मनुष्य-जीवनका अमूल्य समय
मनुष्य-जीवनका समय अमूल्य है। समयकी कीमत न जाननेके कारण ही लोगोंका बहुत-सा समय व्यर्थ ही चला जाता है, इसीलिये आत्मकल्याणमें विलम्ब हो रहा है, कहा जा सकता है कि कानूनपेशा वकील-बैरिस्टर प्रभृति तो समयका सदुपयोग करते हैं, क्योंकि वे अपने समयके प्रत्येक मिनटका पैसा ले लेते हैं, किन्तु पैसोंसे मनुष्य-जीवनका वास्तविक ध्येय सिद्ध नहीं होता। जो मनुष्य अपने अनमोल समयको पैसोंके बदले बेच डालते हैं, पैसोंसे होनेवाले भावी दुष्परिणामको नहीं समझनेके कारण पैसे इकट्ठे करते चले जाते हैं और जीवित कालमें उनसे कुछ भौतिक सुखकी प्राप्ति करते हैं, वे वस्तुत: कल्याण-मार्गमें कुछ भी अग्रसर नहीं होते।
मरनेके समय उन्हें एकत्र किया हुआ धन यहीं छोड़ जाना पड़ता है, उससे भी उन्हें कोई लाभ नहीं होता; प्रत्युत वह शोक और चिन्ताको बढ़ानेवाला ही होता है। अतएव जो धन, मान आदिके मोलपर अपने अमूल्य समयको बेच डालते हैं वे अपनी समझसे बुद्धिमान् होनेपर भी वास्तवमें बुद्धिमान् नहीं हैं। बुद्धिमान् तो वही कहे जा सकते हैं, जो जीवनके अमूल्य समयको अमूल्य कार्योंमें ही लगाते हैं, और अमूल्य कार्य भी उसीको समझना चाहिये, जिससे अमूल्य वस्तुकी प्राप्ति हो। वह अमूल्य वस्तु है—परमात्माके तत्त्व-ज्ञानसे होनेवाली आत्मोन्नतिकी चरम सीमा—परमेश्वरके स्वरूपकी प्राप्ति; इसीको दूसरे शब्दोंमें परमपदकी प्राप्ति अथवा मुक्ति भी कहते हैं।
दु:खकी बात है कि बहुत-से भाई तो ऐसे हैं, जो अपने समयको चौपड़, ताश, शतरंज आदि खेलनेमें, सांसारिक भोगोंमें एवं निद्रा, आलस्य और प्रमादमें व्यर्थ ही बिता देते हैं। बहुत-से ऐसे मूढ़ हैं जो जीवनके अमूल्य समयको चोरी, जारी, झूठ, कपट आदि कुकर्मोंमें बिताकर इस लोक और परलोक दोनोंसे भ्रष्ट होकर दु:खके भाजन बनते हैं; और कितने ऐसे हैं जो सुल्फा, गाँजा, कोकिन और मदिरा आदि मादक द्रव्योंके सेवनमें समय नष्ट करके नरकके भागी बनते हैं, यह समयका अत्यन्त ही दुरुपयोग है।
उचित तो यह है कि हमारा प्रत्येक श्वास श्रीभगवान् के स्मरणमें ही बीते। एक क्षण भी व्यर्थ न जाय। फिर पाप और प्रमादमें बिताना तो अत्यन्त ही मूर्खता है। असलमें बात यह है कि समयकी उपयोगिताको हमलोगोंने अभी समझा नहीं। जैसे पैसेकी उपयोगिता समझी हुई है, वैसे ही यदि समयकी उपयोगिता समझी होती तो भूलकर भी हमारा एक क्षणका समय ईश्वर-स्मरण बिना नहीं बीत सकता। हम किरायेकी मोटरपर सवार होकर कहीं जाते हैं और रास्तेमें किसी सज्जनसे बातें करनेके लिये मोटरको रोकना पड़ता है तो उस समय हम उनसे अच्छी तरह बात नहीं करना चाहते, क्योंकि हमारी नजर तो प्रति मिनट करीब दो आने चार्ज करनेवाले मीटरपर लगी रहती है। यह पैसेकी उपयोगिता समझनेका नमूना है। प्रति मिनटके दो आने पैसेसे भी हम समयकी उपयोगिताको अधिक नहीं समझते। हमारे लिये उचित तो यह है कि जैसे मोटरमें बैठे किसीसे बात करते समय हमारा मन पैसोंमें लगा रहता है इसी प्रकार संसारका प्रत्येक कार्य करते समय अमूल्य जीवनका एक-एक क्षण मुख्यरूपसे श्रद्धा और प्रेमके साथ परम प्रेमास्पद परमात्माके चिन्तनमें ही लगाना चाहिये।
इस प्रकार चिन्तन करते-करते भगवान् की दयासे किसी भी क्षण हमें भगवत्-प्राप्ति हो सकती है। जिस क्षणमें भगवत्-प्राप्ति होती है, उसी क्षणका जीवन अत्यन्त अमूल्य है। उस समयकी तुलना किसीके साथ भी नहीं की जा सकती। परन्तु वैसा समय श्रद्धा और प्रेमपूर्वक चिन्तन करनेसे ही प्राप्त होता है। इसलिये हमें श्रद्धा और प्रेमपूर्वक सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान् परमेश्वरके स्वरूपके सदा-सर्वदा चिन्तन करनेका अभ्यास करना चाहिये। ऐसा करनेपर हमारा सभी समय अमूल्य समझा जायगा। यदि प्रेम और श्रद्धाकी कमीके कारण जीवनभरमें भगवत्-प्राप्ति न भी हुई, तो भी कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि अभ्यासके बलसे अन्त समयमें तो भगवान् के स्वरूपका चिन्तन अवश्य होगा ही और गीतामें भगवान् स्वयं कहते हैं कि जो अन्त समय मेरा चिन्तन करता हुआ जाता है वह निश्चय ही मुझको प्राप्त होता है, इसमें कोई भी संशय नहीं है।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(८। ५)
किन्तु खेदकी बात है कि हमलोग ईश्वरके भजनकी कीमत, कौड़ियोंके जितनी भी नहीं करते। मान लीजिये, एक पुरुष सालभरमें आठ हजार एक सौ रुपये कमाता है, वह यदि रोजगार छोड़कर* भजन करे तो उसका भी वह भजन कौड़ियोंसे सस्ता पड़ता है।
* वास्तवमें रोजगारको स्वरूपसे छुड़ानेका हमारा अभिप्राय नहीं है, केवल भजनकी महिमा दिखानेके लिये लिखा गया है। उत्तम बात तो यह है कि मुख्य वृत्तिसे परमात्माको याद रखता हुआ गौणी वृत्तिसे व्यवहार करे।
वार्षिक ८,१०० रुपयेके हिसाबसे एक महीनेके ६७५ रुपये, एक दिनके २२.५० रुपये, एक घंटेका साठ पैसे एवं एक मिनटका एक पैसा होता है। एक पैसेकी अधिक-से-अधिक साठ कौड़ी समझी जाय, ईश्वरका नामस्मरण एक मिनटमें कम-से-कम एक सौ बीस बार किया जाय यानी एक सेकंडमें दो नाम लिये जायँ तो भी वह कौड़ियोंसे मंदा पड़ता है। जब ८,१००) रुपये सालाना कमानेवालेसे भजनकी परता कौड़ियोंसे मंदी पड़ती है, फिर हजार-पाँच सौ रुपये सालाना कमानेवालेकी गिनती ही क्या है?
कंचन, कामिनी, मान, बड़ाई और प्रतिष्ठाकी आसक्तिमें फँसकर जो लोग अपने अमूल्य समयको बिताते हैं, उनका वह समय और परिश्रम तो व्यर्थ जाता ही है, इसके अतिरिक्त उनकी आत्माका अध:पतन भी होता है।
धनकी आसक्तिमें फँसा हुआ लोभी मनुष्य अनेक प्रकारके अनर्थ करके धन कमाता है। धनके कमाने और उसकी रक्षा करनेमें बड़ा भारी क्लेश और परिश्रम होता है। उसके खर्च करनेमें भी कम दु:ख नहीं होता और फिर धनको त्यागकर जानेके समय तो किसी-किसीको प्राण-वियोगसे भी बढ़कर दु:ख होता है। जैसे निर्धन आदमी धन-उपार्जनकी चिन्ता करता है और ऋणी ऋण चुकानेके लिये व्याकुल रहता है, वैसे ही धनी आदमी धनकी रक्षाके लिये व्याकुल रहता है।
वस्तुत: धन कमानेकी लालसा आत्माका अध:पतन करनेवाली है, इसी प्रकार स्त्री-संगकी इच्छा उससे भी बढ़कर आत्माका पतन करती है। पर-स्त्री-गमनकी तो बात ही क्या है, वह तो अत्यन्त ही निन्दनीय और घोर नरकमें ले जानेवाला कर्म है, परन्तु अपनी विवाहिता स्त्रीका सहवास भी शास्त्र-विपरीत हो तो कम हानिकर नहीं है। आसक्तिके कारण शास्त्र-विपरीत होना मामूली बात है। जब साधन करनेवाले बुद्धिमान् पुरुषकी इन्द्रियाँ भी बलात् मनको विषयोंमें लगा देती हैं, तो फिर साधनरहित विषयासक्त पामर मूर्खोंका तो पतन होना कौन बड़ी बात है?
जैसे मूर्ख रोगी स्वादके वश हुआ कुपथ्य करके मर जाता है, वैसे ही कामी पुरुष स्त्रीका अनुचित सेवन करके अपना नाश कर डालता है। विलासिताकी बुद्धिसे स्त्रीका सेवन करनेसे कामोद्दीपन होता है और कामका वेग बढ़नेसे बुद्धिका नाश हो जाता है, कामसे मोहित हुआ नष्टबुद्धि पुरुष चाहे जैसा विपरीत आचरण कर बैठता है, जिससे उसका सर्वथा अध:पतन हो जाता है। स्त्रीके सेवनसे बल, वीर्य, बुद्धि, तेज, उत्साह, स्मृति और सद्गुणोंका नाश हो जाता है एवं शरीरमें अनेक प्रकारके रोगोंकी वृद्धि होकर मनुष्य मृत्युके समीप पहुँच जाता है; तथा इस लोकके सुख, कीर्ति और धर्मको खोकर नरकमें गिर पड़ता है। यही आत्माका पतन है, इसीलिये साधुजन कंचन और कामिनीका भीतर और बाहरसे सर्वथा त्याग कर देते हैं। वास्तवमें भीतरका त्याग ही असली त्याग है, क्योंकि ममता, अभिमान और आसक्तिसे रहित हुआ गृही मनुष्य, न्याययुक्त कंचन और कामिनीके साथ सम्बन्ध रखनेपर भी त्यागी ही माना गया है।
मान, बड़ाई और प्रतिष्ठाके जालमें तो अच्छे-अच्छे साधक भी फँस जाते हैं। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाकी इच्छा साधनपथमें भी दूरतक मनुष्यका पिण्ड नहीं छोड़ती। आरम्भमें तो यह अमृतके तुल्य प्रतीत होती है, परन्तु परिणाममें विषसे भी बढ़कर है। अज्ञानवशत: यह बहुत-से अच्छे-अच्छे पुरुषोंके चित्तको डाँवाडोल कर देती है।
साधक पुरुष भी मोहके कारण इस प्रकार मान लेते हैं कि मेरी पूजा और प्रतिष्ठा करनेवाले पवित्र होते हैं, इससे मेरी कुछ भी हानि नहीं। परंतु ऐसा समझनेवालोंकी बुद्धि उन्हें धोखा देती है और वे मोह-जालमें फँसकर साधनपथसे गिर जाते हैं। बहुत-से पुरुष तो मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाकी इच्छाके लिये ही ईश्वरभक्ति, सदाचार और लोक-सेवादि उत्तम कर्ममें प्रवृत्त होते हैं।
दूसरे जो जिज्ञासु अर्थात् अपनी आत्माके कल्याणके उद्देश्यसे ईश्वरभक्ति, सदाचार और लोक-सेवादि उत्तम कर्म करते हैं वे भी मान बड़ाई प्रतिष्ठाको पाकर फिसल जाते हैं और उनके ध्येयका परिवर्तन हो जाता है। ध्येयके बदल जानेसे मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाके लिये ही उनके सब काम होने लगते हैं और झूठ, कपट, दम्भ और घमंडको उनके हृदयमें स्थान मिल जाता है, इससे उनका भी अध:पतन हो जाता है।
कुछ जो अच्छे साधक होते हैं, उनका ध्येय तो नहीं बदलता, परन्तु स्वाभाविक ही मनको प्रिय लगनेके कारण मान, बड़ाई और प्रतिष्ठाके जालमें फँसकर वे भी उत्तम मार्गसे रुक जाते हैं। आजकल जो साधु, महात्मा, भक्त और ज्ञानी माने जाते हैं, उनमेंसे तो कोई बिरले ही ऐसे होंगे, जो इनके जालमें न फँसे हों।
पामर और विषयासक्त पुरुषोंको तो ये अमृतके तुल्य दीखते ही हैं; किन्तु बुद्धिमान् साधक पुरुषको भी ये देखनेमें अमृतके तुल्य प्रतीत होते हैं। परन्तु बुद्धिमान् साधक तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुषोंके संगके प्रतापसे विचार बुद्धिके द्वारा परिणाममें विषके सदृश समझकर इनको नहीं चाहते।
इनमेंसे भी जो मुलाहिजेमें फँसकर या मनके धोखेसे स्वीकार कर लेते हैं, वे भी प्राय: गिर जाते हैं।
जो उच्च श्रेणीके साधक हैं और जिन्हें इन सबमें वास्तविक वैराग्य उत्पन्न हो गया है, उन विरक्त पुरुषोंकी इन सबमें प्रत्यक्ष घृणा हो जाती है। इसलिये वे इनसे उपराम हो जाते हैं। जैसे मद्य और मांस न खानेवालेके चित्तकी वृत्तियाँ मद्य-मांसकी ओर स्वाभाविक ही नहीं जातीं, वैसे ही उन विरक्त पुरुषोंके चित्तकी वृत्तियाँ मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी ओर नहीं जातीं। बुद्धिमान् रोगी जैसे कुपथ्यसे डरते हैं वैसे ही ये उनके संसर्ग और सेवनसे (मृत्युके सदृश) डरते हैं। जहाँ मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा होती है, वहाँ प्रथम तो प्राय: वे लोग जाते ही नहीं, यदि जाते हैं तो उन सबको स्वीकार नहीं करते। कोई बलात् मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा कर देता है तो उनके दिलमें वे सब खटकते हैं।
जो ज्ञानवान् हैं अर्थात् ईश्वरके तत्त्वज्ञानसे जिन्हें परम वैराग्य और परम उपरामता प्राप्त हो गयी है, उनके विषयमें तो कुछ लिखना बनता ही नहीं। वे तो समुद्रके सदृश गम्भीर, निर्भय और धीर होते हैं। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाको तो वे चाहते ही नहीं, यदि बलात् कोई कर देते हैं तो वे इतने उपराम होते हैं कि श्रीशुकदेवजीकी भाँति वे उनकी परवा ही नहीं करते।
जब उनकी दृष्टिमें परमात्माके अतिरिक्त संसार ही नहीं है तो फिर राग, वैराग्य, मान, अपमान, निन्दा, स्तुतिको स्थान ही कहाँ है! उन पुरुषोंको छोड़कर और कोई विरला ही पुरुष होगा जो मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाको पाकर नहीं गिरता।
अतएव कंचन, कामिनी, मान-बड़ाई और प्रतिष्ठाके मोहमें फँसकर अपने मनुष्य-जीवनके अमूल्य समयको व्यर्थ गँवाकर आत्माका पतन नहीं करना चाहिये।
मनुष्य-जीवनका एक-एक श्वास ऐसा अमूल्य है कि जिसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती, क्योंकि ईश्वरकृपाके प्रभावसे उत्तम देश, काल और सत्संगको पाकर यह मनुष्य एक क्षणमें भी परमपदको प्राप्त हो सकता है। किसी कविने भी कहा है—
ऐसे महँगे मोलका एक स्वास जो जाय।
तीन लोक नहिं पटतरे काहे धूरि मिलाय॥
मनुष्यके जीवनका समय बहुत ही अनमोल है। एक-एक श्वासपर सौ-सौ रुपये खर्च करनेसे भी एक श्वासका समय नहीं बढ़ सकता। रुपये खर्च करनेसे समय मिल जाता तो राजा-महाराजा कोई नहीं मरते।
पैसोंहीसे नहीं, रत्नोंके मोलपर भी मनुष्य-जीवनका समय हमको नहीं मिल सकता। इसलिये ऐसे अमूल्य समयको जो व्यर्थ खोयेगा, उसको अवश्य ही पश्चात्ताप करना पड़ेगा। इस क्षणभंगुर परिवर्तनशील संसारके सभी पदार्थ जीर्ण और नाशको प्राप्त होते हुए क्षण-क्षणमें हमलोगोंको चेतावनी दे रहे हैं, परन्तु हमलोग नहीं चेतते।
प्रति सेकंड टिक-टिक करती हुई घड़ी हमें समय बतलाती है परन्तु हम ध्यान नहीं देते। हमारे शरीरके नख, रोम और अवस्थाओंका परिवर्तन, इन्द्रियोंका ह्रास तथा बीमारियोंकी उत्पत्ति हमको समय-समयपर मौतकी याद दिलाती है तो भी हम सावधान नहीं होते। इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य होगा?
हमलोग मायारूपी मदिराको पीकर ऐसे मोहित हो गये हैं कि उसका नशा कभी उतरता ही नहीं। संत कवियोंने भी हमें कम चेतावनी नहीं दी है, परन्तु हम किसीकी परवा ही नहीं करते, फिर हमारा कल्याण कैसे हो?
नारायण स्वामी कहते हैं—
दो बातनको भूल मत जो चाहत कल्यान।
नारायण इक मौतको दूजे श्रीभगवान॥
श्रीकबीरदासजीके वचन तो चेतावनीसे भरे हुए हैं—
कबीर नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय।
यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखो आय॥
आजकालकी पाँच दिन जंगल होगा बास।
ऊपर ऊपर हल फिरैं ढोर चरैंगे घास॥
मरहुगे मरि जाओगे कोई न लेगा नाम।
ऊजड़ जाय बसाओगे छाँड़ि बसंता गाम॥
हाड़ जलै ज्यों लाकड़ी केस जलै ज्यों घास।
सब जग जलता देखकर भया कबीर उदास॥
कबिरा सूता क्या करै जागो जपो मुरारि।
एक दिना है सोवना लंबे पाँव पसारि॥
जब कबीर-सदृश संतकी चेतावनी सुनकर भी हमारी अज्ञान-निद्रा भंग नहीं होती तो दूसरोंकी तो हम सुनें ही क्या?
कर्तव्यको भूलकर भोग, प्रमाद, आलस्य और सांसारिक स्वार्थ-सिद्धिमें मोहित होकर तल्लीन हो जाना ही निद्रा है।
चराचर भूतप्राणी ईश्वरका अंश होनेके कारण ईश्वरका स्वरूप ही है। इस प्रकार समझकर उनके हितमें रत होकर उनकी सेवा करना और सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्माके तत्त्वको जानकर उनको कभी नहीं भूलना, यही जागना है।
श्रुति भी इसी बातको लक्ष्य कराती हुई डंकेकी चोट हमें जगा रही है—
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा:
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥
(केन० २। ५)
यदि इस मनुष्य-शरीरमें ही उस परमात्म-तत्त्वको जान लिया तो सत्य है यानी उत्तम है, यदि इस जन्ममें उसको नहीं जाना तो महान् हानि है। धीर पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें परमात्माका चिन्तनकर परमात्माको समझकर इस देहको छोड़ अमृतको प्राप्त होते हैं अर्थात् इस देहसे प्राणोंके निकल जानेपर वे अमृतस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
(कठ० १। ३। १४)
उठो, जागो और महापुरुषोंके समीप जाकर तत्त्वज्ञानके रहस्यको समझो।
ऐसे चेतानेपर भी हमलोग नहीं चेतेंगे तो फिर हमलोगोंका उसी दशाको प्राप्त होना अनिवार्य है जैसा कि तुलसीदासजीने कहा है—
जो न तरै भवसागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥