निर्गुण-निराकार ब्रह्मकी उपासना
वास्तवमें तो केवल निर्गुण-निराकार ब्रह्मकी उपासना हो ही नहीं सकती। क्योंकि जो उपासनाके योग्य लक्ष्य बनाया जाता है, वह किसी लक्षण या गुणके आधारके बिना नहीं हो सकता। ध्यान करनेके योग्य ध्येय-तत्त्व चाहे कितना ही सूक्ष्मतम क्यों न बनाया जाय, वास्तवमें निर्गुण-निराकार ब्रह्मका स्वरूप तो वस्तुत: उससे भी अत्यन्त विलक्षण है; किंतु जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती तबतक उसकी प्राप्तिके लिये कुछ-न-कुछ लक्ष्य बनाकर ही उपासना करनी पड़ती है। कैसा भी सूक्ष्मसे सूक्ष्मतम लक्ष्य क्यों न हो, आखिर वह है तो चेतन विशिष्ट बुद्धिकी वृत्ति ही। अर्थात् बुद्धिकी वृत्तिसे जो लक्ष्य बनाकर ध्यान किया जाता है, वह बुद्धि-विशिष्ट ब्रह्मका ही ध्यान होता है, निर्विशेष ब्रह्मका नहीं।
उपर्युक्त उपासनाका जो अन्तिम फल है अर्थात् उसके द्वारा जो प्रापणीय है, वही निर्गुण-निराकार ब्रह्म है। उसीको मुक्ति कहते हैं। उसीको गीता आदि शास्त्रोंमें परमपदकी प्राप्ति, निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति, शाश्वत शान्ति आदि अनेकों नामोंसे कहा है।
अस्ति-भाति-प्रिय
आरम्भमें साधक जड दृश्य पदार्थोंमें भी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मकी भावना कर सकता है अर्थात् जो कुछ भी दृश्य है, वह अस्ति-भाति-प्रिय है—ऐसा समझकर उपासना कर सकता है। घट, पट आदि जड पदार्थोंका जो होनापना (अस्तित्व) है, वह अस्ति है; उनकी जो प्रतीति है, यह भाति है; और वह किसी-न-किसीको सुखदायक होता है, यह प्रिय है; किंतु सूक्ष्म विचार करनेपर ब्रह्मका स्वरूप इससे अत्यन्त विलक्षण मालूम होता है। क्योंकि जड पदार्थोंका जो अस्तित्व प्रतीत होता है, वह इन्द्रिय, मन, बुद्धिका विषय होनेसे अनित्य है। अत: चिन्मय परमात्माकी सत्ता इससे अत्यन्त विलक्षण और नित्य है। पदार्थोंकी प्रतीतिरूप जो चेतनता है वह भी इन्द्रिय, मन, बुद्धिका विषय होनेके कारण जड, क्षणिक और अनित्य है। एवं पदार्थोंकी प्रियरूपता भी इन्द्रिय, मन, बुद्धिका विषय होनेसे दु:खमिश्रित, जड, क्षणिक और परिवर्तनशील है, अतएव परमात्माका स्वरूप उससे अत्यन्त ही अलौकिक है। क्योंकि यदि वह सुख वास्तवमें परमात्माका स्वरूप होता तो वह इन्द्रिय, मन, बुद्धिका विषय, अल्प और क्षणिक नहीं हो सकता। तथापि उपर्युक्त अस्ति-भाति-प्रियको परमात्माका आभास मानकर उपासना की जा सकती है।
जैसे दियासलाईमें अग्निकी सत्ता तो प्रकट है, किंतु उसकी प्रकाशिका और विदाहिका शक्ति अप्रकट है, चन्द्रमामें अस्तित्वके सिवा प्रकाशिका शक्ति भी प्रकट है किंतु विदाहिका शक्ति अप्रकट है, और सूर्यमें सत्ताके अतिरिक्त प्रकाशिका और विदाहिका दोनों शक्तियाँ भी प्रकट हैं, उसी प्रकार जड पदार्थोंमें परमात्माकी सत्ता तो प्रकट है किंतु चेतनता और आनन्द अप्रकट हैं, मनुष्योंमें सत्ता और चेतनता प्रकट हैं किंतु आनन्द अप्रकट है एवं अवतारों तथा महापुरुषोंमें सत्ता, चेतनता और आनन्द तीनों प्रत्यक्ष प्रकट हैं। जैसे दियासलाईके संघर्षणसे प्रकाशिका और विदाहिका शक्तिके सहित आग प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार भजन-ध्यानका साधन करनेसे जड पदार्थोंमें भी सच्चिदानन्दघन परमात्मा प्रत्यक्ष प्रकट हो जाते हैं; जैसे भक्त प्रह्लादके लिये स्तम्भमेंसे श्रीनृसिंहरूपमें प्रकट हुए थे। और इसी प्रकार साधकके हृदयमें भी साधना करनेसे सच्चिदानन्द परमात्मा प्रत्यक्ष हो जाते हैं। अत: इस प्रकार सच्चिदानन्दस्वरूपका अभ्यास करना पूर्वोक्त अस्ति-भाति-प्रिय रूपसे परमात्माकी उपासना करनेकी अपेक्षा अच्छा है; किंतु इससे भी उत्तम वह है, जो कि ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयमें ज्ञान और ज्ञेयका बाध करके केवल ज्ञाताके वास्तविक स्वरूपमें स्थित होना है। अर्थात् जो ज्ञाता है वही द्रष्टा एवं साक्षी है और वही सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा है—ऐसा समझकर अटलरूपसे उसमें स्थित रहना है।
ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय
जो कुछ भी जाननेमें आता है वह ज्ञेय है, जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है, और जो जाननेवाला है वह ज्ञाता है। ज्ञेयकी अपेक्षा ज्ञान और ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञाता महान्, चेतन, सूक्ष्म, आधार, व्यापक और नित्य है। जो कुछ भी जाननेमें आनेवाला ज्ञेय है वह ज्ञानके अन्तर्गत है, और ज्ञान ज्ञाताके अन्तर्गत है, इसलिये ज्ञेयकी अपेक्षा ज्ञान और ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञाता ‘महान्’ है। इसके विपरीत ज्ञाताकी अपेक्षा ज्ञान और ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञेय ‘अल्प’ है। पातंजलयोगदर्शनमें कहा है—
‘तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम्।’
(४। ३१)
‘क्लेश और कर्मकी निवृत्ति होनेपर सम्पूर्ण आवरणरूप मलके दूर होनेसे ज्ञानकी अनन्ततामें ज्ञेय अल्प है।’
ज्ञानके द्वारा ज्ञेय और ज्ञाताके द्वारा ज्ञान जाननेमें आता है। इसलिये ज्ञेयकी अपेक्षा ज्ञान और ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञाता ‘चेतन’ और ‘सूक्ष्म’ है। इसके विपरीत ज्ञाताका विषय होनेसे ज्ञान और ज्ञानका विषय होनेसे ज्ञेय जड और स्थूल है। क्योंकि जाननेमें आनेवाला विषय जड और स्थूल तथा जाननेवाला चेतन और सूक्ष्म होता है।
ज्ञाता जब ज्ञेयको जानना नहीं चाहता, तब ज्ञान और ज्ञेय दोनोंसे रहित हो जाता है। इसलिये ज्ञाताका विषय होनेके कारण ज्ञान और ज्ञेय उसका आधेय है। तथा ज्ञानका आधेय ज्ञेय है एवं ज्ञेयका आधार ज्ञान तथा ज्ञानका आधार ज्ञाता है, इसलिये ज्ञाता ज्ञान और ज्ञेय दोनोंमें व्यापक है और ज्ञान ज्ञेयमें व्यापक है।
ज्ञेयका बाध करनेपर भी बुद्धिकी वृत्तिरूप ज्ञान रहता है और उस वृत्तिके भी बाध कर देनेपर ज्ञाता बच रहता है, इसलिये ज्ञेयकी अपेक्षा ज्ञान और ज्ञानकी अपेक्षा सत्यस्वरूप ज्ञाता ‘नित्य’ है। ज्ञान और ज्ञेयका अत्यन्त अभाव होनेपर भी ज्ञाताका अभाव कभी किसी प्रकार नहीं हो सकता। इसलिये ज्ञाता नित्य और सत्य है।
ज्ञाता ही आनन्द है, इसलिये ज्ञाताकी ही सच्चिदानन्दरूपसे उपासना करनी चाहिये।
हम बोलना चाहते हैं तभी वाणीसे शब्द उच्चारण होते हैं, मौन हो जाते हैं तब नहीं होते; हम देखना चाहते हैं तभी बाहरका दृश्य दीखता है, नेत्र बंद करनेपर नहीं दीखता; इसी प्रकार हम जानना चाहते हैं तभी ज्ञेयका ज्ञान होता है, नहीं जानना चाहते तो नहीं होता। अत: जो कुछ भी पदार्थ देखने, सुनने या जाननेमें आते हैं, उन सबका बाध करके बाध करनेवाली ज्ञानरूप बुद्धिकी वृत्तिका भी बाध कर देना चाहिये। उसके बाद जो कुछ बच रहता है वह ज्ञाता है और वह ज्ञातृत्व-धर्मरहित शुद्धस्वरूप ज्ञाता ही नित्य सच्चिदानन्द ब्रह्म है। ऐसा समझकर ज्ञान और ज्ञेयसे रहित केवल चिन्मय नित्य विज्ञानानन्दघनरूपसे स्थित रहना चाहिये।
इस तरह ज्ञान और ज्ञेयका बाध करके केवल ज्ञाताको लक्ष्य बनाकर साधन करनेकी अपेक्षा भी केवल साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपका ध्यान सबसे उत्तम है।
सत्
‘सत्’ उसे कहते हैं जिसका कभी किसी प्रकार बाध न हो सके। गीतामें भगवान् कहते हैं—
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥
(२। १६)
‘असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्व-ज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है।’
‘सत्’ का वर्णन गीताके बारहवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें आया है। श्रीभगवान् कहते हैं—
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
‘जो पुरुष मन-बुद्धिसे परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं (वे मुझको ही प्राप्त होते हैं)।’
ऐसा अभ्यास करना चाहिये कि परमात्मा अज, अक्षर, अव्यक्त, अविनाशी, सर्वत्र परिपूर्ण, शाश्वत, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, नित्य और सत्य है।
चित्
‘चेतन’ उसे कहते हैं जो सबको जाननेवाला और सबका प्रकाशक है तथा जो अन्य किसीके द्वारा जाना नहीं जा सकता। श्रीभगवान् कहते हैं—
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमस: परमुच्यते।
(गीता १३। १७)
‘वह ब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायासे अत्यन्त परे कहा जाता है।’
इसका अभ्यास इस प्रकार करना चाहिये कि परमात्मा सर्वज्ञ, ज्ञानस्वरूप, ज्योतियोंका भी ज्योति, सबका प्रकाशक, अचिन्त्य, तम और अज्ञानसे अत्यन्त पर, द्रष्टा, साक्षी, ज्ञाता और चेतन है।
आनन्द
‘आनन्द’ उसे कहते हैं जो असीम, अक्षय, गुणातीत, निरतिशय परम सुखरूप है तथा जहाँ विक्षेप और दु:खोंका अत्यन्त अभाव है। श्रीभगवान् कहते हैं—
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६। २१-२२)
‘इन्द्रियोंसे अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्थामें अनुभव करता है, और जिस अवस्थामें स्थित यह योगी परमात्माके स्वरूपसे विचलित होता ही नहीं; परमात्माकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता।’
इसका अभ्यास इस प्रकार करना चाहिये कि वह परमात्मा पूर्ण आनन्द, अपार आनन्द, शान्त आनन्द, घन आनन्द, अचल आनन्द, ध्रुव आनन्द, नित्य आनन्द, बोधस्वरूप आनन्द, ज्ञानस्वरूप आनन्द, परम आनन्द, महान् आनन्द, अत्यन्त आनन्द, सम आनन्द, अचिन्त्य आनन्द और अनन्त आनन्द है।
सत्-चित्-आनन्दकी एकता
यहाँ सत्, चित्, आनन्द—इन तीन नामोंसे जो ब्रह्मके लक्षण बतलाये हैं—ये तीनों धर्म हों और ब्रह्म धर्मी हो—ऐसा नहीं है, क्योंकि धर्म जड होता है। अथवा ब्रह्म गुणी हो और ये उसके गुण हों, ऐसी भी बात नहीं है; क्योंकि ब्रह्म गुणातीत है। ये तीनों एक प्रकारसे ब्रह्मके साक्षात् लक्षण कहे जाते हैं; किंतु वास्तवमें तो ये ब्रह्मके नाम अर्थात् पर्यायवाची शब्द हैं, क्योंकि जो सत् है, वही चेतन है और जो चेतन है, वही सत् है तथा जो सत् है, वही आनन्द है और जो आनन्द है, वही सत् है एवं जो चेतन है, वही आनन्द है और जो आनन्द है, वही चेतन है।
वास्तवमें तो उसे ‘सत्’ इसलिये कहा है कि वह वस्तुत: विद्यमान है, कहीं कोई उसका अभाव न मान ले। इसके लिये महापुरुषोंका अनुभव प्रत्यक्ष प्रमाण है। जो विज्ञान-आनन्दघन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है, उस महात्माके अन्त:करणमें अन्त:करणसहित सारे संसारका अत्यन्त अभाव होते हुए भी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका भाव रहता है। उसे ‘चेतन’ इसलिये कहा गया है कि वह सत्-स्वरूप परमात्मा किसीका विषय नहीं है; क्योंकि उसमें जडत्वका अत्यन्त अभाव है और वह स्वयं ही अपने-आपको जाननेवाला है। तथा उसमें दु:खोंका अत्यन्त अभाव है, वह परम शान्ति और परम सुखमय है, इसलिये उसे ‘आनन्द’ नामसे कहा गया है।
संसारी सुखका ज्ञाता कोई दूसरा ही होता है, उस सुखको अपने-आपका ज्ञान नहीं है, इसलिये वह जड है; किंतु ब्रह्मानन्दका ज्ञाता ब्रह्मसे भिन्न कोई दूसरा नहीं होता। वह स्वयं आनन्द ही अपने-आपको जानता है अर्थात् वह आनन्द ही ज्ञान (चेतन) है। उस आनन्दसे ज्ञान भिन्न नहीं है। संसारी सुखकी भाँति आनन्द उत्पत्ति-विनाशशील एवं क्षय-वृद्धिवाला नहीं होता, इसलिये वह सारे विकारोंसे रहित भावरूप है। सत्ता उससे कोई भिन्न पदार्थ नहीं है। उस आनन्दका अस्तित्व ही सत्ताका ज्ञापक है। उस परमात्माकी सत्तासे ‘चेतन’ भी कोई अलग चीज नहीं है। वह सत् ही स्वयं चेतन है और चेतन ही सत् है। चेतनसे सत्ता कोई अलग चीज नहीं है। चेतनके अस्तित्वको बतलानेके लिये ही सत् शब्दका प्रयोग किया गया है कि कहीं कोई उसका अभाव न मान ले।
‘चेतन है’—ऐसा कहनेसे चेतन और चेतनका अस्तित्व कोई दो पदार्थ नहीं हो जाते। चेतनके अस्तित्वका द्योतन करनेके लिये ही ‘चेतन है’—ऐसा कहा गया है। इसी प्रकार ‘आनन्द है’—ऐसा कहनेसे आनन्द और आनन्दका अस्तित्व कोई दो पदार्थ नहीं हो जाते। आनन्दके अस्तित्वका द्योतन करनेके लिये ही ‘आनन्द है’—ऐसा कहा गया है। तथा विज्ञानानन्द शब्दसे भी ज्ञान और आनन्दको दो पदार्थ नहीं समझना चाहिये, क्योंकि संसारी सुखकी तरह उस आनन्दका कोई अन्य ज्ञाता नहीं है। वह आनन्द सांसारिक आनन्दसे अत्यन्त विलक्षण, जडतासे रहित, स्वयं ही अपने-आपका जाननेवाला है अर्थात् वह आनन्द ही स्वयं ज्ञान है। उस आनन्दसे भिन्न ज्ञान (चेतन) कोई अलग चीज नहीं है या यों कहिये कि चेतन ही स्वयं आनन्द है, वास्तवमें आनन्द उसका विशेषण या लक्षण नहीं है, इसलिये उसको ‘विज्ञानानन्द’ कहते हैं।
यहाँतक जो सत्, चित्, आनन्दकी व्याख्या की गयी, इससे जो परमात्माका भाव समझमें आता है, वह भी बुद्धिविशिष्ट ही परमात्माका स्वरूप है। इसीको गीतामें ‘बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्’ (६। २१) कहा है। कठोपनिषद्में भी कहा है—
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रॺया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥
(१। ३। १२)
‘सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें छिपा हुआ यह आत्मा सबको प्रतीत नहीं होता, परन्तु यह सूक्ष्मबुद्धिवाले महात्मा पुरुषोंसे तीक्ष्ण और सूक्ष्म बुद्धिके द्वारा ही देखा जाता है।’
किसी भी प्रकारसे जो सच्चिदानन्द परमात्माका स्वरूप समझमें आता है, उससे परमात्माका निर्विशेष स्वरूप अत्यन्त विलक्षण है। उस सच्चिदानन्दघनके यथार्थ ज्ञानसे जो प्राप्त होता है वह उस परमात्माका निर्विशेष अनिर्वचनीय स्वरूप है, उसीको निर्वाण ब्रह्म और परब्रह्म भी कहते हैं।
सत्ताके भेद
सत्ता तीन प्रकारकी होती है—१-काल्पनिक सत्ता, २-व्यावहारिक सत्ता और ३-वास्तविक सत्ता। जिनसे व्यावहारिक सिद्धि न हो, जो केवल प्रतीत होते हों, ऐसे पदार्थोंकी सत्ता काल्पनिक अर्थात् प्रातिभासिक सत्ता कहलाती है; जैसे मरुभूमिमें जल, आकाशमें नीलिमा, आकाशमें तिरवरे और रज्जुमें सर्प आदिकी सत्ता। और जिन पदार्थोंसे व्यवहार सिद्ध होता है, उन पदार्थोंकी सत्ता व्यावहारिक सत्ता है; जैसे घट, पट आदि पदार्थोंकी सत्ता। एवं जिसका किसी देश, किसी काल और किसी वस्तुमें भी अभाव न हो, जो सदा एकरस, एकरूप रहे, उस परमार्थ वस्तुकी सत्ता वास्तविक सत्ता है अर्थात् द्रष्टा साक्षी चेतन आत्माका जो अस्तित्व है वह वास्तविक सत्ता है; इसीको पारमार्थिक सत्ता भी कहते हैं। इनमें व्यावहारिक सत्ता भी काल्पनिकके सदृश ही है; क्योंकि जाग्रदवस्थामें जो पदार्थ सत्तारूपसे प्रतीत होते हैं, वे जाग्रदवस्थाके अतिरिक्त स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि आदि किसी भी अवस्थामें प्रतीत नहीं होते और ज्ञान होनेके उत्तरकालमें जीवन्मुक्त पुरुषके हृदयमें जाग्रदवस्थामें भी यह संसार स्वप्नवत् प्रतीत होता है। जैसे स्वप्नसे जगे हुए पुरुषको पूर्वमें आये हुए स्वप्नका स्मरण करनेसे स्वप्नके दृश्यका जो एक लक्ष्य प्रतीत होता है, उसीकी भाँति जाग्रदवस्थामें ज्ञानीको यह संसार प्रतीत होता है। इसलिये इसे ‘स्वप्नवत्’ कहा गया। अन्तर इतना ही है कि स्वप्नका काल तो भूतकाल है और यह जाग्रत् का काल वर्तमानकाल है। इसीलिये उसे स्वप्न न कहकर स्वप्नवत् कहा गया है। किंतु विचार करनेपर मालूम होगा कि यह स्वप्नसे भी निस्तत्त्व है; क्योंकि स्वप्नके संसारकी तो जाग्रदवस्थामें काल्पनिक सत्ता है पर स्वप्नावस्थामें जाग्रदवस्थाके संसारकी काल्पनिक सत्ता भी नहीं है। स्वप्नमें जो संसार दीखता है वह मनोराज्य ही दृढ़ होकर एक संसारके रूपमें प्रतीत होने लगता है। जैसे जाग्रदवस्थामें घट-पटादि पदार्थोंकी व्यावहारिक सत्ता प्रतीत होती है उसी प्रकार स्वप्नकालमें भी स्वप्नके घट-पटादि पदार्थोंकी ही ज्यों-की-त्यों सत्ता प्रतीत होती है। इसलिये जाग्रत् और स्वप्न दोनोंकी ही एक काल्पनिक सत्ता ही सिद्ध होती है। यह सत्ता भी सच्चिदानन्द ब्रह्मका ही आभास है।
पाँच भूत, पाँच विषय और दस इन्द्रियाँ—इनकी अपेक्षा जो अन्त:करणकी सत्ता है वह बलवान् है; क्योंकि जाग्रदवस्थामें जो अन्त:करण है, स्वप्नावस्थामें वही अन्त:करण है और स्वप्नसे जगनेपर फिर भी वही अन्त:करण है; किंतु जाग्रत् के पदार्थ स्वप्नमें नहीं हैं और स्वप्नके पदार्थ जाग्रत् में नहीं हैं, पर मन-बुद्धि जो स्वप्नमें हैं, वही जाग्रत् में हैं और जो जाग्रत् में हैं वही स्वप्नमें हैं। इसलिये मन-बुद्धिका अस्तित्व उनकी अपेक्षा अधिक बलवान् है। मन-बुद्धिकी अपेक्षा भी आत्माका अस्तित्व नित्य होनेके कारण अधिक बलवान् है; क्योंकि सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधिमें मन-बुद्धिके न रहनेपर भी आत्मा ज्यों-का-त्यों स्थित रहता है। सबका अभाव होनेपर भी आत्माका अभाव नहीं होता। इसलिये आत्माकी सत्ता ही वास्तविक सत्ता है; किंतु आत्माकी जो सत्ता समझमें आती है, वह बुद्धिका विषय होनेके कारण बुद्धिविशिष्ट आत्माका ही स्वरूप है; आत्माका जो असली चिन्मय शुद्ध स्वरूप है वह तो इससे भी अत्यन्त विलक्षण है। वह समझमें नहीं आता, वह स्वयं समझरूप है। और समझमें आनेवाली सत्ता जडमिश्रित सत्ता है। अत: आत्माकी वास्तविक सत्ता इससे अत्यन्त विलक्षण है। परमात्माकी प्राप्ति हुए बिना वह किसी प्रकार भी किसीके समझमें नहीं आती।
ज्योतिके भेद
ज्योति भी कई प्रकारकी होती है। सूर्य, चन्द्र, अग्नि, विद्युत् आदि जो ज्योतियाँ हैं उनकी अपेक्षा इन्द्रियोंकी ज्योति, इन्द्रियोंकी अपेक्षा अन्त:करणकी और अन्त:करणकी अपेक्षा आत्माकी ज्योति सूक्ष्म, श्रेष्ठ और बलवान् है।
पाँच भूत, पाँच विषय ग्राह्य हैं, इन्द्रियाँ और मन-बुद्धि ग्रहण हैं एवं आत्मा ग्रहीता है। जिसे ग्रहण किया जा सके—उसे ‘ग्राह्य’, जिसके द्वारा ग्रहण किया जाय—पकड़ा जाय, उसे ‘ग्रहण’, और ग्रहण करनेवालेको ‘ग्रहीता’ कहते हैं। ग्राह्यकी अपेक्षा ग्रहण और ग्रहणकी अपेक्षा ग्रहीता सूक्ष्म, चेतन, श्रेष्ठ और विलक्षण है। सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, विद्युत् और नक्षत्र आदि जो पदार्थ नेत्रोंसे दीखते हैं उनसे नेत्र-इन्द्रिय सूक्ष्म, चेतन और श्रेष्ठ है; क्योंकि सूर्य, चन्द्र आदि नेत्रोंके द्वारा जाने जा सकते हैं पर नेत्र उनके द्वारा नहीं जाने जा सकते। नेत्र आदि इन्द्रियोंसे मन सूक्ष्म, चेतन और श्रेष्ठ है; क्योंकि मन तो इन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको जानता है; किंतु मनको इन्द्रिय और उनके विषय कोई भी नहीं जान सकते। विषय, इन्द्रिय और मनसे भी बुद्धि सूक्ष्म, चेतन और श्रेष्ठ है; क्योंकि बुद्धि तो उनको और उनके व्यापारोंको—सबको जानती है; किंतु बुद्धि और उसके व्यापारको वे कोई नहीं जानते अर्थात् प्रकाश, नेत्र और मन आदिको बुद्धि समझती है पर बुद्धि और बुद्धिके व्यापारको प्रकाश, नेत्र या मन आदि कोई नहीं समझ सकते। इसलिये उन सबसे बुद्धि सूक्ष्म, चेतन और श्रेष्ठ है। चेतन आत्मा उपर्युक्त इन सब जड ज्योतियोंको और उनके व्यापारोंको एवं बुद्धिके मन्दता, तीक्ष्णता और ज्ञान आदि व्यापारोंको भी जानता है पर आत्माको कोई भी किसी भी प्रकार नहीं जान सकता; क्योंकि आत्मा सबसे सूक्ष्म, श्रेष्ठ, विलक्षण और चिन्मय है। जैसे नेत्रोंके विषय सूर्य-चन्द्रादिके प्रकाशकी अपेक्षा बुद्धिका विषय ज्ञान अत्यन्त विलक्षण है, इसी प्रकार बुद्धि-वृत्तिरूप ज्ञानकी अपेक्षा भी आत्माकी चेतनता अत्यन्त विलक्षण है; क्योंकि उपर्युक्त सभी चेतनता आत्माका आभास तथा ज्ञेय होनेसे जड ही है। यदि कहें कि आत्मा भी बुद्धिके द्वारा जाना जा सकता है, उसको ‘बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्’ कहा ही है सो ठीक है पर वह बुद्धिग्राह्य आत्माका स्वरूप आत्माके अत्यन्त निकटका अर्थात् तटस्थ स्वरूप है तथा बुद्धिके द्वारा समझमें आनेके कारण वह बुद्धिविशिष्ट ही है। वास्तविक आत्माकी चेतनता तो इससे भी अत्यन्त विलक्षण है जो बुद्धिके द्वारा भी समझमें नहीं आती, परमात्माकी प्राप्ति होनेसे ही समझमें आती है।
आनन्दके भेद
आनन्द भी कई प्रकारका होता है। प्रमाद, आलस्य, निद्रासे उत्पन्न सुखकी अपेक्षा विषयेन्द्रियसंयोगजनित सुख ज्ञानकी अधिकता होनेके कारण श्रेष्ठ है। विषयेन्द्रियसंयोगजनित सुखकी अपेक्षा भी परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे उत्पन्न सुख उसमें बुद्धिकी स्वच्छता, निर्मलता, स्थिरता, तीक्ष्णता होनेके कारण अति विलक्षण है। इन सब गुणमय अनित्य सुखोंकी अपेक्षा भी परमात्माके स्वरूपका आनन्द निर्विकार, गुणातीत, नित्य, चेतन होनेके कारण अत्यन्त विलक्षण है। क्योंकि उपर्युक्त सभी आनन्द आत्माका आभास ही है तथा आत्मविषयक आनन्द भी बुद्धिवृत्तिके द्वारा समझमें आनेवाला होनेके कारण बुद्धिविशिष्ट ही आनन्द है। इसीको गीतामें ‘बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्’ (६।२१) कहा है। पर परमात्माका वास्तविक स्वरूपभूत आनन्द तो इससे भी अत्यन्त विलक्षण है, वह किसीका भी विषय न होनेके कारण किसी प्रकार भी किसीकी समझमें नहीं आ सकता, वह स्वयं आप ही अपनेको जानता है। यह बात उस परमात्माकी प्राप्ति होनेपर ही समझमें आ सकती है।
यहाँ ऊपर सत्-चित्-आनन्दकी व्याख्या की गयी, अब उस सच्चिदानन्दघन परमात्माकी घनता, अव्यक्तता, समता, अनन्तता और व्यापकताके सम्बन्धमें कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है।
घनता
सभी प्रकारकी घनतासे आत्माकी घनता अत्यन्त विलक्षण है। पत्थर, शीशा और बादलकी घनताकी अपेक्षा अन्त:करणकी घनता अत्यन्त विलक्षण होनेसे श्रेष्ठ है, क्योंकि पत्थरमें शिला, शीशेमें काँच और बादलमें पानीकी घनता होते हुए भी पोल होनेके कारण उनमें आकाशके अतिरिक्त शीत-उष्ण आदिका भी प्रवेश होनेकी गुंजाइश है, पर अन्त:करणमें इनके प्रवेशकी गुंजाइश नहीं। अन्त:करणकी अपेक्षा आत्माकी घनता और भी विलक्षण है; क्योंकि मनमें संकल्प-विकल्प और बुद्धिमें मन्दता, तीक्ष्णता, ज्ञान और निश्चय आदि हो सकते हैं; किंतु आत्मामें किसीके भी प्रवेशकी गुंजाइश नहीं।
यदि कहें कि आत्मामें किसीकी गुंजाइश नहीं तो फिर यह सम्पूर्ण संसार किसमें समाया हुआ है? तो इसका उत्तर यह है कि आत्मामें न तो यह समाया हुआ है और न उसका इससे सम्बन्ध ही है; अज्ञानके कारण आत्मामें मरुमरीचिका की तरह बिना हुए ही यह प्रतीत होता है और गम्भीरतापूर्वक विचार करनेपर यह प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि यह चेतन आत्मा स्वयं अपना-आप ही है, उसमें दूसरे किसीके लिये किंचिन्मात्र भी स्थान नहीं है।
उपर्युक्त विवेचनसे जो परमात्माकी घनता समझमें आती है उससे भी परमात्माकी वास्तविक घनता अत्यन्त विलक्षण है जो कि परमात्माकी प्राप्ति होनेसे ही समझमें आ सकती है।
अव्यक्तता
सभी प्रकारकी अव्यक्ततासे निर्गुण परमात्माकी अव्यक्तता अत्यन्त विलक्षण है। पृथ्वी, जल, तेज—ये मूर्त होनेसे व्यक्त हैं, इनकी अपेक्षा वायु और आकाश अमूर्त होनेसे अव्यक्त हैं; परंतु उनमें भी वायुके सस्पन्द, निष्पन्द तथा स्पर्शशील होनेसे उसकी अपेक्षा आकाश अधिक अव्यक्त है क्योंकि आकाशका किसी भी इन्द्रियसे प्रत्यक्ष नहीं होता। आकाशसे मन और भी अधिक अव्यक्त है। आकाश तो प्रकाश और अन्धकारको स्थान देनेवाला, विस्तृत देशरूप तथा अवकाशरूप होनेसे इदन्तासे समझाया भी जा सकता है, किंतु इस प्रकार मनको नहीं समझाया जा सकता। एवं मनकी अपेक्षा बुद्धिकी अव्यक्तता और भी विलक्षण है। मनकी चंचलता, गमनागमन आदि बुद्धिके द्वारा जाने जा सकते हैं पर बुद्धिकी मन्दता, तीक्ष्णता और ज्ञान आदिको मन नहीं समझ सकता। इसलिये बुद्धि मनकी अपेक्षा अव्यक्त है। इससे भी प्रकृतिकी अव्यक्तता विलक्षण है, जिससे बुद्धि उत्पन्न होती है और जो बुद्धिकी भी समझमें नहीं आती, उस अव्यक्त प्रकृतिसे भी परमात्माकी अव्यक्तता पर, श्रेष्ठ, सनातन, नित्य और चेतन है। श्रीभगवान् ने गीतामें कहा है—
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥
(८। २०)
‘उस अव्यक्तसे भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण जो सनातन अव्यक्तभाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता।’
इससे यह सिद्ध होता है कि परमात्माकी अव्यक्तता नित्य और सनातन है, शेष सब नाशवान्, एकदेशीय और परप्रकाश्य होनेसे अनित्य एवं जड है।
उपर्युक्त विवेचनसे जो परमात्माकी अव्यक्तता समझमें आती है, उससे भी वास्तवमें परमात्माकी अव्यक्तता अत्यन्त विलक्षण है, जो कि परमात्माकी प्राप्ति होनेसे ही समझमें आ सकती है।
समता
सभी प्रकारकी समतासे परमात्माकी समता अत्यन्त विलक्षण है। मनुष्य अपने देहमें भी स्वयं मस्तकके साथ ब्राह्मणका-सा, हाथोंके साथ क्षत्रियका-सा और पैरोंके साथ शूद्रका-सा व्यवहार करता है; इसी प्रकार माताके साथ माताकी तरह, गुरुके साथ गुरुकी तरह और स्त्रीके साथ स्त्रीकी तरह बर्ताव करता है और ऐसा करना उचित ही समझा जाता है। इनमें सबके साथ समवर्तन विधेय और उचित नहीं है। गीतामें भी भगवान् ने ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें समदर्शनकी ही प्रशंसा की है, समवर्तनकी नहीं।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
(५। १८)
‘वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं।’
खान, पान और व्यवहारमें यथायोग्य की जानेवाली समताकी अपेक्षा भावकी समता अर्थात् समदर्शन उत्तम है। व्यावहारिक समतामें तो कहीं-कहीं विषमता भी उत्तम हो जाती है। जैसे कोई मनुष्य बराबरका हकदार होनेपर भी कीमत या परिमाणमें स्वयं कम लेकर दूसरे हिस्सेदारको अधिक देता है तो यह विषमता त्यागरूप होनेके कारण समतासे भी उत्तम मानी जाती है। और कहीं-कहीं तो व्यवहारकी समताकी अपेक्षा विषमता करनी विधेय है, जैसे किसी सम्मान्य व्यक्तिका आदर-सत्कार करते समय हाथ, पैर, सिर सभी अपने ही अंग होनेपर भी मस्तक तथा हाथसे ही नमस्कार आदि करनेका विधान है, पैरोंसे नहीं। किंतु व्यवहारमें यथायोग्य भेद रहते हुए भी भावमें सबके प्रति दया, क्षमा, प्रेम, सौहार्द आदि समानरूपसे रहने ही चाहिये।
इस भावकी समताकी अपेक्षा भी आत्माकी समता और भी विलक्षण होनेसे श्रेष्ठ है। भगवान् ने कहा है कि ‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि’ (गीता ६। २९)। बादलको आकाशके एक अंशमें और आकाशको बादलके अणु-अणुमें देखनेकी भाँति योगी सारे भूतोंको आत्मामें और आत्माको सारे भूतोंमें समभावसे स्थित देखता है। जैसे अज्ञानी आदमी देहमें आत्माको और देहके अंगोंमें सुख-दु:खोंको समभावसे देखता है, इसी प्रकार योगी सारे ब्रह्माण्डमें आत्माको और सारे प्राणियोंके सुख-दु:खोंको समभावसे देखता है। गीतामें भी कहा है—
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥
(६। ३२)
‘हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतोंमें सम देखता है और सुख अथवा दु:खको भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’
अत: यह समता भावकी समतासे भी अति विलक्षण और उच्चकोटिकी है; क्योंकि भावकी समता तो ज्ञेय होनेसे जड है और आत्माकी समता ज्ञानस्वरूप होनेसे चेतन है।
इसी प्रकार भौतिक समताकी अपेक्षा बौद्धिक और बौद्धिककी अपेक्षा आत्मविषयक समता विलक्षण, चेतन और अत्यन्त श्रेष्ठ है। भूतोंकी समता बुद्धिके द्वारा समझी जाती है तथा बुद्धिकी समता भी आत्माके द्वारा समझी जाती है, इसलिये इनसे आत्माकी समता अत्यन्त विलक्षण होनेसे सर्वोत्कृष्ट है। इसमें भी साधनकालकी समतासे सिद्धकालकी समता विलक्षण है और सिद्धावस्थाकी समताकी अपेक्षा सच्चिदानन्द ब्रह्मकी समता अत्यन्त विलक्षण होनेसे सर्वोत्कृष्ट है।
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
(गीता २। ३८)
‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख समान समझकर, उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा।’
यह साधन-अवस्थाकी समता है। साधनावस्थाका फल यह दिखलाया गया कि इस प्रकार समभावसे युद्ध किया जाय तो पापकी प्राप्ति नहीं होती; किंतु सिद्धावस्थाकी समता इससे भी अधिक कीमती और विलक्षण है। गीतामें कहा है—
इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:॥
(५। १९)
‘जिनका मन समत्वभावमें स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है; क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही स्थित हैं।’ सिद्धावस्थाकी समताकी यह विलक्षणता दिखलायी गयी कि उसके द्वारा यहाँ जीवितकालमें ही संसार जीत लिया गया और उसकी स्थिति ब्रह्ममें है।
किंतु साधन और सिद्ध—दोनों अवस्थाओंकी यह समता समझमें आती है पर परमात्माकी वास्तविक समता समझमें नहीं आ सकती; क्योंकि परमात्माकी समतासे ही इस समताकी सिद्धि है।
ब्रह्मविषयक जो समता बुद्धिके द्वारा समझमें आती है, वह बुद्धिविशिष्ट ब्रह्मकी ही समता है; क्योंकि समझमें आनेवाली समता ज्ञेय होनेसे जड है और ब्रह्म चेतन है; इसलिये चेतन परमात्मा ही सबको जाननेवाला है, उसको कोई नहीं जान सकता।
उपर्युक्त विवेचनसे जो परमात्माकी समता समझमें आती है, उससे भी वास्तवमें परमात्माकी समता अत्यन्त विलक्षण है, जो कि परमात्माकी प्राप्ति होनेसे ही समझमें आ सकती है।
अनन्तता
सभी प्रकारकी अनन्ततासे परमात्माकी अनन्तता अत्यन्त विलक्षण है। पृथ्वी, जल, तेज और वायुकी अपेक्षा आकाश अनन्त और असीम है; किंतु जैसे स्वप्नके संसारका आकाश सम्पूर्ण भूतोंके सहित जीवके मनके अन्तर्गत है, वैसे ही परमात्माके संकल्पमें होनेके कारण यह आकाश भी समष्टि-मनके अन्तर्गत है। वह समष्टि-मन समष्टि-अहंकारका कार्य होनेसे उसके अन्तर्गत है, समष्टि-अहंकार समष्टि-बुद्धि—महत्तत्त्वके अन्तर्गत है, महत्तत्त्व अव्याकृत मायाका कार्य होनेसे अव्याकृत मायाके एक अंशमें है, अव्याकृत माया भी परमात्माके किसी एक अंशमें है; परंतु वह परमात्मा किसीका अंश या कार्य न होनेसे अपने-आपमें ही स्थित है। अतएव वही वस्तुत: अनन्त है।
आकाशकी अनन्तताकी अपेक्षा बुद्धिकी अनन्तता इसलिये भी विलक्षण है कि आकाशकी अनन्तता तो देशगत, फैली हुई-सी, दृश्य और बुद्धिगम्य होनेसे ग्राह्य है तथा इदन्तासे उसका निर्देश हो सकता है; परंतु बुद्धिकी अनन्तता ग्रहण और ज्ञानस्वरूप होनेके कारण आकाशकी तरह समझायी नहीं जा सकती। और ज्ञातास्वरूप आत्माकी वास्तविक अनन्तता तो चेतन होने तथा किसीका विषय न होनेके कारण समझायी नहीं जा सकती।
उपर्युक्त विवेचनसे जो आत्मविषयक अनन्तता बुद्धिके द्वारा समझमें आती है, वह बुद्धिमिश्रित ही है, वास्तविक परमात्माकी अनन्तता तो चेतन होनेके कारण किसी प्रकार भी समझमें नहीं आ सकती, परमात्माकी प्राप्ति होनेपर ही समझमें आती है।
व्यापकता
सभी प्रकारकी व्यापकतासे परमात्माकी व्यापकता भी अत्यन्त विलक्षण है। तिलोंमें तैल व्यापक है, इसकी अपेक्षा तो भूतोंमें आकाशकी व्यापकता विलक्षण है; क्योंकि तैल निकालनेपर खली बच रहती है। पर यहाँ सबके अपने कारण—आकाशमें विलीन होनेपर कार्य ही कारणके रूपमें परिणत होनेके कारण कुछ भी नहीं बचता। पृथ्वीमें जल, तेज, वायु और आकाश, जलमें तेज, वायु और आकाश, तेजमें वायु और आकाश तथा वायुमें आकाश व्यापक है। इन भूतोंकी व्यापकताकी अपेक्षा अन्त:करणकी व्यापकता अत्यन्त विलक्षण है। समस्त भूत आकाशके कार्य होनेसे आकाश उनमें सर्वत्र समभावसे व्यापक है; किंतु भूत, विषय और इन्द्रियोंमें अन्त:करणकी जो व्यापकता है, वह इससे भी विलक्षण है। जैसे स्वप्नमें प्रतीत होनेवाले संसारमें अन्त:करण व्यापक है, इसी तरह इस संसारमें भी समष्टि अन्त:करण व्यापक है। जैसे जाग्रत् कालमें यह संसार प्रत्यक्ष प्रतीत होता है इसी तरह स्वप्नका संसार भी स्वप्नकालमें प्रत्यक्ष-सा प्रतीत होता है। जैसे स्वप्नका संसार अन्त:करणका संकल्प होनेसे उसका विकार है, इसी प्रकार यह संसार भी समष्टि अन्त:करणका संकल्प होनेसे अन्त:करणका विकार है और विकार होनेसे यह उसका कार्य है। जिस प्रकार कल्पित वस्तुमें कल्पना करनेवाला व्यापक होता है, इसी प्रकार इस संसारमें अन्त:करण व्यापक है। आकाशकी और भूतोंकी समान सत्ता है पर कल्पककी और कल्पित वस्तुकी समान सत्ता नहीं है, इसलिये कल्पक अन्त:करणकी व्यापकता कल्पित दृश्यवर्गसे विलक्षण है। आत्माकी व्यापकता तो इससे भी विलक्षण है क्योंकि अद्वैत सिद्धान्तके अनुसार वास्तवमें आत्मामें तो संकल्परूपसे भी संसार नहीं है, केवल आरोपमात्र है। जैसे किसीको नेत्रदोषके कारण आकाशमें तिरवरे (जाले)-से प्रतीत होते हैं, पर वास्तवमें विचारकर देखनेपर ज्ञात होता है कि आकाश तो सत्य है और तिरवरे (जाले) उसमें आरोपित हैं तथा प्रतीत होनेवाले तिरवरोंमें आकाश व्यापक है, इसी तरह इस संसारमें परमात्मा व्यापक है। वास्तवमें तो आरोपित वस्तु कुछ है ही नहीं, जिसमें आरोप किया जाता है, वह अधिष्ठान ही है। यहाँ व्याप्य-व्यापकता तो कथनमात्र है। क्योंकि संसार जड है और परमात्मा चेतन है, इसलिये जड वस्तुमें चेतनकी जो व्यापकता-सी प्रतीत होती है, वह अज्ञानसे ही प्रतीत होती है, वास्तवमें नहीं।
उपसंहार
ऊपरसे जो परमात्माका स्वरूप बतलाया गया है, उससे जो कुछ समझमें आता है वह सब बुद्धिविशिष्ट परमात्माका ही स्वरूप है; क्योंकि समझमें आनेवाला पदार्थ बुद्धिके मिश्रणसे बुद्धिका विषय होकर ही समझमें आता है। वह परमात्मा किसीका विषय नहीं है। इसलिये परमात्माका निर्विशेष स्वरूप परमात्माकी प्राप्ति होनेपर ही समझमें आता है। यह कथन भी वास्तवमें नहीं बनता; परंतु बिना कुछ कहे इसका वर्णन भी कैसे हो और वर्णनके बिना किसी तरहका आधार प्राप्त न होनेसे साधक साधन भी कैसे करे। इसलिये शास्त्रोंमें परमात्माके विषयमें जो कुछ भी कहा गया है, वह साधकोंके कल्याणार्थ साधनविषयक ज्ञान करानेके ही लिये कहा गया है। वस्तुत: परमात्मा अनिर्वचनीय, अगोचर, अचिन्त्य और मन-बुद्धि-इन्द्रियोंका अविषय है।
परमात्माको सत्, चित्, आनन्द, घन, अव्यक्त, सम, अनन्त, व्यापक आदि विशेषणोंके द्वारा बतलाकर जो कुछ विशेष वस्तुतत्त्वका लक्ष्य कराया गया है और उससे जो एक विशेष वस्तु समझमें आती है, उसको लक्ष्यमें रखकर साधकको श्रद्धापूर्वक नित्य-निरन्तर उसका चिन्तन करना चाहिये। यह चिन्तन करना ही उसकी उपासना है। इस तरह उपासना करनेसे मनुष्य उस साक्षात् निर्विशेष निर्गुण निराकार परमात्माके यथार्थ स्वरूपको प्राप्त हो जाता है, उसीको गीतामें निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति, परमपदकी प्राप्ति, परमा गतिकी प्राप्ति, परमा शान्तिकी प्राप्ति, परम आनन्दकी प्राप्ति, अक्षय सुखकी प्राप्ति और अमृतकी प्राप्ति आदि नामोंसे कहा है।