Seeker of Truth

महापापसे बचो

ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ।

महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह ॥

(मनुस्मृति ११। ५४)

'ब्राह्मणकी हत्या करना, मदिरा पीना, स्वर्ण आदिकी चोरी करना और गुरुपत्नीके साथ व्यभिचार करना-ये चार महापाप हैं। इन चारोंमेंसे किसी भी महापापको करनेवालेके साथ कोई तीन वर्षतक रहता है, उसको भी वही फल मिलता है, जो महापापीको मिलता है।'*

* स्तेनो हिरण्यस्य सुरां पिबश्श्च गुरोस्तल्पमावसन्ब्रह्महा चैते पतन्ति चत्वारः पञ्चमश्चाचरःस्तैरिति ॥ (छान्दोग्य० ५।१०।९)

१. ब्रह्महत्या

चारों वर्णोंका गुरु ब्राह्मण है- 'वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः' शास्त्रीय ज्ञानका जितना प्रकाश ब्राह्मण-जातिसे हुआ है, उतना और किसी जातिसे नहीं हुआ है। अतः ब्राह्मणकी हत्या करना महापाप है। इसी तरह जिससे दुनियाका हित होता है, ऐसे हितकारी पुरुषोंको, भगवद्भक्तको तथा गाय आदिको मारना भी महापाप ही है। कारण कि जिसके द्वारा दूसरोंका जितना अधिक हित होता है, उसकी हत्यासे उतना ही अधिक पाप लगता है।

२. मदिरापान

मांस, अण्डा, सुल्फा, भाँग आदि सभी अशुद्ध और नशा करनेवाले पदार्थोंका सेवन करना पाप है; परंतु मदिरा पीना महापाप है। कारण कि मनुष्यके भीतर जो धार्मिक भावनाएँ रहती हैं; धर्मकी रुचि, संस्कार रहते हैं, उनको मदिरापान नष्ट कर देता है। इससे मनुष्य महान् पतनकी तरफ चला जाता है। मदिराके निर्माणमें असंख्य जीवोंकी हत्या होती है। गंगाजी सबको शुद्ध करनेवाली हैं; परंतु यदि गंगाजीमें मदिराका पात्र डाल दिया जाय तो वह शुद्ध नहीं होता। जब मदिराका पात्र भी (जिसमें मदिरा डाली जाती है) इतना अशुद्ध हो जाता है, तब मदिरा पीनेवाला कितना अशुद्ध हो जाता होगा-इसका कोई ठिकाना नहीं है। मुसलमानोंके धर्मकी यह बात मैंने सुनी है कि शरीरके जिस अंगमें मदिरा लग जाय, उस अंगकी चमड़ी काटकर फेंक देनी चाहिये।

प्रश्न - आजकल कई अंग्रेजी दवाइयोंमें मदिरा मिली रहती है। अगर स्वास्थ्यके लिये ओषधिरूपसे उनका सेवन किया जाय तो क्या महापाप लगेगा ?

उत्तर - जिनमें मदिरा है, उन ओषधियोंके सेवनसे महापाप लगेगा ही।

प्रश्न - अगर परिवारमें एक व्यक्ति मदिरापान करता है तो उसके संगके कारण पूरे परिवारको महापाप लगेगा क्या?

उत्तर - नहीं। परिवारवालोंकी दृष्टिमें वह कुटुम्बी है; अतः वे मदिरा पीनेवालेका संग नहीं करते, प्रत्युत परवशतासे कुटुम्बीका संग करते हैं। ऐसे ही अगर पति मदिरा पीता हो और स्त्रीको रात-दिन उसके साथ रहना पड़ता है तो स्त्रीको महापाप नहीं लगेगा; क्योंकि वह मदिरा पीनेवालेका संग नहीं करती, प्रत्युत परवशतासे पतिका संग करती है। रुचिपूर्वक संग करनेसे ही कुसंगका दोष लगता है।

प्रश्न - जो पहले अनजानमें मदिरा पीता रहा है, पर अब होशमें आया है तो वह महापापसे कैसे शुद्ध हो ?

उत्तर - वह सच्चे हृदयसे पश्चात्ताप करके मदिरा पीना सर्वथा छोड़ दे और निश्चय कर ले कि आजसे मैं कभी भी मदिरा नहीं पीऊँगा तो उसका सब पाप माफ हो जायगा। जीव स्वतः शुद्ध है- 'चेतन अमल सहज सुखरासी ॥' अतः अशुद्धिको छोड़ते ही उसको नित्यप्राप्त शुद्धि प्राप्त हो जायगी, वह शुद्ध हो जायगा।

३. चोरी

किसी भी चीजकी चोरी करना पाप है; परंतु सोना, हीरा आदि बहुमूल्य चीजोंकी चोरी करना महापाप है। तात्पर्य है कि जो वस्तु जितनी अधिक मूल्यवान् होती है, उसकी चोरी करनेपर उतना ही अधिक पाप लगता है।

४. गुरुपत्नीगमन

वीर्य (ब्रह्मचर्य)-नाशके जितने उपाय हैं, वे सभी पाप हैं**; परंतु गुरुपत्नीगमन करना महापाप है। कारण कि हमें विद्या देनेवाले, हमारे जीवनको निर्मल बनानेवाले गुरुकी पत्नी माँसे भी बढ़कर होती है। अतः उसके साथ व्यभिचार करना महापाप है।


परस्त्रीगमन करना भी महापाप है, इसलिये इसको व्यभिचार अर्थात् विशेष अभिचार (हिंसा) कहा गया है। अगर पुरुष परस्त्रीगमन करता है अथवा स्त्री परपुरुषगमन करती है तो माँ- बाप, भाई-बहन आदिको तथा ससुरालमें पति, सास-ससुर, देवर आदिको महान् दुःख होता है। इस प्रकार दो परिवारोंको दुःख देना पाप है और निषिद्ध भोग भोगकर शास्त्र, धर्म, समाज, कुल आदिकी मर्यादाका नाश करना भी पाप है। ये दोनों पाप एक साथ बननेसे परस्त्रीगमन अथवा परपुरुषगमन करना विशेष अभिचार है, महापाप है। एक बुद्धिमान् सज्जनने अपना अनुभव बताया था कि परस्त्रीगमन करनेसे हृदयका आस्तिकभाव नष्ट हो जाता है और नास्तिकभाव आ जाता है, जो कि महान् अनर्थका मूल है।

हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि कोई भी क्यों न हों, सभीको ऐसे महापापोंका त्याग करना चाहिये। मनुष्य-शरीर मिला है तो कम-से-कम महापापोंसे तो बचना ही चाहिये; जिससे आगे दुर्गति न हो, भूत-प्रेत आदि योनियोंकी प्राप्ति न हो। 

** वीर्यकी एक बूँदमें हजारों जीव होते हैं। स्त्री-संगसे जो वीर्य नष्ट होता है, उसमेंसे जो जीव गर्भाशयमें रजके साथ चिपक जाता है, वही गर्भ बनता है। शेष सब जीव मर जाते हैं, जिनकी हिंसाका पाप लगता है। हाँ, केवल सन्तानोत्पत्तिके उद्देश्यसे ऋतुकालमें स्त्री-संग करनेसे पाप नहीं लगता (पाप होता तो है, पर लगता नहीं); क्योंकि यह शास्त्रकी, धर्मकी आज्ञाके अनुसार है- 'स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्' (गीता १८ । ४७); 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि' (गीता ७।११) । परंतु केवल भोगेच्छासे स्त्रीका संग करनेसे उस हिंसाका पाप लगता ही है। इसलिये कहा है-
एक बार भग भोग ते, जीव हतै नौ लाख । जन मनोर नारी तजी, सुन गोरख की साख ॥

गर्भपात महापापसे दुगुना पाप है

जैसे ब्रह्महत्या महापाप है, ऐसे ही गर्भपात भी महापाप है। शास्त्रमें तो गर्भपातको ब्रह्महत्यासे भी दुगुना पाप बताया गया है-

यत्पापं ब्रह्महत्याया द्विगुणं गर्भपातने ।

प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते ॥

(पाराशरस्मृति ४। २०)

'ब्रह्महत्यासे जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात करनेसे लगता है। इस गर्भपातरूपी महापापका कोई प्रायश्चित्त नहीं है, इसमें तो उस स्त्रीका त्याग कर देनेका ही विधान है।'

भगवान् विशेष कृपा करके जीवको मनुष्य-शरीर देते हैं, पर नसबन्दी, आपरेशन, गर्भपात, लूप, गर्भनिरोधक दवाओं आदिके द्वारा उस जीवको मनुष्य-शरीरमें न आने देना, उस परवश जीवको जन्म ही न लेने देना, जन्मसे पहले ही उसको नष्ट कर देना बड़ा भारी पाप है। उसने कोई अपराध भी नहीं किया, फिर भी उस निर्बल जीवकी हत्या कर देना उसके साथ कितना बड़ा अन्याय है। वह जीव मनुष्य-शरीरमें आकर न जाने क्या-क्या अच्छे काम करता, समाजकी सेवा करता, अपना उद्धार करता, पर जन्म लेनेसे पहले ही उसकी हत्या कर देना घोर अन्याय है, बड़ा भारी पाप है। अपना उद्धार, कल्याण न करना भी दोष, पाप है, फिर दूसरोंको भी उद्धारका मौका प्राप्त न होने देना कितना बड़ा पाप है! ऐसा महापाप करनेवाले स्त्री-पुरुषकी अगले जन्मोंमें कोई सन्तान नहीं होगी। वे सन्तानके बिना जन्म-जन्मान्तरतक रोते रहेंगे।

यह प्रत्यक्ष बात है कि जो मालिक अच्छे नौकरोंका तिरस्कार करता है, उसको फिर अच्छे नौकर नहीं मिलेंगे; और जो नौकर अच्छे मालिकका तिरस्कार करता है, उसको फिर अच्छा मालिक नहीं मिलेगा। अच्छे सन्त-महात्माओंका संग पाकर जो अपना उद्धार नहीं करता, उसको फिर वैसा संग नहीं मिलेगा। जिनसे लाभ हुआ है, ऐसे अच्छे सन्तोंका जो त्याग करता है, उनकी निन्दा, तिरस्कार करता है, उसको फिर वैसे सन्त नहीं मिलेंगे। जैसे माता-पिता प्रसन्न होकर बालकको मिठाई देते हैं, पर बालक उस मिठाईको न खाकर गन्दी नालीमें फेंक देता है तो फिर माता-पिता उसको मिठाई नहीं देते। ऐसे ही भगवान् विशेष कृपा करके मनुष्य-शरीर देते हैं, पर मनुष्य उस शरीरसे पाप करता है, उस शरीरका दुरुपयोग करता है तो फिर उसको मनुष्य-शरीर नहीं मिलेगा। माता-पिता तो फिर भी बालकको मिठाई दे देते हैं; क्योंकि बालक नासमझ होता है, पर जो समझपूर्वक, जानकर पाप करता है, उसको भगवान् फिर मनुष्य- शरीर नहीं देंगे। इसी तरह जो गर्भपात करते हैं, उनकी फिर अगले जन्मोंमें सन्तान नहीं होगी।

ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, अध्याय २) में आता है कि सृष्टिके आरम्भमें भगवान् श्रीकृष्णकी चिन्मयी शक्ति मूल प्रकृति (श्रीराधा) ने अपने गर्भको ब्रह्माण्ड-गोलकके अथाह जलमें फेंक दिया। यह देखकर भगवान्ने उसको शाप दे दिया कि 'आजसे तेरी कोई सन्तान नहीं होगी। इतना ही नहीं, तेरे अंशसे जो-जो दिव्य स्त्रियाँ उत्पन्न होंगी, उनकी भी कोई सन्तान नहीं होगी'*** ! इसके बाद मूल प्रकृति-देवीकी जीभके अग्रभागसे सरस्वती प्रकट हुई। फिर कुछ समय बीतनेपर वह मूल प्रकृति दो रूपोंमें प्रकट हो गयी। आधे बायें अंगसे वह 'लक्ष्मी' और आधे दायें अंगसे वह 'राधा' हो गयी। भगवान् श्रीकृष्ण भी उस समय दो रूपोंमें प्रकट हो गये। आधे बायें अंगसे वे 'चतुर्भुज विष्णु' और आधे दायें अंगसे वे 'द्विभुज कृष्ण' हो गयी । तब भगवान् श्रीकृष्णने लक्ष्मी और सरस्वती - दोनों देवियोंको विष्णुकी सेवामें उपस्थित होनेकी आज्ञा दी। मूल प्रकृतिसे प्रकट होनेके कारण लक्ष्मी और सरस्वतीकी भी कोई सन्तान नहीं हुई । इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णके रोमकूपोंसे असंख्य गोप प्रकट हुए और श्रीराधाके रोमकूपोंसे असंख्य गोप-कन्याएँ प्रकट हुईं। भगवान्के शापके कारण इन गोप-कन्याओंकी भी कोई सन्तान नहीं हुई §। इस कथासे यह सिद्ध होता है कि जो स्त्री गर्भ गिराती है, वह अगले जन्मोंमें सन्तानका सुख नहीं देख सकेगी !

*** दृष्ट्वा डिम्बञ्च सा देवी हृदयेन विभूषिता । उत्ससर्ज च कोपेन ब्रह्माण्डं गोलके जले ॥ दृष्ट्वा कृष्णश्च तत्त्यागं हाहाकारं चकार ह। शशाप देवीं देवेशस्तत्क्षणं च यथोचितम् ॥ यतोऽपत्यं त्वया त्यक्तं कोपशीले सुनिष्ठुरे। भवत्वमनपत्यापि चाद्यप्रभृतिनिश्चितम् ॥ या यास्त्वदंशरूपा च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः । अनपत्याश्च ताः सर्वास्तत्समा नित्ययौवनाः ॥ (प्रकृति० २।५०-५३)

अथ कालान्तरे सा च द्विधारूपा बभूव ह। वामार्द्धाङ्गा च कमला दक्षिणार्द्धा च राधिका ॥ एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव ह। दक्षिणार्द्धश्च द्विभुजो वामार्द्धश्च चतुर्भुजः ॥ (प्रकृति० २।५६-५७) ‡

अनपत्ये च ते द्वे च यतो राधांशसम्भवाः । (प्रकृति० २।६०)

§ राधाङ्गलोमकूपेभ्यो बभूवुर्गोपकन्यकाः । राधातुल्याश्च सर्वास्ताः राधातुल्याः प्रियंवदाः ॥ रत्नभूषणभूषाढ्याः शश्वत् सुस्थिरयौवनाः । अनपत्याश्च ताः सर्वाः पुंसः शापेन सन्ततम् ॥ (प्रकृति० २।६४-६५)

प्रश्न - ऐसा देखनेमें आता है कि जिन्होंने गर्भपात किया है, वे स्त्रियाँ भी पुनः गर्भवती होती हैं और उनकी सन्तान भी होती है। अतः यह कैसे मानें कि गर्भपात करनेवालेकी फिर सन्तान नहीं होगी ?

उत्तर - इस जन्मका तो पहले ही प्रारब्ध बन चुका है; अतः उस प्रारब्धके अनुसार उनकी सन्तान हो सकती है। परंतु अगले जन्ममें (नया प्रारब्ध बननेपर) उनकी सन्तान नहीं होगी। इस जन्ममें किये गये गर्भपातरूप महापापका फल उनको अगले जन्मोंमें भोगना ही पड़ेगा।

प्रश्न - गर्भस्त्राव, गर्भपात और भ्रूण हत्या -इन तीनोंमें क्या अन्तर है?

उत्तर - गर्भमें जीवका शरीर बनना शुरू होनेसे पहले ही रज-वीर्य गिर जाय तो उसको 'गर्भस्त्राव' कहते हैं। जब गर्भमें शरीर बनना शुरू हो जाय, तब उसको गिरा देना, 'गर्भपात' कहलाता है। जब गर्भमें स्थित जीवके हाथ, पाँव, मस्तक आदि अंग निकल आते हैं और यह बच्चा है या बच्ची - इसका भेद स्पष्ट होने लगता है, तब उसको गिरा देना 'भ्रूण-हत्या' कहलाती है। गर्भस्त्राव, गर्भपात और भ्रूण हत्या- इन तीनोंको किसी भी तरहसे करनेपर महापाप लगता है। हाँ, अपने-आप गर्भ गिर जाय तो उसका पाप नहीं लगता। जैसे, संसारमें बहुत-से जीव अपने-आप मर जाते हैं, पर उसका पाप हमें नहीं लगता; क्योंकि हमने उनको मारा भी नहीं और मारनेकी इच्छा भी नहीं की।

प्रश्न - गर्भमें जीव (प्राण) तो रहता नहीं, बादमें आता है, फिर गर्भपात पाप कैसे ?

उत्तर - पुरुषके वीर्यकी एक बूँदमें हजारों जीव होते हैं। उनमेंसे जो जीव रजके साथ चिपक जाता है, गर्भाशयमें रह जाता है, वही बढ़कर गर्भ बनता है। जीवके बिना न तो वीर्य रजके साथ चिपक सकता है और न गर्भ बढ़ ही सकता है। प्राण- शक्तिके बिना गर्भ बढ़ ही नहीं सकता। जीवमें प्राणशक्ति पहले सूक्ष्म होती है, पर गर्भमें आते ही प्राणशक्ति स्थूल हो जाती है और गर्भ बढ़ने लगता है। गर्भ बढ़नेपर जब प्राणशक्ति विशेषतासे प्रतीत होती है और गर्भमें हलचल होने लगती है, तब लोग कह देते हैं कि अब गर्भमें जीव आ गया।

प्रश्न - किसीका गर्भ अपने-आप गिर जाय तो ?

उत्तर - यह एक रोग है और इसका इलाज करना चाहिये। एक स्त्रीके पाँच-छः गर्भ गिर गये। एक सन्तने उसके परिवारवालोंको बताया कि उसके गर्भाशयमें गरमी बहुत है, जिससे गर्भ झुलस जाता है और गिर जाता है; अतः इसके लिये एक उपाय करो। जब उसके गर्भ रह जाय, तब वह इस विधिसे गायका दूध पिये। एक बर्तनपर दूध छाननेवाला कपड़ा डाल दें और कपड़ेपर महीन पिसी मिश्री रख दें। फिर उसपर गायका दूध दुहें, जिससे वह मिश्री दूधमें मिलकर बर्तनमें चली जायगी। यह धारोष्ण दूध वह स्त्री तत्काल गायके सामने ही बैठकर प्रतिदिन प्रातः खाली पेट एक महीनेतक पिये। सन्तके कहे अनुसार उस स्त्रीने दूध पिया तो उसका गर्भ गिरा नहीं और उसकी संतान हो गयी। वह सन्तान अब भी जीवित है।

इस रोगको मिटानेकी कई ओषधियाँ हैं, जिनको आयुर्वेदमें निष्णात अनुभवी वैद्यसे लेना चाहिये।

प्रश्न - किसी रोगके कारण गर्भपात कराना अनिवार्य हो जाय तो क्या करें ?

उत्तर - गर्भपातका पाप तो लगेगा ही। स्त्रीके बचावके लिये लोग गर्भपात करा देते हैं, पर ऐसा नहीं करना चाहिये, प्रत्युत इलाज करना चाहिये। जो होनेवाला है, वह तो होगा ही। स्त्री मरनेवाली होगी तो गर्भ गिरानेपर भी वह मर जायगी। यदि उसकी आयु शेष होगी तो गर्भ न गिरानेपर भी वह नहीं मरेगी। मृत्यु तो समय आनेपर ही होती है, निमित्त चाहे कुछ भी बन जाय। अतः गर्भपात कभी नहीं कराना चाहिये।

प्रश्न - कुँवारी अवस्थामें गर्भ रह जाय तो उसको गिराना चाहिये या नहीं?

उत्तर - जिसके संगसे गर्भ रह जाय, उसके साथ विवाह करा देना चाहिये। अगर विवाह न करा सकें तो भी उस गर्भको गिराना नहीं चाहिये। उसका पालन करना चाहिये और थोड़ा बड़ा होनेपर उस बच्चेको अनाथालयमें भरती करा देना चाहिये अथवा कोई गोद लेना चाहे तो उसको दे देना चाहिये।

यदि कोई कन्याके साथ जबर्दस्ती (बलात्कार) करे तो जबर्दस्ती करनेवालेको बड़ा भारी पाप लगेगा। यदि कन्याने उसमें (संगका) सुख लिया है तो उतने अंशमें उसको भी पाप लगेगा; क्योंकि सभी पाप भोगेच्छासे ही होते हैं। सर्वथा भोगेच्छा न होनेपर पाप नहीं लगता।

यदि कुँवारी कन्याके गर्भ रह जाय तो उसके माता-पिताको भी असावधानीके कारण उसका पाप लगता है। अतः माता- पिताको चाहिये कि वे शुरूसे ही बड़ी सावधानीके साथ अपनी कन्याकी सुरक्षा रखें, उसको स्वतन्त्रता न दें।

प्रश्न - लोगोंको पता लगेगा तो उस कन्याकी बदनामी होगी तथा उसके साथ कोई विवाह भी नहीं करेगा, तो फिर वह क्या करे ?

उत्तर - पाप किया है तो बदनामी सहनी ही पड़ेगी। गर्भ गिरा देना, आत्महत्या कर लेना और घरसे भाग जाना-इन तीन हत्याओं (पापों) से बचनेके लिये बदनामी सह लेना अच्छा है। उस कन्याके साथ कोई विवाह करना स्वीकार न करे तो वह घर बैठे ही भजन-स्मरण करे। इससे उसके पापका प्रायश्चित्त भी हो जायगा।

प्रश्न - यदि कोई विवाहिता स्त्रीसे बलात्कार करे और गर्भ रह जाय तो क्या करना चाहिये ?

उत्तर - जहाँतक बने, स्त्रीके लिये चुप रहना ही बढ़िया है। पतिको पता लग जाय तो उसको भी चुप रहना चाहिये। दोनोंके चुप रहनेमें ही फायदा है। वास्तवमें पहलेसे ही सावधान रहना चाहिये, जिससे ऐसी घटना हो ही नहीं। गर्भ गिरानेमें हमारी सम्मति नहीं है, क्योंकि गर्भकी हत्या महापाप है।

प्रश्न - नसबन्दी, आपरेशन करवानेसे क्या हानि है?

उत्तर - यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि जिन लोगोंने नसबन्दी करवायी है, उनमेंसे बहुतोंके शरीर और हृदय कमजोर हो गये हैं। उनके शरीरमें कई रोग पैदा हुए हैं, हो रहे हैं और होते रहेंगे। पशुओंमें भी हम देखते हैं कि जो बछड़े बैल बना दिये जाते हैं, उनका पुरुषत्व नष्ट होनेसे उनके मांसमें वह शक्ति नहीं रहती, जो शक्ति बैल न बनाये हुए बछड़ोंके मांसमें रहती है। अतः बैल बनाये हुए बछड़ोंका मांस ईराक, ईरान आदि देशोंमें सस्ता बिकता है और बिना बैल बनाये हुए बछड़ोंका मांस महँगा बिकता है- ऐसा हमने सुना है। इसलिये नसबन्दीके द्वारा पुरुषत्वका अवरोध करनेसे, नष्ट करनेसे शारीरिक शक्ति भी नष्ट होती है और उत्साह, निर्भयता आदि मानसिक शक्ति भी नष्ट होती है।

जो नसबन्दीके द्वारा अपना पुरुषत्व नष्ट कर देते हैं, वे नपुंसक (हिजड़े) हैं। उनके द्वारा पितरोंको पिण्ड-पानी नहीं मिलता । ऐसे पुरुषको देखना भी अशुभ माना गया है। यात्राके समय ऐसे व्यक्तिका दीखना अपशकुन है।

जिन माताओंने नसबन्दी आपरेशन करवाया है, उनमेंसे बहुतोंको लाल एवं सफेद प्रदर हो गया है, जिसका कोई इलाज नहीं है। राजस्थानमें ही नसबन्दी आपरेशनके कारण अबतक सैकड़ों स्त्रियाँ मर चुकी हैं और कइयोंको ऐसे रोग हो गये हैं कि डाक्टरोंने जवाब दे दिया है। यह बात समाचारपत्रोंमें भी आयी है। आपरेशन करवानेसे स्त्रियोंके शरीरमें कमजोरी आ जाती है; उठते-बैठते समय आँखोंके आगे अँधेरा आ जाता है, छाती और पीठमें दर्द होने लगता है और काम करनेकी हिम्मत नहीं होती। ऐसा हमने डाक्टरोंसे सुना है।

जो स्त्रियाँ नसबन्दी आपरेशन करा लेती हैं, उनका स्त्रीत्व अर्थात् गर्भ धारण करनेकी शक्ति नष्ट हो जाती है। ऐसी स्त्रियोंका दर्शन भी अशुभ है, अपशकुन है। भगवान्‌की दी हुई शक्तिका नाश करनेका किसीको भी अधिकार नहीं है। उसका नाश करना अनधिकार चेष्टा है, अपराध है। जिन्होंने आपरेशनके द्वारा अपना स्त्रीत्व नष्ट किया है, वे तो पापकी भागिनी हैं ही, पर जो दूसरोंको आपरेशन करवानेकी प्रेरणा करती हैं, आग्रह करती हैं, वे नया पाप करती हैं। जैसे गीताके अध्ययनका बड़ा माहात्म्य है, पर उससे भी अधिक गीताके प्रचारका माहात्म्य है (गीता १८।६९), ऐसे ही जो दूसरोंमें आपरेशनका प्रचार करती हैं, वे बड़ा भारी पाप करती हैं और गोघातकोंकी संख्या बढ़ानेमें सहायक होनेसे गोहत्याके पापमें भागीदार होती हैं। भोली बहनोंको इस बातका पता नहीं है, इसलिये वे अनजानमें बड़ा भारी अपराध, पाप कर बैठती हैं। उन्हें इस पापसे बचना चाहिये।

जो कोई भी किसी प्रकारका अपराध करता है, उसकी प्राण-शक्तिका जल्दी नाश हो जाता है और उसकी मृत्यु जल्दी हो जाती है। अपराध, पाप करनेपर अथवा उसको करनेकी मनमें आनेपर श्वास तेजीसे चलने लगते हैं, प्राण क्षुब्ध हो जाता है- यह प्रत्यक्ष बात है। कोई भी अनुभव करके देख सकता है।

नसबन्दी आपरेशन कराना व्यभिचारको खुला अवसर देना है, जो बड़ा भारी पाप है। पशुओंकी बलि देने, वध करनेको 'अभिचार' कहते हैं। उससे भी जो विशेष अभिचार होता है, उसको 'व्यभिचार' कहते हैं। इससे मनुष्यकी धार्मिक, पारमार्थिक रुचि (भावना) नष्ट हो जाती है और उसका महान् पतन हो जाता है।

मनुष्य-शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है, पर उसको परमात्माकी तरफ न लगाकर केवल भोग भोगनेमें ही लगाना और इतना ही नहीं, केवल भोग भोगनेके लिये बड़े-बड़े पाप करना, गर्भपात करना, नसबन्दी करना, आपरेशन करना कितने भारी अनर्थकी बात है ! गर्भपात, नसबन्दी आदि करनेसे सिवाय भोग भोगनेके और क्या सिद्ध होता है? नसबन्दीसे क्या किसीको कोई धार्मिक-पारमार्थिक लाभ हुआ है, होगा और हो सकता है? नसबन्दी करनेसे केवल भोगपरायणता ही बढ़ रही है। जितनी भोगपरायणता आज मनुष्योंमें हो रही है, उतनी पशुओंमें भी नहीं है। यदि आप सन्तान नहीं चाहते तो संयम रखो, जिससे आपके शरीरमें बल रहेगा, उत्साह रहेगा और आपमें धर्म-परायणता, ईश्वर-परायणता आयेगी। आपका मनुष्य-जन्म सफल हो जायगा। सन्तोंने कहा है-

के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि ॥ 

(प्रश्नोत्तरी ४)


अङ्गहीना श्रोत्रियषण्ढशूद्रवर्जम्। (कात्यायन श्रौतसूत्रं १।१।५)

अर्थात् मनुष्य इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है तो वे इन्द्रियाँ उसकी शत्रु बन जाती हैं, जिससे उसके लोक-परलोक बिगड़ जाते हैं। परंतु वह इन्द्रियोंको जीत लेता है तो वे इन्द्रियाँ उसकी मित्र बन जाती हैं, जिससे उसके लोक-परलोक सुधर जाते हैं। इसलिये गीताने कहा है- 

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

(६। ५)

'अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे, क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।'

प्रश्न - गर्भपात करनेसे क्या हानि है?

उत्तर - गर्भपातसे तो हानि-ही- हानि है। कृत्रिम गर्भस्त्राव, गर्भपात करानेसे स्त्रीका शरीर खराब हो जाता है, कमजोर हो जाता है। जवानी अवस्थामें भले ही कमजोरीका पता न लगे, पर थोड़ी अवस्था ढलनेपर इसका पता लगने लगेगा। जबतक शरीरमें खून बनता है, तबतक कमजोरीका पूरा पता नहीं लगता, पर खून बनना कम होनेपर कमजोरीका पता लगता ही है। गर्भपातसे बहुतोंको प्रदर हो जाता है। इसके सिवाय गर्भपातसे खून गिरनेका एक रास्ता खुल जाता है।

बच्चा पैदा होनेसे स्त्रीका शरीर खराब नहीं होता; क्योंकि बच्चा पैदा होना प्राकृत है और वह समयपर होता है। तात्पर्य है कि प्राकृत चीजोंसे स्वाभाविक ही खराबी पैदा नहीं होती, खराबी तो कृत्रिम चीजोंसे ही होती है।

प्रश्न - एक-दो बार सन्तान होनेसे स्त्री माँ बन ही गयी, अब वह नसबन्दी आपरेशन करवा ले तो क्या हर्ज है?

उत्तर - वह माँ तो पहले थी, अब तो नसबन्दी आपरेशन करवा लेनेपर उसकी 'स्त्री' संज्ञा ही नहीं रही। कारण कि शुक्र-शोणित मिलकर जिसके उदरमें गर्भका रूप धारण करते हैं, उसका नाम स्त्री है # । जो गर्भ धारण न कर सके, उसका नाम स्त्री नहीं है; और जो गर्भ-स्थापन न कर सके, उसका नाम पुरुष नहीं है। आपरेशनके द्वारा सन्तानोत्पत्ति करनेकी शक्ति नष्ट करनेपर पुरुषका नाम तो हिजड़ा होगा, पर स्त्रीका क्या नाम होगा- इसका हमें पता नहीं।

परिवार नियोजन नारी जातिका घोर अपमान है; क्योंकि इससे नारी जाति केवल भोग्या बनकर रह जाती है। कोई आदमी वेश्याके पास जाता है तो क्या वह सन्तान प्राप्तिके लिये जाता है? अगर कोई आदमी स्त्रीसे सन्तान नहीं चाहता, प्रत्युत केवल भोग करता है तो उसने स्त्रीको वेश्या ही तो बनाया ! यह क्या नारी जातिका सम्मान है? नारी जातिका सम्मान तो माँ बननेसे ही है, भोग्या बननेसे कभी नहीं। अगर स्त्री आपरेशन आदिके द्वारा अपनी मातृशक्तिको नष्ट कर देती है तो वह पैरकी जूतीकी तरह केवल भोग्य वस्तु रह जाती है। यह नारी-जातिका कितना बड़ा अपमान है, निरादर है!

# 'स्त्यैष्ट्यै शब्दसंघातयोः । स्त्यायतः - संगते भवतः अस्यां शुक्रशोणिते इति स्त्री । (सिद्धान्तकौमुदी, बालमनोरमा)

प्रश्न - जिसकी स्वाभाविक ही सन्तान नहीं होती, उसको दोष लगता है या नहीं?

उत्तर - किसीकी स्वाभाविक ही सन्तान नहीं होती तो यह उसका दोष नहीं है। जो कृत्रिम उपायोंसे मातृशक्तिका, सन्तान उत्पन्न करनेकी शक्तिका नाश करती है, उसीको दोष-पाप लगता है।

प्रश्न - जो स्त्रियाँ गर्भाधानके पहले ही गोलियाँ खा लेती हैं, जिससे गर्भ रहे ही नहीं, उनको भी पाप लगता है क्या?

उत्तर - जीव मनुष्य-शरीरमें आकर परमात्माको प्राप्त कर सकता है; अपना और दूसरोंका भी उद्धार कर सकता है; परंतु अपनी भोगेच्छाके वशीभूत होकर उस जीवको ऐसा मौका न आने देना पाप है ही। गीतामें भी भगवान्ने कामना - भोगेच्छा, सुखेच्छाको ही सम्पूर्ण पापोंका हेतु बताया है (३। ३७)। यह भोगेच्छा ही सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है। परिवार नियोजनका मतलब केवल भोगेच्छा ही है। अत: गोलियाँ खाकर सन्तति-निरोध करना पाप ही है।

प्रश्न - यदि कोई स्त्री अपने पतिको बताये बिना गर्भपात करवा ले तो क्या करना चाहिये ?

उत्तर - इसके लिये शास्त्रने आज्ञा दी है कि उस स्त्रीका सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये- 'तस्यास्त्यागो विधीयते' (पाराशरस्मृति ४। २०) ।

गर्भपात करना महान् पाप है और पतिसे छिपाव करना अपराध है। छिपकर किये गये पापका दण्ड बहुत भयंकर होता है। अगर सन्तानकी इच्छा न हो तो संयम रखना चाहिये। संयम रखना पाप, अन्याय नहीं है, प्रत्युत बड़ा भारी पुण्य है, बड़ा त्याग है, बड़ी तपस्या है।

प्रश्न - वर्तमान सरकार गर्भपात, नसबन्दी आदिको पाप नहीं मानती, प्रत्युत अच्छा कार्य मानती है, तो क्या ऐसा करनेवालोंको पाप नहीं लगेगा?

उत्तर - पाप तो लगेगा ही, मानो चाहे मत मानो। जितने भी पाप होते हैं, वे किसीके मानने और न माननेपर निर्भर नहीं करते। पापके विषयमें अर्थात् अमुक कार्य पाप है-इसमें वेद, शास्त्र और सन्त-वचन ही प्रमाण हैं।

पाप-कर्म करनेसे पाप लगता ही है और उसका फल भी भोगना पड़ता है। हमने देखा है कि जिस पशुकी बलि चढ़ती है, उसको पीछेकी टाँगोंसे जिस वृक्षमें लटका देते हैं, वह वृक्ष भी उस पापके कारण सूख जाता है। जो कसाई पैसे लेकर पशुओंको काटते हैं, उनके हाथ बादमें काम नहीं करते; अतः वे हाथमें छुरी बाँधकर पशुओंको काटनेका काम करते हैं। भेड़ियेके सात-सात बच्चे होते हैं और हिरनके एक-दो बच्चे ही होते हैं, फिर भी झुण्ड हिरनोंका ही होता है, भेड़ियोंका नहीं। तात्पर्य है कि हिंसा आदि पाप करनेवालोंकी परम्परा ज्यादा समय नहीं चलती ।

एक सन्तसे किसीने पूछा- 'जिन शास्त्रोंमें, सम्प्रदायोंमें बलि देनेकी, कुरबानी करनेकी आज्ञा दी गयी है, उस आज्ञाका पालन करनेवाले व्यक्तियोंको पाप नहीं लगता होगा; क्योंकि वे अपने ही शास्त्र, सम्प्रदायकी आज्ञाका पालन करते हैं।' उन्होंने उत्तर दिया-'जो बलि देते हैं, कुरबानी करते हैं, वे भी अगर छः महीने हृदयसे भगवान्के नामका जप करें तो फिर वे बलि दे ही नहीं सकते, कुरबानी कर ही नहीं सकते।' शुद्ध अन्तः:करणवाला व्यक्ति शास्त्रकी आज्ञा होनेपर भी पाप नहीं कर सकता। अतः जिन शास्त्रोंमें बलि आदिकी आज्ञा दी गयी है, उस आज्ञाको नहीं मानना चाहिये।

एक धर्मशास्त्र होता है और एक अर्थशास्त्र । धर्मशास्त्र मनुष्यको कर्तव्यका ज्ञान कराता है, जिससे मनुष्यके लोक- परलोक सुधरते हैं। अर्थशास्त्र दृष्ट फलका वर्णन करता है। जो मनुष्य कामनाके वशीभूत होकर दृष्ट फल (धन-सम्पत्ति, पुत्र, स्वर्ग आदिकी प्राप्ति) के लिये अर्थशास्त्रकी आज्ञा मानकर पाप करते हैं, वे पापके भागी होते हैं। कारण कि अर्थशास्त्रमें कामना, सकामभावकी मुख्यता होती है और कामना सब पापोंकी जड़ है (गीता ३। ३७) । जो सौ यज्ञ करके इन्द्र (शतक्रतु) बनता है, उसके द्वारा भी शास्त्रके अनुसार (वैध) हिंसा होती है। उस हिंसाके पापका फल भोगना ही पड़ता है। इसीलिये इन्द्रपर आफत (प्रतिकूल परिस्थिति) आती है, उसकी हार होती है, वह डरके मारे भागता-फिरता है, छिपता है, उसके हृदयमें जलन होती है। अतः हिंसाका फल मिलता ही है, कोई हिंसा माने, चाहे न माने। तात्पर्य है कि जहाँ धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्रके वचन हों, वहाँ धर्मशास्त्रके ही वचन मानने चाहिये; क्योंकि अर्थशास्त्रसे धर्मशास्त्र श्रेष्ठ है, बलवान् है ##

आज सरकार गर्भ गिरानेको पाप नहीं मानती, पर न माननेसे पाप नहीं लगेगा - यह बात नहीं है। पाप तो लगेगा ही, कोई माने चाहे न माने। जैसे पहले राजालोग निषिद्ध काम करनेके लिये प्रजाको आज्ञा देते थे, प्रेरणा करते थे तो उसका पाप राजा और प्रजा दोनोंको लगता था (उदाहरणार्थ, राजा वेनने स्वयं भी निषिद्ध काम किये और प्रजासे भी करवाये), ऐसे ही आज सरकार गर्भपात आदि निषिद्ध काम करनेकी प्रेरणा करती है तो सरकारको भी पाप लगेगा और जनता (निषिद्ध काम करनेवाले) को भी।

## स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः । अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः ॥

प्रश्न - रामचरितमानसमें आता है- 'समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं ॥' (बाल० ६९।४) । अतः जिनको राज्य मिला है, बड़ा पद मिला है, वे (राजा, सरकार) समर्थ हैं, तो फिर उनको पाप कैसे लगेगा ?

उत्तर - वे समर्थ नहीं हैं। समर्थ वे हैं, जिनमें दूसरोंके दोषोंको नष्ट करनेकी शक्ति है। जैसे-सूर्य गन्दगीका शोषण कर लेता है; अपवित्रको पवित्र, अशुद्धको शुद्ध बना देता है; सबके जलीय भागको खींच लेता है; समुद्रके खारे जलको खींचकर मीठा जल बना देता है। परंतु ऐसा करनेपर भी सूर्य खुद कभी अशुद्ध, अपवित्र नहीं होता। अग्नि सब गन्दगीको जला देती है, सबका भक्षण कर जाती है, सबको शुद्ध कर देती है, पर वह अशुद्ध नहीं होती, उसको दोष नहीं लगता। गंगाजी गन्दे जलको पवित्र कर देती हैं, पापोंका नाश कर देती हैं, पर उनको दोष नहीं लगता। तात्पर्य है कि अशुद्धको शुद्ध बना देना, उसके दोषोंको नष्ट कर देना और स्वयं ज्यों-का-त्यों ही रहना- यह समर्थपना है। जिसको राज्य, वैभव मिल गया, वे समर्थ हैं- यह बात है ही नहीं।

सांसारिक पद, अधिकार, वैभव आदि मिलनेसे मनुष्य समर्थ नहीं होता; क्योंकि उसकी सामर्थ्य पद, अधिकार आदिके अधीन है। वह तो पद, अधिकार आदिका गुलाम है, दास है, पराधीन है; अतः वह खुद समर्थ कैसे हुआ ? तात्पर्य है कि जो मिली हुई चीजसे अपनेको समर्थ मानता है, वह वास्तवमें असमर्थ ही है, क्योंकि उसमें जो सामर्थ्य दीखती है, वह उस चीजकी है, खुदकी नहीं है। जो वास्तवमें समर्थ होते हैं, उनकी सामर्थ्य किसीके अधीन नहीं होती; जैसे-सूर्य, अग्नि और गंगाजीकी सामर्थ्य किसीके अधीन नहीं है, प्रत्युत स्वयंकी है। अतः राज्यके, पदके मदमें आकर जो पाप करते-करवाते हैं, वे अपनी सामर्थ्यका महान् दुरुपयोग करते हैं, जिसका दण्ड उनको भोगना ही पड़ेगा। उनकी सामर्थ्य पापोंको दूर करनेवाली न होकर पाप करानेवाली है। इसलिये वास्तवमें जो समर्थ नहीं है, उस सरकारको समर्थ मानकर उसकी प्रेरणासे मनुष्यको कभी पाप नहीं करना चाहिये।

प्रश्न - सरकारका आदेश होनेसे यदि डॉक्टरलोग गर्भपात, नसबन्दी, आपरेशन करते हैं तो क्या उन्हें महापाप लगेगा?

उत्तर - उनको तो अवश्य ही महापाप लगेगा। लोभ पापका बाप है ही। थोड़े-से लोभके लिये वे कितने जीवोंकी हत्या कर देते हैं! ऐसा घृणित कार्य करके, महापाप करके कमाये हुए पैसोंका अन्न खानेसे उनकी बड़ी दुर्दशा होगी।

शास्त्रमें आया है कि यदि अन्नपर गर्भपात करनेवालीकी दृष्टि भी पड़ जाय तो वह अन्न अभक्ष्य (न खानेयोग्य) हो जाता है-

भ्रूणघ्नावेक्षितं चैव संस्पृष्टं चाप्युदक्यया।

पतत्रिणाऽवलीढं च शुना संस्पृष्टमेव च ॥

(मनुस्मृति ४। २०८)

'गर्भहत्या करनेवालेका देखा हुआ, रजस्वला स्त्रीका स्पर्श किया हुआ, पक्षीका खाया हुआ और कुत्तेका स्पर्श किया हुआ अन्न न खाये।'

नौकरीमें अपना समय देकर, काम करके पैसे लिये जाते हैं, अपना धर्म, कर्तव्य, सत्कर्म देकर पैसे नहीं लिये जाते। पाप, अन्याय, हत्या, हिंसा आदि करके पैसे लेना तो कोरा पाप है। अतः यदि कोई मालिक पाप, अन्याय करनेके लिये कहे तो नौकरको चाहिये कि वह मालिकसे नम्रतापूर्वक कह दे कि 'मैं आपके काममें घण्टा-दो-घण्टा समय अधिक दे सकता हूँ, पर अपने धर्मका नाश करके पाप, हिंसा करनेमें मैं बाध्य नहीं हूँ; आप नौकरीपर रखें, चाहे न रखें, आपकी मरजी।'

एक सज्जनने गर्भपात, नसबन्दी कार्य नहीं किया तो उसको नौकरीसे निकाल दिया गया। उसने मुकदमा किया और उसमें वह जीत गया। अतः उसको पुनः नौकरीपर रखना पड़ा। अगर सरकारका ऐसा कानून है तो वह ईसाई, मुसलमान, पारसी आदि सबके लिये होना चाहिये, केवल हिन्दुओंके लिये ही नहीं। किसी एक जातिपर, एक वर्णसमुदायपर ज्यादती करना, उसको पाप करनेके लिये बाध्य करना और पाप करनेका कानून बनाना सरकारके लिये उचित नहीं है।

प्रश्न - किसीने भूलसे, अनजानमें नसबन्दी आपरेशन करवा लिया तो अनं वह क्या करे ?

उत्तर - डाक्टरोंका कहना है कि आपरेशनमें केवल नस ही काटी गयी हो तो वह पुनः जोड़ी जा सकती है; परंतु जिसका गर्भाशय ही निकाल दिया गया हो, उसका कोई इलाज नहीं है। अतः केवल नसबन्दी ही की गयी हो तो उसको फिर ठीक करवा लेना चाहिये। ऐसा काम हुआ भी है और जिन्होंने ऐसा किया है, उनकी फिर सन्तान भी हुई है।

इस प्रकार नसबन्दी ठीक करवा ले, अपना पुरुषत्व और स्त्रीत्व ठीक कर ले और पहले किये हुए अपराधका पश्चात्ताप करे तो उसके हाथसे पितरोंको पिण्ड-पानी मिल सकता है। अगर ब्रह्मचर्यका पालन करे तो तेज बढ़ेगा, ओज-शक्ति बढ़ेगी, उत्साह बढ़ेगा।

प्रश्न - किसीने अनजानमें गर्भपात करवा लिया तो अब वह उसका क्या प्रायश्चित्त करे ?

उत्तर - उसको चाहिये कि वह एक वर्षतक प्रतिदिन एक लाख रामनामका जप करे। परंतु जो जानकर गर्भपात करती है, वह अगर इस प्रकार नामजप करे तो भी उसके पापका प्रायश्चित्त नहीं होगा। उसको तो पापका दण्ड भोगना ही पड़ेगा। कारण कि जो नाम महापापोंका नाश करनेवाला है, उस नामके सहारे कोई पाप करता है तो नाम उसकी रक्षा नहीं करता। अतः उसके पाप नष्ट नहीं होते, प्रत्युत वज्रलेप हो जाते हैं। पहले तो बिना नामके वह पाप करनेसे डरता था, पर अब वह नामके सहारे पाप करनेसे नहीं डरता तो यह नामका महान् दुरुपयोग है, नामापराध है, जिसका दण्ड उसको भोगना ही पड़ेगा।

प्रश्न - परिवार नियोजन नहीं करेंगे तो जनसंख्या बहुत बढ़ जायगी, जिससे लोगोंको अन्न नहीं मिलेगा, फिर लोग जीयेंगे कैसे ?

उत्तर - यह प्रश्न सर्वथा ही अयुक्त है, युक्तियुक्त नहीं है। कारण कि जहाँ मनुष्य पैदा होते हैं, वहाँ अन्न भी पैदा होता है। भगवान्के यहाँ ऐसा अँधेरा नहीं है कि मनुष्य पैदा हों और अन्न पैदा न हो।

प्रारब्ध पीछे रचा पहले रचा, सरीर ।

तुलसी चिंता क्यों करे, भज ले श्रीरघुबीर ॥

माँके स्तनोंमें दूध पहले पैदा होता है, बच्चा पीछे पैदा होता है। इसका क्या पता ? जब बच्चा पैदा होता है, तब माताएँ स्तनोंमेंसे पुराना दूध निकालकर बच्चेको नया दूध पिलाती हैं। हम भी कहीं जाते हैं तो वहाँ व्यवस्था पहले होती है, हम पीछे पहुँचते हैं। ऐसा नहीं होता कि व्याख्यान पहले होगा, पण्डाल पीछे बनेगा। बारात ठहरनेकी जगह पहले तैयार की जाती है या बारात आनेके बाद ? कोई उत्सव होता है तो उसकी व्यवस्था पहले होती है। ऐसा नहीं होता कि पहले उत्सव हो, फिर व्यवस्था हो। ऐसा देखा भी जाता है और वैज्ञानिकोंका भी कहना है कि जहाँ वृक्ष अधिक होते हैं, वहाँ वर्षा अधिक होती है। जहाँ वृक्ष नहीं होते, वहाँ वर्षा कम होती है। ऐसे ही मनुष्य अधिक होंगे तो अन्न भी अधिक पैदा होगा। अन्नमें कमी कैसे आयेगी? क्या मनुष्य वृक्षोंसे भी नीचे हैं?

प्रश्न - आज अन्न इतना महँगा क्यों हो गया है?

उत्तर - विचारपूर्वक देखें कि जबसे परिवार नियोजन होता गया, तबसे अन्न भी महँगा होता गया, कम पैदा होता गया। जब मनुष्योंकी संख्या कम होगी तो फिर अन्न अधिक क्यों पैदा होगा? तात्पर्य है कि परिवार नियोजनकी प्रथा चलनेसे ही यह दशा हुई है।

आज 'मांस खाओ, मछली खाओ, अण्डा खाओ' - ऐसा प्रचार किया जाता है, तो फिर वर्षा और खेती क्यों हो? कारण कि मांस खानेसे पशु नहीं रहेंगे तो उनके लिये घासकी जरूरत नहीं और मनुष्य मांस खायेंगे तो उनके लिये अन्नकी जरूरत नहीं, फिर निरर्थक घास और अन्न पैदा क्यों हों!

जब मनुष्य अधिक हों और वस्तुएँ कम हों, तब महँगाई होती है। वस्तुएँ तभी कम होती हैं, जब मनुष्य काम न करें, आलस्य- प्रमाद करें। आज भी यही दशा है। लोग काम तो कम करते हैं और खर्चा ज्यादा करते हैं, इसीलिये इतनी महँगाई हो रही है। काम कम करनेसे वस्तुएँ कम पैदा होंगी ही। अतः महँगाईका कारण जनसंख्याका अधिक होना नहीं है, प्रत्युत मनुष्योंमें अकर्मण्यता, आलस्य, प्रमाद आदि दोषोंका बढ़ना ही है। सरकारकी अव्यवस्था भी इसमें कारण है।

प्रश्न - हमें काम-धंधा नहीं मिलता तो हम क्या करें?

उत्तर - काम-धंधा न मिलनेमें कारण है कि मनुष्य जिस क्षेत्र एवं समुदायमें जाता है, वहाँ वह अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन नहीं करता, प्रत्युत आलस्य-प्रमादमें अपना समय बरबाद करता है। वास्तवमें कामकी कमी नहीं है, प्रत्युत काम करनेवालोंकी कमी है। काम बहुत है, पर ईमानदारीसे तत्परतापूर्वक काम करनेवाले कम हैं। कोई ईमानदार आदमी हो और उसको काम न मिले- ऐसा हो ही नहीं सकता। आलस्य, प्रमाद, काम करनेकी नीयत न होना आदि दोष होनेपर ही उसको काम नहीं मिलता।

प्रश्न - आज महँगाईके जमानेमें अधिक सन्तान होगी तो उनका पालन-पोषण आदि कैसे करेंगे ?

उत्तर - आप विचार करें कि आवश्यकता ही आविष्कारकी जननी है; अतः जनसंख्या बढ़ेगी, सन्तान अधिक होगी तो उसके पालन-पोषणकी व्यवस्था भी जरूर होगी। पहले जमानेमें हमारी यह देखी हुई बात है कि जिस वर्ष टिड्डियाँ अधिक आती थीं, उस वर्ष खेती अच्छी होती थी, अकाल नहीं पड़ता था। टिड्डियोंके आनेपर लोग उत्साहसे कहते थे कि इस बार वर्षा अधिक होगी; क्योंकि इतने जन्तु आये हैं तो उनके भोजनकी व्यवस्था (खेती) भी अधिक होगी। भगवान्‌की जो व्यवस्था पहले थी, वह आज भी जरूर होगी। आप परिवार नियोजन करते हैं और व्यवस्थाका भार अपनेपर लेते हैं, इसीका यह परिणाम है कि आज व्यवस्था करनेमें मुश्किल हो रही है। अतः आप अपनेपर भार मत लो और अपने कर्तव्यमें तत्पर रहो तो आपके और परिवारके पालन-पोषणकी व्यवस्था भगवान्‌की तरफसे जरूर होगी।

पहले राजा-महाराजाओंके यहाँ हजारों सन्तानें पैदा होती थीं और उनका पालन-पोषण भी होता था। जैसे, राजा सगरके साठ हजार पुत्र थे। राजा अग्रसेनके अनेक पुत्र हुए, जिनके वंशज आज अग्रवाल कहलाते हैं। धृतराष्ट्रके सौ पुत्र थे। इस प्रकार एक-एक आदमीकी सैकड़ों, हजारों सन्तानें हुई हैं। कोई जानना चाहे तो मैं बता सकता हूँ कि गाँव-के-गाँव एक-एक आदमीकी सन्तानोंसे बसे हुए हैं।

यह प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि जो वास्तवमें बिरक्त सन्त होते हैं, जो अपने निर्वाहकी परवाह ही नहीं करते, चेष्टा ही नहीं करते, उनके निर्वाहकी व्यवस्था जनता करती है। जो अपने निर्वाहके लिये चेष्टा करते हैं, उनकी अपेक्षा उन विरक्त सन्तोंके निर्वाहका प्रबन्ध अच्छा होता है।

आप थोड़ा विचार करें; जो मुसलमान भाई हैं, वे चार-चार विवाह करते हैं। हमने सुना है कि एक भाईकी डेढ़ सौ सन्तानें हुईं; और एक भाईके उन्नीस बालक हुए, उनमेंसे दो मर गये और सत्रह मौजूद हैं। इस प्रकार वे प्रायः परिवार नियोजन नहीं करते, फिर भी उनकी सन्तानका पालन-पोषण हो रहा है। क्या केवल हिन्दू ही अन्न खाते हैं, कपड़े पहनते हैं, पढ़ाई करते हैं? दूसरे लोग क्या अन्न नहीं खाते, कपड़े नहीं पहनते, पढ़ाई नहीं करते ? मुसलमान भाई तो कहते हैं कि सन्तान होना खुदाका विधान है, उसको बदलनेका अधिकार मनुष्यको नहीं है। जो उसके विधानको बदलते हैं, वे अनधिकार चेष्टा करते हैं। वास्तवमें परिवार नियोजन करनेवालोंकी जनसंख्या कम हो जाती है। अतः मुसलमानोंने यह सोचा कि परिवार- नियोजन नहीं करेंगे तो अपनी जनसंख्या बढ़ेगी और जनसंख्या बढ़नेसे अपना ही राज्य हो जायगा; क्योंकि वोटोंका जमाना है। इसलिये वे केवल अपनी संख्या बढ़ानेकी धुनमें हैं। परंतु हिन्दू केवल अपनी थोड़ी-सी सुख-सुविधाके लिये नसबन्दी, गर्भपात आदि महापाप करनेमें लगे हुए हैं। अपनी संख्या तेजीसे कम हो रही है- इस तरफ भी उनकी दृष्टि नहीं है और परलोकमें इस महापापका भयंकर दण्ड भोगना पड़ेगा - इस तरफ भी उनकी दृष्टि नहीं है। केवल खाने- पीने, सुख भोगनेकी तरफ तो पशुओंकी भी दृष्टि रहती है। अगर यही दृष्टि मनुष्यकी भी है तो यह मनुष्यता नहीं है।

हिन्दू धर्ममें मनुष्य-जन्मको दुर्लभ बताया गया है और कल्याणको सुगम बताया गया है। अतः कोई जीव मनुष्य-जन्ममें, हिन्दू-धर्ममें आ रहा हो तो उसको रोकना नहीं चाहिये। अगर आप उसको रोक दोगे तो वह जीव विधर्मियोंके यहाँ पैदा होगा और आपके धर्मका, हिन्दुओंका नाश करेगा; क्योंकि जीवका ऋणानुबन्ध केवल एकके साथ नहीं होता, प्रत्युत कइयोंके साथ होता है।

कौरव और पाण्डव-दोनोंकी नौ-नौ अक्षौहिणी सेनाएँ थीं। परंतु एक अक्षौहिणी नारायणी सेना और एक अक्षौहिणी शल्यकी सेना कौरवोंकी तरफ चली जानेसे कौरवोंकी सेना पाण्डवोंकी सेनासे चार अक्षौहिणी बढ़ गयी अर्थात् पाण्डवोंकी सेना सात अक्षौहिणी और कौरवोंकी सेना ग्यारह अक्षौहिणी हो गयी ! इसी प्रकार हिन्दूलोग नसबन्दी, आपरेशन आदिके द्वारा सन्तति-निरोध करेंगे तो जो सन्तान उनके यहाँ पैदा होनेवाली थी, वह विधर्मियोंके यहाँ पैदा हो जायगी। जैसे, अबतक हिन्दुओंके यहाँ लगभग बारह करोड़ शिशुओंका जन्म रोका गया है ††। अतः वे बारह करोड़ शिशु गोघातक विधर्मियोंके यहाँ जन्म लेंगे तो विधर्मियोंकी संख्या हिन्दुओंकी संख्यासे चौबीस करोड़ बढ़ जायगी। विधर्मियोंकी संख्या बढ़ेगी तो फिर वे हिन्दुओंका ही नाश करेंगे। अतः हिन्दुओंको अपनी सन्तान-परम्परा नष्ट नहीं करनी चाहिये और गोघातकोंकी संख्या बढ़ाकर गोहत्याके पापमें भागीदार नहीं बनना चाहिये।

†† जिन व्यक्तियोंने सन्तति-निरोध किया है, उनकी आगे होनेवाली कई सन्तानोंका भी स्वतः निरोध हुआ है। अगर प्रत्येक व्यक्तिकी आगे होनेवाली दो या तीन सन्तानोंका भी निरोध माना जाय तो यह संख्या चौबीस या छत्तीस करोड़तक पहुँच जाती है!

प्रश्न - सन्तान कम होगी तो उनका पालन-पोषण भी अच्छा होगा और परिवार भी सुखी रहेगा; अतः परिवार नियोजन करनेमें हानि क्या है?

उत्तर - कम सन्तानसे परिवार सुखी रहेगा- यह बात नहीं है। जिनकी सन्तान नहीं है, वे भी दुःखी हैं; जिनकी सन्तान कम है, वे भी दुःखी हैं; और जिनकी अधिक सन्तान हैं, वे भी दुःखी हैं। हमने बिना सन्तानवालोंको भी देखा है, थोड़ी सन्तान- वालोंको भी देखा है और अधिक सन्तानवालोंको भी देखा है तथा उनसे हमारी बातें हुई हैं। वास्तवमें सन्तानका ज्यादा कम होना सुख-दुःखमें कारण नहीं है। जो कम सन्तान होनेके कारण सुखी हो, ऐसा आदमी संसारमें एक भी हो तो बताओ। संसारमें क्या, सृष्टिमें भी नहीं है! दुःखका कारण है-भोगपरायणता- 'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते' (गीता ५।२२) । भोगपरायण आदमी कभी सुखी हो सकता ही नहीं, सम्भव ही नहीं। जो भोगपरायण है, उसकी सन्तान चाहे ज्यादा हो, चाहे कम हो, चाहे बिलकुल न हो, वह तो दुःखी रहेगा ही।

विवाहके बाद आरम्भमें स्त्रीका पुरुषके प्रति और पुरुषका स्त्रीके प्रति विशेष आकर्षण रहता है, इसलिये पहली जो सन्तान होती है, वह केवल भोगेच्छासे ही होती है। भोगेच्छासे पैदा हुई सन्तान प्रायः अच्छी नहीं होती, भोगी होती है। आज जितना भी अच्छे भावोंका प्रचार हुआ है, समाजका सुधार हुआ है, वह सब अच्छे व्यक्तियोंके द्वारा ही हुआ है। क्या भोगी, लोलुप, चोर, डकैत व्यक्तियोंके द्वारा समाजका कभी सुधार हुआ है ? और क्या उनके द्वारा समाजका सुधार होनेकी सम्भावना है? अतः सन्तान कम होनेसे प्रायः भोगी सन्तान ही पैदा होगी, जिससे समाजका पतन ही होगा।

प्रश्न - भगवान् राम और भरत आदिने भी परिवार- नियोजन किया था- 'दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए' और 'दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे' (मानस, उत्तर० २५। ३-४) । अतः अब भी दो ही संतान रखें तो क्या हानि है?

उत्तर - किसी भी रामायणमें यह नहीं आया है कि श्रीरामने नसबन्दी करायी थी, सीताजीने आपरेशन कराया था। यह नसबन्दी, आपरेशन आदि तो हमारे देखते-देखते अभी शुरू हुआ है। यह विदेशी काम है, हमारे देशका काम नहीं है। राम, भरत आदि खुद भी चार भाई थे। भगवान् कृष्णकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियोंमें प्रत्येकके दस-दस पुत्र और एक-एक कन्या हुई थी। किसी-किसीकी स्वाभाविक ही सन्तान कम होती है और किसी-किसीकी स्वाभाविक ही सन्तान ज्यादा होती है।

प्रश्न - सन्तान अधिक पैदा करेंगे तो उसके पालन-पोषणमें ही सारा समय चला जायगा, फिर भगवान्का भजन कैसे करेंगे ?

उत्तर - हमारा आशय यह नहीं है कि आप सन्तान अधिक पैदा करें, प्रत्युत हमारा आशय है कि आप कृत्रिम उपायोंसे सन्तति-निरोध करके थोड़े-से सुखके लिये अपने शरीर, बल, उत्साह आदिका नाश मत करें। खेती तो करेंगे, हल तो चलायेंगे, पर बीज नहीं बोयेंगे - यह कोई बुद्धिमानी है? 'हतं मैथुनमप्रजम्' - सन्तान पैदा न हो तो स्त्रीका संग करना व्यर्थ है। अतः हमारा आशय यही है कि आप इन्द्रियोंके गुलाम न बनें, उनके परवश न रहें, प्रत्युत स्वतन्त्र रहें।

प्रश्न - अधिक सन्तान चाहते नहीं और संयम हो पाता नहीं, ऐसी अवस्थामें क्या करें ?

उत्तर - ऐसी बात नहीं है। अगर आप संयम करना चाहते हैं तो संयम अवश्य हो सकता है। मैंने बहुत समय पहले 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है' नामक एक पुस्तक पढ़ी थी। उसके लेखक शिवानन्द नामके व्यक्ति थे। उन्होंने उस पुस्तकमें लिखा था कि 'मैं विवाहित हूँ; परंतु दोनोंने (मैंने और स्त्रीने) सलाह करके ब्रह्मचर्यका पालन किया, जिससे मुझे बहुत लाभ हुआ। वह लाभ सबको हो जाय, इसलिये मैंने यह पुस्तक लिखी है।' एक माताजीने हमें सुनाया कि हमारे पड़ोसमें एक जैन परिवार था। रोज रातमें उनके बोलनेकी आवाज आती थी। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आपलोग रातमें बातें करते हैं, सोते नहीं हैं क्या ? उन्होंने अपनी बात सुनायी कि विवाहके पहले ही हम दोनोंमेंसे एकने कृष्णपक्षमें और एकने शुक्लपक्षमें ब्रह्मचर्यका पालन करनेकी सौगन्ध ले ली थी। अब तीसरा पक्ष कहाँसे लायें ? अतः एक कमरेमें रहनेपर भी हम आपसमें धर्मकी चर्चा किया करते हैं। तात्पर्य है कि आप गृहस्थमें रहते हुए संयम कर सकते हैं। आप उत्साह रखें, हिम्मत मत हारें कि हमारेसे संयम नहीं होता। आप संयम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? हिम्मत रखनेसे असम्भव भी सम्भव हो जाता है-

हिम्मत मत छाँड़ो नराँ, मुख ते कहताँ राम।

हरिया हिम्मत से किया, ध्रुव का अटल धाम ॥

अतः उत्साह रखें, भगवान्का भरोसा रखें और उनसे प्रार्थना करें कि 'हे नाथ! हम संयम रखनेका नियम लेते हैं, आप शक्ति दो।' इस प्रकार आप जितने तत्पर रहेंगे, भगवान्का भरोसा रखेंगे, उतना ही आपको अलौकिक चमत्कार देखनेको मिलेगा, करके देख लें।

पहले जमानेमें नसबन्दी, आपरेशन आदि नहीं होते थे। उस जमानेमें लोग संयम रखते थे तो अब भी संयम रखना चाहिये। वर्तमानमें जो संयम आदि गुणोंको, दैवी-सम्पत्तिको अपनेमें लानेमें कठिनताका अनुभव होता है, उसका कारण यह है कि पहले असंयम आदिका, आसुरी-सम्पत्तिका स्वभाव बना लिया है।

विचार करें कि सत्य बोलनेवाला व्यक्ति है, उससे कहा जाय कि हम आपको एक हजार रुपये देते हैं, आप झूठ बोल दें तो वह झूठ नहीं बोलेगा। परंतु जो झूठ-सचका खयाल नहीं रखते, उनसे कहा जाय कि हम आपको पाँच रुपये देंगे, आप सच्ची बात बोल दें तो वे सच्ची बात बोल देंगे। जो मांस नहीं खाते, उनसे कहा जाय कि हम आपको एक हजार रुपये देंगे, आप मांस खाओ तो वे मर जायँगे, पर मांस नहीं खायँगे। परंतु जो मांस खाते हैं, उनसे कहा जाय कि आप मांस-मछली मत खाओ, और जगह भोजन न करके केवल हमारे यहाँ ही शाकाहार भोजन करो तो हम आपको रोज एक रुपया देंगे तो वे महीनेभर आपके यहाँ भोजन कर लेंगे। किसीको मदिरा आदिका व्यसन नहीं है, उनको भय, लोभ आदि दिखाकर मदिरा पीनेके लिये कहा जाय तो वे मदिरा नहीं पी सकते। परंतु जिनको मदिरा पीनेका व्यसन है, वे भी सन्त-महात्माओंके संगमें आकर, नीरोगता आदिके लोभमें आकर व्यसन छोड़ देते हैं। तात्पर्य है कि सच बोलना, मांस-मदिराका त्याग करना तो सुगम है, पर झूठ बोलना, मांस-मदिराका सेवन करना कठिन है। उसी प्रकार संयमका त्याग करना कठिन है, संयम करना कठिन नहीं है। यह अनुभवसिद्ध बात है।

एक बात और है कि संयम स्वतः सिद्ध है और असंयम कृत्रिम है, बनावटी है। स्वतः सिद्ध बात कठिन क्यों लगती है- इसपर थोड़ा ध्यान दें। जो लोग संयमका त्याग करके अपना जीवन असंयमी बना लेते हैं, उनके लिये फिर संयम करना कठिन हो जाता है। अगर पहलेसे ही संयमित जीवन रखा जाय तो दुर्व्यसनोंका, दुर्गुणोंका त्याग होनेसे मनुष्यमें शूरवीरता, उत्साह रहता है, शान्ति रहती है। संयम करनेसे जितनी प्रसन्नता, नीरोगता, बल, धैर्य, उत्साह रहता है, उतना असंयम करनेसे नहीं रहता। आप कुछ दिनोंके लिये अच्छे संगमें रहें और संयम करें तो आपको इसका अनुभव हो जायगा कि संयमसे कितना लाभ होता है! संसारमें जितने रोग हैं, वे सब प्रायः असंयमसे ही होते हैं। प्रारब्धजन्य रोग बहुत कम होते हैं। संयमी पुरुषोंको रोग बहुत कम होते हैं। संयमी पुरुष बेफिक्र रहता है, जबकि असंयमी पुरुषमें चिन्ता, भय आदि बहुत ज्यादा होते हैं। जैसे, असंयमी रावण जब सीताको लानेके लिये जाता है, तब वह डरके मारे इधर-उधर देखता है- 'सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चितइ चला भड़िहाई ॥' (मानस, अरण्य० २८।५) । परंतु संयमी सीता राक्षसोंकी नगरीमें और राक्षसोंके बीच बैठकर भी निर्भय है! अकेली और स्त्री जाति होनेपर भी उसको किसीसे भय नहीं है। यहाँतक कि वह रावणको भी अधम, निर्लज्ज आदि कहकर फटकार देती है- 'सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥' (मानस, सुन्दर० ९।५)।

हमारे शास्त्रोंमें ब्रह्मचर्यका बड़ा माहात्म्य है और विदेशी सज्जनोंने भी इसका आदर किया है। उन्होंने कहा है कि जीवनभरमें पुरुष एक ही बार अपनी स्त्रीका संग करे। एक बारमें न रह सके तो वर्षमें एक बार करे। वर्षमें एक बार भी न रह सके तो महीनेमें एक बार संग करे अर्थात् केवल ऋतुगामी बने। इसमें भी न रह सके तो अपने कफनका कपड़ा खरीदकर रख ले ! कारण कि बार-बार संग करनेसे आयु जल्दी नष्ट होती है और मनुष्य जल्दी (अल्पायुमें) मरता है। ऐसे तो अल्पायुमें मरनेके अनेक कारण हैं, पर उनमें वीर्य-नाश करना खास कारण है। अतः दीर्घायु होनेके लिये, स्वास्थ्यके लिये, नीरोग रहनेके लिये ब्रह्मचर्यका पालन करना बहुत आवश्यक है। सिंह जीवनभरमें केवल एक ही बार सिंहनीका संग करता है ‡‡। अतः उसमें वीर्यकी रक्षा अधिक होनेसे विशेष ओजबल रहता है, जिससे वह अपनेसे अत्यन्त बड़े हाथीको भी मार देता है। परंतु जो मनुष्य बार-बार स्त्रीका संग करता है, उसमें वह ओजबल नहीं आता, प्रत्युत निर्बलता आती है। ओजबल ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे ही उत्पन्न होता है।

ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे बड़े-बड़े रोग आक्रमण नहीं करते। ब्रह्मचर्यका पालन करनेवालोंकी सन्तान तेजस्वी और नीरोग होती है। परंतु ब्रह्मचर्य-पालन न करनेवालोंकी सन्तान तेजस्वी और नीरोग नहीं होती; क्योंकि बार-बार संग करनेसे रज- वीर्यमें वह शक्ति नहीं रहती। भोगासक्तिसे जो सन्तान पैदा होती है, वह भोगी और रोगी ही होती है। अतः धर्मको प्रधानता देकर ही सन्तान उत्पन्न करनी चाहिये, जिससे सन्तान धर्मात्मा, नीरोग पैदा हो। भगवान्ने भी धर्मपूर्वक कामको अपना स्वरूप बताया है-'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।' (गीता ७। ११) ।

जो केवल शास्त्रमर्यादाके अनुसार सन्तानोत्पत्तिके लिये ऋतुकालमें अपनी स्त्रीका संग करता है, वह गृहस्थमें रहता हुआ भी ब्रह्मचारी माना जाता है। परंतु जो केवल भोगेच्छा, सुखेच्छासे अपनी स्त्रीका संग करता है, वह पाप करता है। गीताने विषय- भोगोंके चिन्तनमात्रसे पतन होना बताया है (२। ६२-६३) और कामको सम्पूर्ण पापोंका मूल तथा नरकोंका दरवाजा बताया है (३।३६, १६।२१) । तात्पर्य है कि भोगेच्छासे अपनी स्त्रीका संग करना नरकोंका दरवाजा है; पापोंका, अनर्थोका कारण है।

‡‡ सिंह गमन, सज्जन बचन, कलि फलै इक बार। तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढ़ें न दूजी बार ॥

पक्का विचार होनेपर ब्रह्मचर्यका पालन करना कठिन नहीं है। ब्रह्मचर्यका पालन मनुष्यके लिये खास बात है। अगर मनुष्य संयम नहीं करता तो वह पशुओंसे भी गया-बीता है। पशुओंमें गधा, कुत्ता नीच माना जाता है। परंतु वर्षमें एक महीना ही उनकी ऋतु होती है। उस महीनेमें उनकी रक्षा की जाय तो उनका संयम हो जाता है। जैसे, श्रावण मासमें गधेकी, कार्तिक मासमें कुत्तेकी और माघ मासमें बिल्लीकी रक्षा की जाय, उनसे ब्रह्मचर्यका पालन कराया जाय तो उनका संयम हो जाता है। परंतु मनुष्यके लिये बारह महीने खुले हैं, अतः दूसरा कोई उनकी रक्षा नहीं कर सकता, वह खुद ही चाहे तो अपनी रक्षा कर सकता है। इसीलिये शास्त्रोंमें मनुष्यको ब्रह्मचर्य-पालनकी आज्ञा दी गयी है। ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे ब्रह्मविद्याकी प्राप्ति हो जाती है, महान् आनन्दकी प्राप्ति हो जाती है।

प्रश्न - पुरुष तो संयम रखे, पर स्त्री संयम न रखे तो क्या करना चाहिये ?

उत्तर - यह बात नहीं है कि स्त्री संयम न रखे। वास्तवमें पुरुष ही स्त्रीको बिगाड़ता है। स्त्रियोंमें काम-वेगको रोकनेकी जितनी शक्ति होती है, उतनी पुरुषोंमें नहीं होती।

अगर पहलेसे ही संयम रखा जाय तो संयम सुगमतासे होता है। भोगवृत्ति ज्यादा होनेपर संयम रखना कठिन हो जाता है। अतः जब कामका वेग न हो, तब स्त्री-पुरुष दोनोंको शान्तचित्त होकर विचार करना चाहिये कि हम अधिक सन्तान नहीं चाहते तो हमें संयम रखना चाहिये, जिससे हमारा शरीर, स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। ऐसा विचार करके दोनोंको रात्रिमें अलग-अलग रहना चाहिये।

मनुष्य संयम तो सदा रख सकता है, पर भोग सदा नहीं कर सकता- यह स्वतः सिद्ध बात है। अतः संयमके विषयमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिये और गर्भपात, नसबन्दी-जैसे महापापसे बचना चाहिये।

जबतक यह हिन्दू-समाज गर्भपात-जैसे महापापसे नहीं बचेगा, तबतक इसका उद्धार मुश्किल है; क्योंकि अपना पाप ही अपने-आपको खा जाता है। अगर यह समुदाय अपनी उन्नति और वृद्धि चाहता है तो इस घोर महापापसे, ब्रह्महत्यासे दुगुने पापसे बचना चाहिये। एक भाईने हमें बताया कि गत वर्ष भारतमें लगभग इक्कीस लाख गर्भपात किये गये ! ऐसी लोक-परलोकको नष्ट करनेवाली महान् हत्यासे समाजकी क्या गति होगी, इसे भगवान् ही जाने ! धर्मपरायण भारतमें कितना धर्मविरुद्ध काम हो रहा है, इसका कोई पारावार नहीं है। इसका परिणाम बड़ा भयंकर निकलेगा, इसलिये समय रहते चेत जाना चाहिये-

'का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें ॥'

हमारा उद्देश्य किसीकी निन्दा करना, किसीको नीचा दिखाना है ही नहीं। हमारा यह कहना है कि मनुष्य-शरीरमें आकर कम-से-कम गर्भपात-जैसे महापापोंसे तो बचें।

बड़े भाग मानुष तनु सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि पावा। गावा ॥

(मानस, उत्तर० ४३।४)

कबहुँक करि करुना नर देत ईस बिनु हेतु देही । सनेही ॥

(मानस, उत्तर० ४४।३)

'दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः'

(श्रीमद्भा० ११।२।२९)

लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।

(श्रीमद्भा० ११।९।२९)

- इस प्रकार जिस मनुष्य-शरीरको इतना दुर्लभ बताया गया है, उस मनुष्य-शरीरमें जीवको न आने देना, जीवको ऐसा दुर्लभ शरीर न मिलने देना कितना महान् पाप है! ऐसे महापापसे बचो।

- स्रोत : गृहस्थमें कैसे रहें? (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)