Seeker of Truth

मान-बड़ाईका त्याग

जो उच्चकोटिके पुरुष हैं, जिन्होंने परमात्माका तत्त्व भलीभाँति जान लिया है, वे मान-अपमान, निन्दा-स्तुति आदिको समान समझते हुए भी मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठासे बहुत दूर रहते हैं। क्योंकि साधनकालमें वे इन्हें विषके समान हेय तथा आध्यात्मिक उन्नतिमें बाधक समझकर इनसे बचते आये हैं और दॄढ़ अभ्यासके कारण यही आचरण उनके अंदर सिद्धावस्थामें भी देखा जाता है। सिद्ध पुुरुष वास्तवमें तो कुछ करते नहीं; किन्तु उनके द्वारा लोकमें वैसा ही आचरण होते देखा जाता है, जैसा आचरण वे सिद्धावस्थाके ठीक पहले करते रहे हैं। सिद्धावस्थाको प्राप्त हुआ पुरुष कभी कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता जो संसारके लिये अनुकरणीय न हो। स्वयं भगवान् ने गीतामें कहा है—

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(३। २१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।’

ऐसे पुरुष अपने जीवनकालमें तथा मरनेके बाद भी मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाको नहीं चाहते। जो लोग उनके इस रहस्यको जानकर स्वयं भी मान, बड़ाई, प्रतिष्ठासे दूर रहते हैं, वे ही उनके सच्चे अनुयायी कहलानेयोग्य हैं। इसके विपरीत जो लोग मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाके गुलाम हैं; किन्तु कहते हैं अपनेको महात्माओंका अनुयायी, वे तो वास्तवमें महात्माओंके संगको लजानेवाले हैं। जो लोग ऐसा मानते हैं कि महात्मालोग लौकिक व्यवहारकी दृष्टिसे ही लोगोंको अपनी पूजा करनेसे रोकते हैं, वे तो ऐसा करनेवाले महात्माओंको एक प्रकारसे दम्भी सिद्ध करते हैं। जो लोग मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका त्याग इसलिये करते हैं कि ऐसा करनेसे लोकमर्यादाकी रक्षा होती है, किन्तु हृदयसे अपनेको पुजवाना चाहते हैं, वे वास्तवमें महात्मा नहीं हैं। मरनेके बाद पूजा चाहनेका स्वरूप यह है कि लोग मरनेके बाद उनकी कीर्तिको स्थायी रखनेके लिये, उनकी स्मृति बनाये रखनेके लिये किसी स्मारकका आयोजन करें और वे लोगोंके इस विचारका समर्थन करें। यही नहीं, जो लोग अपने किसी पूज्य पुरुषके लिये इस प्रकारके स्मारकका आयोजन करते हैं, उनके सम्बन्धमें भी ऐसी धारणा अनुचित नहीं कही जा सकती कि वे स्वयं भी अपने लिये यही चाहते हैं कि मेरे मरनेके बाद लोग मेरे लिये भी इसी प्रकारका स्मारक बनायें।

जो कोई भी ऐसा चाहता है कि मरनेके बाद लोग मेरा चित्र रखकर उसकी पूजा करें और मेरी कीर्ति अखण्ड रहे, उसके सम्बन्धमें यह निश्चय समझ लेना चाहिये कि वह परमात्माके रहस्यको नहीं जानता, वह निरा अज्ञानी है। ज्ञान एवं भक्ति दोनोंके ही सिद्धान्तसे हम इसी निर्णयपर पहुँचते हैं। ज्ञानके सिद्धान्तसे तो एक सच्चिदानन्द ब्रह्मके अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं, तब कौन किसकी पूजा करे और कौन किससे पूजा कराये। एक ही परमात्मा सर्वत्र स्थित है, वह अनन्त और सम है; ऐसी स्थितिमें अपने एकदेशीय स्वरूपकी पूजा करानेवाला महात्मा कैसे समझा जाय। यदि कोई यह समझे कि पूजा ग्रहण करनेसे मेरा तो कोई लाभ-हानि नहीं; परन्तु पूजा करनेवालेको लाभ पहुँचेगा, तो वहाँ यह स्पष्ट है कि ऐसा समझनेवाला अपनेको ज्ञानी और पूजा करनेवालोंको अज्ञानी समझता है, किन्तु जो अपनेको ज्ञानी और दूसरोंको अज्ञानी समझता है, वह स्वयं अज्ञानी ही है। ज्ञानीके अंदर यह भावना कदापि सम्भव नहीं है कि मेरी पूजासे दूसरोंको लाभ पहुँचेगा। यदि यह कहा जाय कि ऐसा माननेवाला ज्ञानी तो नहीं हो सकता, किन्तु जिज्ञासु तो ऐसा मान सकता है, तो यह भी ठीक नहीं। अपनी पूजासे दूसरोंका लाभ समझनेवाला जिज्ञासु भी नहीं हो सकता। इस प्रकारकी धारणा जिज्ञासुके अंदर भी नहीं हो सकती। निरा अज्ञानी ही ऐसा सोच सकता है।

यदि यह मानें कि महात्मा स्वयं तो पूजा नहीं चाहते; परन्तु लोगोंकी दृष्टिसे उन्हें महात्माओंकी पूजामें प्रवृत्त करनेके लिये वे ऐसा करते हैं, तो इसका उत्तर यह है कि लोगोंको महात्माओंकी पूजामें लगाना तो ठीक है; परन्तु ऐसा करना चाहिये अपने व्यक्तित्वको बचाकर ही। महात्माओंकी पूजाका आदर्श स्थापित करनेके लिये भी अपनेको पुजवाना ठीक नहीं। यदि महात्माओंकी पूजाका प्रचार ही करना है तो पहले भी तो अनेकों एक-से-एक बढ़कर महात्मा हो गये हैं और उनसे भी बढ़कर स्वयं भगवान् के अवतार हो चुके हैं; उन सबको छोड़कर अपनी पूजा करवानेकी क्या आवश्यकता है।

अद्वैतसिद्धान्तकी दृष्टिसे देखा जाय तो आत्मा और परमात्मा एक हैं, अत: अपनेसे भिन्न कोई है ही नहीं। इस सिद्धान्तको माननेवालेकी दृष्टिमें भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण भी अपने ही स्वरूप हैं, अत: उनकी पूजा भी अपनी ही पूजा है। फिर उनकी पूजासे हटाकर कोई ज्ञानी महात्मा कैसे चाहेगा कि लोग मेरी पूजा करें। जो ऐसा चाहता है, वह देहाभिमानी है, ज्ञानी नहीं। ज्ञानी पुरुषको तो चाहिये कि यदि कोई दूसरा भी ऐसा करता हो तो उसे रोके , उसका विरोध करे, जिससे उसका अज्ञान दूर हो। ऐसा न करके यदि वह स्वयं अपनेको पुजवाता है तो यही मानना पड़ेगा कि या तो वह अज्ञानी है, मूर्ख है या ढोंगी है, दम्भके द्वारा अपना उल्लू सीधा करता है, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका किंकर है। इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है। फिर श्रीराम, श्रीकृष्ण आदिके स्वरूप तो नित्य एवं दिव्य हैं, हमारी तरह पांचभौतिक— मायिक नहीं और महात्माओंका शरीर तो ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेपर भी मायाका कार्य होनेके कारण नाशवान्, क्षणभंगुर ही है। ऐसी दशामें किसी भी मनुष्यका शरीर, चाहे वह बड़े-से-बड़ा महात्मा ही क्यों न हो, भगवान् राम-कृष्णादिके अलौकिक सौन्दर्य एवं माधुर्यसे पूर्ण विग्रहोंकी समता कैसे कर सकता है। अत: भगवान् राम-कृष्णादिके दिव्य विग्रहोंकी पूजासे हटाकर जो अपने नाशवान् शरीरको पुजवाता है, वह वास्तवमें भगवान् के तत्त्वको नहीं जानता। इसी प्रकार भगवान् के दिव्य एवं मधुर नामोंसे हटाकर जो अपने नामकी पूजा, अपने नामका प्रचार करवाता है वह भी ज्ञानी नहीं, अज्ञानी ही है।

यह तो हुई ज्ञानकी बात। भक्तिके द्वारा जो भगवान् को प्राप्त कर चुका है, वह भी भगवान् के स्थानपर अपनेको कैसे बैठाना चाहेगा। जो ऐसा करता है, वह तो अपनेको घोर अन्धकारमें डालता है। यदि यह कहा जाय कि वह स्वयं तो पूजा नहीं चाहता, परन्तु कोमल स्वभाव होनेके कारण वह दूसरोंको पूजा करनेसे रोक नहीं सकता, तो इसका उत्तर यह है कि जो भक्त दूसरोंको अपने साथ अनुचित व्यवहार करनेसे रोक नहीं सकता, उन्हें समझा नहीं सकता,उसकी पूजा और प्रतिष्ठासे हमें क्या लाभ हो सकता है। भगवान् को प्राप्त हुए भक्तोंमें तो अलौकिक शक्ति होनी चाहिये। फिर यदि कोई मनुष्य भक्त होकर भी दूसरोंके द्वारा अपने प्रति किये जानेवाले पूजा-प्रतिष्ठादिको रोक नहीं सकता तो वह दूसरोंका कल्याण कैसे कर सकता है। किसी महात्माके नामपर, चाहे वह भक्ति, ज्ञान, योग—किसी भी मार्गसे पहुँचा हुआ हो, कोई अनुचित व्यवहार करे और वह उसे रोक न सके—यह असम्भव है। यदि कोई श्रीहनुमान् जीको भगवान् श्रीरामके स्थानपर बिठाकर पूजना चाहे तो भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान् जी उसकी इस पूजाको कैसे स्वीकार कर सकते हैं। यदि किसी सेठकी गद्दीपर कोई उसके गुमाश्ते या मुनीमको ही सेठके रूपमें सजाकर उसका सम्मान करना चाहे और वह गुमाश्ता या मुनीम यदि स्वामिभक्त है तो वह उस सम्मानको कब स्वीकार करेगा और यदि करता है और सेठको इस बातका पता चल जाय तो वह अपने गुमाश्ते या मुनीमके इस व्यवहारको कैसे सहन करेगा। नमकहराम नौकर ही ऐसा कर सकता है। सच्चा स्वामिभक्त ऐसी बात कभी सोच भी नहीं सकता। यहाँ तो गुमाश्ता या मुनीम सेठ बनकर ऐसा कर भी सकता है और सेठको पता ही न चले; परंतु भगवान् तो सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ ठहरे, उनसे छिपाकर कोई कुछ कर ही नहीं सकता। भगवान् सजकर पूजा ग्रहण करना कोई भगवत्प्राप्त पुरुष तो कर ही नहीं सकता, भक्तिमार्गपर चलनेवाला साधक भी ऐसा नहीं कर सकता। इस प्रकारका अवसर अनायास कभी प्राप्त भी हो जाय तो भक्त साधक ऐसी अवस्थामें रोने लग जायगा, वह समझेगा कि यह तो मेरे लिये कलंककी बात होगी। बात भी सच है, ऐसा करने-करानेवाला अपने और अपने भगवान् दोनोंपर कलंक लगाता है। जो भगवान् के नामपर अपनेको पुजवाता है, वह भक्तिका प्रचार करना तो दूर रहा, उलटा संसारमें भ्रम फैलाता है और भगवान् भी उसकी इस करतूतपर मन-ही-मन हँसते हैं।

जो मनुष्य भगवान् के स्थानपर अपनेको बिठाकर पूजा ग्रहण करता है, उसके प्रति स्वाभाविक ही हमारी अश्रद्धा हो जाती है। इसी प्रकार हमें भी सोचना चाहिये कि यदि हम भी ऐसा करेंगे तो लोग हमें भी घृणाकी दृष्टिसे देखने लग जायँगे तथा इस प्रकार हमलोग भी महात्माओंके प्रति श्रद्धा बढ़ानेके बदले अश्रद्धा उत्पन्न करनेमें ही सहायक बनेंगे। क्योंकि वास्तवमें इस प्रकारका व्यवहार निन्दनीय ही है। सिद्ध पुरुषोंके द्वारा तो स्वाभाविक ही ऐसा आचरण होगा जो साधकोंके लिये लाभदायक हो। संसारमें ऐसे पुरुष ही आदर्श माने जाते हैं जिनके आचरण, उपदेश, दर्शन, स्पर्श एवं सम्भाषणसे दूसरोंका हित हो। अच्छे पुरुषोंके आचरण ही दूसरोंके लिये आदर्श होते हैं। यह बात सदा याद रखनी चाहिये कि महात्माओंमें अविद्याका लेश भी नहीं होता; फिर अविद्याका कार्य—मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदिकी इच्छा—तो हो ही कैसे सकती है। स्वयं महापुरुष, जो इस तत्त्वको भलीभाँति जानते हैं, इसका प्रचार एवं प्रकाश करके लोगोंके अज्ञानान्धकारका नाश करते हैं। वास्तवमें जो मान, बड़ाई, पूजा, प्रतिष्ठा एवं सत्कार आदि चाहते हैं अथवा सम्मति देकर लोगोंसे अपनी पूजा आदि करवाते हैं वे तो महामूढ़ हैं ही। किन्तु जो न तो दूसरोंको अपनी पूजा करनेके लिये कहता है और न पूछनेपर सम्मति देता है; परन्तु पूजा आदि मिलनेपर उसे प्रसन्न मनसे स्वीकार कर लेता है, उसका विरोध नहीं करता, वह भी मूढ़ ही है। जो पूजा मिलनेसे प्रसन्न तो नहीं होता, चाहता भी नहीं कि लोग मुझे पूजें, किन्तु हृदयसे पूजा-सत्कारका विरोध नहीं करता, वह भी ज्ञान और भक्तिसे अभी बहुत दूर है।

वर्तमान समयमें असली श्रद्धा और प्रेम बहुत कम लोगोंमें देखनेको मिलता है, अधिकांश लोगोंमें श्रद्धा और प्रेमकी नकल ही देखनेको मिलती है। असली श्रद्धाका रूप बाहरी पूजा, नमस्कार, सत्कार आदि नहीं हैं; ये तो श्रद्धा के बाहरी रूप हैं, शिष्टाचारके अन्तर्गत हैं। ये दिखावटी भी हो सकते हैं। असली श्रद्धा तो श्रद्धेय पुरुषका हृदयसे अनुयायी बन जाना, उनकी इच्छाके—उनके मनके सर्वथा अनुकूल बन जाना है। सूत्रधार कठपुतलीको जिस प्रकार नचाता है, उसी प्रकार वह नाचने लगती है, वह सब प्रकारसे नचानेवालेपर ही निर्भर करती है। इसी प्रकार जो श्रद्धेय पुरुषके सर्वथा अनुगत हो जाता है, उसीके इशारेपर चलता है, अपने मनसे कुछ भी नहीं करता, वही सच्चा श्रद्धालु है। श्रद्धेयकी आज्ञाओंका अक्षरश: पालन करना भी ऊँची श्रद्धाका द्योतक है। परन्तु श्रद्धेयको मुँहसे कुछ भी न कहना पड़े, उसके इंगितपर ही सब काम होने लगे, उसकी रुचिके अनुकूल सारी क्रिया होेने लगे—यह और भी ऊँची श्रद्धा है। सच्चे अनुगत पुरुषको छायाके समान व्यवहार करना चाहिये। जिस प्रकार हमारी छायामें, हमारे प्रतिबिम्बमें हमारी प्रत्येक चेष्टा अपने-आप जैसी-की-तैसी उतर आती है, उसी प्रकार श्रद्धेयका प्रत्येक आचरण, उसका प्रत्येक गुण श्रद्धालुके जीवनमें उतर आना चाहिये। इस प्रकार जो छायाकी भाँति श्रद्धेयका अनुसरण करता है, वही सच्चा शरणागत है, उसीकी श्रद्धा परम श्रद्धा है, उच्चतम कोटिकी श्रद्धा है। सच्चा श्रद्धालु श्रद्धेयके प्रतिकूल आचरण करना तो दूर रहा, अनुकूलतामें रंचमात्र उनकी कमीको भी सहन नहीं कर सकता, संतोंकी बाहरी पूजाका—शिष्टाचारका इतना महत्त्व नहीं है जितना भीतरसे उनके अनुकूल बन जानेका। संतोंके अनुकूल बन जाना ही उनकी असली पूजा है।

इसी प्रकार जो सच्चे प्रेमी होते हैं, वे अपने प्रेमास्पदका एक क्षणके लिये भी वियोग नहीं सह सकते। वे जान-बूझकर तो अपने प्रेमास्पदका त्याग कर ही नहीं सकते, यदि प्रेमास्पद उन्हें बरबस अलग कर देता है तो विरहके कारण उनकी दशा शोचनीय हो जाती है। किसी-किसी प्रेमीकी तो प्रेमास्पदके विरहमें मृत्युतक हो जाती है अथवा मृत्युकी-सी दशा हो जाती है, जलके अभावमें मछलीकी तरह उसके प्राण छटपटाने लगते हैं। वह यदि जीता है तो प्रेमीकी इच्छा मानकर—उसके मिलनकी आशासे ही जीता है; मनसे तो उसका प्रेमास्पदसे कभी वियोग होता ही नहीं, मन उसका निरन्तर अपने प्रियतममें ही बसा रहता है। प्राचीन इतिहासके पन्नोंको उलटनेपर श्रद्धा और प्रेमका सर्वोच्च नमूना हमें भरतजीके जीवनमें मिलता है। ननिहालसे लौटनेपर भरतजीने जब सुना कि श्रीराम वनको चले गये और उनके वनगमनका कारण मैं ही हूँ, तब वे सब कुछ छोड़कर तुरंत श्रीरामके पास वनमें गये और अयोध्या लौट चलनेके लिये उनसे प्रार्थना की। वाल्मीकीय रामायणमें तो उन्होंने श्रीरामजीको यहाँतक कह दिया कि यदि आप अयोध्या न चलेंगे तो मैं अनशन-व्रत लेकर प्राणत्याग कर दूँगा। परन्तु फिर श्रीरामकी आज्ञा मानकर, उनका रुख देखकर वे चुप हो रहे और उनकी चरणपादुकाओंको मस्तकपर रखकर अयोध्या लौट आये। किन्तु अयोध्या लौटकर भी वे भोगोंमें लिप्त न हुए, अयोध्यासे बाहर नन्दिग्राममें रहकर उन्होंने मुनियोंका-सा जीवन व्यतीत किया और बड़ी उत्कण्ठासे श्रीरामके लौटनेकी प्रतीक्षा करते रहे।

यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि भरतजीका श्रीरामके चरणोंमें अतिशय प्रेम था तो उनसे श्रीरामका वियोग कैसे सहा गया, श्रीरामके विरहमें उन्होंने प्राण क्यों नहीं त्याग दिये, तो इसका उत्तर यह है कि भरतजी श्रीरामके निरे प्रेमी ही न थे, वे उच्चकोटिके श्रद्धालु भी थे। उनकी प्रसन्नतामें प्रसन्न रहना, प्राणोंकी बाजी लगाकर भी उनकी आज्ञाका पालन करना उनके जीवनका व्रत था। उनकी इस श्रद्धाने ही उनके प्राणोंकी रक्षा की और उन्हें चौदह वर्षतक जीवित रखा। उन्हें विश्वास था कि चौदह वर्ष बीतनेपर श्रीरामसे अवश्य भेंट होगी और फिर आजीवन मैं उनके साथ रहूँगा, फिर कभी वे मुझे अलग रहनेको नहीं कहेंगे। इसी आशापर वे जीवित रहे। फिर भी उन्हें श्रीरामके वियोगका दु:ख कम न था। एक-एक दिन गिनकर उन्होंने चौदह वर्ष व्यतीत किये और विरह-व्यथामें सूखकर वे अत्यन्त कृश हो गये। यही नहीं, चौदह वर्ष बीतनेके बाद यदि श्रीराम वनसे लौटनेमें कुछ भी विलम्ब करते तो उनका प्राण बचना कठिन था। इस प्रकार प्रेमकी ऊँची-से-ऊँची अवस्था उनके अंदर व्यक्त थी। साथ ही उनमें श्रद्धा भी कम न थी। इसीलिये उन्होंने सोचा कि जब श्रीराम अपनी इच्छासे वनमें जा रहे हैं तो उनकी इच्छाके विरुद्ध उन्हें लौटानेके लिये मुझे अति आग्रह क्यों करना चाहिये। इस प्रकार अतिशय प्रेमके साथ-साथ उनमें श्रद्धा भी उच्चतम कोटिकी थी। किन्तु उच्च श्रेणीके प्रेमी अपने प्रेमास्पदकी और सब बातें मानते हुए भी कभी-कभी उनके संगके लिये अड़ जाते हैं। संगके लिये उनका इस प्रकार आग्रह करना भी दोषयुक्त नहीं माना जाता। इससे उनकी श्रद्धामें कमी नहीं मानी जाती। सारांश यह है कि प्रेमी किसी भी हेतुसे प्रेमास्पदका त्याग नहीं करता। प्रेमास्पदका संग बना रहे, इसके लिये वह कभी-कभी अपने प्रेमास्पदकी रुचिकी भी उपेक्षा कर देता है। इसके विपरीत, श्रद्धालु अपने श्रद्धेयकी रुचि रखनेके लिये उनके संगका भी प्रसन्नतापूर्वक त्याग कर देता है; परन्तु उनकी रुचिके प्रतिकूल कोई चेष्टा नहीं करता। प्रेमीको प्रेमास्पदका संग छोड़नेमें मृत्युके समान कष्ट होता है और श्रद्धालुको श्रद्धेयकी रुचिके प्रतिकूल आचरण मरणके समान प्रतीत होता है। प्रेमास्पद प्रेम बढ़ानेके लिये यदि प्रेमीको कभी अलग कर देता है तो प्रेमीको उसका वियोग असह्य हो जाता है। इसी प्रकार श्रद्धालुसे श्रद्धेयकी रुचिका पालन करनेमें तनिक भी कोर-कसर सहन नहीं होती। सच्चे प्रेम और श्रद्धाका यही स्वरूप है। इसपर कोई यह कह सकते हैं कि सच्चे भगवद्भक्त मान आदि तो बिलकुल नहीं चाहते, न यह चाहते हैं कि लोग उनके चित्रकी पूजा करें, उनके नामका प्रचार हो अथवा उनकी जीवनी लिखी जाय; परन्तु सभी भक्त और ज्ञानी यदि इन सब बातोंका कड़ाईके साथ विरोध करने लग जायँ तो फिर अच्छे पुरुषोंकी जीवनियाँ अथवा स्मारक संसारमें मिलने ही कठिन हो जायँगे, जिससे आगेकी पीढ़ियाँ उनसे मिलनेवाले लाभसे सदाके लिये वंचित हो जायँगी, तो इसका उत्तर यह है कि अच्छे पुरुष इन सब बातोंका तनिक भी विचार नहीं करते। अखण्ड ब्रह्मचर्यका व्रत धारण करनेवाला क्या कभी यह सोचता है कि मेरी देखा-देखी यदि दूसरे लोग भी स्त्री-सुखका त्याग कर देंगे तो फिर संसारका व्यवहार कैसे चलेगा, सृष्टिका कार्य ही बंद हो जायगा। ऐसा सोचनेवाला कभी ब्रह्मचर्यका पालन नहीं कर सकता। इसी प्रकार अच्छे पुरुष यह कभी नहीं सोचते कि यदि हम पूजा ग्रहण करना छोड़ देंगे तो संसारसे महापुरुषोंकी पूजाकी पद्धति ही उठ जायगी। संसारका व्यवहार तो सदा इसी प्रकार चलता आया है और चलता रहेगा। यदि कोई कहे कि अबतकके महात्माओंकी इच्छा एवं प्रेरणासे ही उनकी जीवनियाँ लिखी गयी हैं अथवा उनके स्मारकोंका निर्माण हुआ है, तो ऐसा कहना अथवा सोचना उन महात्माओंपर झूठा कलंक लगाना, उनपर व्यर्थका दोषारोपण करना है। महात्माओंकी बात तो अलग रही, ऊँचे साधकके मनसे भी यह वासना हट जाती है; यदि रहती है तो यह मानना चाहिये कि वह उच्चकोटिका साधक नहीं है। इस सम्बन्धमें यह निश्चित सिद्धान्त मान लेना चाहिये कि अच्छे पुरुषोंके मनमें यह वासना कभी उठती ही नहीं कि मेरे जीवनकालमें अथवा मरनेके बाद लोग मेरे शरीर या मूर्तिकी पूजा करें, मेरे नामका प्रचार हो अथवा मेरी जीवनी लिखी जाय। इस प्रकारकी इच्छाका अच्छे पुरुषोंमें अत्यन्ताभाव हो जाता है। और महात्माओंका सच्चा अनुयायी एवं सच्चा श्रद्धालु वही है जो उनके भावके, उनकी इच्छाके अनुकूल अपने जीवनको बना लेता है; वही सच्चा शरणापन्न और वही सच्चा भक्त है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur