Seeker of Truth

निर्गुण-निराकारका ध्यान

दृश्यका बाध

जो कुछ भी दृश्यमात्र है, वह सब मायामय है, स्वप्नवत् है। जैसे स्वप्नसे जगनेके बाद स्वप्नके संसारका नाम-निशान नहीं है, उससे भी बढ़कर इसका अत्यन्त अभाव है। स्वप्नका संसार स्वप्नसे जगनेके बाद काल्पनिक सत्ताको लिये हुए है अर्थात् कल्पनामात्र है। किन्तु परमात्माके स्वरूपमें जगनेके बाद अर्थात् परमात्माका साक्षात्कार होनेके बाद यह संसार कल्पनामात्र भी नहीं है। क्योंकि स्वप्नमें जो संसार जिन मन-बुद्धिमें प्रतीत हुआ था, जगनेके बाद वही मन-बुद्धि हैं, पर उन मन-बुद्धिमें स्वप्नके संसारकी कोई सत्ता कायम नहीं है, इसलिये वह सत्ता कल्पना मानी गयी है। परमात्माकी प्राप्ति होनेके उत्तरकालमें तो ये मन-बुद्धि मायिक होनेके कारण यहीं—इस मायामय शरीरमें ही रह जाते हैं। इसलिये परमात्माके स्वरूपमें इस संसारका अत्यन्त अभाव है। परन्तु जिस व्यक्तिको लोग परमात्माकी प्राप्ति हुई मानते हैं, उस व्यक्तिके अन्त:करणमें यह संसार स्वप्नवत् है—ऐसा शास्त्र कहते हैं। अत: साधक पुरुषको उचित है कि संसारको मायामात्र, स्वप्नवत्, आकाशमें प्रतीत होनेवाले तिरवरोंकी भाँति अथवा मरुमरीचिकाकी तरह वास्तवमें कोई पदार्थ है नहीं, केवल प्रतीति होती है—ऐसा समझकर उसका मनसे कतई त्याग कर दे अथवा यों कहिये कि संकल्परहित हो जाय, स्फुरणारहित हो जाय, संसारको भुला दे।

किसी कविने कहा है—

मन फुरनासे रहित कर, जौनहि बिधिसे होय।
चाहे भक्ति चाहे ज्ञानसे, चाहे योगसे खोय॥

अद्वैत-सिद्धान्तका सार यह है कि एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके सिवा कुछ भी न हुआ है, न है। तीनों कालोंमें इस दृश्यका तथा उन तीनों कालोंका भी अत्यन्त अभाव समझकर एक नित्य विज्ञान-आनन्दघन परमात्मामें तन्मय हो रहना चाहिये।

परमात्माके स्वरूपका प्रतिपादन

परमात्मा सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है। ये तीनों परमात्माके स्वरूप हैं। ये विशेषण नहीं हैं; क्योंकि यहाँ विशेषण और विशेष्यका भेद नहीं है। ये उनके गुण भी नहीं हैं, क्योंकि परमात्मामें गुण और गुणीका भेद नहीं है और न ये उनके धर्म ही हैं; क्योंकि उनमें धर्म और धर्मीका भी भेद नहीं है।

सत्—

हमलोगोंको सत् एक दूसरी वस्तु प्रतीत होती है, चित् एक दूसरी वस्तु प्रतीत होती है और आनन्द एक और ही वस्तु प्रतीत होती है; पर बात ऐसी नहीं है। जो सत् है, वही चेतन है और जो चेतन है, वही आनन्द है। या यों कहिये कि जो चेतन है, वही सत् है और जो सत् है, वही आनन्द है अथवा यों कहिये कि जो आनन्द है, वही चेतन है और जो चेतन है, वही सत् है। जिस सत् को हमलोग सत् मानते हैं, वह सत् वास्तवमें परमात्माका स्वरूप नहीं है; क्योंकि परमात्माका स्वरूप उस सत् से विलक्षण है।

गीतामें कहा है—

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥
(१३। १२)

‘जो जाननेयोग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्दको प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह आदिरहित परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही।’

बुद्धिके द्वारा समझमें आनेवाली सत्ता मायिक सत्ता है। इसलिये वह मायाका ही कार्य है। साधक पुरुषको उसमें परमात्मबुद्धि करनेसे परमात्माकी प्राप्ति तो हो जाती है, किन्तु वास्तवमें वह सत् परमात्माका स्वरूप नहीं है; क्योंकि यह बुद्धि मायाका कार्य होनेसे मायातीत परमात्माका लक्ष्य नहीं कर सकती। उस सत् को बुद्धिविशिष्ट परमात्माका स्वरूप कहा जा सकता है, केवल निर्विशेष परमात्माका स्वरूप नहीं।

चेतन—

जिस चेतनको हमलोग चेतन समझते हैं, वह चेतन भी वास्तवमें परमात्मा-स्वरूप नहीं है। उससे भी परमात्माका स्वरूप अत्यन्त विलक्षण है। इसलिये गीतामें कहा है—

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥
(१३। १७)

‘वह ब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायासे अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जाननेके योग्य एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य है और सबके हृदयमें विशेषरूपसे स्थित है।’

नेत्र आदि ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जो ज्योतियाँ प्रतीत होती हैं इनसे तो बुद्धिके द्वारा समझमें आनेवाली ज्योतियाँ विलक्षण हैं अर्थात् प्रकाश आदिकी अपेक्षा विवेक और ज्ञान श्रेष्ठ है। उससे भी विलक्षण वह है जो चेतन आत्माके द्वारा चिन्मय वस्तु समझमें आती है; क्योंकि बुद्धि नेत्र और नेत्रोंके विषयको जानती है पर नेत्र बुद्धि या बुद्धिके विषयको नहीं समझ सकते। इसी प्रकार आत्मा बुद्धि और बुद्धिके विषयको जानता है, पर बुद्धि आत्माको नहीं जान सकती। यद्यपि आत्मा भी, जो अपने स्वरूपको जानता है, वह शुद्ध एवं सूक्ष्म हुई बुद्धिके द्वारा जानता है।

कठोपनिषद्‍में कहा है—

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रॺया बुद्‍ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥
(१। ३। १२)

‘सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें छिपा हुआ यह आत्मा सबको प्रतीत नहीं होता, परन्तु यह सूक्ष्म बुद्धिवाले महात्मा पुरुषोंसे तीक्ष्ण और सूक्ष्म बुद्धिके द्वारा ही देखा जाता है।’

किन्तु बुद्धिके द्वारा भी जो आत्माका स्वरूप जाननेमें आता है, वह बुद्धिविशिष्ट परमात्माका स्वरूप है, केवल निर्विशेषस्वरूप तो उससे भी विलक्षण है, जो किसी प्रकार बुद्धिके द्वारा जाना नहीं जा सकता।

उपनिषद् में कहा है—

‘........... येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयात् स एष नेति नेत्यात्मागृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हिशीर्यतेऽसङ्गो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यति विज्ञातारमरे केन विजानीयात्...........।’

(बृह० ४। ५। १५)

‘जिससे इन सबको जानता है, उसको किससे जाना जाय? वह ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है; आत्मा है; अगृह्य है, ग्रहण नहीं किया जाता; अशीर्य है, घिसता नहीं है; असंग है, आसक्त नहीं होता; असित है, व्यथाको प्राप्त नहीं होता; उसका विनाश नहीं होता। अरे, उस जाननेवालेको किसके द्वारा जाना जाय?’

जाननेमें आनेवाले सारे (ज्ञेय) पदार्थ बुद्धिके ही कार्य हैं। उससे ज्ञान सूक्ष्म और महान् है तथा बुद्धिका कार्य करते हुए भी बुद्धिका स्वरूप ही है। उस ज्ञानसे भी ज्ञाता अनन्त है और वह बुद्धिसे अत्यन्त विलक्षण है। अभिप्राय यह कि ज्ञेयकी अपेक्षा ज्ञान व्यापक, श्रेष्ठ, उत्तम, सूक्ष्म, चेतन और अनन्त है। पातंजलयोगदर्शनमें भी कहा है—

‘तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम्।’
(४। ३१)

‘क्लेश और कर्मकी निवृत्ति होनेपर सम्पूर्ण आवरणरूप मलके दूर होनेसे ज्ञानकी अनन्ततामें ज्ञेय अल्प है।’

तथा ज्ञानकी अपेक्षा आत्मा (ज्ञाता) सूक्ष्म, चेतन, आनन्दरूप, महान् और विलक्षण है। यह जो आत्माका स्वरूप वर्णन किया गया है, इससे भी वह परमात्माका निर्विशेष स्वरूप अत्यन्त विलक्षण है। वह जाननेमें नहीं आ सकता, क्योंकि वहाँ ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयरूप त्रिपुटी नहीं है। वह प्रापणीय वस्तु है।

आनन्द—

जिस आनन्दको हमलोग आनन्द समझते हैं, वह आनन्द भी वास्तवमें परमात्माका स्वरूप नहीं है; क्योंकि उससे परमात्माका आनन्द-स्वरूप अत्यन्त विलक्षण है।

गीतामें कहा है—

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥
(५। २१)

‘बाहरके विषयोंमें आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योगमें अभिन्नभावसे स्थित पुरुष अक्षय-आनन्दका अनुभव करता है।’

निद्रा, आलस्य आदिसे उत्पन्न सुख तो तामसी है। उससे तो इन्द्रिय और विषयोंके संयोगसे होनेवाला सुख राजसी होनेसे श्रेष्ठ है। एवं अध्यात्मविषयसे प्राप्त हुआ ध्यानजनित सात्त्विक सुख उससे भी श्रेष्ठ है; किन्तु परमात्माका जो आनन्दमय स्वरूप बतलाया गया है, वह इन सबसे विलक्षण है। निद्रा, आलस्यसे होनेवाले सुख से तो वह राजसी सुख इसलिये श्रेष्ठ है कि उसमें तो ज्ञान नहीं रहता और इसमें ज्ञान रहता है। तथा विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे उत्पन्न जो राजस सुख है, वह क्षणिक, नाशवान् एवं परिणाममें दु:खका हेतु है तथा सात्त्विक सुख उसकी अपेक्षा स्थायी और परिणाममें अमृत-तुल्य है। इसलिये अध्यात्मविषयक सात्त्विक सुखकी दृष्टिसे राजस सुख भी हेय—त्याज्य है। किन्तु परमात्माके स्वरूपकी दृष्टिसे तो ध्यानजनित अध्यात्मविषयक सात्त्विक सुख भी अपेक्षाकृत निम्न श्रेणीका है। इसलिये उसकी दृष्टिसे यह भी त्याज्य है। गीतामें बतलाया है—

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ॥
(१४। ६)

‘हे निष्पाप! उन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण तो निर्मल होनेके कारण प्रकाश करनेवाला और विकाररहित है, वह सुखके सम्बन्धसे और ज्ञानके सम्बन्धसे अर्थात् अभिमानसे बाँधता है।’

ध्यानजनित सुख भी देश-कालसे सीमित होने और बुद्धिका विषय होनेके कारण जड, अल्प और अनित्य है।

जाननेवाला चेतन होता है, जाननेमें आनेवाली वस्तु जड होती है। जाननेमें अल्प चीज ही आती है और जो अल्प होती है, वह देश-कालसे सीमित ही होती है; किन्तु वह परमात्मा देश-कालसे रहित है। इसलिये परमात्माका आनन्दस्वरूप इन सबसे विलक्षण है।

उस लौकिक आनन्दका भान उस आनन्दको नहीं होता, उसका जाननेवाला कोई दूसरा ही होता है; किन्तु परमात्माका स्वरूपभूत जो आनन्द है, उसे स्वयं अपने-आपका ज्ञान है, वह दूसरेका विषय नहीं हो सकता, इसलिये वह चेतन है और वह देश-कालसे अतीत है, इसलिये नित्य है। किन्तु इस प्रकारसे समझे हुए परमात्माके स्वरूपसे भी वह परमात्माका निर्विशेष स्वरूप अत्यन्त विलक्षण है; जिसका वर्णन किया गया है, यह भी बुद्धिविशिष्ट परमात्माका ही स्वरूप है। बुद्धिविशिष्ट परमात्माके स्वरूपको भी सूक्ष्म और शुद्ध हुई बुद्धिद्वारा समझा जा सकता है। इसीको बुद्धिग्राह्य, अतीन्द्रिय कहा है।

भगवान् कहते हैं—

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥
(गीता ६। २१)

‘इन्द्रियोंसे अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस अवस्थामें स्थित वह कभी परमात्माके स्वरूपसे विचलित होता ही नहीं।’

वह जो परमात्माका निर्विशेष स्वरूप है, उसका तो वर्णन विधि या निषेध—किसी भी प्रकारसे नहीं हो सकता; किन्तु फिर भी वेद और शास्त्र जिसे लक्ष्यकर जिसकी व्याख्या करते हैं, उसे ध्येय बनाकर मनुष्य साधन करता है तो शाखाचन्द्रन्यायकी भाँति वह उस परमात्माको प्राप्त हो जाता है। शाखाचन्द्रन्यायका अभिप्राय यह है कि द्वितीयाका चन्द्रमा किसी एकको दीख गया और दूसरे आदमीको दीखा नहीं। जिसको दीखता है, वह पुरुष दूसरेको एक वृक्षकी शाखाको लक्ष्य बनाकर यों समझाता है कि चन्द्रमा उस वृक्षकी शाखासे ठीक चार अंगुल ऊपर है। एक तीसरे आदमीको समझाता है कि चन्द्रमा उस मकानके कोनेसे सटा हुआ है। असलमें विचार किया जाय तो दोनों ही बातें गलत हैं; किन्तु इस प्रणालीसे उन्हें चन्द्रदर्शन हो जाता है। इसी प्रकार परमात्माकी प्राप्तिके लिये जितने साधन बतलाये गये हैं और परमात्माका जो स्वरूप बतलाया गया है, उसको लक्ष्य बनाकर साधक पुरुष परमात्माकी प्राप्तिका साधन करनेसे परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है।

परमात्मा जो साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण, व्यक्त-अव्यक्त-स्वरूप बतलाया गया है, वह सब ठीक भी है, बेठीक भी। क्योंकि साधु-महात्माओंने, वेद-शास्त्रोंने परमात्माके स्वरूपके विषयमें जो वर्णन किया है, उसको लक्ष्य बनाकर साधन करनेपर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। इसलिये तो वह बतलाना ठीक है और वास्तवमें शब्दोंके द्वारा जो परमात्माके स्वरूपकी व्याख्या की गयी है, उससे परमात्मा अत्यन्त विलक्षण है; क्योंकि परमात्माके स्वरूपका वर्णन वाणीद्वारा हो ही नहीं सकता।

अतएव निराकारका ध्यान करनेवाले पुरुषोंको शास्त्रोंमें वर्णित परमात्माके स्वरूपको लक्ष्यकर किसी भी विधिसे तत्परतापूर्वक साधन करना चाहिये, इससे स्वत: वास्तविक स्वरूपकी प्राप्ति हो सकती है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur