लड़ाई-झगड़ेका समाधान
प्रश्न - परिवारमें झगड़ा, कलह, अशान्ति आदि होनेका क्या कारण है?
उत्तर - हरेक प्राणी अपने मनकी कराना चाहता है, अपनी अनुकूलता चाहता है, अपना सुख-आराम चाहता है, अपनी महिमा चाहता है, अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है-ऐसे व्यक्तिगत स्वार्थके कारण ही परिवारमें झगड़ा, कलह, अशान्ति आदि होते हैं। जैसे, कुत्ते आपसमें बड़े प्रेमसे खेलते हैं, पर रोटीका टुकड़ा सामने आते ही लड़ाई शुरू हो जाती है; अतः लड़ाईका कारण रोटीका टुकड़ा नहीं है, प्रत्युत व्यक्तिगत स्वार्थ है।
कुटुम्बमें जो केवल अपना सुख-आराम चाहता है, वह कुटुम्बी नहीं होता, प्रत्युत एक व्यक्ति होता है। कुटुम्बी वही होता है, जो कुटुम्बमें बड़े, छोटे और समान अवस्थावाले- सबका हित चाहता है और हित करता है। अतः जो कुटुम्बमें शान्ति चाहता है, कलह नहीं चाहता, उसको अपना कर्तव्य और दूसरोंका अधिकार देखना चाहिये अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये और दूसरोंका हित करना चाहिये, आदर-सत्कार, सुख-आराम देना चाहिये ।
प्रश्न - भाई-भाई आपसमें लड़ें तो माता-पिताको क्या करना चाहिये ?
उत्तर - माता-पिताको न्यायकी बात कहनी चाहिये। वे छोटे पुत्रसे कहें कि तुम भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नको देखो कि वे रामजीके साथ कैसा बर्ताव करते थे; भीम, अर्जुन आदि अपने बड़े भाई युधिष्ठिरके साथ कैसा बर्ताव करते थे। बड़े पुत्रसे कहें कि तुम रामजीको देखो कि उन्होंने अपने छोटे भाइयोंके साथ कैसा बर्ताव किया था *; और युधिष्ठिर अपने छोटे भाइयोंके साथ कैसा बर्ताव करते थे। अतः तुम सब लोग उनके चरित्रोंको आदर्श मानकर अपने आचरणमें लाओ।
* इसके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित 'तत्त्वचिन्तामणि' के दूसरे भागमें 'रामायणमें आदर्श भ्रातृप्रेम' नामक लेखको मननपूर्वक पढ़ना चाहिये।
प्रश्न - बहन-भाई आपसमें लड़ें तो माता-पिताको क्या करना चाहिये ?
उत्तर - माता-पिताको लड़कीका पक्ष लेना चाहिये; क्योंकि वह सुवासिनी है, दानकी पात्र है **, थोड़े दिन रहनेवाली है; अतः वह आदरणीय है। लड़का तो घरका मालिक है, घरमें ही रहनेवाला है। लड़केको एकान्तमें समझाना चाहिये कि 'बेटा! बहनका निरादर मत करो। यह यहाँ रहनेवाली नहीं है। यह तो अपने घर चली जायगी। तुम तो यहाँके मालिक हो।'
बहनको चाहिये कि वह भाईसे कुछ भी आशा नं रखे। भाई जितना दे, उसमेंसे थोड़ा ही ले। उसको यह सोचना चाहिये कि भाईके घरसे लेनेसे हमारा काम थोड़े ही चलेगा ! हमारा काम तो हमारे घरसे ही चलेगा।
** बहन, बेटी और भानजीको भोजन कराना ब्राह्मणको भोजन करानेके समान पुण्य माना गया है।
प्रश्न - बेटा और बहू आपसमें लड़ें तो माता-पिताका क्या कर्तव्य होता है?
उत्तर - माता-पिता उन दोनोंको समझायें कि हम कबतक बैठे रहेंगे? इस घरके मालिक तो आप ही हो। यदि आप ही परस्पर लड़ोगे तो इस कुटुम्बका पालन कौन करेगा? क्योंकि भार तो सब आपपर ही है।
बेटेको अलगसे समझाना चाहिये कि बेटा! तुम्हारे लिये ही तुम्हारी पत्नीने अपने माता-पिता आदि सबका त्याग किया है। तुम तो अपने बापकी गद्दीपर बैठे हुए हो, तुमने क्या त्याग किया ? अतः ऐसी त्यागमूर्ति स्त्रीको तन, मन, धन आदिसे प्रसन्न रखना, उसका पालन करना तुम्हारा खास कर्तव्य है। पर हाँ, यह याद रखना कि तुम पति हो; अतः स्त्रीकी दासतामें मत फँसना, उसका गुलाम मत बनना। जिसमें उसका हित हो, आसक्तिरहित होकर वही कार्य करो। मनुष्यमात्रका यह कर्तव्य है कि वह जीवमात्रका हित करे। तुम एक पत्नीका भी हित नहीं करोगे तो क्या करोगे ?
पुत्रवधूको समझाना चाहिये कि बेटी ! तुमने केवल पतिके लिये अपने माता-पिता, भाई-भौजाई, भतीजे आदि सबका त्याग कर दिया, अब उसको भी राजी नहीं रख सकती, उसकी भी सेवा नहीं कर सकती तो और क्या कर सकती हो। कोई समुद्र तर जाय, पर किनारेपर आकर डूब जाय तो यह कितनी शर्मकी बात है! तुमको तो एक ही व्रत निभाना है-
एकड़ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥
(मानस, अरण्य० ५.१४)
प्रश्न - ननद (लड़की) और भौजाई (बहू) आपसमें लड़ें तो माता-पिताको क्या करना चाहिये ?
उत्तर - माँ लड़कीको समझाये कि 'देखो बेटी ! यह (भौजाई) तो आजकलकी छोरी है। यह कुछ भी कह दे, तुम बड़ी समझकर इसका आदर करो। यह घरकी मालकिन है; अतः तुम मेरेसे भी बढ़कर विशेषतासे इसका आदर करो। मेरा आदर कम करोगी तो मैं जल्दी नाराज नहीं होऊँगी; क्योंकि मेरी कन्या होनेके नाते मेरे साथ तुम्हारी ममता है।'
भौजाईको चाहिये कि वह ननदका ज्यादा आदर करे; क्योंकि वह अतिथिकी तरह आयी है। वह ननदके बच्चोंको अपने बच्चोंसे भी ज्यादा प्यार करे***। बच्चे राजी होनेसे उनकी माँ भी राजी हो जाती है- यह सिद्धान्त है। इस तरह ननदको राजी रखना चाहिये। दूसरोंको राजी रखना अपने कल्याणमें कारण है।
बेटीमें मोह होनेके कारण माँ बेटीको कुछ देना चाहे तो बेटीको नहीं लेना चाहिये। बेटीको माँसे कहना चाहिये कि 'मेरी भौजाई देगी, तभी मैं लूँगी। अगर तू देगी तो भौजाईको बुरा लगेगा और वह आपसे लड़ेगी तो मैं कलह कराने यहाँ थोड़े ही आयी हूँ! माँ! तेरेसे लूँगी तो थोड़े ही दिन मिलेगा, पर भौजाईके हाथसे लूँगी तो बहुत दिनतक मिलता रहेगा। अतः त्यागदृष्टिसे, व्यवहारदृष्टिसे और स्वार्थदृष्टिसे भौजाईके हाथसे लेना ही अच्छा है।'
*** बहूको एक नम्बरमें (सबसे अधिक) ननदके बच्चोंको लाड़-प्यार करना चाहिये। ऐसे ही दूसरे नम्बरमें देवरानीके बच्चोंको, तीसरे नम्बरमें जेठानीके बच्चोंको, चौथे नम्बरमें सासके बच्चोंको और पाँचवें नम्बरमें अपने बच्चोंको लाड़-प्यार करना चाहिये।
प्रश्न - बड़ा भाई माता-पितासे लड़े तो छोटे भाइयोंका क्या कर्तव्य है?
उत्तर - छोटे भाई बड़े भाईके चरणोंमें प्रणाम करके प्रार्थना करें कि 'भाई साहब! आप ऐसा बर्ताव करोगे तो हमलोग किसको आदर्श मानेंगे? अतः आप हमलोगोंपर कृपा करके माँ-बापके साथ अच्छा-से-अच्छा बर्ताव करो। ऐसा करनेसे आपको दो प्रकारसे लाभ होगा, एक तो आपके अच्छे बर्तावका कुटुम्बपर, मोहल्लेपर अच्छा असर पड़ेगा और दूसरा, आपके आचरणोंको देखकर हमलोग भी वैसा ही आचरण करेंगे, जिसका आपको पुण्य होगा। अतः आपका आचरण आदर्श होना चाहिये। हम तो आपसे केवल प्रार्थना ही कर सकते हैं; क्योंकि आप हमारे पिताके समान हैं।'
प्रश्न - छोटे भाई माता-पितासे लड़ें तो बड़े भाईका क्या कर्तव्य है?
उत्तर - बड़ा भाई छोटे भाइयोंको समझाये कि 'देखो भाई! मैं और आप सब बालक हैं। माता-पिता हमारे लिये सर्वथा आदरणीय हैं, पूज्य हैं। जिस शरीरसे हम भगवत्प्राप्ति कर सकते हैं, वह हमें माता-पिताकी कृपासे ही मिला है। हम उनके ऋणसे कभी मुक्त नहीं हो सकते। हाँ, हम उनके अनुकूल होंगे तो उनके राजी होनेसे वह ऋण माफ हो सकता है। हम अपने चमड़ेकी जूती बनाकर माता-पिताको पहना दें तो भी उनका ऋण नहीं चुका सकते; क्योंकि वह चमड़ा आया कहाँसे ? उनकी वस्तु ही उनको दी है, हमने अपना क्या दिया? उनकी वस्तुको हम अपना मानते हैं, यही गलती है। वे हमारेको चाहे जैसा रखें, उनका हमपर पूरा अधिकार है।'
प्रश्न - बहन माता-पितासे लड़े तो भाईका क्या कर्तव्य है?
उत्तर - भाई न्याय देखे और न्यायमें भी वह बहनका पक्ष ले और माता-पितासे कहे कि यह तो अतिथिकी तरह आयी है। इसका लाड़-प्यार करना चाहिये। परंतु बहनका अन्याय हो तो बहनको एकान्तमें समझाये कि बहन ! आपसमें प्रेमकी ही महिमा है, कलहकी नहीं। माँ-बाप आदरणीय हैं। अतः तुम और हम सब माँ- बापका आदर करें। तुच्छ चीजोंके लिये उनका निरादर क्यों करें ?
प्रश्न - छोटा भाई भौजाईसे लड़े तो बड़े भाईका क्या कर्तव्य है ?
उत्तर - बड़ा भाई छोटे भाईको धमकाये कि 'तुम क्या कर रहे हो ? शास्त्रकी दृष्टिसे बड़े भाईकी स्त्री माँके समान होती है। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्नने सीताजीके साथ कैसा बर्ताव किया था; उनके चरित्रोंको बार-बार पढ़ो और मनन करो, जिससे तुम्हारे भीतर निर्मल भाव पैदा होंगे, तुम्हारी बुद्धि स्वाभाविक ही शुद्ध हो जायगी।'
प्रश्न - जेठानी और देवरानी आपसमें लड़ें तो भाइयोंको क्या करना चाहिये ?
उत्तर - वे अपनी-अपनी स्त्रीको समझायें। छोटा भाई अपनी स्त्रीको समझाये कि 'देखो ! तुम्हें मेरे बड़े भाईको पिताके समान और भौजाईको माँके समान समझकर उनका आदर करना चाहिये।' बड़ा भाई अपनी स्त्रीको समझाये कि 'तुम्हारे लिये मेरा छोटा भाई पुत्रके समान और उसकी स्त्री पुत्रीके समान है; अतः तुम्हें उनको प्यार करना चाहिये। उसकी स्त्री कुछ भी कह दे, तुम्हें उसको क्षमा कर देना चाहिये; क्योंकि तुम बड़ी हो। अगर तुम उसकी बात नहीं सहोगी तो तुम्हारा दर्जा बड़ा कैसे हुआ ? उसकी बातोंको सहनेसे, उसको प्यार करनेसे ही तो दर्जा. ऊँचा होगा! क्रोध करनेवाला अन्तमें हार जाता है और दूसरेके क्रोधको धैर्यपूर्वक सहनेवाला जीत जाता है।
दोनों भाइयोंको यह सावधानी रखनी चाहिये कि वे स्त्रियोंकी कलहको अपनेमें न लायें। स्त्रियोंमें सहनेकी शक्ति (स्वभाव) कम होती है; अतः भाइयोंको बड़ी सावधानीसे बर्ताव करना चाहिये, जिससे आपसमें खटपट न हो। अगर स्त्रियोंकी आपसमें बने ही नहीं तो अलग-अलग हो जाना चाहिये †, पर अलग-अलग भी प्रेमके लिये ही होना चाहिये। यदि अलग-अलग होकर भी आपसमें खटपट रहती है तो फिर अलग-अलग होनेसे क्या हुआ ? अतः प्रेमके लिये ही साथ रहना है और प्रेमके लिये ही अलग होना है। अलग होनेपर अपने हिस्सेके लिये कलह भी नहीं होनी चाहिये। छोटे भाईको चाहिये कि बड़ा भाई जितना दे दे, उतना ही ले ले, पर बड़े भाईको चाहिये कि वह अपनी दृष्टिसे छोटे भाईको अधिक दे; क्योंकि वह छोटा है, प्यारका पात्र है। अपनी दृष्टिसे अधिक देनेपर भी ' यदि छोटा भाई (अपनी दृष्टिसे) ठीक न माने तो बड़े भाईको छोटे भाईकी दृष्टिका ही आदर करना चाहिये, अपनी दृष्टिका नहीं।
त्याग ही बड़ी चीज है। तुच्छ चीजोंके लिये राग-द्वेष करना बड़ी भारी भूल है; क्योंकि चीजें तो यहीं रह जायँगी, पर राग-द्वेष साथमें जायँगे। इसलिये मनुष्यको हरदम सावधान रहना चाहिये और अपने अन्तःकरणको कभी मैला नहीं करना चाहिये।
† रोजानारी राड़ आपसकी आछी नहीं, बने जहाँतक बाड़ चटपट कीजै चाकरिया।
प्रश्न - पुत्र आपसमें लड़ें तो भाइयोंको क्या करना चाहिये ?
उत्तर - जहाँतक बने, अपने पुत्रका पक्ष न लें, भाईके पुत्रका पक्ष लें। यदि भाईके पुत्रका अन्याय हो तो उसको शान्तिसे समझाना चाहिये। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करें तो सबके साथ अच्छा बर्ताव होगा।
प्रश्न - माँ और पत्नी (सास और बहू) आपसमें लड़ें तो पुत्रका क्या कर्तव्य होता है?
उत्तर - ऐसी स्थितिमें पुत्रके लिये बड़ी आफत होती है! वह अगर माँका पक्ष ले तो स्त्री रोने लग जाती है और स्त्रीका पक्ष ले तो माँ दुःखी हो जाती है कि यह तो स्त्रीका हो गया, मेरा नहीं रहा ! ऐसे समयमें पुत्र तो विशेषतासे माँका ही आदर करे, माँकी ही बात रखे और स्त्रीको एकान्तमें समझाये कि 'मेरी माँके समान मेरे लिये और तेरे लिये भी पूजनीय, आदरणीय और कोई नहीं है। उसके समान हम दोनोंका हित करनेवाला और हित चाहनेवाला भी और कोई नहीं है। माँ तेरेको खरी-खोटी सुना भी दे, तो भी भीतरसे वह कभी तेरा अहित नहीं चाहती, प्रत्युत सदा हित ही चाहती है। अगर तू मेरेको राजी रखना चाहती है तो माँको राजी रख । पुत्रको चाहिये कि वह स्त्रीके वशमें होकर, उसके कहनेमें आकर किसीसे कलह, लड़ाई, द्वेष न करे। स्त्रीके कहनेमें आकर माँ, बहन आदिका तिरस्कार, अपमान कर देना बहुत बड़ा अपराध है।
माँको भी एकान्तमें समझाये कि 'माँ! यह बेचारी अपने माँ-बाप, भाई-भौजाई आदि सबको छोड़कर आयी है; अतः आप ही इसका लाड़-प्यार कर सकती हैं। इसका दुःख सुननेवाला दूसरा कौन है? यह अपने सुख-दुःखकी बात किससे कहे? आप ही इसकी माँ हैं। इसके द्वारा आपके मनके प्रतिकूल बर्ताव भी हो जाय तो भी सहन करके इसको निभाना चाहिये। हम दोनों ही इसका खयाल नहीं करेंगे तो यह कहाँ जायगी? अतः माँ! इसको क्षमा कर दें। मैंने बचपनमें कई बार आपकी गोदीमें टट्टी-पेशाब कर दिया, पर आपने मेरेको अपना ही अंग मानकर मेरेपर कभी गुस्सा नहीं किया, प्रत्युत क्षमा कर दिया और उसको मेरा अपराध माना ही नहीं। ऐसे ही इसको अपना अंग समझकर क्षमा कर दें। जैसे दाँतोंसे जीभ कट जाय तो दाँतोंके साथ वैर नहीं होता, उनपर गुस्सा नहीं आता, ऐसे ही इसके द्वारा कोई अपकार भी हो जाय तो आपको गुस्सा नहीं आना चाहिये; क्योंकि यह आपका ही अंग है। जैसे मैं आपका अंग हूँ, ऐसे ही मेरा अंग होनेसे यह भी आपका ही अंग हुआ।'
प्रश्न - पत्नी और पुत्रवधू आपसमें लड़ें तो पति (ससुर) को क्या करना चाहिये ?
उत्तर - पतिको चाहिये कि वह अपनी पत्नीको धमकाये और पुत्रवधूको आश्वासन दे कि मैं तुम्हारी सासको समझाऊँगा। अपनी पत्नीको एकान्तमें समझाये कि 'देखो ! तुम ही इसकी माँ हो। यह अपने माता-पिता, भाई-भौजाई आदि सबको छोड़कर हमारे घर आयी है। अतः तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम इसका अपनी पुत्रीकी तरह पालन करो, प्यार करो। यह अपने दुःखकी बात तुम्हारे सिवाय किसको कहेगी? अपना आधार, आश्रय किसको बनायेगी ?'
पुत्रवधूको समझाना चाहिये कि 'देख बेटी! सास जो करती है बहूके हितके लिये ही करती है। पुत्र जन्मता है, तभीसे वह आशा रखती है कि मेरी बहू आयेगी, मेरा कहना करेगी, मेरी सेवा करेगी ! ऐसी आशा रखनेवाली सास बहूका अहित कैसे कर सकती है? बचपना होनेके कारण, अपने मनके अनुकूल न होनेसे तेरेको सासकी बात बुरी लगती है। बेटी! तू अपने माँ- बाप आदि सबको छोड़कर यहाँ आयी है तो क्या एक सासको भी राजी नहीं रख सकती ! सास कितने दिनकी है? यहाँकी मालकिन तो तुम ही हो। तुम दोनोंकी लड़ाई भले आदमी सुनेंगे तो इसमें दोष (गलती) तुम्हारा ही मानेंगे; जैसे-बड़े-बूढ़े और बालक आपसमें लड़ें तो दोष बच्चोंका ही माना जाता है, बड़े- बूढ़ोंका नहीं। अतः इन सब बातोंको खयालमें रखते हुए तुम्हें अपने व्यवहारका सुधार करना चाहिये, जिससे तुम्हारा व्यवहार सासको बुरा न लगे। कभी तुमसे कटु बर्ताव हो भी जाय तो सासके पैरोंमें पड़कर, रोकर क्षमा माँग लेनी चाहिये। इसका सासपर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ेगा, जिससे तुम दोनोंकी तथा घरकी शोभा होगी, घर सुखी होगा। एक तुम्हारे बिगड़नेसे पूरा घर अशान्त हो जायगा। घरकी अशान्तिका कारण तुम क्यों बनती हो ? तुम बड़ोंकी आज्ञाका पालन करो; सुबह-शाम बड़ोंके चरणोंमें पड़ो। सास कुछ भी कह दे, उसके सामने बोलो मत। जब वह शान्त हो जाय, तब अपने मनकी बात बड़ी शान्तिसे उसको बता दो। वह माने तो ठीक, न माने तो ठीक, तुम्हारा कोई दोष नहीं रहेगा।'
प्रश्न - पिता और माता आपसमें लड़ें तो पुत्रका क्या कर्तव्य है?
उत्तर - जहाँतक बने, पुत्रको माँका पक्ष लेना चाहिये; परन्तु पिताको इस बातका पता नहीं लगना चाहिये कि यह अपनी माँका पक्ष लेता है। पितासे कहना चाहिये कि 'पिताजी ! आप हम सबके मालिक हैं। मेरी माँ कुछ भी कहेगी तो आपसे ही कहेगी। आपके सिवाय उसकी सुननेवाला कौन है? विवाहके समय आपने अग्नि और ब्राह्मणके सामने जो वचन दिये थे, उसका पालन करना चाहिये। माँ अपने दिये हुए वचन निभाती है या नहीं, इसका खयाल न करके आपको अपना ही कर्तव्य निभाना चाहिये। आप मर्यादा रखेंगे तो मेरे और मेरी माँके लोक-परलोक दोनों सुधर जायँगे, नहीं तो हम दोनों कहाँ जायँगे? आपके बिना हमारी क्या दशा होगी? मैं आपको शिक्षा नहीं दे रहा हूँ, केवल याद दिला रहा हूँ। मैं कुछ अनुचित भी कह दूँ तो आपको क्षमा कर देना चाहिये; क्योंकि आप बड़े हैं- 'क्षमा बड़नको चाहिये, छोटनको उत्पात। कहा विष्णुको घट गयो, जो भृगु मारी लात ।' भृगुने लात मारी तो विष्णुभगवान्का घटा कुछ नहीं, प्रत्युत महिमा ही बढ़ी ! अतः आप खुद सोचें। आपको मैं क्या समझाऊँ, आप खुद जानकार हैं।'
परिवारमें कलह न हो - इसके लिये प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है कि वह अपने अधिकारका त्याग करके दूसरोंके अधिकारकी रक्षा करे। प्रत्येक व्यक्ति अपना आदर और सम्मान चाहता है; अतः दूसरोंको आदर और सम्मान देना चाहिये।
प्रश्न - सास पुत्रका पक्ष लेकर तंग करे तो बहूको क्या करना चाहिये ?
उत्तर - बहूको यही समझना चाहिये कि ये तो घरके मालिक हैं। मैं तो दूसरे घरसे आयी हूँ। अतः ये कुछ भी कहें, कुछ भी करें मुझे तो वही करना है, जिससे ये राजी रहें। बहूको सासके साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिये, उससे द्वेष नहीं करना चाहिये। उसको अपने भावोंकी रक्षा करनी चाहिये, अपने भावोंको अशुद्ध नहीं होने देना चाहिये। उसको भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये कि 'हे नाथ! इनको सद्बुद्धि दो और मेरेको सहिष्णुता दो।'
प्रश्न - पति और ससुर आपसमें लड़ें तो स्त्रीको क्या करना चाहिये ?
उत्तर - स्त्रीका कर्तव्य है कि वह अपने पतिको समझाये; जैसे-'यहाँ जो कुछ है, वह सब पिताजीका ही है। आपकी माँको भी पिताजी ही लाये हैं। धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, घर, वैभव आदि सब पिताजीका ही कमाया हुआ है। अतः उनका सब तरहसे आदर करना चाहिये। उनकी बात मानना न्याय है, धर्म है और आपका कर्तव्य है। कुछ भी लिखा-पढ़ी किये बिना आप उनकी सम्पत्तिके स्वतः सिद्ध उत्तराधिकारी हैं। अतः वे कुछ भी कहें, वह सब आपको मान्य होना चाहिये। आपको शरीर, मन, वाणी आदिसे सर्वथा उनका आदर करना चाहिये। वे कभी गुस्सेमें आकर कुछ कह भी दें तो आपको यही सोचना चाहिये कि उनके समान मेरा हित करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। अतः उनका चित्त कभी नहीं दुखाना चाहिये। मैं भी कुछ अनुचित कह दूँ तो आपको मेरी परवाह न करके पिताजीकी बातका ही आदर करना चाहिये।'
प्रश्न - पति और पुत्र आपसमें लड़ें तो स्त्रीको क्या करना चाहिये ?
उत्तर - स्त्रीको तो पतिका ही पक्ष लेना चाहिये और पुत्रको समझाना चाहिये कि 'बेटा! तुम्हारे पिताजी जो कुछ कहें, जो कुछ करें, पर वास्तवमें उनके हृदयमें स्वतः तुम्हारे प्रति हितका भाव है। वे कभी तुम्हारा अहित नहीं कर सकते और दूसरा कोई तुम्हारा अहित करे तो वे सह नहीं सकते। अतः इन भावोंका खयाल रखकर तुम्हें पिताजीकी सेवामें ही तत्पर रहना चाहिये। तुम मेरा आदर भले ही कम करो, पर पिताजीका आदर ज्यादा करो। वास्तवमें हमारे मालिक तो ये ही हैं। मेरा आदर तुम कम भी करोगे तो मैं नाराज नहीं होऊँगी, पर तुम्हारे पिताजी नाराज नहीं होने चाहिये। मैं भी उनको प्रसन्न रखना चाहती हूँ और तुम्हारा भी कर्तव्य है कि उनको प्रसन्न रखो।'
प्रश्न - पत्नी और पुत्र आपसमें लड़ें तो पुरुषका क्या कर्तव्य है?
उत्तर - उसे पुत्रको समझाना चाहिये कि 'बेटा! माँको प्रसन्न रखना तुम्हारा विशेष कर्तव्य है। संसारमें जितने भी सम्बन्ध हैं, उन सबमें माँका सम्बन्ध ऊँचा है। अतः अपनी स्त्रीके वशीभूत होकर तुम्हें माँका चित्त नहीं दुखाना चाहिये।'
पत्नीसे कहना चाहिये कि 'तुमने इसको पेटमें रखा है, जन्म दिया है, अपना दूध पिलाया है। अपनी गोदमें टट्टी-पेशाब करनेपर भी तुमने इसपर कभी गुस्सा नहीं किया, प्रत्युत प्रसन्नतासे उत्साहपूर्वक कपड़े धोये। अब यह तुम्हें कुछ कड़आ भी बोल दे तो भी अपना प्यारा पुत्र मानकर इसको क्षमा कर दो; क्योंकि तुम माँ हो। पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं हो सकती-'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति'।
प्रश्न - परिवारमें प्रेम और सुख-शान्ति कैसे रहे?
उत्तर - जब मनुष्य अपने उद्देश्यको भूल जाता है, तभी सब बाधाएँ, आफतें आती हैं। अगर वह अपने उद्देश्यको जाग्रत् रखे कि चाहे जो हो जाय, मुझे अपनी आध्यात्मिक उन्नति करनी ही है, तो फिर वह सुख-दुःखको नहीं गिनता- 'मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् ॥' और अपने स्वार्थ एवं अभिमानका त्याग करनेमें उसको कोई कठिनाई भी नहीं होती। स्वार्थ और अभिमानका त्याग होनेसे व्यवहारमें कोई बाधा, अड़चन नहीं आती। व्यवहारमें, परस्पर प्रेम होनेमें बाधा तभी आती है, जब मनुष्य अपनी मूँछ रखना चाहता है, अपनी बात रखना चाहता है, अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है।
दूसरेका भला कैसे हो, उसका कल्याण कैसे हो, उसका आदर-सम्मान कैसे हो, उसको सुख-आराम कैसे मिले- यह बात जब आचरणमें आ जाती है, तब सब कुटुम्बी प्रसन्न हो जाते हैं। किसी समय कोई कुटुम्बी अप्रसन्न भी हो जाय तो उसकी अप्रसन्नता टिकेगी नहीं, स्थायी नहीं रहेगी; क्योंकि जब कभी वह अपने लिये ठीक विचार करेगा, तब उसकी समझमें आ जायगा कि मेरा हित इसी बातमें है। जैसे बालकको पढ़ाया जाय तो खेलकूदमें वृत्ति रहनेके कारण उसको पढ़ाई बुरी लगती है, पर परिणाममें उसका हित होता है। ऐसे ही कोई बात ठीक होते हुए भी किसीको बुरी लगती है तो उस समय भले ही उसकी समझमें न आये, पर भविष्यमें जरूर समझमें आयेगी। कदाचित् उसकी समझमें न भी आये तो भी हमें अपनी नीयत और आचरणपर सन्तोष होगा कि हम उसका भला चाहते हैं और हमारे भीतर एक बल रहेगा कि हमारी बात सच्ची और ठोस है।
आपसमें प्रेम रहनेसे ही परिवारमें सुख-शान्ति रहती है। प्रेम होता है अपने स्वार्थ और अभिमानके त्यागसे। जब स्वार्थ और अभिमान नहीं रहेगा, तब प्रेम नहीं होगा तो क्या होगा? दूसरा व्यक्ति अपने स्वार्थके वशीभूत होकर हमारे साथ कडुआ बर्ताव करता है तो कभी-कभी यह भाव पैदा होता है कि मैं तो इसके साथ अच्छा बर्ताव करता हूँ, फिर भी यह प्रसन्न नहीं हो रहा है, मैं क्या करूँ ? ऐसा भाव होनेमें हमारी सूक्ष्म सुख-लोलुपता ही कारण है; क्योंकि दूसरे व्यक्तिके तत्काल सुखी, प्रसन्न होनेसे एक सुख मिलता है। अतः इस सुख-लोलुपताका पता लगते ही इसका त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि हमें केवल अपना कर्तव्य निभाना है, दूसरेका आदर करना है, उसके प्रति प्रेम करना है।' हमारे भाव और आचरणका उसपर असर पड़ेगा ही। हाँ, अन्तःकरणमें कठोरता होनेके कारण उसपर असर न भी पड़े तो भी हमने अपनी तरफसे अच्छा किया- इस बातको लेकर हमें सन्तोष होगा। सन्तोष होनेसे हमारा प्रेम घटेगा नहीं और परिवारमें भी सुख-शान्ति रहेगी।