निराकार-साकार-तत्त्व
एक शुद्ध ब्रह्मके अतिरिक्त और जो कुछ भी भासता है सो वास्तवमें नहीं है, केवल स्वप्नवत् प्रतीति होती है। वेद, वेदान्त और उपनिषद् का यही सर्वोच्च सिद्धान्त है, यही स्वामी श्रीशंकराचार्यजीका मत है और यही वास्तवमें न्यायसिद्ध सिद्धान्त है परंतु यह बात इतनी ऊँची और गोपनीय है कि सहजहीमें सहसा इसका प्रकाश करना अनुचित है। इस सिद्धान्तको कहने और सुननेवाले बहुत ही थोड़े हुआ करते हैं, इसको कहनेका वही अधिकारी है जो स्वयं इस स्थितिमें हो और सुननेका भी वही अधिकारी है जो सुननेके साथ ही इस स्थितिमें स्थित हो जाय। जो इस प्रकारके नहीं हैं उनको न कहनेका अधिकार है और न सुननेका। जिनको राग-द्वेष होता है, जो सांसारिक हानि-लाभमें दु:खित और हर्षित होते हैं, जो दु:ख और सुखका भिन्न-भिन्न रूपसे अनुभव करते हैं तथा जो विषयलोलुप और इन्द्रियाराम हैं उनको तो इस सिद्धान्तके उपदेशसे उलटी हानि भी हो सकती है। वे लोग मान बैठते हैं कि जब संसार स्वप्नवत् है तो असत्य, व्यभिचार, हिंसा और छल-कपट आदि पाप भी स्वप्नवत् ही हैं। चाहे सो करो, कोई हानि तो होगी नहीं। यों मानकर वे लोग परिश्रमसाध्य सत्कर्मोंको त्यागकर भिन्न-भिन्न रूपसे पापाचरण करने लग जाते हैं; क्योंकि सत्कर्मोंके करनेकी अपेक्षा उन्हें छोड़ देना और पाप-कर्मोंमें लग जाना सहज है। इसीलिये अनधिकारियोंको इस सिद्धान्तका उपदेश न करनेके लिये शास्त्रोंकी आज्ञा है; क्योंकि अनधिकारी लोग इस सिद्धान्तको यथार्थरूपसे न समझकर सत्कर्मोंको त्याग देते हैं, ज्ञानकी प्राप्ति उन्हें होती नहीं अतएव उभयभ्रष्ट हो जाते हैं। यह दोहा प्रसिद्ध ही है—
ब्रह्मज्ञान उपज्यो नहीं, कर्म दिये छिटकाय।
‘तुलसी’ ऐसी आत्मा, सहज नरकमें जाय॥
इसलिये श्रीभगवान् ने गीतामें भी कहा है—
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्त: समाचरन्॥
(३।२६)
‘ज्ञानी पुरुषको चाहिये कि कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भेद अर्थात् कर्मोंमें अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं परमात्माके स्वरूपमें स्थित हुआ सब कर्मोंको अच्छी तरह करता हुआ उनसे भी वैसे ही कर्म करावे।’
ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मोंमें यही अन्तर है कि ज्ञानीके कर्म अनासक्त भावसे स्वाभाविक होते हैं और अज्ञानीके कर्म आसक्तिसहित होते हैं। श्रीगीतामें कहा है—
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥
(३।२५)
‘हे अर्जुन! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं वैसे ही अनासक्त हुआ ज्ञानी भी लोकशिक्षाको चाहता हुआ कर्म करे।’
कहनेका तात्पर्य यह है कि शुद्ध ब्रह्मकी चर्चा केवल अधिकारियोंमें ही होनी चाहिये।
लोग कह सकते हैं कि जब एक शुद्ध ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं तो इससे सृष्टि और सृष्टिकर्ता ईश्वरका भी न होना ही सिद्ध होता है और यदि यही बात है तो फिर इनके प्रतिपादन करनेवाले प्रमाणभूत शास्त्र और प्रत्यक्ष दीखनेवाली सृष्टिकी क्या दशा होगी? इसका उत्तर यही है कि जैसे आकाश निराकार है, आकाशमें कहीं कोई आकार नहीं परन्तु कभी-कभी आकाशमें बादलके टुकड़े दीख पड़ते हैं, वे बादलके टुकड़े आकाशमें ही उत्पन्न होते हैं, उसीमें दीख पड़ते हैं और अन्तमें उसी आकाशमें शान्त हो जाते हैं। आकाशकी वास्तविक स्थितिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता परन्तु आकाशका जितना स्थान बादलोंसे आवृत होता है उतने अंशमें उसका एक विशेष रूप दीखता है और उसमें वृष्टि आदिकी क्रिया भी होती है।
इसी प्रकार एक ही अनन्त शुद्ध ब्रह्ममें जितना अंश मायासे आच्छादित दीखता है उतने अंशका नाम सगुण ईश्वर है, वास्तवमें यह सगुण ईश्वर शुद्ध ब्रह्मसे कभी कोई दूसरी भिन्न वस्तु नहीं किन्तु मायाके कारण भिन्न दीखनेसे सगुण ईश्वरको लोग भिन्न मानते हैं। यही भिन्नरूपसे दीख पड़नेवाला सगुण चैतन्य, सृष्टिकर्ता ईश्वर है; इसीको आदिपुरुष, पुरुषोत्तम और मायाविशिष्ट ईश्वर कहते हैं। आकाशके अंशमें मेघोंकी भाँति इस सगुण चैतन्यमें जो यह सृष्टि दीखती है वह मायाका कार्य है। माया सृष्टिकर्ता ईश्वरकी शक्तिका नाम है। जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति होती है उसी प्रकार सृष्टिकर्ता ईश्वर और उसकी शक्ति माया है। इसे ही प्रकृति कहते हैं और इसीका नाम अज्ञान है।
यह माया क्या है और कैसे उत्पन्न होती है? यह एक भिन्न विषय है अतएव इस विषयपर यहाँ कुछ न लिखकर मूल-विषयपर ही लिखा जाता है। इस वर्णनसे यह समझना चाहिये कि निराकार आकाशकी भाँति उस सर्वव्यापी अनन्त चेतनका नाम तो शुद्ध ब्रह्म है, वास्तवमें आकाशका दृष्टान्त भी एकदेशीय ही है; क्योंकि आकाशकी तो सीमा भी है और उसका कोई आकार न होनेपर भी उसमें शब्दरूपी एक गुण भी है परन्तु शुद्ध ब्रह्म तो असीम, अनन्त, निर्गुण, केवल और एक ही है, इसीलिये वह अनिर्वचनीय है और इसीलिये उसका उपदेश केवल उसी अधिकारीके प्रति किया जा सकता है, जो उसे धारण करनेमें समर्थ है। यह तो शुद्ध ब्रह्मकी बात हुई।
इसी शुद्ध ब्रह्मका जितना अंश (आकाशके मेघोंसे आवृत अंशकी भाँति) अलग दीखता है वही मायाविशिष्ट सृष्टिकर्ता सगुण ईश्वर है और उसी परमात्माके एक अंशमें सारे ब्रह्माण्डकी स्थिति है। अस्तु!
अब इसके बाद साकार ईश्वर यानी अवतारका विषय आता है, जब वह सगुण ईश्वर आवश्यकता समझते हैं तभी वह अपनी मायाको अधीन करके जिस रूपमें कार्य करना होता है उसी रूपमें प्रकट हो जाते हैं। कभी मनुष्यरूपमें, कभी वाराह और नृसिंहरूपमें, कभी मत्स्य और कच्छपरूपमें, कभी हंस और अश्वरूपमें। इसी प्रकार आवश्यकतानुसार अनेक रूपोंमें ईश्वर साक्षात् अवतीर्ण हो लोगोंको दर्शन देकर कृतार्थ करते हैं परन्तु उनका यों संसारमें प्रकट होना प्राकृत जीवोंके सदृश नहीं होता, ईश्वरके अवतीर्ण होनेका समय और हेतु भगवान् ने श्रीगीताजीमें कहा है—
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
(४। ७-८)
‘हे अर्जुन! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तब-तब ही मैं अपने रूपको प्रकट करता हूँ। मैं साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये और दूषित कर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये तथा धर्मकी स्थापनाके लिये युग-युगमें प्रकट होता हूँ।’
इस समय पृथ्वीपर ऐसा कोई अवतार नहीं दीखता जो यों कह दे कि मैंने साधुओंका उद्धार करनेके लिये अवतार लिया है, संसारमें साधु अनेक मिल सकते हैं किन्तु उन साधुओंके उद्धारके लिये अवतीर्ण होकर आनेवाला कोई नहीं दीखता। भगवान् श्रीकृष्णकी भाँति यों कहनेवाला कि—
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८।६६)
‘सब धर्मोंके आश्रयको छोड़कर केवल एक मुझ वासुदेवकी ही अनन्य शरण हो जा, मैं तुझको सारे पापोंसे छुड़ा दूँगा, तू चिन्ता न कर।’
यों एकमात्र अपनी शरणसे ही पापोंसे मुक्त कर देनेका वचन देनेवाला इस समय संसारमें कोई अवतार नहीं!
कुछ दिनों पहले एक सज्जनने मुझसे पूछा था कि पृथ्वीपर पाप तो बहुत बढ़ गया है, क्या भगवान् के अवतार लेनेका समय अभी नहीं आया? यदि आया है तो भगवान् अवतार क्यों नहीं लेते? मैंने उनसे कहा था कि मुझे मालूम नहीं। यह तो कोई बात ही नहीं कि मैं सभी बातोंका जानकार होऊँ, भगवान् अवतार क्यों नहीं लेते, इस बातको भगवान् ही जानें। हाँ, यदि कोई मुझसे पूछे कि भगवान् के अवतार लेनेसे तुम प्रसन्न हो या नहीं, तो मैं यही कहूँगा कि मैं भगवान् के अवतार लेनेसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि इस समय यदि भगवान् का अवतार हो जाय तो मुझे भी उनके दर्शन हो सकते हैं। यदि कोई सरलतासे यह पूछे कि तुम्हारे अनुमानसे भगवान् के अवतार लेनेका समय अभी आया है या नहीं? तो मैं अपने अनुमानसे यही कह सकता हूँ कि वह समय सम्भवत: अभी नहीं आया, यदि वह समय आया होता तो भगवान् अवतीर्ण हो जाते। कलियुगमें जैसा कुछ होना चाहिये अभीतक उससे कुछ अधिक नहीं हो रहा है। भगवान् के अन्य अवतारोंके समय जैसा अत्याचार बढ़ा था, धर्म और धर्मप्राण ऋषियोंकी जैसी दुर्दशा हुई थी वैसी अभी नहीं हुई है। भगवान् श्रीरामचन्द्रके समयमें तो राक्षसोंके द्वारा मारे हुए ऋषियों की हड्डियोंके ढेर लग गये थे।
प्रश्न—क्या ऋषियोंमें राक्षसोंके वध करनेका सामर्थ्य नहीं था और यदि था तो उन्होंने राक्षसोंका वध क्यों नहीं किया?
उत्तर—ऋषियोंमें राक्षसोंके वध करनेका सामर्थ्य था, परन्तु वे अपना तपोबल क्षीण करना नहीं चाहते थे। जिस समय श्रीविश्वामित्रजीने महाराज दशरथके पास आकर यज्ञकी रक्षाके लिये श्रीराम-लक्ष्मणको माँगा, उस समय भी उन्होंने यही कहा था कि ‘यद्यपि मैं राक्षसोंका वध स्वयं कर सकता हूँ परन्तु इससे मेरा तप क्षय होगा जिसको कि मैं करना नहीं चाहता। श्रीराम-लक्ष्मणके द्वारा राक्षसोंका वध होनेपर मेरे यज्ञकी रक्षा भी होगी तथा मेरा तपोबल भी सुरक्षित रह जायगा। श्रीराम-लक्ष्मण राक्षसोंको सहजहीमें मार सकते हैं, इस बातको मैं जानता हूँ, तुम नहीं जानते।’ महाराज दशरथने मोहसे श्रीराम-लक्ष्मणको साधारण बालक समझकर अपत्य-स्नेहके वशीभूत हो विश्वामित्रसे कहा कि ‘नाथ! मैं स्वयं आपके साथ चलनेको तैयार हूँ, एक रावणको छोड़कर और सारे राक्षसोंको मार सकता हूँ। आप राम-लक्ष्मणको न लेकर मुझे ले चलिये।’ इस प्रकार राजाको मोहमें पड़े हुए देखकर श्रीवसिष्ठजी महाराजने, जो भगवान् श्रीरामके प्रभावको तत्त्वसे जानते थे, दशरथजीको समझाकर कहा कि ‘राजन्! तुम किसी प्रकारकी चिन्ता न करो, ये साधारण बालक नहीं हैं, इन्हें कोई भय नहीं है, तुम प्रसन्नताके साथ इन्हें विश्वामित्रजीके साथ भेज दो।’ इस प्रसंगसे यह जाना जाता है कि ऋषिगण सामर्थ्यवान् तो थे, परन्तु अपने तपोबलसे काम लेना नहीं चाहते थे।
कलियुगमें अभीतक ऐसा समय उपस्थित हुआ नहीं जान पड़ता कि जिससे भगवान् को अवतार लेना पड़े और भगवान् यों सहसा अवतार लिया भी नहीं करते। पहले तो वे कारक पुरुषोंको अपना अधिकार सौंपकर भेजते हैं, जैसे मालिक अपनी दूकान सँभालनेके लिये विश्वासी मुनीमको भेजता है। पर जब वह देखता है कि मुनीमसे कार्य सिद्ध नहीं होगा, मेरे स्वयं गये बिना काम नहीं चलेगा, तब वह स्वयं जाता है; इसी प्रकार जब कारक पुरुषोंके भेज देनेपर भी भगवान् को अपने अवतार लेनेकी आवश्यकता प्रतीत होती है तब वे स्वयं प्रकट होते हैं। कारक पुरुष उन्हें कहते हैं कि जो भगवत्कृपासे अपने पुरुषार्थद्वारा इस श्लोकके अनुसार—
अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥
भिन्न-भिन्न देवताओंद्वारा क्रमसे अग्रसर होते हुए अन्तमें भगवान् के सत्यलोकको पहुँचते हैं। इस लोकमें जानेवाले महात्माओंका स्वागत करनेके लिये भगवान् के पार्षद (अमानव पुरुष) विमान लेकर सामने आते हैं और उन्हें बड़े आदर-सत्कारके साथ भगवान् के उस परमधाममें ले जाते हैं। वह धाम प्रलयकालमें नाश नहीं होता, वहाँ किसी प्रकारका दु:ख और शोक नहीं है। एक बार जो उस धाममें पहुँच जाता है उसका फिरसे कर्म-बन्धनयुक्त जन्म नहीं होता। इसी लोकको सम्भवत: श्रीविष्णुके उपासक वैकुण्ठ, श्रीकृष्णके उपासक गोलोक और श्रीरामके उपासक साकेतलोक कहते हैं। इस लोकमें पहुँचे हुए महात्मागण महाप्रलयपर्यन्त सुखपूर्वक वहाँ निवास कर अन्तमें शुद्ध ब्रह्ममें शान्त हो जाते हैं। ऐसे लोगोंमेंसे यदि कोई महापुरुष सृष्टिकर्ता भगवान् की प्रेरणासे अथवा अपनी इच्छासे केवल जगत् का हित करनेके लिये संसारमें आते हैं तो वे कारक पुरुष कहलाते हैं। ऐसे लोगोंके दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तनसे भी श्रद्धालु पुरुषोंका उद्धार हो सकता है। श्रीवसिष्ठजी और वेदव्यासजी महाराज आदि ऐसे ही महापुरुषोंमेंसे थे। इन लोगोंका जगत् में प्रकट होना केवल जगत् के उद्धारके लिये ही होता है, जिस प्रकार किसी कारागारमें पड़े हुए कैदियोंको मुक्त करनेके लिये किसी विशेष अवसरपर राजाके प्रतिनिधि अधिकार लेकर कारागारमें जाते हैं और वहाँ जाकर बन्धनमें पड़े हुए कैदियोंको बन्धनसे मुक्त कर, स्वतन्त्रतासे वापस लौट आते हैं। जेलमें कैदी भी जाते हैं और राजाके प्रतिनिधि भी। भेद इतना ही है कि कैदी तो अपने किये हुए दुष्कर्मोंका फल भोगनेके लिये परवश होकर जेलके बन्धनमें जाते हैं और राजाके प्रतिनिधि स्वतन्त्रतासे दयाके कारण बन्धनमें पड़े हुए कैदियोंको मुक्त करनेके लिये जेलमें जाते हैं। इसी प्रकार कारक पुरुष भी संसारमें केवल बन्धनमें पड़े हुए जीवोंको मुक्त करनेके लिये ही प्रकट होते हैं। अवतारमें और कारक पुरुषमें यही अन्तर है कि अवतार तो कभी जीवभावको प्राप्त हुए ही नहीं और कारक पुरुष किसी कालमें जीवभावको प्राप्त थे परंतु भगवत्-कृपासे अपने पुरुषार्थद्वारा क्रममुक्तिसे वे अन्तमें इस स्थितिको प्राप्त हो गये। इस समय अवतार और कारक पुरुष तो जगत् में देखनेमें नहीं आते, जीवन्मुक्त महात्मा अलबत्ता मिल सकते हैं।
मुक्ति दो प्रकारकी होती है—सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति। जो इसी देहमें अज्ञानसे सर्वथा छूटकर नित्य, सत्य, आनन्द-बोधस्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, जिनके सारे कर्म ज्ञानाग्निके द्वारा भस्म हो जाते हैं और जिनकी दृष्टिमें एक अनन्त और असीम परमात्मसत्ताके सिवा जगत् की भिन्न सत्ताका सर्वथा अभाव हो जाता है, ऐसे महापुरुष तो जीवन्मुक्त कहलाते हैं, इसीका नाम सद्योमुक्ति है। और जो उपर्युक्त क्रमसे लोकान्तरोंमें होते हुए परमधामतक पहुँचते हैं वे क्रममुक्त कहलाते हैं। इस मुक्तिके चार भेद हैं, यथा—सामीप्य, सारूप्य, सालोक्य और सायुज्य। भगवान् के समीप निवास करनेका नाम सामीप्य है, भगवान् के समान स्वरूप प्राप्त होनेका नाम सारूप्य है, भगवान् के समान लोकमें निवास करनेका नाम सालोक्य है और भगवान् में मिल जानेका नाम सायुज्य है। जो दास-दासी वा माधुर्यभावसे भगवान् की भक्ति करते हैं उन्हें सामीप्य-मुक्ति, जो मित्रभावसे भजते हैं उन्हें सारूप्य-मुक्ति, जो वात्सल्यभावसे भजते हैं उन्हें सालोक्य-मुक्ति और जो वैरभावसे या ज्ञानमिश्रिता भक्तिसे भगवान् की उपासना करते हैं उन्हें सायुज्य-मुक्ति प्राप्त होती है।
ऐसे महापुरुष इस समय भी जगत् में हैं। जीवन्मुक्त वही होता है जो पहले जीवभावको प्राप्त था, पीछेसे पुरुषार्थके द्वारा मुक्त हो गया। जैसे श्रीशुकदेवजी और राजा जनकादि।
जीवोंमें पहली श्रेणीमें तो कुछ ऐसे महापुरुष हैं कि जो जीवभावसे मुक्त हो चुके हैं। दूसरे ऐसे लोग इस समय मिल सकते हैं कि जो दैवी सम्पत्तिका आश्रय लिये हुए मुक्तिके मार्गमें स्थित हैं और मुक्तिके बहुत समीप पहुँच चुके हैं, सम्भव है कि उनकी इसी जन्ममें मुक्ति हो जाय या किसीको एक जन्म और भी धारण करना पड़े। ऐसे पुरुष भी जीवन्मुक्तोंकी भाँति काम-क्रोध और शोक-हर्षके अधीन प्राय: नहीं होते।
प्रश्न—प्राचीन कालमें ऋषियोंके और महात्माओंके हर्ष-शोक हुए हैं, ऐसे लेख ग्रन्थोंमें मिलते हैं। इसका क्या कारण है?
उत्तर—जिनको राग-द्वेषके कारण हर्ष-शोकका विकार होता है वे तो जीवन्मुक्त नहीं समझे जा सकते, परन्तु यदि कर्तव्यवश लोकमर्यादाके लिये किसी-किसी अंशमें महात्माओंमें हर्ष-शोकका व्यवहार दीखता है तो कोई हानि नहीं। भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने तो सीताके हरण हो जानेपर और लक्ष्मणके शक्ति लगनेपर बड़ा विलाप किया था, वह भी ऐसे शब्दोंमें और ऐसे भावसे कि जिसे देख-सुनकर बड़े-बड़े लोगोंको मोह-सा होने लगा था, किंतु वह केवल भगवान् का व्यवहार था और उसमें तो एक विलक्षण बात और भी थी। भगवान् श्रीरामने श्रीसीताजी और लक्ष्मणके लिये व्याकुलतासे विलापकर जगत् को महान् प्रेमकी और अपने मृदु स्वभावकी बड़ी भारी शिक्षा दी थी। भगवान् ने श्रीगीताजीमें अपना यह स्वभाव बतलाया है कि—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
‘जो मेरेको जैसे भजते हैं मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।’ इसीके अनुसार भगवान् श्रीरामने श्रीसीताजीके लिये विलाप करते हुए वृक्षों, शाखाओं और पत्तोंसे समाचार पूछ-पूछकर यह सिद्ध कर दिया कि जिस तरहसे इस समय रावणके हाथोंमें पड़ी हुई सीता रामके प्रेममें निमग्न होकर ‘राम-राम’ पुकार रही है उसी प्रकार राम भी सीताके प्रेम-बन्धनमें बँधकर प्रेमसे विह्वल हो ‘सीता-सीता’ पुकार रहे हैं। यों ही लक्ष्मणके लिये विलाप कर भगवान् श्रीरामने यह सिद्ध कर दिया कि रामके लिये लक्ष्मण जिस प्रकार व्याकुल हो सकता है, उसी प्रकार राम भी आज लक्ष्मणके लिये व्याकुल हैं। इससे हमलोगोंको यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि भगवान् को हम जिस प्रकार भजेंगे भगवान् भी हमें उसी प्रकार भजनेके लिये तैयार हैं। यह तो भगवान् की बात हुई पर ऋषि-महात्माओंमें भी लोक-व्यवहारमें हर्ष-शोकका-सा भाव हो सकता है।
जीवन्मुक्त और मुक्तिके समीप पहुँचे हुए लोगोंकी बात तो हुई। अब संसारमें ऐसे पुण्यात्मा सकाम योगी भी हैं कि जो—
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
(गीता ८।२५)
इस श्लोकके अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओंद्वारा अग्रसर होते हुए चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर स्वर्गमें अपने शुभ कर्मोंका फल भोगकर वापस लौट आते हैं।
पूर्वकालमें ऐसे योगी भी हुआ करते थे कि जिनको आठों प्रकारकी अथवा उनमेंसे कोई-कोई-सी सिद्धियाँ प्राप्त रहती थीं, वर्तमान कालमें यह विद्या लुप्तप्राय हो चुकी है। वास्तवमें केवल सिद्धियोंकी प्राप्तिसे परम कल्याण भी नहीं होता। सिद्धियोंसे सांसारिक सुख मिल सकते हैं परंतु मोक्ष नहीं मिलता, इसीलिये शास्त्रकारोंने इन सिद्धियोंको मोक्षका बाधक और जागतिक सुखोंका साधक माना है। सिद्धियोंको प्राप्त करनेवाले योगी प्राय: सिद्धियोंमें ही रह जाते हैं परन्तु ऊपर कहे हुए मुक्तिके मार्गमें स्थित योगी तो मोक्षरूप परम सिद्धिको प्राप्त कर लेते हैं इसीलिये उनका दर्जा इनसे ऊँचा है।
प्रश्न—आठ सिद्धियाँ कौन-सी हैं, कैसे प्राप्त होती हैं और उनसे क्या-क्या काम होते हैं?
उत्तर—सिद्धियोंके नाम अणिमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व हैं। इनकी प्राप्ति अष्टांगयोगके साधनसे होती है और इन सिद्धियोंसे इस प्रकार कार्य हो सकते हैं—
अणिमा—अपने स्वरूपको अणुके समान बना लेना, जैसे श्रीहनुमान् जी महाराजने लंकामें प्रवेश करनेके समय बनाया था।
गरिमा—शरीरको भारी वजनदार बना लेना, जैसे कर्णके बाण चलानेपर अर्जुनको बचानेके लिये सारथिरूपसे रथपर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णने बनाया था और अपने भारसे घोड़ोंसमेत रथको जमीनमें बैठा दिया था।
महिमा—शरीरको महान् विशाल बना लेना, जैसे भगवान् श्रीवामनजीने बनाया था।
लघिमा—शरीरको अत्यन्त हलका बना लेना।
प्राप्ति—इच्छानुसार पदार्थोंको प्राप्त कर लेना, जैसे भरद्वाज मुनिने भरतजीके आतिथ्यके समय किया था।
प्राकाम्य—कामनाके अनुसार कार्य हो जाना।
ईशित्व—ईश्वरके समान सृष्टि-रचना करनेका सामर्थ्य हो जाना।
वशित्व—अपने प्रभावसे चाहे जिसको अपने वशमें कर लेना।
ये आठ सिद्धियाँ हैं, आजकल इन सिद्धियोंको प्राप्त किये हुए पुरुष देखनेमें नहीं आते। सत्य-भाषणसे वाणीका सत्य हो जाना आदि उपसिद्धियोंको प्राप्त हुए पुरुष तो कहीं-कहीं मिल सकते हैं।
प्रश्न—क्या सत्य बोलनेवालेकी वाणीसे निकले हुए सभी शब्द सत्य हो जाते हैं?
उत्तर—अवश्य हो जाते हैं, उपनिषद् और पुराणादिमें इसके अनेक प्रमाण हैं जिनसे सिद्ध होता है कि प्राचीन कालमें ऐसा हुआ करता था। छोटे-से ऋषिकुमारने राजा परीक्षित् को शाप दे दिया था, तो उसीके अनुसार ठीक समयपर साँपने आकर परीक्षित् को डस लिया। जब राजा नहुषने इन्द्रपदपर आरूढ़ होकर ऋषियोंको अपनी पालकीमें जोता और कामान्ध होकर इन्द्राणीके पास जाने लगा तथा ‘शीघ्रं सर्प’ कहकर ऋषिको ठुकराया था, तब ऋषिने कहा था कि तुम सर्प हो जाओ, तदनुसार वह तुरंत साँप हो गया। प्रार्थना करनेपर फिर उसीको यह वरदान दिया कि द्वापरयुगमें भीमको पकड़नेपर महाराज युधिष्ठिरसे तुम्हारी भेंट होगी तब तुम्हारा उद्धार होगा, यह वचन भी सत्य हुआ। अतएव यह सिद्ध होता है कि सत्यवादीके मुखसे निकला हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है। हाँ, यदि कोई सत्यवादी कभी जान-बूझकर असत्य बोले तो उतने शब्द सत्य नहीं होते, जैसे महाराज युधिष्ठिरने जान-बूझकर अश्वत्थामाके मरनेकी सन्दिग्ध बात कही थी तब अश्वत्थामा नहीं मरा परन्तु यदि कोई केवल सत्य ही बोले तो उसकी वाणीके सत्य होनेमें कोई सन्देह नहीं।
आजकल कुछ ऐसे पुरुष भी मिल सकते हैं कि जिन लोगोंने मन और इन्द्रियोंको प्राय: वशमें कर लिया है, जिनको महीनोंतक स्त्रीके साथ एक शय्यापर सोते रहनेपर भी कामोद्रेक नहीं होता, भोजनकी चाहे जैसी सामग्री सामने होनेपर भी मन नहीं चलता, क्रोध और शोकके बड़े भारी कारण उपस्थित होनेपर भी क्रोध और शोक नहीं होता। परंतु ऐसा कोई महापुरुष मेरे देखनेमें नहीं आया कि जिसके दर्शन, स्पर्श, भाषण या चिन्तनसे ही उद्धार हो जाय, जैसे श्रीनारदजी महाराजके दर्शन और उपदेशसे लाखों ही प्राणियोंका उद्धार हो गया,श्रीशुकदेवजीके उपदेशसे लाखोंका कल्याण हुआ, जीवन्मुक्त आचार्योंके चिन्तनसे अनेक शिष्योंका उद्धार हुआ और बंगालके श्रीचैतन्यमहाप्रभुके दर्शन, स्पर्श और उपदेशसे हजारोंका कल्याण हुआ। इतना अवश्य कह सकता हूँ कि यदि मनुष्य चाहे तो ऐसा बन सकता है कि जिसके दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तनसे ही लोगोंका उद्धार हो जाय।