Seeker of Truth

नामकी अनन्त महिमा

श्रीभगवान् के नामकी महिमा अनन्त है और वह बड़ी ही रहस्यमयी है। शेष, महेश, गणेशकी तो बात ही क्या, जब स्वयं भगवान् भी अपने नामकी महिमा नहीं गा सकते—‘रामु न सकहिं नाम गुन गाई’ तब मुझ-सरीखा साधारण मनुष्य नाम-महिमापर क्या कह सकता है? परन्तु महापुरुषोंने किसी भी निमित्तसे भगवान् के गुण गाकर काल बितानेकी बड़ी प्रशंसा की है, इसी हेतुसे नाम-महिमापर यत्किंचित् लिखनेकी चेष्टा की जाती है।

भगवन्नामकी महिमा सभी युगोंमें सदा ही सभी साधनोंसे अधिक है परन्तु कलियुगमें तो नामकी महिमा सर्वोपरि है—

ध्यायन् कृते यजन् यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन्।
यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम्॥
(विष्णुपु० ६। २। १७)

‘सत्ययुगमें ध्यान करनेसे, त्रेतामें यज्ञ करनेसे, द्वापरमें पूजा करनेसे जो फल प्राप्त होता है वही फल कलियुगमें केवल श्रीकेशवके कीर्तनसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है।’

श्रीनारदपुराणमें तो यहाँतक कहा गया है—

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(१। ४१। ११५)

‘कलियुगमें केवल श्रीहरिका नाम ही—हरिका नाम ही—हरिकानाम ही परम कल्याण करनेवाला है, इसको छोड़कर अन्य कोई उपाय नहींहै।’

इसका यही अभिप्राय है कि कर्म, योग, ज्ञान आदि साधनोंका सांगोपांग सम्पन्न होना इस युगमें अत्यन्त ही कठिन है। फिर, भगवन्नाम बड़ा ही सुगम साधन है; इसके सभी अधिकारी हैं, सभी इसको समझ सकते हैं, यह सबको सुलभ है, मूर्ख-से-मूर्ख मनुष्य भी नामका जप-कीर्तन कर सकते हैं। इसमें न कोई खर्च है, न परिश्रम है। किसी प्रकारकी बाधा भी अभीतक नहीं है। इतनी सुगमता होनेके साथ ही सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें कोई भी शर्त नहीं है—

सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदु:॥
पतित: स्खलितो भग्न: सन्दष्टस्तप्त आहत:।
हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम्॥
(श्रीमद्भा० ६। २। १४-१५)

महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि ‘पुत्रादिके संकेतसे हो, हँसीसे हो, स्तोभसे (गीतका आलाप पूर्ण करनेके लिये) हो और अवहेलना या अवज्ञासे हो, वैकुण्ठ भगवान् का नामोच्चारण सम्पूर्ण पापोंका नाश कर देता है। जो मनुष्य ऊँचे स्थानसे गिरते समय, मार्गमें पैर फिसल जानेपर, अंग-भंग हो जानेपर, सर्पादिद्वारा डसे जानेपर, ज्वरादिसे तप्त होनेपर अथवा युद्धादिमें घायल होनेपर विवश होकर भी ‘हरि’ (इतना ही) कहता है वह नरकादि किसी भी यातनाको नहीं प्राप्त होता।’

अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकै:।
पुमान् विमुच्यते सद्य: सिंहत्रस्तैर्वृकैरिव॥
(विष्णुपु० ६। ८। १९)

‘विवश होकर भी जिस हरिके नामका कीर्तन करनेपर मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे वैसे ही छूट जाता है यानी उसके सम्पूर्ण पाप उसी तरह भाग जाते हैं जैसे सिंहसे डरकर भेड़िये भाग जाते हैं।’

गोसाईंजी महाराजने श्रीरामचरितमानसमें कहा है—

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥

प्र०—यदि ऐसी ही बात है, किसी प्रकारसे भी नाम लेनेपर पापोंका नाश होकर भगवत्प्राप्ति हो जाती है तो फिर श्रद्धा, प्रेम और निष्कामभाव आदिकी शर्तें क्यों लगायी जाती हैं?

उ०—श्रद्धा आदिकी शर्तें शीघ्र प्राप्तिके लिये हैं। प्राप्ति तो नामलेनेवाले सभीको होगी परन्तु जो श्रद्धा, प्रेम तथा निष्कामभावसे नाम जपेगा उसको बहुत शीघ्र प्राप्ति होगी।

मनु महाराजने कहा है—

विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणै:।
उपांशु: स्याच्छतगुण: साहस्रो मानस: स्मृत:॥
(२। ८५)

‘दर्शपौर्णमासादि विधियज्ञोंसे साधारण (जोर-जोरसे किया जानेवाला) जपयज्ञ दसगुना श्रेष्ठ है, उपांशु सौगुना श्रेष्ठ है और मानस जप हजारगुना श्रेष्ठ है।’ और जो जप केवल भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे प्रेम और श्रद्धापूर्वक किया जाता है उसका फल तो अनन्तगुना श्रेष्ठ है। उसकी तो कोई सीमा ही नहीं है। यहाँतक कि यदि मनुष्य भगवान् के अनन्य प्रेममें विह्वल होकर एक बार भी भगवान् का नामोच्चारण कर लेता है तो श्रीभगवान् तुरंत ही वहाँ प्रकट होकर उसे दर्शन दे सकते हैं।

प्र०—अपनी समझसे तो लोग प्रेमपूर्वक ही भगवान् के नामका जप करते हैं फिर भी भगवान् के दर्शन नहीं होते। इसमें क्या कारण है? यदि प्रेमकी कमी ही इसका कारण माना जाय तो फिर उस कमीकी पूर्ति कैसे होगी?

उ०—प्रेमभावसे जप करते-करते ही उस प्रेमकी प्राप्ति हो सकती है जिसमें विह्वल होकर एक बार भी नामोच्चारण करनेसे भगवान् दर्शन दे सकते हैं।

प्र०—ऐसे सकाम प्रेमसे भगवान् प्रकट हो सकते हैं या निष्कामसे?

उ०—प्रेमका बाहुल्य हो तो सकामसे भी भगवान् प्रकट हो सकते हैं। परन्तु वह सकाम प्रेम भी द्रौपदी या गजेन्द्रका-सा अनन्य होना चाहिये और जब सकामसे भगवान् प्रकट हो सकते हैं तब निष्कामके लिये तो कहना ही क्या है?

प्र०—नामके सम्बन्धमें ऐसा श्लोक मिलता है—

नाम्नोऽस्ति यावती शक्ति: पापनिर्हरणे हरे:।
श्वपचोऽपि नर: कर्तुं क्षमस्तावन्न किल्बिषम्॥
(अनुस्मृति ९९)

‘श्रीहरिके नाममें पाप-नाश करनेकी जितनी शक्ति है, उतने पाप करनेमें चाण्डाल भी समर्थ नहीं है।’

और इसमें मानस नाम-जपकी या प्रेमपूर्वक जपकी कोई शर्त भी नहीं है। फिर पापोंका नाश होता क्यों नहीं दीखता?

उ०—नाम-महिमामें विश्वास नहीं है और नामापराधयुक्त नाम-जप होता है। नामके दस अपराध हैं, उन अपराधोंसे युक्त जप होनेसे जपका बहुत-सा अंश उन अपराधोंके नाशमें ही लग जाता है। तथापि यदि मनुष्य विश्वासपूर्वक नाम-जप करता रहे तो जप करते-करते नामापराधोंका भी नाश हो सकता है और सारे पाप नष्ट होकर भगवत्प्राप्ति भी हो सकती है।

प्र०—एक मनुष्य मृत्युकालमें भगवान् के नामका उच्चारण तो करता है परन्तु भगवान् के स्वरूपका ध्यान नहीं करता।

प्र०—ऐसी अवस्थामें उसे दूसरे जन्ममें नामकी प्राप्ति होगी—स्वरूपकी तो होगी नहीं। फिर अन्तकालके नामोच्चारणसे मुक्तिका होना कैसे माना जाता है?

उ०—भगवान् नामके अधीन हैं, नाममें यह शक्ति है कि वह नामी भगवान् का साक्षात्कार करा देता है इसलिये मुक्ति प्राप्तहोनेमें कोई भी अड़चन नहीं है। श्रीचैतन्य महाप्रभुने कहा है—

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल:।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुराग:॥

‘हे भगवन्! आपने अपने अनेकों नाम प्रकाशित किये और उनमें अपनी सम्पूर्ण शक्ति अर्पित कर दी। नाम-स्मरणमें कालका भी कोई नियम नहीं रखा। आपकी तो ऐसी असीम कृपा और मेरा ऐसा दुर्भाग्य कि नाममें मेरा अनुराग ही नहीं हुआ।’

प्र०—शास्त्र तो कहते हैं कि ‘ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:’ ज्ञानके बिना मुक्ति नहीं होती। फिर नाम-जपसे मुक्तिका होना कैसे माना जाय?

उ०—नामी भगवान् को यथार्थ तत्त्वसे जान लेना यानी भगवान् जैसे हैं वैसे ही उनको जान लेना ज्ञान है और नामीको यथार्थ तत्त्वसे जना देनेकी नाममें शक्ति है। फिर मुक्ति होनेमें क्या सन्देह रहा?

प्र०—स्नानादि करके अच्छी तरह पवित्र होकर विधिपूर्वक नाम-जप करना चाहिये या विधि-अविधिकी कुछ भी परवा न करके? और इसी प्रकार नाम-जप नियत संख्यामें करना चाहिये या जितना मन हो उतना ही?

उ०—भगवान् के नामकी यह महिमा है कि उसे कोई किसी प्रकार भी क्यों न ले, उसका फल होता ही है। खेतमें चाहे जैसे भी बीज डाल दिये जायँ, वे उगते ही हैं। परन्तु विधिपूर्वक जप करनेका विशेष महत्त्व है। यही बात संख्याके सम्बन्धमें जाननी चाहिये। विधिपूर्वक और संख्यायुक्त जप करनेसे जपका यथार्थ आदर-सत्कार होता है और सत्कारपूर्वक किया हुआ साधन विशेष फलदायक होता ही है। विधि और संख्याका नियम होनेसे ठीकसमयपर उतना जप हो ही जाता है। जो विधि या संख्याका बन्धन नहीं मानते, वे भूलसे जप छोड़ भी देते हैं। अवश्य ही स्वाभाविक ही जिनके द्वारा आठों पहर नाम-जप होता है, उनके लिये कोई विधि नहीं है।

महर्षि पतंजलि कहते हैं—

तस्य वाचक: प्रणव:॥ (१।२७)

तज्जपस्तदर्थभावनम्॥ (१।२८)

तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च॥
(१। २९)

‘उस परमात्माका वाचक (नाम) ओंकार है। उसके नामका जप और उसके अर्थकी भावना यानी स्वरूपका चिन्तन करना। ऐसा करनेसे सम्पूर्ण विघ्नोंका नाश और परमात्माकी प्राप्ति भी होती है।’

परन्तु जब केवल नाम-जपसे ही भगवत्प्राप्ति हो सकती है तब अर्थसहित जपकी क्या आवश्यकता है?

उ०—जप अर्थसहित करनेसे बहुत शीघ्र लाभ होता है। जैसे किसी हौजमें दो नालोंसे जल आ सकता है परन्तु उनमें एक खुला है, दूसरा बंद है। एक नालेसे आनेवाले जलसे हौज दो घंटेमें भरता है, पर यदि दूसरा नाला खोल दिया जाय तो हौज दो घंटेके बदले एक ही घंटेमें भर सकता है। इसी प्रकार अर्थसहित जप करनेसे शीघ्र लाभ हो जाता है।

प्र०—वेद, उपनिषद् और गीतामें प्रणव (ॐ)-की महिमा बहुत मिलती है। क्या भगवान् के अन्य नामोंकी भी ऐसी ही महिमा है?

उ०—भगवान् के सभी नाम परम कल्याणकारक हैं। राम, कृष्ण, हरि, नारायण, दामोदर, शिव, शंकर आदि नामोंकी तो बात ही क्या है, अन्यधर्मीय लोगोंके अल्लाह, खुदा आदिनामोंकी भी बड़ी महिमा है। भगवान् को कोई किसी भी नामसे पुकारे, वे सबकी भाषा समझते हैं। पुकारनेवालेके ध्यानमें यह बात होनी चाहिये कि मैं भगवान् को पुकार रहा हूँ। फिर नाम चाहे कोई भी हो। अप्, जल, पानी, नीर, वाटर आदि किसी भी नामसे पुकारे, उसे जल ही मिलता है, इसी प्रकार भगवान् के नामोंको समझना चाहिये। इतना होनेपर भी जप करनेवाले साधकको जिस नाममें विशेष रुचि, प्रेम और विश्वास होता है उसके लिये वही विशेष लाभप्रद होता है। राम और कृष्ण नाममें कोई अन्तर नहीं परन्तु तुलसीदासजीको ‘राम’ नाम प्यारा था और सूरदासजीको ‘कृष्ण’ नाम। श्रद्धा और प्रेमके तारतम्यके अनुसार ही नामका फल भी न्यूनाधिक हो जाता है।

नामकी महिमा सभी शास्त्रोंमें गायी गयी है। जिसको जिस नाममें प्रेम हो वह उसी नामका जप-कीर्तन कर सकता है। न जपनेवालेकी अपेक्षा तो वह भी बहुत श्रेष्ठ है जो दु:खनाश, भोगोंकी प्राप्ति और मान-बड़ाई आदिके लिये नाम-जप करता है। परन्तु नामके बदलेमें जो उपर्युक्त लौकिक फल चाहता है वह है बड़ी ही गलतीमें। वास्तवमें वह ठगा ही जाता है। भगवान् के जिस एक नामके सामने तीनों लोकोंका सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी कुछ नहीं, उस नामको तुच्छ विषयोंके बदले गँवा देना बुद्धिमानी नहीं है। तीनों लोकोंका राज्य अनित्य है, भगवान् के नामका फल नित्य है। नाम-जपका फल तो भगवत्प्राप्ति ही है। कुछ प्रेमी महात्मा तो ऐसे होते हैं जो नाम-जप केवल नाम-जपके लिये ही करते हैं। वे भगवत्प्राप्तिरूप फल भी नहीं चाहते। अतएव भगवान् के किसी भी नामका जप किया जाय सभी नाम मंगलमय हैं; पर निष्काम तथा प्रेमभावसे जपनेका विशेषमहत्त्व है। श्रीभगवान् ने गीतामें सब यज्ञोंसे ज्ञान-यज्ञको श्रेष्ठ बतलाया है।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परंतप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥
(४। ३३)

‘हे अर्जुन! सांसारिक वस्तुओंसे सिद्ध होनेवाले द्रव्यमय यज्ञसे ज्ञानरूप यज्ञ सब प्रकारसे श्रेष्ठ है; क्योंकि हे पार्थ! सम्पूर्ण यावन्मात्र कर्म ज्ञानमें ही शेष होते हैं अर्थात् ज्ञान ही उनकी पराकाष्ठा है।’

इस प्रकार ज्ञानयज्ञको सबमें श्रेष्ठ बतलाया परन्तु उसे अपना स्वरूप नहीं बतलाया। लेकिन जपयज्ञको तो ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ (गीता १०। २५) कहकर यही कह दिया है कि ‘सब प्रकारके यज्ञोंमें जपयज्ञ तो मैं ही हूँ।’

अतएव भगवान् के किसी भी नामका जप किसी भी कालमें किसी भी निमित्तसे किसीके भी द्वारा कैसे भी किया जाय, वह परम कल्याण करनेवाला ही है। फिर जो श्रद्धा-प्रेमपूर्वक अर्थसहित निष्कामभावसे और गुप्तरूपसे नाम-जप किया जाता है, वह तो उसी क्षण परम कल्याणरूप फल देनेवाला होता है। भगवत्प्राप्ति तो किसी प्रकार भी नाम-जप करनेसे हो जाती है परन्तु वह कालान्तरमें होती है। हाँ, अन्त समयके लिये कोई शर्त नहीं है। भगवान् परम दयालु हैं, उन्होंने दया करके ही जीवको यह मोक्षोपयोगी मनुष्य-शरीर दिया है और उन्हीं दयामयने यह विधान भी कर दिया है कि अन्तकालमें किसी प्रकार भी जो मेरा नाम-स्मरण कर लेगा उसे मेरी प्राप्ति हो जायगी। किसीको फाँसीकी आज्ञा होनेपर जब साधारण राजनियमके अनुसार भी मृत्युसे पहले उस मनुष्यकी इच्छा पूर्ण करनेका सुभीता कर दिया जाता है तब परम दयालु परम सुहृद् सर्वसमर्थ प्रभु मनुष्य-जीवनके अन्तकालमें जीवके साथ ऐसा दयाका बर्ताव करें, यह उचित ही है।

ऐसे परम कारुणिक परम प्रेमी सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी परमात्माको बिसारकर एक क्षणके लिये भी दूसरी वस्तुका भजन या सेवन करना महान् मूर्खताके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भगवान् ने स्वयं चेतावनी देते हुए कहा है—

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
(गीता ९। ३३)

‘तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।’

इस कथनसे यह ध्वनि निकलती है कि यह शरीर बहुत ही दुर्लभ है परंतु है नाशवान् और सुखरहित। दुर्लभता इसीलिये है कि इस शरीरसे ही परम कल्याण हो सकता है। ऐसे शरीरको पाकर तो सब समय भगवान् का भजन ही करना चाहिये। भजन नहीं किया जायगा और अज्ञानसे सुखरूप भासनेवाले विषय-भोगोंमें मन फँस जायगा तो सुख तो मिलेगा ही नहीं (क्योंकि भगवान् को छोड़कर जगत् में कहीं सुख है ही नहीं, यह तो सुखरहित ही है) और शीघ्र ही शरीरका नाश हो जानेसे मनुष्य-शरीरमें मुक्तिका अधिकाररूप हाथमें आया हुआ सुअवसर भी निकल जायगा।

यह स्मरण रखना चाहिये कि संसारमें भगवान् के भजनके समान और कोई वस्तु है ही नहीं। इस तत्त्वको जो जान लेते हैं वे तो एक क्षणके लिये भी भगवान् को नहीं भूल सकते। भगवान् ने कहा है—

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५। १९)

‘हे भारत! इस प्रकार तत्त्वसे जो ज्ञानी पुरुष मुझको पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।’ क्योंकि अनन्त ब्रह्माण्डोंके समस्त ऐश्वर्यसुखको एक ओर रखा जाय और भगवान् का क्षणकालका जप या स्मरण एक ओर रखा जाय तो भी वह उस जप-कीर्तनकी बराबरी नहीं कर सकता। असंख्य ब्रह्माण्ड तो भगवान् के एक अंशमें ही स्थित हैं। भगवान् के समान तो भगवान् ही हैं और भगवान् का नाम भगवान् से अभिन्न है। इसलिये नाम-जपके साथ किसीकी तुलना नहीं हो सकती। अतएव हम सब लोगोंको श्रद्धापूर्वक निष्काम प्रेमभावसे नित्य-निरन्तर भगवान् के नामका ही जप-कीर्तन और स्मरण करना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur