मांस-भक्षण-निषेध
य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम्।
स वर्जयेत् मांसानि प्राणिनामिह सर्वश:॥
(महा०,अनु०११५।४८)
‘जो पुरुष अपने लिये आत्यन्तिक शान्ति लाभ करना चाहता है,उसको जगत् में किसी भी प्राणीका मांस किसी भी निमित्त नहीं खाना चाहिये।’
यद्यपि जगत् में बहुत-से लोग मांस खाते हैं, परंतु विचार करनेपर यही सिद्ध होता है कि मांस-भक्षण सर्वथा हानिप्रद है। इससे लोक-परलोक दोनों बिगड़ते हैं। बहुत-से लोग तो ऐसे हैं जो मांस-भक्षणको हानिकर समझते हुए भी बुरी आदतके वशमें होनेके कारण नहीं छोड़ सकते। कुछ ऐसे हैं जो आराम और भोगासक्तिके वशमें हुए मांस-भक्षणका समर्थन करते हैं; परन्तु उन लोगोंको भी विवेकी पुरुषोंके समुदायमें नीचा देखना पड़ता है। मांस-भक्षणसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंका पार नहीं है। उनमेंसे यहाँ संक्षेपमें कुछ बतलाये जाते हैं। निवेदन यही है कि पाठक इस लेखको मननपूर्वक पढ़ें और उनमें जो मांस खाते हों वे कृपापूर्वक मांस खाना छोड़ दें।
१-मांस-भक्षण भगवत्प्राप्तिमें बाधक है।
२-मांस-भक्षणसे ईश्वरकी अप्रसन्नता प्राप्त होती है।
३-मांस-भक्षण महापाप है।
४-मांस-भक्षणसे परलोकमें दु:ख प्राप्त होता है।
५-मांस-भक्षण मनुष्यके लिये प्रकृतिविरुद्ध है।
६-मांस-भक्षणसे मनुष्य पशुत्वको प्राप्त होता है।
७-मांस-भक्षण मनुष्यकी अनधिकार चेष्टा है।
८-मांस-भक्षण घोर निर्दयता है।
९-मांस-भक्षणसे स्वास्थ्यका नाश होता है।
१०-मांस-भक्षण शास्त्रनिन्दित है।
अब उपर्युक्त दस विषयोंपर संक्षेपसे पृथक्-पृथक् विचार कीजिये।
(१) मांस-भक्षण भगवत्प्राप्तिमें बाधक है
सम्पूर्ण रूपसे अभयपदकी प्राप्तिको ही मुक्ति—परमपद-प्राप्ति या भगवत्-प्राप्ति कहते हैं। इस अभयपदकी प्राप्ति उसीको होती है जो दूसरोंको अभय देता है। जो अपने उदर-पोषण अथवा जीभके स्वादके लिये कठोरहृदय होकर प्राणियोंकी हिंसा करता-कराता है, वह प्राणियोंको भय देनेवाला और उनका अनिष्ट करनेवाला मनुष्य अभयपदको कैसे प्राप्त हो सकता है? श्रीभगवान् ने निराकार उपासनामें लगे हुए साधकके लिये ‘सर्वभूतहिते रता:’ और भक्तके लिये ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च’ कहकर सर्वभूतहित और प्राणिमात्रके प्रति मैत्री और दया करनेका विधान किया है। भूतहित और भूतदयाके बिना परमपदकी प्राप्ति अत्यन्त दुष्कर है। अतएव आत्माके उद्धारकी इच्छा रखनेवाले पुरुषका कर्तव्य है कि वह किसी भी जीवको किसी समय किसी प्रकार किंचिन्मात्र भी कष्ट न पहुँचावे। भगवत्-प्राप्तिकी तो बात ही दूर है, मांस खानेवालेको तो स्वर्गकी प्राप्ति भी नहीं होती। मनु महाराज कहते हैं—
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवध: स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥
(५।४८)
‘प्राणियोंकी हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं होता और प्राणिवध करनेसे स्वर्ग नहीं मिलता, अतएव मांसका त्याग करना चाहिये।’
(२) मांस-भक्षणसे ईश्वरकी अप्रसन्नता प्राप्त होती है
समस्त चराचर जगत् के रचयिता परम पिता परमात्माकी दृष्टिमें सभी जीव समान हैं, या यों कहना चाहिये कि उनके द्वारा रचित होनेके कारण सब उन्हींकी सन्तान हैं। इसलिये भक्तकी दृष्टिमें सभी जीव अपने भाईके समान होते हैं, इस रहस्यके जाननेवाले ईश्वर भक्तके लिये परम पिता परमात्माकी सन्तान अपने बन्धुरूप किसी भी प्राणीको मारना तो दूर रहा, वह किसीको किंचित् कष्ट भी नहीं पहुँचा सकता। जो लोग इस बातको न समझकर स्वार्थवश दूसरे जीवोंकी हिंसा करते हैं, और हिंसा करते हुए ही अपने ऊपर ईश्वरकी दया चाहते हैं और ईश्वर-प्राप्तिकी कामना करते हैं वे बड़े भ्रममें हैं। प्राणिवध करनेवाले क्रूरकर्मी मनुष्योंपर ईश्वर कैसे प्रसन्न हो सकते हैं? किसी पिताका एक लड़का लोभवश अपने दूसरे निर्दोष भाइयोंको सताकर या मारकर जैसे पिताका कोपभाजन होता है वैसे ही प्राणियोंको पीड़ा पहुँचानेवाले लोग ईश्वरकी अप्रसन्नता और कोपके पात्र होते हैं।
(३) मांस-भक्षण महापाप है
धर्ममें सबसे पहला स्थान अहिंसाको दिया गया है और सब तो धर्मके अंग हैं, परंतु अहिंसा परम धर्म है—‘अहिंसा परमो धर्म:।’ (महाभारत, अनु० ११५।२५)। धर्मका तात्पर्य अहिंसासे है। धर्मको माननेवाले सभी लोग अहिंसा और त्यागकी प्रशंसा करते हैं। जो धर्म मनुष्यकी वृत्तियोंको अहिंसा, त्याग, निवृत्ति और संयमकी ओर ले जाता है, वही यथार्थ धर्म है। जिस धर्ममें इन बातोंकी कमी है वह धर्म अधूरा है, मांस-भक्षण करनेवाले अहिंसा-धर्मका हनन करते हैं, धर्मका हनन ही पाप है। कोई यह कहे कि हम स्वयं जानवरोंको न तो मारते हैं और न मरवाते हैं, दूसरोंके द्वारा मारे हुए पशु-पक्षियोंका मांस खरीदकर खाते हैं इसलिये हम प्राणिहिंसाके पापी क्यों माने जायँ? इसका उत्तर स्पष्ट है। हिंसा मांसाहारियोंके लिये ही की जाती है। कसाईखाने मांस खानेवालोंके लिये ही बने हैं। यदि मांसाहारीलोग मांस खाना छोड़ दें तो प्राणिवध कोई किसलिये करे? फिर यह भी समझनेकी बात है कि केवल अपने हाथों किसीको मारनेका नाम ही हिंसा नहीं है। महर्षि पतंजलिने अहिंसाके मुख्यतया सत्ताईस भेद बतलाये हैं। यथा—
वितर्का हिंसादय: कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दु:खाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्।
(योग०२।३४)
अर्थात् ‘स्वयं हिंसा करना, दूसरेसे करवाना और हिंसाका समर्थन करना—यह तीन प्रकारकी हिंसा है। ये तीन प्रकारकी हिंसा लोभ, क्रोध और अज्ञानके हेतुओंसे होनेके कारण (३×३=९) नौ प्रकारकी हो जाती है। और नौ प्रकारकी हिंसा मृदु, मध्य और अधिमात्रासे होनेसे (९×३=२७) सत्ताईस प्रकारकी हो जाती है। इसी तरह मिथ्या भाषण आदिका भी भेद समझ लेना चाहिये। ये हिंसादि सभी दोष कभी नहीं मिटनेवाले दु:ख और अज्ञानरूप फलको देनेवाले हैं ऐसा विचार करना ही प्रतिपक्ष-भावना है, यही २७ प्रकारकी हिंसा शरीर, वाणी और मनसे होनेके कारण इक्यासी भेदोंवाली बन जाती है। इसलिये स्वयं न मारकर दूसरोंके द्वारा मरे हुए पशुओंका मांस खानेवाला भी वास्तवमें प्राणिहिंसक ही है। मनु महाराज कहते हैं-
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातका:॥
(५। ५१)
‘सलाह-आज्ञा देनेवाला, अंग काटनेवाला, मारनेवाला, मांस खरीदनेवाला, बेचनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला—ये सभी घातक कहलाते है।’ इसी प्रकार महाभारतमें कहा है—
धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगत:।
घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वध:॥
आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादका: सर्व एव ते॥
(महा० अनु० ११५।४०,४९)
‘मांस खरीदनेवाला धनसे प्राणीकी हिंसा करता है, खानेवाला उपभोगसे करता है और मारनेवाला मारकर और बाँधकर हिंसा करता है, इसपर तीन तरहसे वध होता है। जो मनुष्य मांस लाता है, जो मँगाता है, जो पशुके अंग काटता है, जो खरीदता है, जो बेचता है, जो पकाता है और जो खाता है, वे सभी मांस खानेवाले (घातकी) हैं।’
अतएव मांस-भक्षण धर्मका हनन करनेवाला होनेके कारण सर्वथा महापाप है। धर्मके पालन करनेवालेके लिये हिंसाका त्यागना पहली सीढ़ी है। जिसके हृदयमें अहिंसाका भाव नहीं है वहाँ धर्मको स्थान ही कहाँ है?
(४) मांस-भक्षणसे परलोकमें दु:ख प्राप्त होता है
भीष्मपितामह राजा युधिष्ठिरसे कहते हैं—
मां स भक्षयते यस्माद्भक्षयिष्ये तमप्यहम्।
एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्ध्यस्व भारत॥
(महा० अनु० ११६।२५)
‘हे युधिष्ठिर! वह मुझे खाता है इसलिये मैं भी उसे खाऊँगा यह मांस शब्दका मांसत्व है ऐसा समझो।’ इसी प्रकारकी बात मनु महाराजने कही है—
मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाद्हम्यम्।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिण:॥
(५। ५५)
‘मैं यहाँ जिसका मांस खाता हूँ, वह परलोकमें मुझे (मेरा मांस) खायेगा। मांस शब्दका यह अर्थ विद्वान् लोग किया करते हैं।’
आज यहाँ जो जिस जीवके मांसको खावेगा किसी समय वही जीव उसका बदला लेनेके लिये उसके मांसको खानेवाला बनेगा। जो मनुष्य जिसको जितना कष्ट पहुँचाता है समयान्तरमें उसको अपने किये हुए कर्मके फलस्वरूप वह कष्ट और भी अधिक मात्रामें (मय व्याजके) भोगना पड़ता है, इसके सिवा यह भी युक्तिसंगत बात है कि जैसे हमें दूसरेके द्वारा सताये और मारे जानेके समय कष्ट होता है वैसा ही सबको होता है। परपीड़ा महापातक है, पापका फल सुख कैसे होगा? इसीलिये भीष्मपितामह कहते हैं—
कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागता:।
आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुन: पुन:॥
(महा० अनु० ११६।२१)
‘मांसाहारी जीव अनेक योनियोंमें उत्पन्न होते हुए अन्तमें कुम्भीपाक नरकमें यन्त्रणा भोगते हैं और दूसरे उन्हें बलात् दबाकर मार डालते हैं और इस प्रकार वे बार-बार भिन्न-भिन्न योनियोंमें भटकते रहते हैं।’
(५) मांस-भक्षण मनुष्यके लिये प्रकृतिविरुद्ध है
भगवान् ने सृष्टिमें जिस प्रकारके जीव बनाये हैं उनके लिये उसी प्रकारके आहारकी रचना की है। मांसाहारी सिंह, कुत्ते, भेड़िये आदिकी आकृति, उनके दाँत, जबड़े, पंजे, नख और हड्डी आदिसे मनुष्यकी आकृति और उसके दाँत, जबड़े, पंजे, नख और हड्डीकी तुलना करके देखनेसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि मनुष्यका खाद्य अन्न, दूध और फल ही है। जलचिकित्साके प्रसिद्ध आविष्कारक लूईकूने महोदयने भी कहा है कि ‘मनुष्य मांसभक्षी प्राणी नहीं है। वह तो मांसभक्षण करके मनुष्यकी प्रकृतिके विरुद्ध कार्य कर नाना प्रकारकी विपत्तियोंको बुलाता है’ मनुष्यकी प्रकृति स्वाभाविक ही सौम्य है, सौम्य प्रकृतिवाले जीवोंके लिये अन्न, दूध, फल, आदि सौम्य पदार्थ ही स्वाभाविक भोज्य पदार्थ हैं। गौ, बकरी, कबूतर आदि सौम्य प्रकृतिके पशु-पक्षी भी मांस न खाकर घास, चारा, अन्न आदि ही खाते हैं। मांसाहारी पशु-पक्षियोंकी आकृति सहज ही क्रूर और भयानक होती है। शेर, बाघ, बिल्ली, कुत्ते आदिको देखते ही इस बातका पता लग जाता है। महाभारतमें कहा है—
इमे वै मानवा लोके नृशंसा मांसगृद्धिन:।
विसृज्य विविधान् भक्ष्यान् महारक्षोगणा इव॥
अपूपान् विविधाकारान् शाकानि विविधानि च।
खाण्डवान् रसयोगान्न तथेच्छन्ति यथाऽऽमिषम्॥
(महा०,अनु०, ११६।१-२)
‘शोक है कि जगत् में क्रूर मनुष्य नाना प्रकारके पवित्र खाद्य पदार्थोंको छोड़कर महान् राक्षसकी भाँति मांसके लिये लालायित रहते हैं तथा भाँति-भाँतिकी मिठाइयों, तरह-तरहके शाकों, खाँड़की बनी हुई वस्तुओं और सरस पदार्थोंको भी वैसा पसंद नहीं करते जैसा मांसको।’
इससे यह सिद्ध हो गया कि मांस मनुष्यका आहार कदापि नहीं है।
(६) मांस-भक्षणसे मनुष्य पशुत्वको प्राप्त होता है
भोजनसे ही मन बनता है, ‘जैसा खावे अन्न, वैसा बने मन’ कहावत प्रसिद्ध है। मनुष्य जिन पशु-पक्षियोंका मांस खाता है उन्हीं पशु-पक्षियोंके-से गुण, आचरण आदि उसमें उत्पन्न हो जाते हैं, उसकी आकृति क्रमश: वैसी ही बन जाती है। इससे वह इसी जन्ममें मनुष्योचित स्वभावसे प्राय: च्युत होकर पशुस्वभावापन्न, क्रूर और अमर्यादित जीवनवाला बन जाता है और मरनेपर वैसी ही भावनाके फलस्वरूप तथा अपने कर्मोंका बदला भोगनेके लिये उन्हीं पशु-पक्षियोंकी योनियोंको प्राप्त होकर महान् दु:ख भोगता है। भीष्मपितामह कहते हैं—
येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोति य:।
तेन तेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते॥
(महा० अनु० ११६।२७)
‘प्राणी जिस-जिस शरीरसे जो-जो कर्म करता है उस-उस शरीरसे वैसा ही फल पाता है।’
इससे सिद्ध है कि मांसाहारी मनुष्य जिन पशु-पक्षियोंका मांस खाता है, वैसा ही पशु-पक्षी आगे चलकर स्वयं बन जाता है।
(७) मांस-भक्षण मनुष्यकी अनधिकार चेष्टा है
जब हम किसी जीवके प्राणोंका संयोग करनेकी शक्ति नहीं रखते, तब हमें उनके प्राणहरण करनेका वस्तुत: कोई अधिकार नहीं है। यदि करते हैं, तो वह एक प्रकारसे महान् अत्याचार और पाप है। मांसाहारी ऊपर लिखे अनुसार स्वयं प्राणी-वध न करनेवाला हो तो भी प्राणी-वधका दोषी है ही, क्योंकि प्रकारान्तरसे वही तो प्राणीहिंसामें कारण है।
(८) मांस-भक्षण घोर निर्दयता है
मांसाहारी मनुष्य निर्दय हो ही जाता है और जिसमें दया नहीं है उसके अधर्मी होनेमें क्या सन्देह है? मांसभक्षी मनुष्य इस बातको भूल जाता है कि ‘मांस खाकर कितना बड़ा निर्दय कार्य कर रहा हूँ। मेरी तो थोड़ी देरके लिये केवल क्षुधाकी निवृत्ति होती है, परन्तु बेचारे पशु-पक्षीके प्राण सदाके लिये चले जाते हैं।’ प्राणनाशके समान कौन दु:ख है, संसारमें सभी प्राणी प्राणनाशसे डरते हैं।
अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत।
मृत्युकाले हि भूतानां सद्यो जायेत वेपथु:॥
(महा०अनु० ११६।२७)
‘हे भारत! मरण सभी जीवोंके लिये अनिष्ट है, मरणके समय सभी जीव सहसा काँप उठते हैं।’
जिस मनुष्यके हृदयमें दया होती है, वह तो दूसरेके दु:खको देख-सुनकर ही काँप उठता है और उसके दु:खको दूर करनेमें लग जाता है। परन्तु जो क्रूरहृदय मनुष्य पापी पेटको भरते और जीभको स्वाद चखानेके लिये प्राणियोंका वध करते हैं, वे तो स्वाभाविक ही निर्दयी हैं। निर्दयी मनुष्य भगवान् से या अन्यान्य जीवोंसे कभी दयाकी माँग नहीं कर सकता।
दयालु पुरुष ही संकटके समय ईश्वरकी तथा अन्यान्य जीवोंकी दयाका पात्र होता है। बड़े ही खेदका विषय है कि मनुष्य स्वयं तो किसीके द्वारा जरा-सा कष्ट पानेपर ही घबड़ा उठते हैं और चिल्लाने लगते हैं परन्तु निर्दोष मूक जीवोंको, इन्द्रियलोलुपता, बुरी आदत और प्रमादवश मार या मरवाकर खानेतकमें नहीं हिचकते।
मनुष्य सबमें बुद्धिमान् और स्वभावसे ही सबका उपकारी जीव माना गया है। यदि वह अपने स्वभावको भुलाकर निर्दयताके साथ पशु-पक्षियोंकी हिंसामें इसी प्रकार उतारू रहेगा तो बेचारे पशु-पक्षियोंका संसारमें निर्वाह ही कठिन हो जायगा, अतएव मनुष्यको दयालु बनना चाहिये।
न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते।
तस्माद्दयां नर: कुर्याद् यथाऽऽत्मनि तथा परे॥
(महा० अनु० ११६। ८)
‘इस संसारमें प्राणोंके समान कोई और प्रिय वस्तु नहीं है, अतएव मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया करता है उसी प्रकार दूसरोंपर भी करे।’
(९) मांस-भक्षणसे स्वास्थ्यका नाश होता है
मांसाहार स्वाभाविक ही स्वास्थ्यका नाशक है, इस बातको अब तो यूरोपके भी अनेकों विद्वान् और डॉक्टर लोग मानने लगे हैं। इसके सिवा एक बात यह भी है कि जिन पशु-पक्षियोंका मांस मनुष्य खाता है, उनमें जो पशु-पक्षी रोगी होते हैं, उनके रोगके परमाणु मांसके साथ ही मनुष्यके शरीरमें प्रवेशकर उसे भी रोगी बना डालते हैं। इंगलैंडके एक प्रसिद्ध डॉक्टरने लिखा था कि ‘इंगलैंडमें कैंसरके रोगी दिनोदिन बढ़ते जा रहे हैं। एक इंगलैंडमें इस भयानक रोगसे तीस हजार मनुष्य प्रतिवर्ष मरते हैं। यह रोग मांसाहारसे होता है। यदि मांसाहार इसी तेजीसे बढ़ता रहा तो इस बातका भय है कि भविष्यकी सन्तानमें ढाई करोड़ मनुष्य इस रोगके शिकार होंगे।’
मांस बहुत देरसे पचता है, इससे मांसाहारी मनुष्य प्राय: पेटकी बीमारियोंसे पीड़ित रहते हैं। इसके सिवा अन्य भी अनेक प्रकारके रोग मांसाहारसे होते हैं। शास्त्रोंमें भी कहा है कि मांसाहारियोंकी आयु घट जाती है।
यस्माद् ग्रसति चैवायुर्हिंसकानां महाद्युते।
तस्माद्विवर्जयेन्मांसं य इच्छेद् भूतिमात्मन:॥
(महा०अनु० ११५।३३)
‘हिंसाजनित पाप हिंसा करनेवालोंकी आयुको नष्ट कर देता है, अतएव अपना कल्याण चाहनेवालोंको मांसभक्षण नहीं करना चाहिये।’
(१०) मांस-भक्षण शास्त्रनिन्दित है
यद्यपि शास्त्रोंमें कहीं-कहीं मांसका वर्णन आता है; परन्तु उनमें मांसत्यागके सम्बन्धमें बहुत ही जोरदार वाक्य हैं। प्राय: सभी शास्त्रोंने मांस-भक्षणकी निन्दा करके मांसत्यागको अत्युत्तम बतलाया है। ऐसे हजारों वचन हैं, उनमें कुछ थोड़े-से यहाँ दिये जाते हैं—
मनुस्मृति—
योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते॥
समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥
(५। ४५, ४९)
‘जो निरपराध जीवोंकी अपने सुखकी इच्छासे हिंसा करता है वह जीता रहकर अथवा मरनेके बाद भी (इहलोक अथवा परलोकमें) कहीं सुख नहीं पाता। मांसकी उत्पत्तिका विचार करते हुए प्राणियोंकी हिंसा और बन्धनादिके दु:खको देखकर मनुष्यको सब प्रकारके मांस-भक्षणका त्याग कर देना चाहिये।’
यमस्मृति—
सर्वेषामेव मांसानां महान् दोषस्तु भक्षणे।
निवर्तने महत्पुण्यमिति प्राह प्रजापति:॥
‘प्रजापतिका कथन है कि सभी प्रकारके मांसोंके भक्षणमें महान् दोष है और उससे बचनेमें महान् पुण्य है।’
महाभारत, अनुशासनपर्व—
लोभाद्वा बुद्धिमोहाद्वा बलवीर्यार्थमेव च।
संसर्गादथ पापानामधर्मरुचिता नृणाम्॥
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
उद्विग्नवासो वसति यत्र यत्राभिजायते॥
इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो मार्गैरबुधोऽधम:।
हन्याज्जन्तून् मांसगृध्नु: स वै नरकभाङ्नर:॥
(११५।३५-३६,४७)
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मात्स नृशंसतरो नर:॥
(११६।७)
शुक्राच्च तात सम्भूतिर्मांसस्येह न संशय:।
भक्षणे तु महान् दोषो निवृत्त्या पुण्यमुच्यते॥
(११६।९)
‘लोभसे, बुद्धिके मोहित हो जानेसे अथवा पापियोंका संसर्ग करनेसे बल और पराक्रमकी प्राप्तिके लिये मनुष्योंकी (हिंसारूप) अधर्ममें रुचि होती है।’
‘जो मनुष्य अपने मांसको दूसरेके मांससे बढ़ाना चाहता है, वह जिस किसी योनिमें जन्म ग्रहण करता है वहाँ दु:खी होकर ही रहता है।’
‘जो अज्ञानी और अधम पुरुष देवपूजा, यज्ञ तथा वेदोक्त मार्गका आसरा लेकर मांसके लोभसे जीवोंकी हिंसा करता है वह नरकोंको प्राप्त होता है।’
‘जो मनुष्य दूसरोंके मांससे अपने मांसको बढ़ाना चाहता है उससे बढ़कर कोई नीच नहीं है, वह अत्यन्त निर्दयी है।’
‘हे तात! वीर्यसे मांसकी उत्पत्ति होती है इसमें कोई सन्देह नहीं है (इसलिये यह बहुत घृणित पदार्थ है)। इसके भक्षणमें महान् दोष और त्यागसे पुण्य होता है।’
मांस न खानेका फल
मनुस्मृति—
वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समा:।
मांसानि च न खादेद्यस्तयो: पुण्यफलं समम्॥
(५। ५३)
‘जो सौ वर्षतक प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता है और जो किसी प्रकारका मांस नहीं खाता उन दोनोंको बराबर पुण्य होता है।’
महाभारत, अनुशासनपर्व—
शरण्य: सर्वभूतानां विश्वास्य: सर्वजन्तुषु।
अनुद्वेगकरो लोके न चाप्युद्विजते सदा॥
(११५।२८)
अधृष्य: सर्वभूतानामायुष्मान्नीरुज: सदा।
भवत्यभक्षयन् मांसं दयावान् प्राणिनामिह॥
हिरण्यदानैर्गोदानैर्भूमिदानैश्च सर्वश:।
मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्ट इति न: श्रुति:॥
(११५। ४२-४३)
‘मांस न खानेवाला और प्राणियोंपर दया करनेवाला मनुष्य समस्त जीवोंका आश्रयस्थान एवं विश्वासपात्र बन जाता है; उससे संसारमें किसीको उद्वेग नहीं होता और न उसको ही किसीसे उद्वेग होता है। उसे कोई भी भय नहीं पहुँचा सकता, वह दीर्घायु होता है और सदा नीरोग रहता है। मांसके न खानेसे जो पुण्य होता है उसके समान पुण्य न तो सुवर्णदानसे होता है, न गोदानसे और न भूमिदानसे होता है।’
उपर्युक्त विवेचनसे सिद्ध हो जाता है कि मांसभक्षण सभी प्रकारसे त्यागके योग्य है। मेरा नम्र निवेदन है कि जो भाई प्रमादवश मांस खाते हों वे इसपर भलीभाँति विचारकर, मनुष्यत्वके नाते, दया और न्यायके नाते, शरीर-स्वास्थ्य और धर्मकी रक्षाके लिये और भगवान् की प्रसन्नता प्राप्त करनेके लिये, इन्द्रिय-संयम कर मांस-भक्षण सर्वथा छोड़कर, सब जीवोंको अभयदान देकर स्वयं अभयपद प्राप्त करनेकी योग्यता लाभ करें। जो भाई मेरी प्रार्थनापर ध्यान देकर मांस-भक्षणका त्याग कर देंगे, उनका मैं आभारी रहूँगा और उनकी बड़ी दया समझूँगा। महात्मा तुलाधार श्रीजाजलिमुनिसे कहते हैं—
यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित् कथंचन।
अभयं सर्वभूतेभ्य: स प्राप्नोति सदा मुने॥
यस्मादुद्विजते विद्वन् सर्वलोको वृकादिव।
क्रोशतस्तीरमासाद्य यथा सर्वे जलेचरा:॥
तपोभिर्यज्ञदानैश्च वाक्यै: प्रज्ञाश्रितैस्तथा।
प्राप्नोत्यभयदानस्य यद्यत्फलमिहाश्नुते॥
लोके य: सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिणाम्।
स सर्वयज्ञैरीजान: प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम्।
न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोऽस्ति कश्चन॥
(महा० शान्ति० २६२। २४, २५, २८, २९, ३०)
‘हे मुनिवर! जिस मनुष्यसे किसी भी प्राणीको किसी प्रकार कष्ट नहीं पहुँचता उसे किसी भी प्राणीसे भय नहीं रह जाता। जिस प्रकार बडवानलसे भयभीत होकर सभी जलचर जन्तु समुद्रके तीरपर इकट्ठे हो जाते हैं उसी प्रकार हे विद्वद्वर! जिस मनुष्यसे भेड़ियेकी भाँति सब लोग डरते हैं वह स्वयं भयको प्राप्त होता है।’
‘अनेक प्रकारके तप, यज्ञ और दानसे तथा प्रज्ञायुक्त उपदेशसे जो फल मिलता है वही फल जीवोंको अभयदान देनेसे प्राप्त होता है।’
‘जो मनुष्य इस संसारके सभी प्राणियोंको अभयदान दे देता है; वह सारे यज्ञोंका अनुष्ठान कर चुकता है और बदलेमें उसे सबसे अभय प्राप्त होता है, अतएव प्राणियोंको कष्ट न पहुँचानेसे बढ़कर कोई दूसरा धर्म ही नहीं है।’