Seeker of Truth

महात्मा भीष्मपितामह

महात्मा भीष्म प्रसिद्ध कुरुवंशी महाराज शान्तनुके पुत्र थे। वे गंगादेवीसे उत्पन्न हुए थे। वसु नामक देवताओंमें ‘द्यौ’ नामके वसु ही महर्षि वसिष्ठके शापसे भीष्मके रूपमें अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने कुमारावस्थामें ही सांगोपांग वेदोंका अध्ययन तथा अस्त्रोंका अभ्यास कर लिया था। अस्त्रोंका अभ्यास करते हुए उन्होंने एक बार अपने बाणोंके प्रभावसे गंगाकी धाराको ही रोक दिया था। उन्हें बचपनमें लोग देवव्रत कहते थे।

एक दिन राजर्षि शान्तनु वनमें विचर रहे थे। उनकी दृष्टि एक सुन्दरी कैवर्तराजकी कन्यापर पड़ी, जिसका नाम सत्यवती था और उसपर वे आसक्त हो गये। उन्होंने उससे विवाह करना चाहा। सत्यवती थी तो एक राजकन्या, परंतु वह कैवर्तराजके घर पली थी। उसके पिता कैवर्तराजने उसके विवाहके लिये राजाके सामने यह शर्त रखी कि उसके गर्भसे जो पुत्र हो, वही राज्यका अधिकारी हो। राजाने उसकी यह शर्त मंजूर नहीं की। परंतु वे उस कन्याको भी भुला न सके। वे उसीको पानेकी चिन्तामें उदास रहने लगे। देवव्रतको जब उनकी उदासीका कारण ज्ञात हुआ, तो वे स्वयं कैवर्तराजके पास गये और उससे स्वयं अपने पिताके लिये कन्याकी याचना की। उन्होंने उसकी शर्त मंजूर करते हुए सबके सामने यह प्रतिज्ञा की कि ‘इसके गर्भसे जो पुत्र होगा, वही हमारा राजा होगा।’ परन्तु कैवर्तराजको इतनेपर भी सन्तोष नहीं हुआ। उसने कहा—‘आपका वचन तो कभी अन्यथा नहीं होनेका; परन्तु आपका पुत्र राज्यका अधिकारी हो सकता है।’ इसपर देवव्रतने उसी समय यह दूसरी कठिन प्रतिज्ञा की कि ‘मैं आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करूँगा।’ कुमार देवव्रतकी इस भीष्म-प्रतिज्ञाको सुनकर देवताओंने पुष्पवर्षा की और तभीसे उन्हें लोग ‘भीष्म’ कहने लगे। भीष्मने सत्यवतीको ले जाकर अपने पिताको सौंप दिया। भीष्मका यह दुष्कर कार्य सुनकर राजा शान्तनु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने पुत्रको इच्छामृत्युका वरदान दिया। इस प्रकार भीष्मने जीवनके आरम्भमें ही पिताकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये संसारके सामने अलौकिक त्यागका आदर्श उपस्थित किया। जिस राज्यके लिये उनकी दो ही पीढ़ीके बाद उन्हींके बेटों-पोतोंमें तथा उन्हींकी उपस्थितिमें भीषण संहारकारी महायुद्ध हुआ, उसी राज्यको उन्होंने बात-की-बातमें अपने पिताकी एक मामूली-सी इच्छापर न्योछावर कर दिया। जिन कामिनी-कांचनके लिये संसारके इतिहासमें न जाने कितनी बार खून-खराबा हुआ है और राज्य-के-राज्य ध्वंस हो गये हैं, उनका सदाके लिये तृणवत् परित्याग कर उन्होंने एक विरक्त महात्माका-सा आचरण किया। धन्य पितृभक्ति!

सत्यवतीके गर्भसे महाराज शान्तनुके दो पुत्र हुए। बड़ेका नाम था चित्रांगद और छोटेका विचित्रवीर्य। अभी चित्रांगद जवान नहीं हो पाये थे कि राजा शान्तनु इस लोकसे चल बसे। चित्रांगद राजा हुए, परन्तु वे कुछ ही दिनों बाद गन्धर्वोंके साथ युद्ध करते हुए मारे गये। विचित्रवीर्य भी अभी बालक ही थे, अत: वे भीष्मकी देख-रेखमें राज्यका शासन करने लगे। कुछ दिनों बाद भीष्मको विचित्रवीर्यके विवाहकी चिन्ता हुई। उन्हीं दिनों काशीनरेशकी तीन कन्याओंका स्वयंवर होने जा रहा था। भीष्म अकेले ही रथपर सवार हो काशी पहुँचे। उन्होंने अपने भाईके लिये बलपूर्वक कन्याओंको हरकर अपने रथपर बिठा लिया और उन्हें हस्तिनापुर ले चले। इसपर स्वयंवरके लिये एकत्र हुए सभी राजालोग उनपर टूट पड़े, परन्तु उन राजाओंकी एक भी न चली। उन्होंने अकेले ही सबको परास्त कर दिया और कन्याओंको लाकर विचित्रवीर्यके अर्पण कर दिया। उस समय संसारको उनके अलौकिक पराक्रम तथा अस्त्र-कौशलका प्रथम बार परिचय मिला।

भीष्म काशिराजकी जिन तीन कन्याओंको हरकर ले आये थे, उनमें सबसे बड़ी कन्या अम्बा मन-ही-मन राजा शाल्वको वर चुकी थी। भीष्मको जब यह मालूम हुआ, तो उन्होंने अम्बाको वहाँसे विदा कर दिया और शेष दो कन्याओंका विचित्रवीर्यसे विवाह कर दिया। परन्तु विचित्रवीर्य अधिक दिन जीवित न रहे। विवाहके कुछ ही वर्षों बाद वे क्षयरोगके शिकार हो इस संसारसे चल बसे। उनके कोई सन्तान न थी। फलत: कुरुवंशके उच्छेदका प्रसंग उपस्थित हो गया। भीष्म चाहते तो बड़ी आसानीसे राज्यपर अधिकार कर सकते थे। प्रजा उनके अनुकूल थी ही। वंशरक्षाके लिये विवाह करनेमें भी अब उनके सामने कोई अड़चन नहीं थी। परन्तु बड़े-से-बड़ा प्रलोभन तथा आवश्यकता भी भीष्मको उनके वचनसे नहीं डिगा सकी। सत्यवतीके पितासे की हुई प्रतिज्ञाको दुहराते हुए एक समय उन्होंने कहा था—‘मैं त्रिलोकीका राज्य, ब्रह्माका पद और इन दोनोंसे अधिक मोक्षका भी परित्याग कर सकता हूँ; पर सत्यका त्याग नहीं कर सकता। पाँचों भूत अपने-अपने गुणोंको त्याग दें, चन्द्रमा शीतलता छोड़ दें; और तो क्या, स्वयं धर्मराज भले ही अपना धर्म छोड़ दें, परन्तु मैं अपनी सत्यप्रतिज्ञा छोड़नेका विचार भी नहीं कर सकता।’ प्रतिज्ञाका पालन हो तो ऐसा हो।

इधर अम्बाको शाल्वने स्वीकार नहीं किया। वह न इधरकी रही, न उधरकी। लज्जाके मारे वह पिताके घर भी न जा सकी। अपनी इस दुर्दशाका कारण भीष्मको समझकर वह मन-ही-मन उन्हें कोसने और उनसे बदला लेनेका उपाय सोचने लगी। अपने नाना राजर्षि होत्रवाहनकी सलाहसे वह जमदग्निनन्दन परशुरामकी शरण गयी और उनसे अपने दु:खका कारण निवेदन किया। भीष्मने परशुरामसे अस्त्रविद्या सीखी थी। उन्होंने भीष्मको कुरुक्षेत्रमें बुलाकर कहा कि ‘इस कन्याका बलपूर्वक स्पर्श करके तुमने इसे दूषित कर दिया है; इसलिये शाल्वने इसे स्वीकार नहीं किया। अत: अब तुम्हींको इसका विधिपूर्वक पाणिग्रहण करना होगा। भीष्मने उनकी बात स्वीकार नहीं की। उन्होंने कहा कि ‘इस कन्याने ही मुझसे कहा था कि मैं शाल्वकी हो चुकी हूँ। ऐसी हालतमें मैं उसे कैसे रख सकता था; जिसका दूसरे पुरुषपर प्रेम है, उसे कोई धार्मिक पुरुष कैसे रख सकता है?’ अब तो परशुराम आगबबूला हो गये। उन्होंने कहा—‘भीष्म! तुम जानते नहीं कि मैंने इक्कीस बार इस पृथ्वीको क्षत्रियोंसे हीन कर दिया था?’ भीष्मने कहा—‘गुरुजी! उस समय भीष्म पैदा नहीं हुए थे।’ यह सुनकर उन्होंने भीष्मको युद्धके लिये ललकारा। भीष्मने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली, फिर तो गुरु-शिष्यमें भयंकर युद्ध छिड़ गया। तेईस दिनोंतक लगातार युद्ध होता रहा, परन्तु किसीने भी हार नहीं मानी। अन्तमें देवताओंने तथा मुनियोंने बीचमें पड़कर युद्ध बन्द करा दिया। इस प्रकार भीष्मने परशुरामकी बात भी न मानकर अपने सत्यकी रक्षा की तथा अपने अद्भुत पराक्रमसे परशुराम-जैसे अद्वितीय धनुर्धरके भी छक्के छुड़ा दिये। सत्यप्रतिज्ञता और वीरताकी पराकाष्ठा हो गयी।

महाभारत-युद्धमें कौरवपक्षके सर्वश्रेष्ठ योद्धा भीष्म ही थे। अतएव कौरव-दलके प्रथम सेनानायक होनेका गौरव उन्हींको प्राप्त हुआ। पाण्डव एवं कौरव—दोनोंके पितामह होनेके नाते उनका दोनोंके प्रति समान प्रेम एवं सहानुभूति थी तथा दोनोंका ही समानरूपमें वे हित चाहते थे। फिर भी यह जानकर कि धर्म एवं न्याय पाण्डवोंके ही पक्षमें है, वे पाण्डवोंके साथ विशेष सहानुभूति रखते थे और हृदयसे उनकी विजय चाहते थे; परन्तु हृदयसे पाण्डवोंके पक्षपाती होनेपर भी उन्होंने युद्धमें कभी पाण्डवोंके साथ रियायत नहीं की और प्राणपणसे उन्हें जीतनेकी चेष्टा की। युद्धके अठारह दिनोंमेंसे दस दिनोंतक अकेले भीष्मने कौरवोंका सेनानायकत्व किया और इस बीच पाण्डवपक्षकी बहुत-सी सेनाका संहार कर डाला। वृद्ध होते हुए भी युद्धमें उन्होंने ऐसा अद्भुत पराक्रम दिखाया कि दो बार स्वयं भगवान् श्रीकृष्णको शस्त्र न लेनेकी प्रतिज्ञा होते हुए भी अर्जुनकी रक्षाके लिये उनके मुकाबलेमें खड़ा होना पड़ा। अर्जुनका बल क्षीण होते देख एक बार तो वे चक्र लेकर उनके सामने दौड़े और दूसरी बार चाबुक लेकर उन्होंने भीष्मको ललकारा और इस प्रकार एक भक्तके प्राणोंकी रक्षा करते हुए दूसरे भक्तके गौरवको बढ़ाकर अपनी उभयतोमुखी भक्तवत्सलताका परिचय दिया। अन्तमें पाण्डवोंने जब देखा कि भीष्मके रहते कौरवोंपर विजय पाना असम्भव-सा है, तब उन्होंने स्वयं पितामहसे उनकी मृत्युका उपाय पूछा और उन्होंने दया करके उसे बता दिया। उन्होंने बताया कि ‘द्रुपदकुमार शिखण्डी स्त्रीरूपमें जन्मा था, यद्यपि वह अब पुरुषके रूपमें बदल गया है, फिर भी मेरी दृष्टिमें वह स्त्री ही है। ऐसी दशामें उसपर मैं शस्त्र नहीं उठा सकता। वह यदि मेरे सामने युद्ध करने आयेगा तो मैं शस्त्र नहीं चलाऊँगा। उस समय मुझे अर्जुन मार सकता है।’ क्षत्रियधर्मके पालन और वीरताका उदाहरण इससे बढ़कर क्या होगा?

जिस समय युद्धमें मर्माहत होकर भीष्म धराशायी हुए, उस समय उनका रोम-रोम बाणोंसे बिंध गया था। उन्हीं बाणोंपर वे सो गये, धरतीसे उनका स्पर्श नहीं हुआ। उस समय सूर्य दक्षिणायनमें थे। दक्षिणायनको देहत्यागके लिये उपयुक्त काल न समझकर वे अयन-परिवर्तनके समयतक उसी शरशय्यापर पड़े रहे; पिताके वरदानसे मृत्यु तो उनके अधीन थी ही। भीष्मजीके गिरते ही उस दिन युद्ध बन्द हो गया। कौरव तथा पाण्डव वीर भीष्मजीको घेरकर उनके चारों ओर खड़े हो गये। भीष्मजीका सारा शरीर बाणोंसे संलग्न था, केवल उनका सिर नीचे लटक रहा था। उसके लिये उन्होंने कोई सहारा माँगा। लोगोंने उत्तमोत्तम तकिये लाकर उनके सामने रख दिये, परन्तु उन्हें वे पसन्द नहीं आये। उन्होंने अर्जुनसे कहा—‘बेटा! तुम क्षत्रियधर्मको जानते हो, इसलिये मेरे अनुरूप तकिया लगा दो।’ अर्जुन उन वीरशिरोमणिके अभिप्रायको समझ गये। वीरोंके संकेत वीर ही समझ सकते हैं। उन्होंने बाण मारकर भीष्मजीके मस्तकको ऊँचा कर दिया, उन बाणोंपर उनका मस्तक टिक गया। इधर दुर्योधनने बाण निकालनेमें कुशल वैद्योंको भीष्मजीकी चिकित्साके लिये बुलवाया, परन्तु भीष्मपितामहने उन सबको सम्मानपूर्वक लौटा दिया। गौरवमयी वीरगतिको पाकर उन्होंने चिकित्सा करानेमें अपना अपमान समझा। सब लोग उनके असाधारण शौर्य, सहिष्णुता और साहसको देखकर दंग रह गये। उस समय भी युद्ध बन्द कराने तथा दोनों पक्षोंमें शान्ति स्थापन करनेकी उन्होंने पूरी चेष्टा की, परन्तु उसमें वे सफल नहीं हुए। दैवका ऐसा ही विधान था। उसे कौन टाल सकता था।

बाणोंकी असह्य वेदनासे भीष्मजीका गला सूख रहा था। उनका सारा शरीर जल रहा था। उन्होंने पीनेके लिये पानी माँगा। लोगोंने झारियोंमें भर-भरकर शीतल और सुगन्धित जल उनके सामने उपस्थित किया। भीष्मजीने उसे लौटा दिया। उन्होंने कहा कि ‘पहले भोगे हुए मानवीय भोगोंको अब मैं स्वीकार नहीं कर सकता; क्योंकि इस समय मैं शरशय्यापर पड़ा हुआ हूँ।’ फिर उन्होंने अर्जुनको बुलाकर कहा—‘बेटा! तुम्हीं मुझे विधिवत् जल पिला सकते हो।’ अर्जुनने ‘जो आज्ञा’ कहकर अपने भाथेमेंसे एक दमकता हुआ बाण निकाला और उसे पर्जन्यास्त्रसे संयोजितकर भीष्मके बगलवाली जमीनपर मारा। उसी समय सबके देखते-देखते पृथ्वीमेंसे दिव्य जलकी एक धारा निकली और वह ठीक भीष्मजीके मुखमें गिरने लगी। अमृतके समान उस जलको पीकर भीष्मजी तृप्त हो गये और अर्जुनके उस कर्मकी उन्होंने भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसी समयसे भीष्मने अन्न-जलका त्याग कर दिया और फिर जितने दिन वे जीवित रहे, बाणोंकी मर्मान्तक पीड़ाके साथ-साथ भूख-प्यासकी असह्य वेदना भी सहते रहे। इस प्रकार उन्होंने वीरताके साथ-साथ धैर्य एवं सहनशक्तिकी भी पराकाष्ठा दिखा दी।

महामना भीष्म केवल आदर्श पितृभक्त, आदर्श सत्यप्रतिज्ञ एवं आदर्श वीर ही नहीं थे, वे शास्त्रोंके महान् ज्ञाता, धर्म एवं ईश्वरके तत्त्वको जाननेवाले एवं महान् भगवद्भक्त भी थे। उनके अगाध ज्ञानकी प्रशंसा करते हुए स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने यहाँतक कह दिया कि ‘आपके इस लोकसे चले जानेपर सारे ज्ञान लुप्त हो जायँगे; संसारमें जो सन्देहग्रस्त विषय हैं, उनका समाधान करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है, इत्यादि। भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणा एवं शक्तिसे उन्होंने युधिष्ठिरको लगातार कई दिनोंतक वर्णाश्रमधर्म, राजधर्म, आपद्धर्म, मोक्षधर्म, श्राद्धधर्म, दानधर्म और स्त्रीधर्म आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयोंपर उपदेश दिया, जो महाभारतके शान्तिपर्व तथा अनुशासनपर्वमें संगृहीत है। साक्षात् धर्मके अंशसे उत्पन्न तथा धर्मकी प्रत्यक्ष मूर्ति महाराज युधिष्ठिरकी धर्मविषयक शंकाओंका निवारण करना पितामह भीष्मका ही काम था। उनका उपदेश सुननेके लिये व्यास आदि महर्षि भी उपस्थित हुए थे।

भगवान् श्रीकृष्णके माहात्म्य एवं प्रभावका ज्ञान जैसा भीष्मको था, वैसा उस समय बहुत कम लोगोंको था। धृतराष्ट्र एवं दुर्योधनको उन्होंने कई बार श्रीकृष्णकी महिमा सुनायी थी। राजसूय यज्ञमें अग्रपूजाके लिये श्रीकृष्णको ही सर्वोत्तम पात्र सिद्ध करते हुए उन्होंने भरी सभामें श्रीकृष्णकी महिमा गायी थी और उन्हें साक्षात् ईश्वर बतलाया था। श्रीकृष्ण जब अर्जुनकी ओरसे चक्र लेकर उनके सामने दौड़े तब उन्होंने उनके हाथसे मरनेमें अपना गौरव समझकर शस्त्रोंके द्वारा ही उनकी पूजा करनेके लिये उनका आवाहन किया। उन्होंने युधिष्ठिरको भगवान् विष्णुका जो सहस्रनामस्तोत्र सुनाया, उससे उनकी भगवद्भक्ति तथा भगवत्तत्त्व-ज्ञानका स्पष्ट परिचय मिलता है। आज भी उस विष्णुसहस्रनामका भक्तोंमें बड़ा आदर है। स्वामी श्रीशंकराचार्यजीने गीता, उपनिषद् एवं ब्रह्मसूत्रोंकी भाँति उसपर भी विस्तृत भाष्य लिखा है। उनकी भक्तिका ही यह फल था कि साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने अन्त समयमें उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया। इस प्रकार भक्ति, ज्ञान, सदाचार जिस ओरसे भी हम भीष्मके चरित्रपर दृष्टि डालते हैं, उसी ओरसे हम उसे आदर्श पाते हैं। भीष्मकी कोटिके महापुरुष संसारके इतिहासमें इने-गिने ही पाये जाते हैं। यद्यपि भीष्म अपुत्र ही मरे, फिर भी सारे त्रैवर्णिक हिन्दू आजतक पितरोंका तर्पण करते समय उन्हें जल देते हैं। यह गौरव भारतके इतिहासमें किसीको भी प्राप्त नहीं है। इसीलिये सारा जगत् आज भी उन्हें पितामहके नामसे पुकारता है। भीष्मकी-सी अपुत्रता बड़े-बड़े पुत्रवानोंके लिये भी ईर्ष्याकी वस्तु है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur