अपने और गुरुके लिये अथवा गुरु न हों तो केवल अपने लिये भी भिक्षा माँग सकता है; क्योंकि भिक्षा माँगना उनका धर्म बतलाया गया है और यदि कोई बिना माँगे भिक्षा दे देता है तो स्वीकार करना उनके लिये अमृतके तुल्य है। इस प्रकार माँगकर लायी हुई और बिना माँगे स्वत: प्राप्त हुई भिक्षा भी राग-द्वेषसे रहित होकर ही लेनी चाहिये।
जहाँ विशेष आदर-सत्कार, पूजाभावसे भिक्षा मिलती हो, वहाँ भिक्षा नहीं लेनी चाहिये; क्योंकि वहाँ भिक्षा लेनेसे अभिमानके बढ़नेकी गुंजाइश है तथा जहाँ अनादरसे भिक्षा दी जाती हो, वहाँ भी नहीं लेनी चाहिये; क्योंकि वहाँ दाता क्लेशपूर्वक देता है। अत: वह ग्राह्य नहीं है। इसलिये मान-अपमान और निन्दा-स्तुतिसे तथा भोजनमें यह बुरा है, यह भला है—इस प्रकार अनुकूलमें राग और प्रतिकूलमें द्वेषसे शून्य होकर प्राप्त की हुई भिक्षा अमृतके समान है। इसमें भी जो पदार्थ शास्त्रके विपरीत हों, उनका त्याग कर देना चाहिये। जैसे कोई मदिरा, मांस, अंडे, लहसुन, प्याज आदि भिक्षामें दे तो उन्हें शास्त्रनिषिद्ध समझकर उनका त्याग करना ही उचित है। एवं कोई घी, दूध, मेवा, मिष्टान्न देता है तो शास्त्र और स्वास्थ्यके अनुकूल होते हुए भी वैराग्यके कारण मनके विपरीत लगनेवाली इन चीजोंका त्याग करना भी कोई दोष नहीं है। ब्रह्मचारी और संन्यासीको विशेष आवश्यकता पड़नेपर कौपीन, कमण्डलु और शीत-निवारणार्थ वस्त्रकी याचना करनेमें भी कोई दोष नहीं है।
वानप्रस्थीके लिये तप, अनुष्ठान आदि, ब्राह्मणके लिये यज्ञ कराना, विद्या पढ़ाना आदि; क्षत्रियके लिये प्रजाकी रक्षा और न्यायसे प्राप्त युद्ध* आदि; वैश्यके लिये कृषि, वाणिज्य आदि तथा स्त्रियों और शूद्रोंके लिये सेवा-शुश्रूषा आदि सभी जो शास्त्रविहित कर्म हैं, उनके सम्पन्न होने या न होनेमें तथा उनके फलमें राग-द्वेष और हर्ष-शोकसे रहित होकर उनका निष्कामभावसे आचरण करना चाहिये।
* श्रीभगवान् गीतामें कहते हैं—
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
(२। ३८)
‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान समझकर, उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा।’
यदि कहीं उनकी सिद्धिसे प्रीति या हर्ष और असिद्धिसे द्वेष या शोक होते हैं तो समझना चाहिये की उसके अंदर छिपी हुई कामना विद्यमान है।
इसलिये मनुष्यको सम्पूर्ण कामना, आसक्ति, ममता और अहंकारको त्यागकर केवल लोकोपकारके उद्देश्यसे निष्कामभावपूर्वक शास्त्रविहित समस्त कर्मोंका कर्तव्य-बुद्धिसे आचरण करना चाहिये। इस प्रकार करनेसे उसमें दुर्गुण-दुराचारोंका अत्यन्त अभाव होकर स्वाभाविक ही विवेक-वैराग्य, श्रद्धा-विश्वास, शम-दम आदि सद्गुणोंकी वृद्धि हो जाती है तथा उसका अन्त:करण शुद्ध होकर उसमें इतनी निर्भयता आ जाती है कि भारी-से-भारी संकट पड़नेपर भी वह किसी प्रकार कभी विचलित नहीं होता, अपितु धीरता, वीरता, गम्भीरताका असीम सागर बन जाता है एवं परम शान्ति और परम आनन्दस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है।