मृत्यु-समयके उपचार
हिन्दू-जातिमें मनुष्यके मरनेके समय घरवाले उसका परलोक सुधारनेके बहाने कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जिससे मरनेवाले मनुष्यको बड़ी पीड़ा होती है। अतएव निम्नलिखित बातोंपर विशेष ध्यान देना चाहिये—
१—यदि रोगी दो-तीन मंजिल ऊपर हो तो ऐसी हालतमें उसे नीचे लानेकी आवश्यकता नहीं।
२—खटियापर सोया हुआ हो तो वहीं रहने देना चाहिये।
३—यदि खटियापर मरनेमें कुछ वहम हो और नीचे उतारकर सुलानेकी आवश्यकता समझी जाय तो अनुमानसे मृत्युकालके दो-चार दिन पहलेसे ही उसे खाटसे नीचे उतारकर जमीनपर बालू बिछाकर सुला दे। बालू ऐसी नरम होनी चाहिये जो उसके शरीरमें कहीं गड़े नहीं। दो-चार दिन या दो-चार पहर पहलेका पता वैद्योंसे पूछकर, रोगीके लक्षण देखकर और बड़े-बूढ़े अनुभवी पुरुषोंसे सलाह करके अन्दाज कर ले। रोगी अच्छा हो जाय तो वापस खटियापर सुलानेमें कोई आपत्ति है ही नहीं, यदि अन्दाजसे पहले उसका प्राणान्त हो गया तो भी कुछ हानि नहीं है बल्कि मृत्युकालमें नीचे उतारकर सुलानेमें जो कष्ट होता है, उससे वह बच गया। दो-चार दिन पहले रोगीको अनुमान हो जाय तो उसे स्वयं ही कह देना चाहिये कि मुझे नीचे सुला दो।
४—उस अवस्थामें मृत्युसे पहले उसे स्नान करानेकी कोई आवश्यकता नहीं, इससे व्यर्थमें उसका कष्ट बढ़ता है। मल वगैरह साफ करना हो तो गीले गमछेसे धीरे-धीरे पोंछकर साफ कर देना चाहिये।
५—इस अवस्थामें गंगाजल, तुलसी देना बड़ा उत्तम है, परन्तु उसे निगलनेमें क्लेश होता हो तो तुलसीका पत्ता पीसकर उसे गंगाजलमें मिलाकर पिला देना चाहिये। एक बारमें एक तोलेसे अधिक जल नहीं देना चाहिये। दस-पाँच मिनट बाद फिर दिया जा सकता है। गंगाजल बहुत दिनोंका विस्वाद न हो, पहले स्वयं चखकर फिर रोगीको देना चाहिये। जिसमें गन्ध आने लगी हो, जो कड़वा हो गया हो वह नहीं देना चाहिये। ताजा गंगाजल कहींसे ही मँगा लेना चाहिये। गंगाजलमें शुद्धि, अशुद्धि या स्पर्शास्पर्शका कोई विधान नहीं है। रोगी मुँह बंद कर ले तो उसे कुछ भी नहीं देना चाहिये।
६—रोगीके पास बैठकर घरका रोना नहीं रोना चाहिये और संसारकी बातें उसे याद नहीं दिलानी चाहिये। माता, स्त्री, पति, पुत्र या और किसी स्नेहीको उसके पास बैठकर अपना दु:ख सुनाना या रोना नहीं चाहिये। उसके मनके अनुकूल उसकी हर तरहसे कल्याणमयी सेवा करनी चाहिये।
७—डॉक्टरी या जिसमें अपवित्र पदार्थोंका संयोग हो ऐसी दवा नहीं खिलानी चाहिये।
८—जहाँतक चेत रहे वहाँतक श्रीगीताका पाठ और उसका अर्थ सुनाना चाहिये। चेत न रहनेपर भगवान् का नाम सुनाना उचित है। गीता पढ़नेवाला न हो तो पहलेसे ही भगवान् का नाम सुनावे।
९—यदि रोगी भगवान् के साकार या निराकार किसी रूपका प्रेमी हो तो साकारवालेको भगवान् की छबि या मूर्ति दिखलानी चाहिये और उसके रूप तथा प्रभावका वर्णन सुनाना चाहिये। निराकारके प्रेमीको निराकार ब्रह्मके शुद्ध, बोधस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, सत्, चित्, घन, नित्य, अज,अविनाशी आदि विशेषणोंके साथ आनन्द शब्द जोड़कर उसे सुनाना चाहिये।
१०—यदि काशी आदि तीर्थोंमें ले जाना हो तो उसे पूछ ले। उसकी इच्छा हो, वहाँतक पहुँचनेमें शंका न हो, वैद्योंकी सम्मति मिल जाय, उतने रुपये खर्च करनेकी शक्ति हो तो वहाँ ले जाय।
११—प्राण निकलनेके बाद भी कम-से-कम पंद्रह-बीस मिनटतक किसीको खबर न दे। भगवन्नामका कीर्तन करते रहे जिससे वहाँका वायुमण्डल सात्त्विक रहे। रोनेका हल्ला न हो, क्योंकि उस समयका रोना प्राणीके लिये अच्छा नहीं है।
१२—घरवाले समझदार हों तो उनको रोना नहीं चाहिये। दूसरे लोगोंको भी उनके पास आकर उन्हें केवल सहानुभूतिके शब्द सुनाकर रुलानेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिये।
१३—शोक-चिह्न बारह ही दिनतक रखना चाहिये।
१४—बारह वर्षसे कम उम्रके लड़के-लड़कियोंकी मृत्युका शोक न मनावे।
१५—मृतकके लिये शोकसभा न कर अपनी सावधानीके लिये सभा करनी चाहिये। यह बात याद करनी चाहिये कि इसी प्रकार एक दिन हमारी भी मृत्यु होगी।
१६—जीवन्मुक्त पुरुषकी मृत्युपर शोक न करे, ऐसा करना उसका अपमान करना है।
**
**
**
**
**