Seeker of Truth

मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम

आदर्श गुण

रघुकुलभूषण भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके समान मर्यादारक्षक आजतक दूसरा कोई नहीं हुआ—यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं है। श्रीराम साक्षात् पूर्ण ब्रह्म परमात्मा थे। वे धर्मकी रक्षा और लोकोंके उद्धारके लिये ही अवतीर्ण हुए थे। किन्तु उन्होंने सदा सबके सामने अपनेको एक सदाचारी आदर्श मनुष्य ही सिद्ध करनेकी चेष्टा की। उनके आदर्श लीला-चरित्रोंके पढ़ने, सुनने और स्मरण करनेसे हृदयमें अत्यन्त पवित्र भावोंकी लहरें उठने लगती हैं और मन मुग्ध हो जाता है। उनका प्रत्येक कर्म अनुकरण करनेयोग्य है। श्रीराम सद्गुणोंके समुद्र थे। सत्य, सौहार्द, दया, क्षमा, मृदुता, धीरता, वीरता, गम्भीरता, अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान, पराक्रम, निर्भयता, विनय, शान्ति, तितिक्षा, उपरति, संयम, नि:स्पृहता, नीतिज्ञता, तेज, प्रेम, त्याग, मर्यादा-संरक्षण, एकपत्नीव्रत, प्रजारंजकता, ब्राह्मण-भक्ति, मातृ-पितृ-भक्ति, गुरु-भक्ति, भ्रातृ-प्रेम, मैत्री, शरणागत-वत्सलता, सरलता, व्यवहार-कुशलता, प्रतिज्ञा-पालन, साधु-रक्षण, दुष्ट-दलन, निर्वैरता, लोकप्रियता, अपिशुनता, बहुज्ञता, धर्मज्ञता, धर्मपरायणता, पवित्रता आदि-आदि सभी गुणोंका मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराममें पूर्ण विकास हुआ था। संसारमें इतने महान् गुण एक व्यक्तिमें कहीं नहीं पाये जाते। वाल्मीकीय रामायणके बाल और अयोध्याकाण्डोंके आदिमें भगवान् रामके गुणोंका बड़ा ही सुन्दर वर्णन है, उसे अवश्य पढ़ना चाहिये।

माता-पिता, बन्धु-मित्र, स्त्री-पुत्र, सेवक-प्रजा आदिके साथ उनका जैसा असाधारण आदर्श बर्ताव था, उसे स्मरण करते ही मन आनन्दमग्न हो जाता है। श्रीराम-जैसी लोकप्रियता कहीं देखनेमें नहीं आती। उनकी लीलाके समय ऐसा कोई भी प्राणी नहीं था, जो श्रीरामके प्रेमपूर्ण मधुर बर्तावसे मुग्ध न हो गया हो।

कैकेयीका रामके साथ अप्रिय एवं कठोर बर्ताव भगवान् की इच्छा और देवताओंकी प्रेरणासे लोक-हितार्थ हुआ था। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कैकेयीको श्रीराम प्रिय नहीं थे; क्योंकि जिस समय मन्थराने रानी कैकेयीको रामके विरुद्ध उकसानेकी चेष्टा की है, उस समय स्वयं कैकेयीने ही उसे यह उत्तर दिया है—

धर्मज्ञो गुणवान् दान्त: कृतज्ञ: सत्यवाञ्छुचि:।
रामो राजसुतो ज्येष्ठो यौवराज्यमतोऽर्हति॥
भ्रातॄन् भृत्यांश्च दीर्घायु: पितृवत् पालयिष्यति।
संतप्यसे कथं कुब्जे श्रुत्वा रामाभिषेचनम्॥
यथा वै भरतो मान्यस्तथा भूयोऽपि राघव:।
कौसल्यातोऽतिरिक्तं च मम शुश्रूषते बहु॥
राज्यं यदि हि रामस्य भरतस्यापि तत्तदा।
मन्यते हि यथाऽऽत्मानं तथा भ्रातॄंस्तु राघव:॥
(वा० रा० २। ८। १४-१५, १८-१९)

‘कुब्जे! राम धर्मके ज्ञाता, गुणवान्, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ, सत्यवादी और पवित्र होनेके साथ ही महाराजके बड़े पुत्र हैं; अत: युवराज होनेका अधिकार उन्हींको है। वे दीर्घजीवी होकर अपने भाइयों और नौकरोंका पिताकी भाँति पालन करेंगे। भला, उनके अभिषेककी बात सुनकर तू इतना जल क्यों रही है? मेरे लिये जैसे भरत आदरके पात्र हैं, वैसे ही—बल्कि उससे भी बढ़कर राम हैं। वे कौसल्यासे भी बढ़कर मेरी बहुत सेवा किया करते हैं। यदि रामको राज्य मिल रहा है तो उसे भरतकोही मिला समझ; क्योंकि रामचन्द्र अपने भाइयोंको अपने ही समान समझते हैं।’ कैसा सुन्दर वात्सल्य-प्रेम है! श्रीरामपर कैकेयीका कितना प्रेम, विश्वास और भरोसा था। इससे यह स्पष्ट समझमें आ जाता है कि कैकेयीका कठोर बर्ताव उसके स्वभावसे नहीं हुआ, भगवदिच्छासे ही हुआ था।

श्रीरामकी मातृ-भक्ति

श्रीरामकी मातृ-भक्ति बड़ी ही आदर्श थी। उसका ठीक-ठीक वर्णन करना असम्भव है; अत: यहाँ संकेतमात्र ही लिखा जाता है—

माता कौसल्या तथा अन्य माताओंकी तो बात ही क्या है, माता कैकेयीके द्वारा कठोर-से-कठोर व्यवहार किये जानेपर भी उसके प्रति श्रीरामका व्यवहार तो सदा भक्ति और सम्मानसे पूर्ण ही रहा। माता कौसल्याके महलसे लौटते समय कुपित हुए भाई लक्ष्मणसे उन्होंने स्वयं कहा है—

यस्या मदभिषेकार्थे मानसं परितप्यते।
माता न: सा यथा न स्यात् सविशंका तथा कुरु॥
तस्या: शङ्कामयं दु:खं मुहूर्तमपि नोत्सहे।
मनसि प्रतिसंजातं सौमित्रेऽहमुपेक्षितुम्॥
न बुद्धिपूर्वं नाबुद्धं स्मरामीह कदाचन।
मातॄणां वा पितुर्वाहं कृतमल्पं च विप्रियम्॥
(वा० रा० २। २२। ६—८)

‘लक्ष्मण! मेरे राज्याभिषेकके कारण जिसके चित्तमें सन्ताप हो रहा है, उस हमारी माता कैकेयीको जिससे मेरे ऊपर किसी तरहका सन्देह न हो, वही काम करो। उसके मनमें सन्देहके कारण उत्पन्न हुए दु:खकी मैं एक मुहूर्तके लिये भी उपेक्षा नहीं कर सकता। मैंने कभी जान-बूझकर या अनजानमें माताओं या पिताजीका कभी थोड़ा भी अप्रिय कार्य किया हो—ऐसा याद नहीं पड़ता।’

इसके सिवा और भी बहुत-से उदाहरण श्रीरामकी मातृ-भक्तिके मिलते हैं। चित्रकूटसे लौटते समय भरतसे भी रामने कहा था कि ‘भाई भरत! माता कैकेयीने तुम्हारे लिये कामनासे या राज्यलोभसे यह जो कुछ किया है, उसको मनमें न लाना। उनके साथ सदा वैसा ही बर्ताव करना, जैसा अपनी पूजनीया माताके साथ करना चाहिये।’ उसी समय शत्रुघ्नसे भी कहा है—‘भाई! मैं तुम्हें अपनी और सीताकी शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम कभी माता कैकेयीपर क्रोध न करना, सदा उनकी सेवा ही करते रहना।’ वनमें रहते समय एक बार लक्ष्मणने कैकेयीकी निन्दा की, उसपर आपने यही कहा—‘भाई! माता कैकेयीकी तुमको निन्दा नहीं करनी चाहिये’—इत्यादि। इससे यह पता चलता है कि श्रीरामकी अपनी अन्य माताओंके प्रति कैसी श्रद्धा और भक्ति रही होगी। राजा दशरथकी अन्य रानियोंने उनके वन जाते समय विलाप करते हुए कहा था—

कृत्येष्वचोदित: पित्रा सर्वस्यान्त:पुरस्य च।
गतिश्च शरणं चासीत् स रामोऽद्य प्रवत्स्यति॥
कौसल्यायां यथा युक्तो जनन्यां वर्तते सदा।
तथैव वर्ततेऽस्मासु जन्मप्रभृति राघव:॥
(वा० रा० २। २०। २-३)

‘जो राम किसी काम-काजके विषयमें पिताके कुछ न कहनेपर भी सारे अन्त:पुरकी गति और आश्रय थे, वे ही आज वनमें जा रहे हैं। वे जन्मसे ही जैसी सावधानीसे अपनी माता कौसल्याके साथ बर्ताव करते थे, उसी प्रकार हम सबके साथ भी करते थे।’

इससे बढ़कर श्रीरामकी मातृ-भक्तिका प्रमाण और क्या होगा।

पितृ-भक्ति

इसी प्रकार श्रीरामकी पितृ-भक्ति भी बड़ी अद्भुत थी। रामायण पढ़नेवालोंसे यह बात छिपी नहीं है कि पिताका आज्ञापालन करनेके लिये श्रीरामके मनमें कितना उत्साह, साहस और दृढ़ निश्चय था। माता कैकेयीसे बातचीत करते समय श्रीराम कहते हैं—

अहं हि वचनाद् राज्ञ: पतेयमपि पावके।
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे॥
(वा० रा० २। १८। २८-२९)
न ह्यतो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया॥
(वा० रा० २। १९। २२)

‘मैं महाराजके कहनेसे आगमें भी कूद सकता हूँ, तीव्र विषका पान कर सकता हूँ और समुद्रमें भी गिर सकता हूँ, क्योंकि जैसी पिताकी सेवा और उनकी आज्ञाका पालन करना है, इससे बढ़कर संसारमें दूसरा कोई धर्म नहीं है।’

इसी तरहके वहाँ और भी बहुत-से वचन मिलते हैं। उसके बाद माता कौसल्यासे भी उन्होंने कहा है—

नास्ति शक्ति: पितुर्वाक्यं समतिक्रमितुं मम।
प्रसादये त्वां शिरसा गन्तुमिच्छाम्यहं वनम्॥
(वा० रा० २। २१। ३०)

‘मैं चरणोंमें सिर रखकर आपसे प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करता हूँ। मुझमें पिताके वचन टालनेकी शक्ति नहीं है। अत: मैं वनको ही जाना चाहता हूँ।’

इसके सिवा लक्ष्मण, भरत और ऋषि-मुनियोंसे बात करते समय भी रामने पितृ-भक्तिके विषयमें बहुत कुछ कहा है। श्रीरामचन्द्रके बालचरित्रका संक्षेपमें वर्णन करते हुए भी यह बात कही गयी है कि श्रीराम सदा अपने पिताकी सेवामें लगे रहते थे।

एकपत्नीव्रत

श्रीरामका एकपत्नीव्रत भी बड़ा ही आदर्श था। श्रीरामने स्वप्नमें भी कभी श्रीजानकीजीके सिवा दूसरी स्त्रीका वरण नहीं किया। सीताको वनवास देनेके बाद यज्ञमें स्त्रीकी आवश्यकता होनेपर भी उन्होंने सीताकी ही स्वर्णमयी मूर्तिसे काम चलाया। यदि वे चाहते तो कम-से-कम उस समय तो दूसरा विवाह कर ही सकते थे। उससे संसारमें भी उनकी कोई अपकीर्ति नहीं होती, परंतु भगवान् तो मर्यादापुरुषोत्तम ठहरे। उनको तो यह बात चरितार्थ करके दिखानी थी कि जिस प्रकार स्त्रीके लिये पातिव्रत्यका विधान है, उसी तरह पुरुषके लिये भी एकपत्नीव्रत परमावश्यक है। स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध भोग भोगनेके लिये नहीं, अपितु धर्माचरणके लिये है।

भगवान् श्रीरामका सीताके साथ कितना प्रेम था, इसका कुछ दिग्दर्शन सीता-हरणके बादका प्रसंग पढ़नेसे हो सकता है। श्रीराम परम वीर, धीर और सहिष्णु होते हुए भी उस समय एक साधारण विरहोन्मत्त पागलकी भाँति पशु-पक्षी, वृक्ष-लता और पर्वतोंसे सीताका पता पूछते और नाना प्रकारके विलाप करते हुए एक वनसे दूसरे वनमें भटकते फिरते हैं। कहीं-कहीं तो शोकसे विह्वल और मूर्च्छित होकर गिर पड़ते हैं एवं ‘हा सीते! हा सीते!’ पुकार उठते हैं। उस समयका वर्णन बड़ा ही करुणापूर्ण और हृदयविदारक है।

भ्रातृ-प्रेम

श्रीरामका भ्रातृ-प्रेम भी अतुलनीय था। लड़कपनसे ही श्रीराम अपने भाइयोंके साथ बड़ा प्रेम करते थे। सदा उनकी रक्षा करते और उन्हें प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे। चारों भाई एक साथ ही घोड़ोंपर चढ़कर विचरण किया करते थे। रामचन्द्रजीको जो भी कोई उत्तम भोजन या वस्तु मिलती थी, उसे वे पहले अपने भाइयोंको देकर पीछे स्वयं खाते या उपयोगमें लाते थे। यद्यपि श्रीरामका सभी भाइयोंके साथ समान भावसे ही पूर्ण प्रेम था, उनके मनमें कोई भेद नहीं था, तथापि लक्ष्मणका श्रीरामके प्रति विशेष स्नेह था। वे थोड़ी देरके लिये भी श्रीरामसे अलग रहना नहीं चाहते थे। श्रीरामका वियोग उनके लिये असह्य था, इसी कारण विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षाके लिये भी वे श्रीरामके साथ ही वनमें गये। वहाँ राक्षसोंका विनाश करके दोनों भाई जनकपुरमें पहुँचे। धनुषभंग हुआ। तदनन्तर विवाहकी तैयारी हुई और चारों भाइयोंका विवाह साथ-साथ ही हुआ। विवाहके बाद अयोध्यामें आकर चारों भाई प्रेमपूर्वक रहे।

कुछ दिनोंके बाद अपने मामाके साथ भरत-शत्रुघ्न ननिहाल चले गये। श्रीराम और लक्ष्मण पिताके आज्ञानुसार प्रजाका कार्य करते रहे। श्रीरामके प्रेमभरे बर्तावसे, उनके गुण और स्वभावसे सभी नगर-निवासी और बाहर रहनेवाले ब्राह्मणादि वर्णोंके मनुष्य मुग्ध हो गये। फिर राजा दशरथने मुनि वसिष्ठकी आज्ञा और प्रजाकी सम्मतिसे श्रीरामके राज्याभिषेकका निश्चय किया। राजा दशरथजीके मुखसे अपने राज्याभिषेककी बात सुनकर श्रीराम माता कौसल्याके महलमें आये। माता सुमित्रा और भाई लक्ष्मण भी वहीं थे। उस समय श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मणसे कहते हैं—

लक्ष्मणेमां मया सार्धं प्रशाधि त्वं वसुन्धराम्।
द्वितीयं मेऽन्तरात्मानं त्वामियं श्रीरुपस्थिता॥
सौमित्रे भुङ्क्ष्व भोगांस्त्वमिष्टान् राज्यफलानि च।
जीवितं चापि राज्यं च त्वदर्थमभिकामये॥
(वा० रा० २। ४। ४३-४४)

‘लक्ष्मण! तुम मेरे साथ इस पृथ्वीका शासन करो। तुम मेरे दूसरे अन्तरात्मा हो। यह राज्यलक्ष्मी तुम्हें ही प्राप्त हुई है। सुमित्रानन्दन! तुम मनोवांछित भोग और राज्य-फलका उपभोग करो। मैं जीवन और राज्य भी तुम्हारे लिये ही चाहता हूँ।’

इसके बाद इस लीला-नाटकका पट बदल गया। माता कैकेयीके इच्छानुसार राज्याभिषेक वन-गमनके रूपमें परिणत हो गया। सुमन्त्रके द्वारा बुलाये जानेपर जब श्रीराम महलमें गये और माता कैकेयीसे बातचीत करनेपर उन्हें वरदानकी बात मालूम हुई, तब उन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। तदनन्तर वे माता कौसल्यासे विदा माँगने गये, वहाँ भी बहुत बातें हुईं; परन्तु श्रीरामने एक भी शब्द भरत या कैकेयीके विरुद्ध नहीं कहा, बल्कि भरतजीकी बड़ाई करते हुए माताको धैर्य दिया और कहा कि ‘भरत मेरे ही समान आपकी सेवा करेगा।’ उसी समय सीताको घरपर रहनेके लिये समझाते हुए कहते हैं—

भ्रातृपुत्रसमौ चापि द्रष्टव्यौ च विशेषत:।
त्वया भरतशत्रुघ्नौ प्राणै: प्रियतरौ मम॥
(वा० रा० २। २६। ३३)

‘सीते! मेरे भाई भरत-शत्रुघ्न मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय हैं। अत: तुम्हें उनको अपने भाई और पुत्रके समान या उससे भी बढ़कर प्रिय समझना चाहिये।’

वनगमनका समाचार सुनकर लक्ष्मणके मनमें भारी दु:ख और क्रोध हुआ। उसे भी श्रीरामने नीति और धर्मसे परिपूर्ण बहुत ही मधुर और कोमल वचनोंसे शान्त किया। फिर जब लक्ष्मणने साथ चलनेके लिये प्रार्थना की, उस समय उनको वहीं रहनेके लिये समझाते हुए श्रीरामने कहा है—

स्निग्धो धर्मरतो धीर: सततं सत्पथे स्थित:।
प्रिय: प्राणसमो वश्यो विधेयश्च सखा च मे॥
(वा० रा० २। ३१। १०)

‘लक्ष्मण! तुम मेरे स्नेही, धर्मपरायण, धीर और सदा सन्मार्गमें स्थित रहनेवाले हो। मुझे प्राणोंके समान प्रिय, मेरे वशमें रहनेवाले, आज्ञापालक और सखा हो।’

बहुत समझानेपर भी जब लक्ष्मणने अपना प्रेमाग्रह नहीं छोड़ा, तब भगवान् ने उनको संतुष्ट करनेके लिये अपने साथ ले जाना स्वीकार किया। वनमें रहते समय भी श्रीरामचन्द्रजी सब प्रकारसे लक्ष्मण और सीताको सुख पहुँचाने तथा प्रसन्न रखनेकी चेष्टा किया करते थे।

भरतके सेनासहित चित्रकूट आनेका समाचार पाकर जब श्रीराम-प्रेमके कारण लक्ष्मण क्षुब्ध होकर भरतके प्रति न कहनेयोग्य शब्द कह बैठे, तब श्रीरामने भरतकी प्रशंसा करते हुए कहा—

धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण।
इच्छामि भवतामर्थे एतत् प्रतिशृणोमि ते॥
भ्रातॄणां संग्रहार्थं च सुखार्थं चापि लक्ष्मण।
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे॥
यद् विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं वापि मानद।
भवेन्मम सुखं किंचिद् भस्म तत् कुरुतां शिखी॥
स्नेहेनाक्रान्तहृदय: शोकेनाकुलितेन्द्रिय:।
द्रष्टुमभ्यागतो ह्येष भरतो नान्यथाऽऽगत:॥
(वा० रा० २। ९७। ५-६,८,११)

‘लक्ष्मण! मैं सच्चाईसे अपने आयुधकी शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं धर्म, अर्थ, काम और सारी पृथ्वी—सब कुछ तुम्हीं लोगोंके लिये चाहता हूँ। लक्ष्मण! मैं राज्यको भी भाइयोंकी भोग्य सामग्री और उनके सुखके लिये ही चाहता हूँ। तथा मेरे विनयी भाई! भरत, तुम और शत्रुघ्नको छोड़कर यदि मुझे कोई भी सुख होता हो तो उसमें आग लग जाय। मैं समझता हूँ कि मेरे वनमें आनेकी बात कानमें पड़ते ही भरतका हृदय स्नेहसे भर गया है, शोकसे उसकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयी हैं; अत: वह मुझे देखनेके लिये आ रहा है। उसके आनेका कोई दूसरा कारण नहीं है।’

इसके सिवा वहाँ यह भी कहा है कि ‘भरत मनसे भी मेरे विपरीत आचरण नहीं कर सकता। यदि तुम्हें राज्यकी इच्छा है तो मैं भरतसे कहकर दिला दूँ।’

लक्ष्मणका भरतके प्रति जो सन्देह था, वह उपर्युक्त बातें सुनते ही नष्ट हो गया।

उसके बाद जब भरत आश्रममें पहुँचकर श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें लोट गये, तब श्रीरामने उनको देखा। अपने हाथोंसे उठाकर भरतका हृदयसे आलिंगन किया। उनको गोदमें बैठाकर और उनका सिर सूँघकर आदरपूर्वक सब समाचार पूछे और कहा—‘भाई! तुम चीर और जटा धारण करके यहाँ क्यों आये?’ इसपर भरतने श्रीरामको अयोध्या लौटानेकी बहुत चेष्टा की। भरत तथा रामके प्रेम और बर्तावको देखकर सारा समाज चकित हो गया। अन्तमें जब भरतने यह बात समझ ली कि श्रीराम अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ेंगे, तब भरतने श्रीरामसे उनकी पादुकाएँ माँगी। भरतकी प्रार्थना स्वीकार करके श्रीरामने अपनी पादुका देकर भरतको विदा कर दिया। वे उन पादुकाओंको आदरपूर्वक सिरपर धारण करके अयोध्या लौट आये। उन पादुकाओंका राज्याभिषेक करके उनके आज्ञानुसार राज्यका शासन करने लगे और स्वयं श्रीरामकी ही भाँति मुनिवेष धारण करके नन्दिग्राममें रहे।

उसके बाद सीता-हरण हुआ। लंकापर चढ़ाई की गयी। रावणके साथ भयानक युद्ध आरम्भ हो गया। वहाँ एक दिन रावणके शक्ति-बाणसे लक्ष्मणके मूर्च्छित हो जानेपर श्रीरामने जैसी विलापलीला की, उससे छोटे भाई लक्ष्मणपर उनका कितना प्रेम था, इसका पता चलता है। वहाँ श्रीरामने कहा है—

यथैव मां वनं यान्तमनुयाति महाद्युति:।
अहमप्यनुयास्यामि तथैवैनं यमक्षयम्॥
इष्टबन्धुजनो नित्यं मां स नित्यमनुव्रत:।
इमामवस्थां गमितो राक्षसै: कूटयोधिभि:॥
(वा० रा० ६। १०१। १३-१४)

‘महातेजस्वी लक्ष्मणने वन आते समय जिस प्रकार मेरा अनुसरण किया था, उसी प्रकार अब मैं भी इसके साथ यमलोकको जाऊँगा। यह सदा-सर्वदा ही मेरा प्रिय बन्धु और अनुयायी रहा है, हाय! कपटयुद्ध करनेवाले राक्षसोंने आज इसे इस अवस्थामें पहुँचा दिया।’

जो भाई अपने लिये सब कुछ छोड़कर मरनेको और सब तरहका कष्ट सहनेको तैयार हो, उसके लिये चिन्ता और विलाप करना तो उचित ही है; परंतु श्रीरामने तो इस प्रसंगमें विलापकी पराकाष्ठा दिखाकर भ्रातृ-प्रेमकी बड़ी ही सुन्दर शिक्षा दी है।

श्रीहनुमान् जी द्वारा संजीवनी-बूटी मँगवाकर सुषेणने लक्ष्मणको स्वस्थ कर दिया। युद्धमें रावण मारा गया। लंकापर विजय हो गयी। भगवान् राम अयोध्या लौटनेके लिये तैयार हुए। उस समय विभीषणने श्रीरामको बड़े आदर और प्रेमसे विनयपूर्वक कुछ दिन रुकनेके लिये कहा। तब श्रीरामचन्द्रजीने उत्तर दिया—

न खल्वेतन्न कुर्यां ते वचनं राक्षसेश्वर।
तं तु मे भ्रातरं द्रष्टुं भरतं त्वरते मन:॥
मां निवर्तयितुं योऽसौ चित्रकूटमुपागत:।
शिरसा याचितो यस्य वचनं न कृतं मया॥
(वा० रा० ६। १२१। १८-१९)

‘राक्षसेश्वर! मैं तुम्हारी बात न मानूँ—ऐसा कदापि सम्भव नहीं; परंतु मेरा मन उस भाई भरतसे मिलनेके लिये छटपटा रहा है। जिसने चित्रकूटतक आकर मुझे लौटा ले जानेके लिये सिर झुकाकर प्रार्थना की थी और मैंने जिसके वचनोंको स्वीकार नहीं किया था [उस प्राणप्यारे भाई भरतके मिलनेमें मैं अब कैसे विलम्ब कर सकता हूँ?]’—इत्यादि।

इसके बाद विमानमें बैठकर श्रीराम सीता, लक्ष्मण और सब मित्रोंके साथ अयोध्या पहुँचे। वहाँ भी भरतसे मिलते समय उन्होंने अद्भुत भ्रातृ-प्रेम दिखलाया है।

राज्य करते समय भी श्रीराम हर एक कार्यमें अपने भाइयोंका परामर्श लिया करते थे। जिस किसी प्रकारसे उनको सुख पहुँचाने और प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे।

एक समय लवणासुरके अत्याचारोंसे घबराये हुए ऋषियोंने उसे मारनेके लिये भगवान् से प्रार्थना की। भगवान् ने सभामें प्रश्न किया कि ‘लवणासुरको कौन मारेगा? किसके जिम्मे यह काम रखा जाय?’ तुरंत ही भरतने उसे मारनेके लिये उत्साह प्रकट किया। इसपर शत्रुघ्नने कहा कि ‘भरतजीने तो और भी बहुत-से काम किये हैं, आपके लिये भारी-से-भारी कष्ट सहन किये हैं। फिर भरतजी बड़े भी हैं। मुझ सेवकके रहते हुए यह परिश्रम इनको नहीं देना चाहिये। इस कार्यके लिये तो मुझे ही आज्ञा मिलनी चाहिये।’ तब श्रीरामजीने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके कहा कि ‘वहाँका राज्य भी तुम्हींको भोगना पड़ेगा, मेरी आज्ञाका प्रतिवाद न करना।’ शत्रुघ्नको राज्याभिषेककी बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने बहुत पश्चात्ताप किया। परन्तु रामाज्ञा समझकर उसे स्वीकार करना पड़ा। इस प्रकार वचनोंमें बाँधकर उनकी इच्छा न रहनेपर भी छोटे भाईको राज्य-सुख देना राम-सरीखे बड़े भाईका ही काम था।

इसके बाद प्रतिज्ञामें बँध जानेके कारण जब भाई लक्ष्मणका त्याग करना पड़ा; उस समय श्रीरामके लिये लक्ष्मणका वियोग असह्य हो गया। वहाँपर कविने कहा है—

विसृज्य लक्ष्मणं रामो दु:खशोकसमन्वित:।
पुरोधसं मन्त्रिणश्च नैगमांश्चेदमब्रवीत्॥
अद्य राज्येऽभिषेक्ष्यामि भरतं धर्मवत्सलम्।
अयोध्याया: पतिं वीरं ततो यास्याम्यहं वनम्॥
प्रवेशयत संभारान् मा भूत् कालात्ययो यथा।
अद्यैवाहं गमिष्यामि लक्ष्मणेन गतां गतिम्॥
(वा० रा० ७। १०७। १—३)

‘लक्ष्मणका त्याग करके श्रीराम दु:ख और शोकमें निमग्न हो गये तथा पुरोहित, मन्त्री और शास्त्रज्ञोंको बुलाकर उनसे कहने लगे—‘मैं आज ही धर्मपर प्रेम रखनेवाले वीर भरतका अयोध्याके राज्यपर अभिषेक करूँगा और उसके बाद वनमें जाऊँगा। शीघ्र ही समस्त सामग्रियाँ इकट्ठी की जायँ। देरी न हो; क्योंकि मैं आज ही जिस जगह लक्ष्मण गया है, वहाँ जाना चाहता हूँ।’

इसपर भरतने राज्यकी निन्दा करते हुए कहा—‘मैं आपके बिना पृथ्वीका राज्य तो क्या, कुछ भी नहीं चाहता; अत: मुझे भी साथ ही चलनेकी आज्ञा दीजिये।’ इसके बाद भरतके कथनानुसार शत्रुघ्नको भी मथुरासे बुलाया गया और मनुष्य-लीलाका नाटक समाप्त करके अपने भाइयोंसहित श्रीराम परमधाम पधार गये।

श्रीरामके भ्रातृ-प्रेमका यह केवल दिग्दर्शनमात्र है। भाइयोंके लिये ही राज्य ग्रहण करना, भाई भरतके राज्याभिषेकके प्रस्तावसे परमानन्दित होकर अपना हक छोड़ देना, जिसके कारण राज्याभिषेक रुका, उस भाईकी माता कैकेयीपर पहलेकी भाँति ही भक्ति करना, मुक्तकण्ठसे भरतका गुणगान करना, भरतपर शंका और क्रोध करनेपर लक्ष्मणको समझाना, लक्ष्मणके शक्ति लगनेपर प्राणत्याग करनेके लिये तैयार हो जाना, समय-समयपर भाइयोंको पवित्र शिक्षा देना, स्वार्थ छोड़कर सबपर प्रेम करना, शत्रुघ्नसे जबर्दस्ती राज्य करवाना, लक्ष्मणके वियोगको न सहकर परमधाममें पधार जाना—इत्यादि श्रीरामके आदर्श भ्रातृ-प्रेमपूर्ण कार्योंसे हम सबको यथायोग्य शिक्षा लेनी चाहिये।

सख्य-प्रेम

श्रीरामका अपने मित्रोंके साथ भी अतुलनीय प्रेमका बर्ताव था। वे अपने मित्रोंके लिये जो कुछ भी करते, उसे कुछ नहीं समझते थे; परन्तु मित्रोंके छोटे-से-छोटे कार्यकी भी भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे। इसका एक छोटा-सा उदाहरण यहाँ लिखा जाता है। अयोध्यामें भगवान् का राज्याभिषेक होनेके बाद बंदरोंको विदा करते समय मुख्य-मुख्य बंदरोंको अपने पास बुलाकर प्रेमभरी दृष्टिसे देखते हुए श्रीरामचन्द्रजी बड़ी सुन्दर और मधुर वाणीमें कहने लगे—

सुहृदो मे भवन्तश्च शरीरं भ्रातरस्तथा॥
युष्माभिरुद्धृतश्चाहं व्यसनात् काननौकस:।
धन्यो राजा च सुग्रीवो भवद्भि: सुहृदां वरै:॥
(वा० रा० ७। ३९। २३-२४)

‘वनवासी वानरो! आपलोग मेरे मित्र हैं, भाई हैं तथा शरीर हैं। एवं आपलोगोंने मुझे संकटसे उबारा है; अत: आप-सरीखे श्रेष्ठ मित्रोंके साथ राजा सुग्रीव धन्य हैं।’ इसके सिवा और भी बहुत जगह श्रीरामने अपने मित्रोंके साथ प्रेमका भाव दिखाया है। सुग्रीवादि मित्रोंने भी भगवान् के सख्य-प्रेमकी बारंबार प्रशंसा की है। वे उनके बर्तावसे इतने मुग्ध रहते थे कि उनको धन, जन और भोगोंकी स्मृति भी नहीं होती थी। वे हर समय श्रीरामचन्द्रके लिये अपना प्राण न्योछावर करनेको प्रस्तुत रहते थे। श्रीराम और उनके मित्र धन्य हैं! मित्रता हो तो ऐसी हो।

शरणागतवत्सलता

यों तो श्रीरामकी शरणागतवत्सलताका वर्णन वाल्मीकीय रामायणमें स्थान-स्थानपर आया है; किन्तु जिस समय रावणसे अपमानित होकर विभीषण भगवान् रामकी शरणमें आया है, वह प्रसंग तो भक्तोंके हृदयमें उत्साह और आनन्दकी लहरें उत्पन्न कर देता है।

धर्मयुक्त और न्यायसंगत बात कहनेपर भी जब रावणने विभीषणकी बात नहीं मानी, बल्कि भरी सभामें उसका अपमान कर दिया, तब विभीषण वहाँसे निराश और दु:खी होकर श्रीरामकी शरणमें आया। उसे आकाश मार्गसे आते देखकर सुग्रीवने सब वानरोंको सावधान होनेके लिये कहा। इतनेमें ही विभीषणने वहाँ आकर आकाशमें ही खड़े-खड़े पुकार लगायी कि, ‘मैं दुरात्मा पापी रावणका छोटा भाई हूँ। मेरा नाम विभीषण है। मैं रावणसे अपमानित होकर भगवान् श्रीरामकी शरणमें आया हूँ। आपलोग समस्त प्राणियोंको शरण देनेवाले श्रीरामको मेरे आनेकी सूचना दें।’

यह सुनकर सुग्रीव तुरन्त ही भगवान् रामके पास गये और राक्षस-स्वभावका वर्णन कर श्रीरामको सावधान करते हुए रावणके भाई विभीषणके आनेकी सूचना दी। साथ ही यह भी कहा कि ‘अच्छी तरह परीक्षा करके, आगे-पीछेकी बात सोचकर जैसा उचित समझें, वैसा करें।’ इसी प्रकार वहाँ बैठे हुए दूसरे बंदरोंने भी अपनी-अपनी सम्मति दी। सभीने विभीषणपर सन्देह प्रकट किया, पर श्रीहनुमान् जीने बड़ी नम्रताके साथ बहुत-सी युक्तियोंसे विभीषणको निर्दोष और सचमुच शरणागत समझनेकी सलाह दी। इस प्रकार सबकी बातें सुननेके अनन्तर भगवान् श्रीरामने कहा—

मित्रभावेन सम्प्राप्तं न त्यजेयं कथञ्चन।
दोषो यद्यपि तस्य स्यात् सतामेतदगर्हितम्॥
(वा० रा० ६। १८। ३)

‘मित्रभावसे आये हुए विभीषणका मैं कभी त्याग नहीं कर सकता। यदि उसमें कोई दोष हो तो भी उसे आश्रय देना सज्जनोंके लिये निन्दित नहीं है।’ इसपर भी सुग्रीवको संतोष नहीं हुआ। उसने शंका और भय उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी बातें कहीं। तब श्रीरामने सुग्रीवको फिर समझाया—

पिशाचान् दानवान् यक्षान् पृथिव्यां चैव राक्षसान्।
अङ्गुल्यग्रेण तान् हन्यामिच्छन् हरिगणेश्वर॥
बद्धाञ्जलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम्।
न हन्यादानृशंस्यार्थमपि शत्रुं परंतप॥
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥
आनयैनं हरिश्रेष्ठ दत्तमस्याभयं मया।
विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावण: स्वयम्॥
(वा० रा० ६। १८। २३,२७,३३-३४)

‘वानरगणाधीश! यदि मैं चाहूँ तो पृथ्वीभरके उन पिशाच, दानव, यक्ष और राक्षसोंको अँगुलीके अग्रभागसे ही मार सकता हूँ। [अत: डरनेकी कोई बात नहीं है।] परंतप! यदि कोई शत्रु भी हाथ जोड़कर दीनभावसे शरणमें आकर अभय-याचना करे तो दया-धर्मका पालन करनेके लिये उसे नहीं मारना चाहिये। मेरा तो यह विरद है कि जो एक बार भी ‘मैं आपका हूँ’ यों कहता हुआ शरणमें आकर मुझसे रक्षा चाहता है, उसे मैं समस्त प्राणियोंसे निर्भय कर देता हूँ। वानरश्रेष्ठ सुग्रीव! [उपर्युक्त नीतिके अनुसार] मैंने इसे अभय दे दिया, अत: तुम इसे ले आओ—चाहे यह विभीषण हो या स्वयं रावण ही क्यों न हो।’

बस, फिर क्या था। भगवान् की बात सुनकर सब मुग्ध हो गये और भगवान् के आज्ञानुसार तुरंत ही विभीषणको ले आये। विभीषण अपने मन्त्रियोंसहित आकर श्रीरामके चरणोंमें गिर पड़ा और कहने लगा—‘भगवन्! मैं सब कुछ छोड़कर आपकी शरणमें आया हूँ। अब मेरा राज्य, सुख और जीवन—सब कुछ आपके ही अधीन है।’ इसके बाद श्रीरामने प्रेमभरी दृष्टि और वाणीसे उसे धैर्य दिया और लक्ष्मणसे समुद्रका जल मँगाकर उसका वहीं लंकाके राज्यपर अभिषेक कर दिया।

कृतज्ञता

वास्तवमें देखा जाय तो भगवान् श्रीरामचन्द्रजी साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर थे। उनकी अपार शक्ति थी, वे स्वयं सब कुछ कर सकते थे और करते थे; उनका कोई क्या उपकार कर सकता था। तथापि अपने आश्रितजनोंके प्रेमकी वृद्धिके लिये उनकी साधारण सेवाको भी बड़े-से-बड़ा रूप देकर आपने अपनी कृतज्ञता प्रकट की है।

सीताको खोजते-खोजते जब श्रीराम रावणद्वारा युद्धमें मारकर गिराये हुए जटायुकी दशा देखते हैं, उस समयका वर्णन है—

निकृत्तपक्षं रुधिरावसिक्तं तं गृध्रराजं परिगृह्य राघव:।
क्व मैथिली प्राणसमा गतेति विमुच्य वाचं निपपात भूमौ॥
(वा० रा० ३। ६७। २९)

‘जिसके पंख कटे हुए थे, समस्त शरीर लहूलुहान हो रहा था, ऐसे गीधराज जटायुको हृदयसे लगाकर श्रीरघुनाथजी ‘प्राणप्रिया जानकी कहाँ गयी?’ इतना कहकर पृथ्वीपर गिर पड़े।’

फिर रावणका परिचय देते और सीताको ले जानेकी बात कहते-कहते ही जब पक्षिराजके प्राण उड़ जाते हैं, तब भगवान् श्रीराम स्वयं अपने हाथोंसे उसकी दाह-क्रिया करते हैं। कैसी अद्भुत कृतज्ञता है!

इसी तरह और भी बहुत-से प्रसंग हैं। वानरों, राजाओं, ऋषियों और देवताओंसे बात करते समय आपने जगह-जगहपर कहा है कि ‘आपलोगोंकी सहायता और अनुग्रहसे ही मैंने रावणपर विजय प्राप्त की है।’

जब श्रीहनुमान् जी सीताजीका पता लगाकर भगवान् रामसे मिले हैं, उस समय उनके कार्यकी बार-बार प्रशंसा करके अन्तमें रघुनाथजीने यहाँतक कहा है कि ‘हनुमान्! जानकीका पता लगाकर तुमने मुझे, समस्त रघुवंशको और लक्ष्मणको भी बचा लिया। इस प्रिय कार्यके बदलेमें कुछ दे सकूँ, ऐसी कोई वस्तु मुझे नहीं दिखायी देती। अत: अपना सर्वस्व यह आलिंगन ही मैं तुम्हें देता हूँ।’ इतना कहकर हर्षसे पुलकित श्रीरामने हनुमान् को हृदयसे लगा लिया। राज्याभिषेक हो जानेके बाद हनुमान् को विदा करते समय हनुमान् की सेवा और कार्योंका स्मरण करके भगवान् राम कहते हैं—

एकैकस्योपकारस्य प्राणान् दास्यामि ते कपे।
शेषस्येहोपकाराणां भवाम ऋणिनो वयम्॥
मदंगे जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं कपे।
नर: प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम्॥
(वा० रा० ७। ४०। २३-२४)

‘हनुमान्! तुम्हारे एक-एक उपकारके बदलेमें मैं अपने प्राण दे दूँ तो भी इस विषयमें शेष उपकारोंके लिये तो मैं तुम्हारा ऋणी ही बना रहूँगा। तुम्हारे द्वारा किये हुए उपकार मेरे शरीरमें ही विलीन हो जायँ—उनका बदला चुकानेका मुझे कभी अवसर ही न मिले; क्योंकि आपत्तियाँ आनेपर ही मनुष्य प्रत्युपकारोंका पात्र होता है।’ इससे पता चलता है कि भगवान् श्रीरामका कृतज्ञताका भाव कितना आदर्श था।

प्रजारंजकता

श्रीरामचन्द्रजीमें प्रजाको हर तरहसे प्रसन्न रखनेका गुण भी बड़ा ही आदर्श था। वे अपनी प्रजाका पुत्रसे भी बढ़कर वात्सल्यप्रेमसे पालन करते थे। सदा-सर्वदा उनके हितमें रत रहते थे। यही कारण था कि अयोध्यावासियोंका उनपर अद्भुत प्रेम था।

श्रीरामके वनगमनका, चित्रकूटमें भरतके साथ प्रजासे मिलनेका और परमधाममें पधारनेके समयका वर्णन पढ़नेसे पता चलता है कि आरम्भसे लेकर अन्ततक प्रजाके छोटे-बड़े सभी स्त्री-पुरुषोंका श्रीराममें बड़ा ही अद्भुत प्रेम था। वे हर हालतमें श्रीरामके लिये प्राण न्योछावर करनेको तैयार रहते थे। उन्हें भगवान् रामका वियोग असह्य हो गया था।

जब श्रीरामचन्द्रजी वनमें जाने लगे, तब प्रजाके अधिकांश लोग प्रेममें पागल होकर उनके साथ हो लिये। भगवान् श्रीरामने बहुत-कुछ अनुनय-विनय की; किन्तु चेष्टा करनेपर भी वे प्रजाको लौटा नहीं सके। आखिर उन्हें सोते हुए छोड़कर ही श्रीरामको वनमें जाना पड़ा। उस समयके वर्णनमें यह भी कहा गया है कि पशु-पक्षी भी उनके प्रेममें मुग्ध थे। उनके लिये श्रीरामका वियोग असह्य था। परमधाममें पधारते समयका वर्णन भी ऐसा ही अद्भुत है।

इसके सिवा जिस सीताके वियोगमें श्रीरामने एक साधारण विरह-व्याकुल कामी मनुष्यकी भाँति पागल होकर विलाप किया था, उसी सीताको—यद्यपि वह निर्दोष और पति-परायणा थीं तो भी, प्रजाकी प्रसन्नताके लिये त्याग दिया। इससे भी उनकी प्रजारंजकताका आदर्श भाव व्यक्त होता है।

श्रीरामका महत्त्व

श्रीरामचन्द्रजी साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा भगवान् विष्णुके अवतार थे, यह बात वाल्मीकीय रामायणमें जगह-जगह कही गयी है। जब संसारमें रावणका उपद्रव बहुत बढ़ गया, देवता और ऋषिगण बहुत दु:खी हो गये, तब उन्होंने जाकर ब्रह्मासे प्रार्थना की। पितामह ब्रह्मा देवताओंको धीरज बँधा रहे थे, उसी समय भगवान् विष्णुके प्रकट होनेका वर्णन इस प्रकार आता है—

एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युति:।
शङ्खचक्रगदापाणि: पीतवासा जगत्पति:॥
वैनतेयं समारुह्य भास्करस्तोयदं यथा।
तप्तहाटककेयूरो वन्द्यमान: सुरोत्तमै:॥
(वा० रा० १। १५। १६-१७)

‘इतनेमें ही महान् तेजस्वी उत्तम देवताओंद्वारा वन्दनीय जगत्पति भगवान् विष्णु मेघपर चढ़े हुए सूर्यके समान गरुडपर सवार हो वहाँ आ पहुँचे। उनके शरीरपर पीताम्बर तथा हाथोंमें शंख, चक्र और गदा आदि आयुध एवं चमकीले स्वर्णके बाजूबंद शोभा पा रहे थे।’

इसके बाद देवताओंकी प्रार्थना सुनकर भगवान् ने राजा दशरथके घर मनुष्यरूपमें अवतार लेना स्वीकार किया। फिर वहीं अन्तर्धान हो गये।

श्रीरामचन्द्रजीका विवाह होनेके बाद जब वे अयोध्याको लौट रहे थे, उस समय रास्तेमें परशुरामजी मिले। श्रीराम विष्णुके अवतार हैं या नहीं—इसकी परीक्षा करनेके लिये उन्होंने श्रीरामसे भगवान् विष्णुके धनुषपर बाण चढ़ानेके लिये कहा; तब श्रीरामचन्द्रजीने तुरंत ही उनके हाथसे दिव्य धनुष लेकर उसपर बाण चढ़ा दिया और कहा—‘यह दिव्य वैष्णव बाण है। इसे कहाँ छोड़ा जाय?’ यह देख-सुनकर परशुरामजी चकित हो गये। उनका तेज श्रीराममें जा मिला। उस समय श्रीरामकी स्तुति करते हुए परशुरामजी कहते हैं—

अक्षय्यं मधुहन्तारं जानामि त्वां सुरेश्वरम्।
धनुषोऽस्य परामर्शात् स्वस्ति तेऽस्तु परंतप॥
(वा० रा० १। ७६। १७)

‘शत्रुतापन राम! आपका कल्याण हो। इस धनुषके चढ़ानेसे मैं जान गया कि आप मधु-दैत्यको मारनेवाले, देवताओंके स्वामी, साक्षात् अविनाशी विष्णु हैं।’ इस प्रकार श्रीरामके प्रभावका वर्णन करके और उनकी प्रदक्षिणा करके परशुरामजी चले गये।

रावणका वध हो जानेके बाद जब ब्रह्मासहित देवतालोग श्रीरामचन्द्रजीके पास आये और उनसे बातचीत करते हुए श्रीरामने यह कहा कि ‘मैं तो अपनेको दशरथजीका पुत्र राम नामका मनुष्य ही समझता हूँ! मैं जो हूँ, जहाँसे आया हूँ—यह आपलोग ही बतायें।’ इसपर ब्रह्माजीने सबके सामने सम्पूर्ण रहस्य खोल दिया। वहाँ रामके महत्त्वका वर्णन करते हुए ब्रह्माजी कहते हैं—

भवान्नारायणो देव: श्रीमांश्चक्रायुध: प्रभु:।
एकशृङ्गो वराहस्त्वं भूतभव्यसपत्नजित्॥
अक्षरं ब्रह्म सत्यं च मध्ये चान्ते च राघव।
लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुज:॥
शार्ङ्गधन्वा हृषीकेश: पुरुष: पुरुषोत्तम:।
अजित: खड्गधृग् विष्णु: कृष्णश्चैव बृहद्वल:॥
(वा० रा० ६। ११७। १३—१५)

‘आप साक्षात् चक्रपाणि लक्ष्मीपति प्रभु श्रीनारायणदेव हैं। आप ही भूत-भविष्यके शत्रुओंको जीतनेवाले और एक शृंगधारी वराहभगवान् हैं। राघव! आप आदि, मध्य और अन्तमें सत्यस्वरूप अविनाशी ब्रह्म हैं। आप सम्पूर्ण लोकोंके परमधर्म चतुर्भुज विष्णु हैं। आप ही अजित, पुरुष, पुरुषोत्तम, हृषीकेश तथा शार्ङ्ग-धनुषवाले, खड्गधारी विष्णु हैं और आप ही महाबलवान् कृष्ण हैं।’

इसी तरह और भी बहुत कुछ कहा है। वहीं राजा दशरथ भी लक्ष्मणके साथ बातचीत करते समय श्रीरामकी सेवाका महत्त्व बतलाकर कहते हैं—

एतत्तदुक्तमव्यक्तमक्षरं ब्रह्मसम्मितम्।
देवानां हृदयं सौम्य गुह्यं राम: परंतप:॥
अवाप्तं धर्माचरणं यशश्च विपुलं त्वया।
एनं शुश्रूषताव्यग्रं वैदेह्या सह सीतया॥
(वा० रा० ६। ११९। ३२-३३)

‘सौम्य! ये परन्तप राम साक्षात् वेदवर्णित अविनाशी अव्यक्त ब्रह्म हैं। ये देवोंके हृदय और परम रहस्यमय हैं। जनकनन्दिनी सीताके सहित इनकी सावधानीपूर्वक सेवा करके तुमने पवित्र धर्मका आचरण और बड़े भारी यशका लाभ किया है।’

इसके सिवा और भी अनेक बार ब्रह्माजी, देवता और महर्षियोंने श्रीरामके अमित प्रभावका यथासाध्य वर्णन किया है। मनुष्य-लीला समाप्त करके परमधाममें पधारनेके प्रसंगमें भी यह बात स्पष्ट कर दी गयी है कि श्रीराम साक्षात् पूर्णब्रह्म परमेश्वर थे। अत: वाल्मीकीय रामायणको प्रामाणिक ग्रन्थ माननेवाला कोई भी मनुष्य श्रीरामके ईश्वर होनेमें शंका कर सके, ऐसी गुंजाइश नहीं है।

पराक्रम

भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके बल, पराक्रम, वीरता और शस्त्रकौशलके विषयमें तो कहना ही क्या है। सम्पूर्ण रामायणमें इसका वर्णन भरा पड़ा है। कहींसे भी युद्धका प्रसंग निकालकर देख सकते हैं। विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा करते समय उन्होंने बात-की-बातमें ताड़का और सुबाहुको मारकर मारीचको मानवास्त्रके द्वारा सौ योजन दूर समुद्रके बीचमें गिरा दिया।

जनकपुरमें जिस धनुषको बड़े-बड़े वीर और महाबली राजा अत्यन्त परिश्रम करके भी नहीं हिला सके, उसीको श्रीरामने अनायास ही उठाकर तोड़ दिया। विष्णुके धनुषपर बाण चढ़ाकर परशुरामजीका तेज हर लिया। पंचवटीमें चौदह हजार राक्षसोंको जरा-सी देरमें बिना किसीकी सहायताके मार गिराया। बाली-जैसे महायोद्धाको एक ही बाणसे मार डाला। धनुषपर बाण चढ़ानेमात्रसे ही समुद्रमें खलबली मच गयी और वह भयभीत होकर शरणमें आ गया। लंकामें जाकर भयंकर युद्धमें राक्षसोंसहित कुम्भकर्ण और रावणका वध करके समस्त संसारमें विजयका डंका बजा दिया।

क्षमा

ऐसे बड़े पराक्रमी होनेपर भी श्रीरघुनाथजी इतने क्षमाशील थे कि वे अपने प्रति किये हुए किसीके अपराधको अपराध ही नहीं मानते थे। उन्होंने जहाँ कहीं भी क्रोध और युद्धकी लीला की है, वह अपने आश्रितों और साधु पुरुषोंके प्रति किये हुए अपराधोंके लिये दण्ड देने और इसी बहाने दुष्टोंको निर्दोष बनानेके लिये ही की है। मन्थरा-जैसी दासीके अपराधका उन्होंने कहीं जिक्र भी नहीं किया।

उपसंहार

श्रीरामके महत्त्वपूर्ण असंख्य आदर्श गुणोंका लेखनीद्वारा वर्णन करना असम्भव ही है। आदिकवि श्रीवाल्मीकिजीसे लेकर आजतक सभी प्रधान-प्रधान कवियोंने श्रीरामचरितका वर्णन करके अपनी वाणीको सफल बनानेकी चेष्टा की है, परंतु श्रीरामके अनन्त गुणोंका पार कोई नहीं पा सका। मैंने तो जो कुछ भी लिखा है, वह केवल श्रीवाल्मीकीय रामायणके आधारपर बहुत ही संक्षेपमें लिखा है। वह भी मेरा केवल साहसमात्र ही है; क्योंकि न तो मुझे संस्कृत भाषाका विशेष ज्ञान है और न हिन्दीका ही। अत: विज्ञ पाठकजन त्रुटियोंके लिये क्षमा करें। इसे पढ़-सुनकर यदि कोई भगवत्प्रेमी भाई किसी अंशमें लाभ उठा सकेंगे तो मेरे लिये वह बड़े सौभाग्यकी बात होगी और मैं उनका आभारी रहूँगा।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur