Seeker of Truth

कुछ साधनसम्बन्धी बातें

एक सज्जनने पत्रद्वारा साधनसम्बन्धी निम्नलिखित कुछ प्रश्न पूछेहैं—

(१) शुद्ध, सात्त्विक जीवन किस तरह बिताया जाय?

(२) भक्ति किस प्रकार करनी चाहिये?

(३) मन बड़ा ही चंचल है, उसे वशमें करनेका क्या उपाय है?

प्रश्न बहुत ही सुन्दर हैं। इनका उत्तर अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार नीचे दिया जाता है—

(१) सद्गुण एवं सदाचारका सेवन तथा दुर्गुण एवं दुराचारका त्याग ही शुद्ध, सात्त्विक जीवनका स्वरूप है। सद्गुण एवं सदाचार तथा दुर्गुण एवं दुराचारकी व्याख्या संक्षेपसे भगवान् ने गीताके सोलहवें अध्यायमें की है। उसीका सारांश नीचे दिया जाता है। सद्गुण एवं सदाचारको भगवान् ने दैवी सम्पदाके नामसे कहा है और दुर्गुण एवं दुराचारका आसुरी सम्पदाके नामसे उल्लेख किया है। दैवी सम्पदाका स्वरूप इस प्रकार है—

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥
तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता।
(गीता १६। १—३)

अर्थात् किसी भी कारणसे भयका न होना; अन्त:करणका भलीभाँति स्वच्छ होना; परमात्माके स्वरूपको तत्त्वसे जाननेके लिये उनके ध्यानरूपी योगमें निरन्तर दृढ़तापूर्वक स्थित रहना; देश, काल, पात्रका विचार करके केवल कर्तव्यबुद्धिसे द्रव्य अथवा आवश्यक वस्तुका दान करना; इन्द्रियोंको अपने वशमें रखना अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा निषिद्ध विषयोंका सेवन न करना और विहित भोगोंका भी उचित मात्रासे अधिक सेवन न करना, भगवान् के अथवा किसी शास्त्रोक्त देवताके साकार विग्रहकी शास्त्रोक्त विधिसे अधिकारानुसार पूजा करना तथा अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मोंका आचरण करना; वेद-शास्त्रोंके पठन-पाठनपूर्वक भगवान् के नाम और गुणोंका कीर्तन करना; स्वधर्मपालनके लिये कष्ट सहना तथा शास्त्रानुमोदित व्रत-उपवास, तीर्थाटन आदि करना; शरीर एवं इन्द्रियोंसहित अन्त:करणकी सरलता; मन, वाणी, शरीरसे किसीको किसी प्रकार भी कष्ट न देना; अन्त:करण एवं इन्द्रियोंके द्वारा जैसा निश्चय किया हो, ठीक वैसा ही प्रिय शब्दोंमें कहना; अपना बुरा करनेवालेके प्रति भी क्रोध न करना; कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका त्याग; अन्त:करणकी उपरामता अर्थात् चित्तकी चंचलताका अभाव; किसीकी निन्दा, चुगली आदि न करना; सब प्राणियोंपर हेतुरहित दया करना; इन्द्रियोंका विषयोंके साथ संयोग होनेपर भी आसक्तिका न होना; स्वभावकी कोमलता; लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरणमें लज्जा; व्यर्थ चेष्टाओंका अभाव; तेज;* क्षमा; बड़े-से-बड़ा दु:ख आनेपर भी विचलित न होना; पवित्रता; किसी भी प्राणीके प्रति वैरभाव न रखना तथा वर्ण, जाति, कुल, विद्या, रूप, धन, बल आदिका अभिमान न करना—ये दैवी सम्पत्तिके लक्षण हैं।

* श्रेष्ठ पुरुषोंकी उस शक्तिका नाम ‘तेज’ है, जिसके प्रभावसे उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृतिवाले मनुष्य भी प्राय: अन्यायाचरणसे रुककर, उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाते हैं।

इनको दैवी सम्पत्ति बतलानेसे यह बात अपने-आप आ जाती है कि इनके विरोधी जितने भी गुण एवं आचरण हैं, वे सब आसुरी सम्पदाके अन्तर्गत हैं।

इनके अतिरिक्त आसुरी सम्पत्तिके अलग लक्षण भगवान् ने इस प्रकार किये हैं—

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्॥
(गीता १६। ४)

अर्थात् दिखौआपन, घमंड, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान—ये आसुरी सम्पत्तिके लक्षण हैं। इसी अध्यायके ७ वेंसे लेकर २१ वें श्लोकतक भगवान् ने विस्तारसे आसुरी सम्पदाका वर्णन किया है।

ऊपर कहे हुए दैवी गुणोंके ग्रहण एवं आसुरी भावके त्यागपूर्वक स्वधर्मानुकूल जीवन बिताना ही शुद्ध, सात्त्विक जीवन बिताना है। इस प्रकारका जीवन ही मोक्ष अथवा भगवत्प्राप्तिमें सहायक होता है। अतएव कल्याणकी कामनावाले मनुष्यको चाहिये कि वह दैवी सम्पदाका अर्जन और आसुरी सम्पदाका त्याग करे।

(२) दूसरा प्रश्न भक्तिके सम्बन्धमें है। भक्तिकी कई प्रणालियाँशास्त्रोंमें बतलायी गयी हैं। उनमेंसे केवल दो प्रणालियोंका वर्णन हम यहाँ करेंगे।

एक प्रणाली तो वह है जिसमें भजन-ध्यान, जप-कीर्तन, पूजा-अर्चा, स्वाध्याय-सत्संग आदिकी प्रधानता है; दूसरी प्रणाली वह है जिसमें समस्त चराचर विश्वको भगवान् का रूप समझकर अपने स्वभावनियत कर्मोंके द्वारा उस विश्वरूप भगवान् की पूजा की जाती है। पहली प्रणालीका उल्लेख भगवद्गीताके और-और स्थलोंमें तो आया ही है, यहाँ हम केवल नवें अध्यायके १३ वें तथा १४ वें श्लोकोंकी ओर पाठकोंका ध्यान आकर्षित करते हैं। भगवान् कहते हैं—

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥

‘परन्तु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृतिके आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मनसे युक्त होकर निरन्तर भजते हैं। वे दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं।’

इस प्रकारकी भक्तिके लिये भगवान् ने पहली शर्त तो यह बतलायी है कि उपर्युक्त भक्तिके साधन करनेवालोंको ऊपर कही हुई दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेना चाहिये। दूसरी आवश्यकता है भगवान् को सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जाननेकी। जिस किसीकी भक्ति हम करना चाहते हैं, उसके स्वरूपको पहले जान लेना आवश्यक है। जिसकी भक्ति हम करना चाहते हैं, वह कौन है और कैसा है—इसे जाने बिना हम उसकी भक्ति क्या करेंगे? भगवान् के स्वरूपका यथार्थ ज्ञान तो उनकी भक्ति करनेसे ही होता है; परन्तु इसके पहले शास्त्रों एवं महात्माओंके द्वारा उनका सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लेना आवश्यक है। बिना उसके हम भक्तिमें प्रवृत्त ही नहीं होंगे। भगवान् की भक्तिके द्वारा यदि हम भगवान् के अविनाशी परम धाम—शाश्वत स्थानको प्राप्त करना चाहते हैं तो हमारे लिये यह जान लेना आवश्यक है कि हमारे उपास्य भी अनादि एवं अव्यय हैं। जो स्वयं आदि-अन्तवाला है, उसकी उपासना करके हम अक्षय स्थानकी प्राप्ति कैसे कर सकते हैं? इसीलिये भगवान् ने कहा है—

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥
(गीता ७। २३)

‘उन [अनादि-अनन्त भगवान् के अतिरिक्त अन्य देवताओंकी उपासना करनेवाले] अल्पबुद्धिवालोंका वह फल नाशवान् होता है; क्योंकि वे देवताओंको पूजनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जिस प्रकारसे एवं चाहे जिस भावसे मुझे भजें, अन्तमें वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’ भगवान् को छोड़कर और सभी अल्प हैं, अतएव अन्य देवताओंको भगवान् से पृथक् मानकर उनकी सकाम उपासना करनेवालोंको भगवान् ने ‘अल्पबुद्धि’ बतलाया है; किन्तु इस प्रकारसे देवताओंकी पूजा करना अशास्त्रीय नहीं है; इसीलिये भगवान् ने उक्त प्रकारसे पूजा करनेवालोंको अल्पबुद्धि बतलाया है, बुद्धिहीन अथवा मूढ़ नहीं। भगवान् की आज्ञा मानकर निष्कामभावसे जो देवताओंकी उपासना की जाती है, उसकी तो भगवान् ने बड़ी ही महिमा कही है (गीता ३। ११), किन्तु यहाँ तो सकाम उपासनाका विषय है।

तीसरी और सबसे मुख्य बात है अनन्य मनसे युक्त होकर भगवान् को निरन्तर भजना। भगवान् के लिये ही भगवान् को प्रेमपूर्वक निरन्तर भजना उन्हें अनन्य मनसे भजना है। जो लोग किसी सांसारिक कामना—स्त्री, पुत्र, धन, कीर्ति, स्वर्गसुख आदिके लिये भगवान् को भजते हैं, वे अनन्य मनसे युक्त नहीं कहे जा सकते; क्योंकि उनका मन तो भोगोंमें फँसा रहता है, भगवान् को तो वे उन भोगोंकी प्राप्तिका साधनमात्र समझते हैं। यद्यपि भोगोंके लिये भी अपनेको भजनेवालोंको भगवान् ने सुकृती एवं उदार बतलाया है (गीता ७। १६, १८) और ऊपर (गीता ७। २३)-के श्लोकमें भगवान् ने सकामभावसे भी भजनेवाले अपने भक्तोंको अन्तमें अपनी ही प्राप्ति बतलायी है, किन्तु निष्काम भक्तोंकी अपेक्षा उन्हें भगवान् देरीसे तथा कठिनतासे प्राप्त होते हैं और दूसरी बात यह है कि भगवान् ने उन्हें महात्मा नहीं बतलाया है। महात्मा तो वही हैं जिन्होंने अपने आत्मा अर्थात् मन-बुद्धिको अनन्यभावसे भगवान् में ही जोड़ दिया है अथवा जिन्होंने सबसे महान् भगवान् को ही अपना आत्मा बना लिया है। इसीलिये भगवान् ने भी ऐसे अनन्य मनवाले भक्तोंको अपना आत्मा बतलाया है—‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७। १८); क्योंकि उनका तो विरद है—

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(गीता ४। ११)

‘जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ।’ ऐसे भक्तोंके लिये ही भगवान् ने कहा है—‘मयि ते तेषु चाप्यहम्’ (गीता ९। २९) (वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ)। ऐसे भक्तोंकी भगवान् के साथ पूर्ण एकता हो जाती है, भगवान् और भक्त कहनेको ही दो होते हैं। नारदजीने भी अपने भक्तिसूत्रोंमें ऐसे भक्तोंको भगवान् का स्वरूप ही बतलाया है—‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’ (नारदभक्तिसूत्र ४१) (भगवान् और उनके जनमें कोई अन्तर नहीं है)।

अनन्य भजनका स्वरूप भगवान् ने नवें अध्यायके १४ वें श्लोकमें बतलाया है। भगवान् का अनन्य प्रेमपूर्वक नित्य-निरन्तर चिन्तन ही इसका मुख्य अंग है। इसीपर भगवान् ने स्थान-स्थानपर जोर दिया है (गीता ९। २२, ३०, ३४; १०। ९-१०; १२। ८) और इसीसे भगवान् ने अपनी प्राप्ति सुलभ बतलायी है (गीता ८।१४)। भगवान् का नाम-गुण-कीर्तन अनन्य चिन्तनमें विशेष सहायक है, अतएव उसका भी यहाँ प्रधानरूपसे उल्लेख किया गया है।

भक्तिकी दूसरी प्रणालीका वर्णन भगवान् ने अठारहवें अध्यायके ४६वें श्लोकमें किया है। भगवान् कहते हैं—

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥

‘जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।’

अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा भगवान् की पूजा करना क्या है—यहाँ इस बातको समझ लेना आवश्यक है; क्योंकि यद्यपि यहाँ कर्मके द्वारा ही भगवान् को पूजनेकी बात कही गयी है, किन्तु प्रधानता यहाँ भगवान् के पूजनकी है, कर्मकी नहीं; क्योंकि अपना-अपना कर्म तो संसारमें बहुत लोग करते हैं, परन्तु सबको सिद्धि तो मिलती हुई नहीं देखी जाती। इसीलिये ऐसा मानना पड़ता है कि यहाँ केवल कर्म करनेकी बात नहीं है, कर्मके द्वारा भगवान् को पूजनेकी बात कही गयी है। कहनेको तो सभी कर्मवादी ऐसा कह सकते हैं कि ‘कर्म ही भगवान् की पूजा है’ (Work is Worship); एकान्तमें बैठकर राम-राम कहने, भगवान् का ध्यान करने अथवा सामूहिक कीर्तन करनेकी अपेक्षा जनतारूपी जनार्दनकी सेवा करना कहीं उत्तम है—उससे भगवान् जल्दी प्रसन्न होते हैं, जल्दी मिलते हैं, इत्यादि। हम भी लोकसेवाका विरोध नहीं करते और लोकसेवाको भगवान् को प्रसन्न करनेका बहुत उत्तम साधन मानते हैं; परन्तु बात इतनी ही है कि होनी चाहिये वह भगवान् को प्रसन्न करनेके ही उद्देश्यसे, किसी लौकिक कामनाके लिये नहीं। हमारे द्वारा सेवा होनी चाहिये वास्तवमें जनतारूपी जनार्दनकी ही, अपने किसी स्वार्थकी नहीं—चाहे वह सेवा व्यक्तिविशेषकी हो अथवा किसी समुदायविशेषकी।

यहाँ एक बात और समझ लेनेकी है। कुछ लोग यह कहते हैं कि विश्वप्रेम ही ईश्वरप्रेम है, विश्वसे भिन्न और कोई ईश्वर नहीं है। इसलिये उपर्युक्त श्लोकका आशय समझनेके लिये यह जान लेना आवश्यक है कि यहाँ कर्मोंके द्वारा जिन ईश्वरको पूजनेकी बात कही गयी है, उनका वास्तविक स्वरूप क्या है—वे विश्वमें ओतप्रोत हैं या विश्वसे अतीत हैं अथवा दोनों ही हैं। इसका उत्तर यह है कि ईश्वर अनन्त और असीम हैं, चराचर विश्व ईश्वरके एक अंशमें उनके संकल्पके आधारपर स्थित है। ईश्वर अपनी योगमायाके प्रभावसे विश्वकी रचना और उसका विनाश करते हैं। उन अनन्त विज्ञानानन्दघन परमात्माके किसी अंशमें प्रकृति या माया है और उस मायाके किसी अंशमें यह समस्त चराचर विश्व है। इस अवस्थामें ईश्वरके प्रति किया जानेवाला प्रेम स्वाभाविक ही समस्त विश्वके प्रति हो जाता है; क्योंकि ईश्वर ही विश्वके आधार हैं, ईश्वर ही विश्वके आत्मा हैं, ईश्वर ही विश्वमें व्याप्त हैं और ईश्वर ही विश्वके एकमात्र (अभिन्ननिमित्तोपादान) कारण हैं; वे अंशी हैं और यह समस्त विश्व उनका अंश है या यों कहिये कि उनका अंग है। श्रीभगवान् ने गीतामें अर्जुनसे कहा है—

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
(१०। ४२)

‘मैं इस सम्पूर्ण जगत् को (अपनी योगशक्तिके) एक अंशमात्रसे धारण करके स्थित हूँ।’

भगवान् के उपर्युक्त वचनका अभिप्राय समझ लेनेपर यह निश्चय हो जाता है कि यह समस्त जगत् भगवान् के एक अंशमें स्थित है, भगवान् ही इस जगत् के रूपमें अभिव्यक्त हो रहे हैं; ऐसी स्थितिमें भगवत्प्रेमीका स्वाभाविक ही जगत् के साथ अकृत्रिम प्रेम होता है। परन्तु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि केवल विश्वप्रेम ही ईश्वरप्रेम है; क्योंकि विश्वके परे भी परमात्माका स्वरूप अनन्त और अपार है, बल्कि हम यों कह सकते हैं कि विश्व उस परमात्माके एक अंशमें होनेके नाते विश्वप्रेम भी ईश्वरप्रेमके ही अन्तर्गत है। वस्तुत: विश्वसहित समग्र परमात्माके साथ होनेवाला प्रेम ही ईश्वरप्रेम है।

भगवान् ने १८ वें अध्यायके ४६ वें श्लोकमें ईश्वरके उपर्युक्त स्वरूपको लक्ष्यमें रखते हुए ही अपने कर्मोंके द्वारा उन्हें पूजनेकी बात कही है। अब हमें यह देखना है कि किस प्रकार कर्म करनेसे हमारे द्वारा उन ईश्वरकी पूजा हो सकती है। हमारा कर्म भगवान् की पूजा तभी कहला सकता है जब उसमें दो बातें प्रधानरूपसे हों। पहली बात तो यह है कि उसमें ममता, आसक्ति एवं फलेच्छाका त्याग होना चाहिये। इनमेंसे सबसे स्थूल बात फलेच्छाका त्याग है और उसकी पहचान है सिद्धि-असिद्धिमें समता। यदि हमें अपनी सफलतापर हर्ष एवं असफलतापर विषाद होता है तो हमने उस कर्मके द्वारा भगवान् की पूजा की है, यह नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि प्रत्येक कर्म करते समय हमें इस बातका स्मरण होना चाहिये कि हम इस कर्मके द्वारा भगवान् की पूजा कर रहे हैं और जिसकी हम सेवा कर रहे हैं, वह भगवान् का ही स्वरूप है। उदाहरणत: अध्यापकको यह समझना चाहिये कि विद्यार्थीरूपमें भगवान् ही हमारी सेवाको ग्रहण कर रहे हैं। डॉक्टर यह समझे कि रोगीके रूपमें भगवान् ही हमसे चिकित्सा करवा रहे हैं। वकील यह समझे कि मुवक्किलके रूपमें भगवान् ही हमसे अपने मुकद्दमेकी पैरवी करवा रहे हैं। दूकानदार यह समझे कि ग्राहकके रूपमें भगवान् ही हमारे यहाँ सौदा लेने आये हैं। न्यायाधीश यह समझे कि वादी-प्रतिवादीके रूपमें भगवान् ही हमसे न्याय कराने आये हैं। सेवक यह समझे कि मालिकके रूपमें साक्षात् भगवान् ही हमारे सेव्य बने हुए हैं। माता-पिता यह समझें कि सन्तानके रूपमें भगवान् ही हमारी सेवा स्वीकार कर रहे हैं। स्त्री यह समझे कि पतिके रूपमें भगवान् ही हमारी सेवा स्वीकार कर रहे हैं। राजा यह समझे कि प्रजाके रूपमें भगवान् ही हमारी सेवा ग्रहण कर रहे हैं। ऐसा भाव होनेपर हमारे द्वारा न तो किसीके प्रति अन्याय होगा, न किसीके साथ दुर्व्यवहार होगा, न किसीको ठगने, लूटने, धोखा देने अथवा किसीसे अनुचित लाभ उठानेकी चेष्टा होगी और व्यवहारमें ऊँच-नीचका बर्ताव होनेपर भी हमारे हृदयमें किसीके प्रति ऊँच-नीचका भाव नहीं होगा; क्योंकि जिनसे भी हमारा व्यवहार होगा उनके प्रति हमारी भगवद्बुद्धि होगी। अत: सभीको हृदयमें उपर्युक्त भाव रखते हुए ही सबके साथ अपने-अपने वर्णाश्रमानुसार व्यवहार करना चाहिये।

फिर हमारे द्वारा सारी चेष्टाएँ अभिनयवत् होंगी। नाटकमें कम्पनीका मालिक यदि नौकरका पार्ट करता है और उसका एक अदना-सा कर्मचारी राजा बनता है तो वह राजा बना हुआ कर्मचारी जबतक रंगमंचपर रहेगा तबतक उस नौकर बने हुए अपने मालिकके साथ वह नौकरका-सा ही व्यवहार करेगा, उसमें कहीं भी त्रुटि नहीं आने देगा; क्योंकि वह जानता है कि यदि मैं अपना पार्ट ठीक नहीं करूँगा तो मेरा मालिक मुझपर प्रसन्न नहीं होगा। किन्तु मनमें वह एक क्षणके लिये भी इस बातको नहीं भूलता कि नौकरके वेषमें मेरे मालिक ही मेरे सामने हैं। अत: यद्यपि वह ऊपरसे उन्हें डाँटे-डपटेगा, उनका शासन करेगा, किन्तु भीतरसे सदा सावधान रहेगा कि जिनके साथ मैं आवश्यकतावश उन्हींके आज्ञानुसार इस प्रकारका व्यवहार कर रहा हूँ, वास्तवमें वे मेरे मालिक हैं, वे मेरी प्रत्येक क्रियाकी जाँच कर रहे हैं कि मैं कौन-सा पार्ट ठीक कर रहा हूँ, कौन-सा बेठीक कर रहा हूँ, इत्यादि। इसी प्रकार भगवान् की पूजा-बुद्धिसे कर्म करनेवाला व्यवहारमें सबके साथ अपने अधिकारके अनुसार बर्ताव करता हुआ भी भीतर सजग रहेगा कि इन सब रूपोंमें वह मायावी ही खेल कर रहा है। पिताके साथ पुत्र-जैसा, स्त्रीके साथ पतिके अनुरूप, शिष्यके साथ अध्यापकके समान और सेवकके साथ स्वामीके सदृश बर्ताव करता हुआ भी वह उन सब रूपोंमें अपने इष्टदेवको ही देखेगा। पहले इसके लिये अभ्यास करना होगा। अभ्यास करते-करते फिर ऐसी बात स्वाभाविक हो सकती है। परन्तु दिनभर ऐसा अभ्यास करनेके लिये प्रतिदिन कुछ समय एकान्तमें भजन-ध्यान, स्वाध्याय-सत्संगके लिये भी निकालनेकी आवश्यकता है; अन्यथा भगवान् सब जगह सब रूपोंमें हैं, यह बात हमें याद ही नहीं आवेगी और हम केवल कर्मके प्रवाहमें बहते रहेंगे। अत: भक्तिके मार्गपर चलनेवालेको दोनों ही प्रकारके साधन करनेकी आवश्यकता है। श्रद्धा-विश्वासपूर्वक एवं तत्परताके साथ निरन्तर उक्त दोनों प्रकारका साधन करते रहनेसे बहुत शीघ्र भगवान् में सच्चा प्रेम होकर उनकी प्राप्ति हो सकती है। भगवान् वास्तवमें कैसे हैं इसका पता भी तभी लगेगा।

इस प्रकारकी भक्तिसे भगवान् के सगुण-साकार रूपका दर्शन, उसके समग्र रूपका ज्ञान तथा उसकी यथार्थरूपमें प्राप्ति—सभी कुछ सम्भव है। भगवान् ने स्वयं कहा है—

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
(गीता ११। ५४)

‘हे परंतप अर्जुन! अनन्यभक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।’

(३) तीसरे प्रश्नमें प्रश्नकर्ताने मनको चंचल बतलाते हुए उसको वशमें करनेके उपाय पूछे हैं। मन बड़ा चंचल है, इसको सभी एकमतसे स्वीकार करते हैं और सबका अनुभव भी इसमें साक्षी है। गीतामें अर्जुनने भी मनको चंचल एवं बलवान् कहा है और उसका निग्रह दु:साध्य बतलाया है (६। ३४)। इतना ही नहीं, भगवान् ने भी उनके इस कथनका विरोध नहीं किया, अपितु समर्थन ही किया (६। ३५)। इससे यह तो स्पष्ट है कि मन वास्तवमें बड़ा चंचल एवं दुर्जेय है; परन्तु उसे निगृहीत करनेके उपाय भी शास्त्रोंमें अनेक बतलाये हैं। योगदर्शनमें तो प्रधानतया चित्तवृत्तिके निरोधकी ही बात कही गयी है; क्योंकि योगदर्शनकारने योगका लक्षण ही चित्तवृत्तिका निरोध बतलाया है—‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ (१। २)। अत: इस सम्बन्धमें हम पहले योगदर्शनकी ही कुछ बातें कहेंगे।

चित्तवृत्तिके निरोधके लिये पहला उपाय योगदर्शनकारने अभ्यास और वैराग्य बतलाया है—‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:’ (१।१२)। अभ्यास किसे कहते हैं, इस सम्बन्धमें महर्षि पतंजलिका सूत्र है—

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास:॥
(१।१३)

‘इन (अभ्यास और वैराग्य)-मेंसे चित्तको ठहरानेके लिये जो साधन किया जाता है, उसीका नाम ‘अभ्यास’ है।’

दूसरे शब्दोंमें चित्तको स्थिर करनेके लिये बार-बार उसे किसी एक विषयपर टिकानेका प्रयत्न करना ही ‘अभ्यास’ है।

वैराग्यका लक्षण महर्षि पतंजलि इस प्रकार करते हैं—

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्॥
(१। १५)

अर्थात् ‘कांचन, कामिनी आदि दृष्ट विषयोंमें तथा श्रुतियोंमें कहे हुए स्वर्गादि अदृष्ट विषयोंमें तृष्णारहित वशमें किये हुए चित्तकी रागरहित स्थितिका नाम ही ‘वैराग्य’ है।’

उपर्युक्त दोनों ही साधन चित्तवृत्तिके निरोधके लिये उपयोगी हैं एवं एक-दूसरेके सहायक हैं, इस बातको भाष्यकार व्यासजीने बड़े सुन्दर ढंगसे समझाया है। उन्होंने चित्तको एक नदीकी उपमा दी है, जो दो धाराओंमें बहती है। उसकी एक धारा कल्याणकी ओर बहती है तथा दूसरी धारा पापोंकी ओर बहती है ‘चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च’ (योग० १२ व्यासभाष्य)। विवेक मार्गका अनुसरण करनेवाली धारा कल्याणकी ओर बहती है और अविवेकके मार्गसे चलनेवाली धारा पापोंकी ओर बहती है। वैराग्यका बाँध लगा देनेपर अविवेक अर्थात् विषयोंके मार्गसे बहनेवाली धारा रुक जाती है ‘वैराग्येण विषयस्रोत: खिलीक्रियते’ (योग० १२ व्यासभाष्य) और विवेकपूर्वक अभ्यास करते रहनेसे उसका विवेक-मार्ग खुल जाता है। इस प्रकार एक ओरसे चित्तरूपी नदीका प्रवाह रोक देनेसे तथा दूसरी ओर उसे खोल देनेसे ही चित्तवृत्तिका निरोध हो सकता है, ऐसा भाष्यकारका तात्पर्य है। अस्तु,

चित्तवृत्तिके निरोधका दूसरा उपाय महर्षि पतंजलिने ‘ईश्वरप्रणिधान’ बतलाया है—‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’ (१।२३)। ‘ईश्वरप्रणिधान’ कहते हैं— ईश्वरकी भक्तिको। महर्षि पतंजलिके मतमें ईश्वर उस पुरुषविशेषका नाम है जिसका अविद्यादि पंचक्लेश*, शुभाशुभ कर्म तथा उनके फल एवं वासनाओंसे सम्बन्ध नहीं है। उपर्युक्त लक्षणवाले ईश्वरके नाम—ओंकारका जप तथा उनके स्वरूपका बार-बार चिन्तन करना ही ईश्वरप्रणिधान है। ऐसा करनेसे सारे विघ्नोंका अभाव होकर परमात्माके स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता है।

* अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्युभय)—इनको महर्षि पतंजलिने पंचक्लेशके नामसे कहा है।

इनके अतिरिक्त चित्तवृत्तिके निरोधका एक और उपाय महर्षि पतंजलिने बतलाया है। वे कहते हैं—

‘प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य॥’
(१। ३४)

श्वासको विशेष प्रयत्नपूर्वक नासिकामार्गसे बाहर निकालनेका नाम है ‘प्रच्छर्दन’ और उसे बाहर ही रोक रखना ‘विधारण’ कहलाता है। इस उपायसे भी मनको रोका जा सकता है।

जिनसे उपर्युक्त साधनोंमेंसे कोई भी न बन सके, उनके लिये महर्षि पतंजलिने एक और सुगम उपाय बतलाया है—वह है वैराग्यवान् पुरुषोंका ध्यान। ‘वीतरागविषयं वा चित्तम्’ (१।३७)। अर्थात् वीतराग पुरुषोंको विषय करनेवाला चित्त स्थिर हो जाता है। इसपर यह प्रश्न हो सकता है कि पूर्वकालमें जो वैराग्यवान् पुरुष हो गये हैं, उनके स्वरूपको तो हम जानते नहीं; फिर उनका ध्यान किस प्रकार करें और वर्तमान युगमें जो वीतराग पुरुष हैं उन्हें हम पहचानते नहीं, अत: उनका भी ध्यान सम्भव नहीं है। इसपर महर्षि पतंजलि कहते हैं कि जो कोई भी पुरुष तुम्हारी दृष्टिमें वीतराग हो, जिसके प्रति तुम्हारी श्रद्धा एवं पूज्यबुद्धि हो, उसीका ध्यान कर सकते हो— ‘यथाभिमतध्यानाद्वा’ (१।३९); उसके ध्यानसे ही तुम्हारी चित्तवृत्तिका निरोध हो सकता है। इसी प्रकार मनके निरोध करनेकी और भी कई युक्तियाँ योगदर्शन तथा अन्यान्य शास्त्रोंमें पूज्यपाद ऋषियोंने बतलायी हैं।

गीतामें मनको निगृहीत करनेके दो ही प्रधान उपाय भगवान् श्रीकृष्णने बतलाये हैं—अभ्यास और वैराग्य (६। ३५)। इनमेंसे अभ्यास कई प्रकारसे हो सकता है। योगदर्शनमें तो ईश्वरप्रणिधान आदि सब साधनोंको अभ्याससे पृथक् माना है और अभ्यासको इन सबसे स्वतन्त्र साधन माना है; परन्तु भगवद्गीतामें ‘अभ्यास’ शब्दका व्यापक अर्थमें प्रयोग हुआ है। किसी भी क्रियाकी पुन:-पुन: आवृत्तिको अभ्यास कहते हैं; ऊपर कहे हुए सभी साधन अभ्यासके अन्तर्गत आ सकते हैं। भगवद्गीतामें अभ्यास और वैराग्यके कई प्रकार बतलाये गये हैं। उनमेंसे कुछ गीता-तत्त्वांकके अ० ६। ३५ की व्याख्यामें तथा केवल अभ्यासके कई प्रकार अ० १२। ९ की व्याख्यामें दिये गये हैं, उन्हें वहीं देखना चाहिये। उनमें सबसे प्रधान साधन जिस-जिस कारणसे मन भागता है उस-उस कारणसे मनको हटाकर बार-बार परमात्मामें लगाना है (देखिये गीता ६। २६)।

इनके अतिरिक्त कुछ और साधन नीचे दिये जाते हैं—

(१) रात्रिके समय सोनेसे पूर्व या कुछ रात्रि शेष रहते ही जागकर जब आलस्य बिलकुल न आता हो, नेत्रों और कानोंको उँगलीसे बंद करके भीतर होनेवाली अनहद ध्वनिको सुने और उसमें अपने इष्टदेवके नामकी भावना करे। नाम बहुत छोटा—दो ही अक्षरोंका होना चाहिये—जैसे ओम्, राम, शिव, हरि, विष्णु, कृष्ण इत्यादि। पहले रेलके इंजनका-सा शब्द सुनायी देगा, फिर घड़ीका-सा खटका सुनायी देगा और तब धीरे-धीरे जिस नामकी हम भावना करते हैं वह नाम हमें स्पष्टरूपसे सुनायी पड़ने लगेगा और उसमें हमारा मन टिक जायगा।

(२) कलेजेके भीतर हृदयाकाशमें जो एक नाड़ी है, जिसे सुषुम्णा कहते हैं, उसके अंदर सब भूतोंके हृदयदेशमें स्थित परमात्माके विज्ञानानन्दघन स्वरूपका ध्यान करे। ऐसा समझे कि वहाँ चेतनता एवं आनन्दका पुंज एकत्रित हो रहा है। चेतनता उस गुणका नाम है जिसके कारण हम जड पदार्थोंसे चेतन जीवका और मुर्दे प्राणीसे जीवित प्राणीका भेद करते हैं। अथवा शुद्ध आनन्दका या केवल चेतनताका ध्यान करनेसे भी चित्त स्थिर हो जाता है।

(३) भ्रुकुटीके मध्यमें स्थित आज्ञाचक्रमें पूर्णिमाके चन्द्रमाके प्रकाशकी भाँति शीतल एवं सौम्य प्रकाशके रूपमें परमात्माका ध्यान करनेसे भी मनका निग्रह हो सकता है।

(४) श्वास एवं प्रश्वासकी स्वाभाविक गतिके साथ भगवान् के किसी नामको जोड़कर साक्षीरूपसे उसका श्रवण करनेका अभ्यास भी मनको निगृहीत करनेमें सहायक है।

(५) परमात्माके स्वरूपके सम्बन्धमें जो कुछ हमने पढ़-सुन रखा है, उसीका मननपूर्वक विचार करनेपर बुद्धिके द्वारा उसका जो रूप हमारी समझमें आवे उसीमें ध्यान लगानेसे मनका निरोध हो सकता है।

(६) भगवान् के श्रीराम, कृष्ण, शिव, विष्णु, सूर्य, शक्ति या विश्वरूप आदि किसी भी स्वरूपको सर्वोपरि, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् एवं परम दयालु, प्रेमास्पद परमात्माका ही स्वरूप समझकर अपनी रुचिके अनुसार उनके चित्रपट या प्रतिमाकी स्थापना करके अथवा मनके द्वारा हृदयमें या बाहर उनको प्रत्यक्षके सदृश निश्चय करके अतिशय श्रद्धा और भक्तिके साथ निरन्तर उनमें मन लगाने तथा पत्र-पुष्प-फलादिके द्वारा अथवा अन्यान्य उचित प्रकारोंसे उनकी सेवा-पूजा करनेसे भी बहुत शीघ्र मन स्थिर हो सकता है।

इनके अतिरिक्त निम्नलिखित उपाय भी मनको निगृहीत करनेमें बहुत सहायक हो सकते हैं—

(१) नियमानुवर्तिताका पालन करना, सारे कार्य नियमित रूपसे करना।

(२) मनकी प्रत्येक चेष्टापर विचार करते हुए उसे बुरे चिन्तनसे बचाना।

(३) मनके कहनेके अनुसार न चलना।

(४) मनको सदा शुभकार्यमें लगाये रखना।

(५) अनन्य मनसे भगवान् के शरण हो जाना।

(६) मनसे अलग होकर उसके कार्योंका निरीक्षण करना।

(७) प्रेमपूर्वक भगवन्नामका कीर्तन करना।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur