Seeker of Truth

मनुष्यका कर्तव्य

विचारकी दृष्टिसे देखनेपर यह स्पष्ट ही समझमें आता है कि आजकल संसारमें प्राय: सभी लोग आत्मोन्नतिकी ओरसे विमुख-से हो रहे हैं। ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जो आत्माके उद्धारके लिये चेष्टा करते हैं। कुछ लोग जो कोशिश करते हैं उनमें भी अधिकांश किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे हैं। श्रद्धा-भक्तिकी कमीके कारण यथार्थ मार्गदर्शकका भी अभाव-सा हो रहा है। समय, संग और स्वभावकी विचित्रतासे कुछ लोग तो साधनकी इच्छा होनेपर भी अपने विचारोंके अनुसार चेष्टा नहीं कर पाते। इसमें प्रधान कारण अज्ञताके साथ-ही-साथ ईश्वर, शास्त्र और महर्षियोंपर अश्रद्धाका होना है। परन्तु यह श्रद्धा किसीके करवानेसे नहीं हो सकती। श्रद्धा-सम्पन्न पुरुषोंके संग और निष्कामभावसे किये हुए तप, यज्ञ, दान, दया और भगवद्भक्ति आदि साधनोंसे हृदयके पवित्र होनेपर ईश्वर, परलोक, शास्त्र और महापुरुषोंमें प्रेम एवं श्रद्धा होती है। श्रद्धा ही मनुष्यका स्वरूप है, इस लोक और परलोकमें श्रद्धा ही उसकी वास्तविक प्रतिष्ठा है। श्रीगीतामें कहा है—

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स:॥
(१७।३)

‘हे भरतवंशी अर्जुन! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अन्त:करणके अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है वह स्वयं भी वही है। अर्थात् जिसकी जैसी श्रद्धा है, वैसा ही उसका स्वरूप समझा जाता है।’ अत: मनुष्यको सच्चे श्रद्धा-सम्पन्न बननेकी कोशिश करनी चाहिये।

आप ईश्वरके किसी भी नाम या किसी भी रूपमें श्रद्धा करें, आपकी वह श्रद्धा ईश्वरमें ही समझी जायगी; क्योंकि सभी नाम-रूप ईश्वरके हैं। आपको जो धर्म प्रिय हो, जिस ऋषि, महात्मा या महापुरुषपर आपका विश्वास हो, आप उसीपर श्रद्धा करके उसीके अनुसार चल सकते हैं। आवश्यकता श्रद्धा-विश्वासकी है। ईश्वर, धर्म और परलोक आदि विशेष करके श्रद्धाके ही विषय हैं। इनका प्रत्यक्ष तो अनेक प्रयत्नोंके साथ विशेष परिश्रम करनेपर होता है। आरम्भमें तो इन विषयोंके लिये किसी-न-किसीपर विश्वास ही करना पड़ता है, ऐसा न करे तो मनुष्य नास्तिक बनकर श्रेयके मार्गसे गिर जाता है, साधनसे विमुख होकर पतित हो जाता है।

यदि आपको किसी भी धर्म, शास्त्र अथवा प्राचीन महात्माओंके लेखपर विश्वास न हो, तो कम-से-कम एक श्रीमद्भगवद्गीतापर तो जरूर विश्वास करना चाहिये। क्योंकि गीताका उपदेश प्राय: सभी मतोंके अनुकूल पड़ता है। इसपर भी विश्वास न हो तो अपने विचारके अनुसार ईश्वरपर विश्वास करके उसीकी शरण होकर साधनमें लग जाना चाहिये। कदाचित् ईश्वरके अस्तित्वमें भी आपके मनमें सन्देह हो तो वर्तमान समयमें आपकी दृष्टिमें जगत् में जितने श्रेष्ठ पुरुष हैं उन सबमें जो आपको सबसे श्रेष्ठ मान्य हों, उन्हींके बतलाये हुए मार्गपर कमर कसकर चलना चाहिये। यदि वर्तमान-कालके किसी भी साधु-महात्मा या सत्पुरुषपर आपका विश्वास न हो, तो आपको यह विचार करना चाहिये कि क्या सारे संसारमें हमसे उत्तम कल्याणमार्गके ज्ञाता कोई नहीं हैं? यदि यह कहते हों कि ‘हैं तो सही पर हमको नहीं मिले।’ तो उनकी खोज करनी चाहिये, अथवा यदि यह समझते हों कि ‘हमसे तो बहुत-से पुरुष श्रेष्ठ हैं परन्तु कल्याणमार्गके भलीभाँति उपदेश करनेवाले पुरुष संसारमें बहुत ही थोड़े हैं, जो हैं उनका भी हम-जैसे अश्रद्धालुओंको मिलना कठिन है और यदि कहीं मिल भी जाते हैं तो पहचाननेकी योग्यता न होनेके कारण हम उन्हें पहचान नहीं सकते।’ ऐसी अवस्थामें आपके लिये यह तो अवश्य ही विचारणीय है कि आप जो कुछ चेष्टा कर रहे हैं उससे क्या आपका यथार्थ कल्याण हो जायगा? यदि सन्तोष नहीं है तो कम-से-कम अपनी उन्नतिके लिये आपको उत्तरोत्तर विशेष प्रयत्न तो करना ही चाहिये। शम, दम, धृति, क्षमा, शान्ति, सन्तोष, जप, तप, सत्य, दया, ध्यान और सेवा आदि गुण और कर्म आपके विचारमें जो उत्तम प्रतीत हों उनका ग्रहण तथा प्रमाद, आलस्य, निद्रा, विषयासक्ति, झूठ, कपट, चोरी-जारी आदि दुर्गुण और दुष्कर्मोंका त्याग करना चाहिये। प्रत्येक कर्म करनेसे पूर्व सावधानीके साथ यह सोच लेना चाहिये कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह मेरे लिये यथार्थ लाभदायक है या नहीं और उसमें जहाँ कहीं भी त्रुटि मालूम पड़े, उसका बिना विलम्ब सुधार कर लेना चाहिये। मनुष्यजन्म बहुत ही दुर्लभ है, लाखों रुपये खर्च करनेपर भी जीवनका एक क्षण नहीं मिल सकता। ऐसे मनुष्य-जीवनका समय निद्रा, आलस्य, प्रमाद और अकर्मण्यतामें व्यर्थ कदापि नहीं खोना चाहिये। जो मनुष्य अपने इस अमूल्य समयको बिना सोचे-विचारे बितावेगा, उसे आगे चलकर अवश्य ही पछताना पड़ेगा। कविने क्या ही सुन्दर कहा है—

बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछिताय।
काम बिगारे आपनो जगमें होत हँसाय॥
जगमें होत हँसाय चित्तमें चैन न पावै।
खान पान सनमान राग रँग मन नहिं भावै॥
कह गिरधर कविराय कर्म गति टरत न टारे।
खटकत है जिय माँहि किया जो बिना बिचारे॥

अत: अपनी बुद्धिके अनुसार मनुष्यको अपना समय बड़ी ही सावधानीसे ऊँचे-से-ऊँचे काममें लगाना चाहिये, जिससे आगे चलकर पश्चात्ताप न करना पड़े। नहीं तो गोस्वामीजीके शब्दोंमें—

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥

—सिवा पछतानेके अन्य कोई उपाय न रह जायगा। यह मनुष्य-जीवन बहुत ही महँगे मोलसे मिला है। काम बहुत करने हैं, समय बहुत थोड़ा है, अतएव चेतकर अपने जीवनके बचे हुए समयको बुद्धिमानीके साथ केवल कल्याणके मार्गमें ही लगाना चाहिये।

यदि मनुष्य अपनी बुद्धिके अनुसार इस लोक और परलोकमें लाभ देनेवाले कर्मोंमें प्रवृत्त नहीं होता तो इसको उसकी मूर्खता, अकर्मण्यता और आलस्यके अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? जो जान-बूझकर प्रमाद, आलस्य, निद्रा और भोगोंसे चित्तको हटाकर उसे सन्मार्गमें नहीं लगाता और पतनके मार्गमें आगे बढ़ता जाता है वह स्वयं ही अपना शत्रु है। श्रुति कहती है—

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥
(केनोपनिषद् २।५)

‘यदि इस मनुष्य-शरीरमें उस परमात्म-तत्त्वको जान लिया जायगा तो सत्य है यानी उत्तम है। और यदि इस जन्ममें उसको नहीं जाना तो महान् हानि है। धीर पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें परमात्माका चिन्तन कर—परमात्माको समझकर इस देहको छोड़ अमृतको प्राप्त होते हैं अर्थात् इस देहसे प्राणोंके निकल जानेपर वे अमृतस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।’

मनुष्यको अपनी उन्नतिका यह मार्ग स्वयं ही चलकर तय करना पड़ता है, दूसरेके द्वारा यह मार्ग तय नहीं होता। अतएव उसकी इसीमें बुद्धिमत्ता और कल्याण है और यही उसका निश्चित कर्तव्य है कि अत्यन्त सावधानीके साथ प्रतिक्षण अपनेको सँभालते हुए इस लोक और परलोकके कल्याणकारी साधनको खूब जोरके साथ करता रहे। प्रमाद, आलस्य, भोग एवं दुराचार आदिको कल्याणके मार्गमें अत्यन्त बाधक समझकर उन्हें सर्वथा त्याग दे। श्रुति चेतावनी देती हुई कहती है—

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
(कठोपनिषद् ३। १४)

‘उठो, जागो और महापुरुषोंके समीप जाकर उनके द्वारा तत्त्वज्ञानके रहस्यको समझो। कविगण इसे तीक्ष्ण क्षुरके धारके समान अत्यन्त कठिन मार्ग बताते हैं।’ परन्तु कठिन मानकर हताश होनेकी कोई आवश्यकता नहीं। भगवान् में चित्त लगानेसे भगवत्कृपासे मनुष्य सारी कठिनाइयोंसे अनायास ही तर जाता है ‘मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।’ भगवान् ने और भी कहा है—

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता ७। १४)

‘यह मेरी अलौकिक—अति अद्भुत त्रिगुणमयी योगमाया बहुत दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मेरी ही शरण हो जाते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे सहज ही तर जाते हैं।’ सब देशों और समस्त पदार्थोंमें सदा-सर्वदा भगवान् का चिन्तन करना और भगवान् की आज्ञाके अनुसार चलना ही शरणागति समझा जाता है। इसीको ईश्वरकी अनन्यभक्ति भी कहते हैं। अतएव जिसका ईश्वरमें विश्वास हो, उसके लिये तो ईश्वरका आश्रय ग्रहण करना ही परम कर्तव्य है। जो भलीभाँति ईश्वरके शरण हो जाता है, उससे ईश्वरके प्रतिकूल यानी अशुभ कर्म तो बन ही नहीं सकते। वह परम अभय पदको प्राप्त हो जाता है, उसके अन्तरमें शोक-मोहका आत्यन्तिक अभाव रहता है, उसको सदाके लिये अटल शान्ति प्राप्त हो जाती है और उसके आनन्दका पार ही नहीं रहता। उसकी इस अनिर्वचनीय स्थितिको उदाहरण, वाणी या संकेतके द्वारा समझा या समझाया नहीं जा सकता। ऐसी स्थितिवाले पुरुष स्वयं ही जब उस स्थितिका वर्णन नहीं कर सकते तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है? मन-वाणीकी वहाँतक पहुँच ही नहीं है। केवल पवित्र हुई शुद्ध बुद्धिके द्वारा पुरुष स्वयं इसका अनुभव करता है। ऐसा वेद और शास्त्र कहते हैं—

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रॺया बुद्‍ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥
(कठोपनिषद् १।३। १२)

‘सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें छिपा हुआ यह आत्मा सबको प्रतीत नहीं होता, परन्तु यह सूक्ष्मबुद्धिवाले महात्मा पुरुषोंसे तीक्ष्ण और सूक्ष्मबुद्धिके द्वारा ही देखा जाता है।’ भगवान् स्वयं कहते हैं—

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:॥
(गीता ६। २१)

‘इन्द्रियोंसे अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्मबुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य जो अनन्त आनन्द है उसको जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस अवस्थामें स्थित हुआ योगी भगवत्स्वरूपसे चलायमान नहीं होता।’ उसी अवस्थाको प्राप्त करनेकी चेष्टा मनुष्यमात्रको करनी चाहिये, यही सबका परम कर्तव्य है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur