Seeker of Truth

मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है या परतन्त्र?

कोई कहते हैं कि ‘संसारमें कर्म ही प्रधान है, जो जैसा करता है उसे वैसा ही फल मिलता है’, दूसरे कहते हैं कि ‘ईश्वर ही सबको बंदरकी तरह नचाते हैं।’ इन दोनों मतोंमें परस्पर विरोध मालूम होता है। यदि कर्म ही प्रधान है और मनुष्य कर्म करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र है तो ईश्वरका बाजीगरकी भाँति जीवको नचाना सिद्ध नहीं होता और न ईश्वरकी कोई महत्ता ही रह जाती है। पक्षान्तरमें यदि ईश्वर ही सब कुछ करवाता है, मनुष्य कर्म करनेमें सर्वथा परतन्त्र है तो किसीके द्वारा किये हुए बुरे कर्मका फल उसे क्यों मिलना चाहिये? जिस ईश्वरने कर्म करवाया, फल-भोगका भागी भी उसे ही होना चाहिये, पर ऐसा देखा नहीं जाता। इस तरहके प्रश्न प्राय: उठा करते हैं, अतएव इस विषयपर कुछ विवेचन किया जाता है।

मेरी समझसे जीव वास्तवमें परमेश्वर और प्रकृतिके अधीन है। कम-से-कम फल भोगनेमें तो वह सर्वथा परतन्त्र है। धन, स्त्री, पुत्र, कीर्ति आदिका संयोग-वियोग कर्मफलवश परवशतासे ही होता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। नवीन कर्मोंके करनेमें भी वह है तो परतन्त्र ही, परन्तु कुछ अंशमें स्वतन्त्र भी है, या यों कहिये कि स्वेच्छासे मौका पाकर वह अनधिकार स्वतन्त्र आचरण करने लगता है, इसीसे उसे दण्डका भोग भी करना पड़ता है।

बंदर बाजीगरके अधीन है, उसके गलेमें रस्सी बँधी है, मालिककी इच्छाके अनुकूल नाचना ही उसका कर्तव्य है, यदि वह मालिकके इच्छाके विपरीत किंचित् भी आचरण नहीं करता तो मालिक प्रसन्न होकर उसे अच्छा खाना देता है, अधिक प्यार करता है। कदाचित् वह मालिकके इच्छानुसार नहीं चलता—प्रतिकूल आचरण करता है तो मालिक उसे मारता है—दण्ड देता है। इस दण्ड देनेमें भी उसका हेतु केवल यही है कि वह उसके अनुकूल बन जाय। बाजीगर बंदरको मारता हुआ भी यह नहीं चाहता कि बंदरका बुरा हो; क्योंकि इस अवस्थामें भी वह उसे खानेको देता है, उसका पालन-पोषण करता है।

इसी प्रकारका बर्ताव सन्तानके प्रति माता-पिताका हुआ करता है, अवश्य ही बाजीगरकी अपेक्षा माता-पिताके बर्तावका दर्जा ऊँचा है। बाजीगरका वह बर्ताव—भूलपर दण्ड देते हुए भी पोषण करना—केवल स्वार्थवश होता है। माता-पिता अपने स्वार्थके अतिरिक्त सन्तानका निजका हित भी सोचते हैं; क्योंकि वह उनका आत्मा है। परन्तु परमात्माका दर्जा तो इन दोनोंसे भी ऊँचा है; क्योंकि वह अहैतुक प्रेमी तथा सर्वथा स्वार्थशून्य है। वह जो कुछ करता है, सब हमारे हितके लिये ही करता है। वास्तवमें हम सर्वथा उसके अधीन हैं, तथापि उसने हमें दयापूर्वक इच्छानुसार सत्कर्म करनेका अधिकार दे रखा है। उसके आज्ञानुसार कर्म करना ही हमारा वह अधिकार है। यदि हम उस अधिकारका व्यतिक्रम करते हैं तो वह परम पिता हमें बड़े प्यारसे हमारा दोष दूर करनेके लिये—हमें कुपथसे हटाकर सुपथपर लानेके लिये दण्ड देता है। उसका दण्डविधान कहीं-कहीं भीषण प्रतीत होनेपर भी दया और प्रेमसे लबालब भरा रहता है।

यहाँ यह प्रश्न होता है कि सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ ईश्वर मनुष्यको अपने अधिकारका अतिक्रम करने ही क्यों देता है? वह तो सर्वसमर्थ है, क्षणभरमें अघटन-घटना घटा सकता है, फिर वह मनुष्यको उसके अधिकारोंके बाहर दुष्कर्मोंमें प्रवृत्त ही क्यों होने देता है? इसका उत्तर इस दृष्टान्तसे समझनेकी चेष्टा कीजिये—

सरकारने किसी व्यक्तिको आत्मरक्षार्थ बंदूक रखनेकी सनद दी है, बंदूक उसके अधिकारमें है, वह जब चाहे तभी उसका यथेच्छ उपयोग कर सकता है। परन्तु कानूनसे उसे मर्यादाके अंदर ही उपयोग करनेका अधिकार है, चोरी करने, डाका डालने, किसीका खून करने या ऐसे ही किसी बेकानूनी अन्याय-कार्यमें वह उस बंदूकका उपयोग नहीं कर सकता। करता है तो उसका वह कार्य अन्याय और नियमविरुद्ध समझा जाता है, परिणाममें उसकी सनद छीन ली जाती है और वह उपयुक्त दण्डका पात्र होता है। अथवा यों समझिये कि किसी राज्यमें किसी व्यक्तिको कोई अधिकार राजाकी ओरसे इसलिये दिया गया है कि अपने अधिकारके अनुसार प्रजाकी सेवा करता हुआ राज्यका वह काम, जो उसके जिम्मे है नियमानुसार सुचारुरूपसे करे। वह यदि सुचारुरूपसे नियमानुसार काम करता है तो राजा प्रसन्न होकर उसे पुरस्कार दे सकता है, उसकी पदोन्नति हो सकती है और वह बढ़ते-बढ़ते अन्ततक राज्यका पूरा अधिकारी भी हो सकता है। परन्तु यदि वह अपने अधिकारका दुरुपयोग करे, कानूनके विरुद्ध कार्यवाही करने लगे तो उसका अधिकार छिन जाता है और उसे दण्ड मिलता है। यह सब होते हुए भी बंदूकका या अपने अधिकारका दुरुपयोग करते समय सरकार या राजा उसका हाथ पकड़ने नहीं आते। कार्य कर चुकनेपर ही उपयुक्त दण्ड मिलता है। इसी प्रकार परमात्माने भी हमें सत्कर्म करनेका अधिकार दे रखा है, परन्तु हम दुष्कर्म करते हैं तो वह हमें रोकता नहीं, कर्म करनेपर उसका यथोचित दण्ड देता है।

यहाँपर फिर यह प्रश्न होता है कि इस जगत् की सरकार या यहाँके राजा तो सर्वज्ञ या सर्वव्यापी न होनेसे कानून तोड़कर अधिकारका दुरुपयोग करनेवालोंके हाथ नहीं पकड़ सकते परन्तु परमात्मा जो सर्वज्ञ, न्यायकारी, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान् है, उससे तो मन, वाणी, शरीरकी कोई क्रिया छिपी नहीं है। वह दुष्कर्म करनेवाले मनुष्यका हाथ पकड़कर उसे बलात् क्यों नहीं रोक देता? इसका उत्तर यही है कि परमात्माकी विधि इस तरह रोकनेकी नहीं है, उसने मनुष्यको अपने जीवनमें कर्म करनेकी स्वतन्त्रता दे रखी है। पर साथ ही दया करके उसे शुभाशुभ परखनेवाली बुद्धि या विवेक भी दे दिया है, जिससे वह भले-बुरेका विचार कर अपना कर्तव्य निश्चय कर सके और यह भी घोषणा कर दी है कि यदि कोई मनुष्य अनधिकार—शास्त्रविपरीत चेष्टा करेगा तो उसे अवश्य दण्ड भोगना पड़ेगा। इससे यह सिद्ध हो गया कि बाजीगरके बंदरकी भाँति ईश्वर ही सबको नचाता है, सभी उसके अधीन हैं परन्तु जैसे भूल करनेवाले बंदरको दण्ड मिलता है, इसी प्रकार ईश्वरकी आज्ञा न माननेवालेको भी दण्डका भागी होना पड़ता है। अवश्य ही नाच भगवान् नचाते हैं परन्तु नाचनेमें मालिकके इच्छानुसार या उसके प्रतिकूल नाचना बंदरके अधिकारमें है। सरकार या राजाने अधिकार दिया है परन्तु उन्होंने उसका दुरुपयोग करनेकी आज्ञा नहीं दी है। भगवान् ने भी मनुष्य-जीवन प्रदान कर सत्कर्मोंके द्वारा क्रमश: उन्नत होकर परमपद प्राप्त करनेका अधिकार हमें प्रदान किया है, परन्तु पाप करनेकी आज्ञा उन्होंने नहीं दी है। जब एक न्यायपरायण मामूली राजा भी अपने किसी अफसरको अधिकारका दुरुपयोग कर पाप करनेकी आज्ञा नहीं देता, तब भगवान् तो ऐसी आज्ञा दे ही कैसे सकते हैं? अतएव यह बात भी ठीक है कि मनुष्य सर्वथा ईश्वरके अधीन है। साथ ही यह भी सत्य है कि वह ईश्वरप्रदत्त अधिकारका सदुपयोग कर परम उन्नति और उसका दुरुपयोग कर अत्यन्त अधोगतिको भी प्राप्त हो सकता है।

अब यह प्रश्न होता है कि ‘भगवान् की आज्ञा न होने और परिणाममें दु:खकी सम्भावना होनेपर भी मनुष्य भगवदिच्छाके विरुद्ध पापाचरण क्यों करता है? किस कारणसे वह जान-बूझकर पापोंमें प्रवृत्त होता है?’ इस प्रश्नपर विचार करनेसे यही प्रतीत होता है कि इस पापकी प्रवृत्तिका कारण अज्ञान है। अज्ञानसे आवृत होकर ही सब जीव मोहित हो रहे हैं, ‘अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:॥’(गीता ५।१५)।

प्रकृतिके दो स्वरूप हैं, विद्यात्मक और अविद्यात्मक। इन दोनोंमें अविद्यात्मक प्रकृतिका स्वरूप अज्ञान है। इसी अज्ञानसे उत्पन्न अहंकार, आसक्ति आदि दोषोंके वश होकर मनुष्य पापमें प्रवृत्त होता है। संसारमें अविद्या आदि पाँच क्लेश महर्षि पतंजलिने भी माने हैं—

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशा:॥
(यो० सा० ३)

‘अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश—यह पाँच क्लेश कहलाते हैं।’ इनमें पिछले चारों क्लेशोंकी उत्पत्ति अविद्यासे ही होती है। संसारके सब प्रकारके क्लेशोंमें ये पाँच ही हेतु हैं। इन्हीं अज्ञानज पंचक्लेशोंसे मनुष्य परिणाम भूलकर पाप करता है।

इन पाँचोंकी संक्षिप्त व्याख्या यह है—‘अविद्या’ जिससे अनित्यमें नित्य-बुद्धि, अशुचिमें शुचि-बुद्धि, दु:खमें सुख-बुद्धि और अनात्ममें आत्म-बुद्धिरूप विपरीत ज्ञान हो रहा है। ‘अस्मिता’ अहंकार या ‘मैं’ भावको कहते हैं, जो समस्त बन्धनोंका हेतु है। ‘राग’ आसक्तिका नाम है, इसीसे मनुष्य पापमें लगता है। ‘द्वेष’ मनके विरुद्ध कार्योंमें होनेवाले भावका नाम है। राग-द्वेषरूप बीजसे ही काम-क्रोधरूप महान् अनर्थकारी वृक्ष उत्पन्न होते हैं। मरणभयको ‘अभिनिवेश’ कहते हैं। अस्तु—

अर्जुनने भी भगवान् से पूछा था—

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥
(गीता ३।३६)

‘हे श्रीकृष्ण! फिर यह पुरुष बलात् लगाये हुएके सदृश न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित हुआ पापका आचरण करता है।’ इसके उत्तरमें भगवान् ने कहा कि हे अर्जुन!—

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धॺेनमिह वैरिणम्॥
(गीता ३।३७)

‘रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यही महा अशन यानी अग्निके सदृश भोगोंसे न तृप्त होनेवाला बड़ा पापी है, इस विषयमें इसको ही तू वैरी जान।’ इस कामरूप वैरीका निवास इन्द्रियों, मन और बुद्धिमें है। इन मन, बुद्धि, इन्द्रियोंद्वारा ही इसने ज्ञानको आच्छादित कर जीवात्माको मोहित कर रखा है। अतएव इनको वशमें करके इस ज्ञान-विज्ञानके नाश करनेवाले पापी कामको मारना चाहिये। क्योंकि बुरे कर्म अज्ञान—अविद्याजनित आसक्तिसे या कामनासे होते हैं। जो इनके वशमें न होकर भगवान् के दिये हुए अधिकारके अनुसार बर्तता है, वह यहाँ सर्वतोभावसे सुखी रहकर, अन्तमें परम सुखरूप परमात्माको प्राप्त करता है।

इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुष्य कर्म करनेमें परतन्त्र है, परन्तु ईश्वरकी दी हुई स्वतन्त्रतासे कुछ अंशमें स्वतन्त्र भी है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur